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वाइरस : जीवन की उत्पत्ति में इनका स्थान क्या हैं (Viruses : Their Position in Origin of Life)

हम इस पोस्ट में वाइरस क्या होता है,वाइरस का आकृति एवं माप ,वाइरस का इतिहास,वाइरस की रचना ,वाइरस का जनन एवं जीवन-चक्र,वाइरसों के सजीवों जैसे लक्षण,वाइरसों के निर्जीव होने के लक्षण तथा विकास क्रम में वाइरस का स्थान के बारे में विस्तार से जानेंगे



वाइरस(VIRUS)



पृथ्वी पर, अतिसूक्ष्म नग्न कणों (ultramicroscopic particles or "microbes") के रुप में असंख्य विषाणु (virus= poison) अर्थात् वाइरस पाये जाते हैं। ये सामान्य प्रकाश सुक्ष्मदर्शी से भी दिखायी नहीं देते। इन्हें वैज्ञानिक इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शिता (electron microscopy) आविष्कार (नोल एवं रुस्का-Knoll and Ruska1932-1973) एवं विकास (हिलियर-Hillier 1940–1946) के बाद ही देख पाये थे । अजीव एवं सजीव पदार्थ के तुलनात्मक अध्ययन में इनका विशेष महत्त्वहोता है, क्योंकि इनमें दोनों के लक्षण होते हैं। ये जीवों में घातक रोग उत्पन्न करते हैं। आनुवंशिकी (genetics) को कई मौलिक समस्याओं के समाधान के लिए वैज्ञानिकों ने इनका विस्तृत उपयोग किया है। इनका अध्ययन जीव-विज्ञान की एक पृथक् शाखा, विषाणु-विज्ञान (Virology), के अन्तर्गत किया जाता है। 

वाइरस का आकृति एवं माप (Shape and size  of virus)
माप में वाइरस जीवाणुओं (bacteria) से भी छोटे, औसतन केवल 10 mm से 350 mu मिलीमाइक्रॉन (mill micron) = 0000001 मिमी] होते हैं। अतः ये पोर्सलेन (porcelain) और के सूक्ष्मतम् छिद्रों में से निकल जाते हैं। शूकज्वर (parrot fever) का वाइरस सबसे बड़ा और पालतू पशुओं के पैर एवं मुख रोग का सबसे छोटा होता है। आकृति में वाइरस सूत्रनुमा, गोल, घनाकार (cuboidal), बहुतलीय (polyhedral) या टैडपोल जैसे होते हैं। 
प्रत्येक वाइरस में केवल प्रोटीन खोल में बन्द एक न्यूक्लीक अम्ल (DNA या RNA-दोनों कभी नही )

वाइरस का इतिहास (History of virus)

मानव-जाति को रोगमुक्त करने की लालसा ने 18वीं और 19वीं सदियों के कई वैज्ञानिकों को जीवाणुओं (bacteria) की खोज के लिये प्रेरित किया। इसी समय वैज्ञानिकों को पता चला कि अनेक रोग जीवाणुओं से भी अधिक छोटे “जीवों द्वारा उत्पन्न होते हैं। वाइरस की प्रथम खोज का श्रेय रूसी वनस्पतिज्ञ इवानोवस्की (Ivanov sky) को है। सन् 1892 में तम्बाकू की पत्ती में मोजैक रोग (mosaic disease) के कारण की खोज करते समय इन्हें पता चला कि यह रोग जीवाणुओं से भी छोटे परजीवियों (parasites) द्वारा उत्पन्न होता है। इस रोग में पत्तियाँ चितकबरी होकर मुझ जाती हैं। इवानोवस्की ने रोगीली पत्तियों के रस को छानकर जीवाणु पृथक् कर दिये । छने रस में वे वाइरस को तो नहीं देख पाये, परन्तु जब उन्होंने इसे स्वस्थ पत्तियों पर मला तो पत्तियाँ रोगग्रस्त हो गयीं। बीजेरिक (Bejerinck. 1898) ल्योफला व फ्रोश Loffler and Frosch. 1898) आदि ने पादपों एवं जन्तुओं में इसी प्रकार के अनेक रोगों का पता लगाकर इवानोवस्की की खोज की पुष्टि की । लुई पाश्चर(Lus Pasteur) एवं बीजेर्रिक ने ही इन्हें जीवित तरल संक्रामक (contagrum vivum fludum = virus)का नाम दिया। वर्तमान सदी में फिर वाइरसों के बारे में हमारे ज्ञान में अभूतपूर्व प्रगति हुई । मानव के वाइरस-जन्य रोगों में सबसे पहले पीतज्वर (yellow fever) का पता लगा। इसके वाइरस को मच्छर फैलाते हैं। आज हमें ज्ञात हो चुका है कि मनुष्य में जुकाम (common cold), इन्फ्लुएन्जा (Influenza), चेचक (Smallpox), खसरा (Measles), गलसुआ (Mumps), पोलियो (Poliomyelitis), अलर्क रोग (Rabies of Hydrophobia), AIDS आदि अनेक महत्त्वपूर्ण रोगों को वाइरस ही उत्पन्न करते हैं। मनुष्य में तो नहीं, परन्तु कई प्रकार के जन्तुओं में कुछ वाइरस कैंसर (cancer) रोग भी उत्पन्न करते हैं। इस तथ्य की खोज राउस (Francis Peyton Rous, 1911) ने की। मानव के संक्रमण रोगों (infectious diseases) में से अनुमानत तीन-चौथाई वाइरसों द्वारा ही उत्पन्न होते हैं। प्रत्येक वाइरस को इसके द्वारा उत्पन्न रोग पर ही आधारित नाम देते हैं जैसे तम्बाकू मोजैक वाइरस (Tobacco Mosaic Virus) सन् 1981 में वैज्ञानिकों को मानव के एक अन्य वाइरस-जन्य भयंकर रोग का पता चला है (इस रोग को उपार्जित प्रतिरक्षा अपूर्णता संलक्षण (acquired immune deficiency.syndrome-AIDS) का रोग कहा जाता है। यह आप्राकृतिक सम्भोग समलिंगी सम्भोग (hormosexuality), नशीली दवाओं के अधिक उपयोग के कारण होता है। इसके वाइरस की खोज सन् 1983 में हुई। इस वाइरस को सन् 1986 में मानव प्रति अपूर्णता वाइरस (Human Immunodcficiency Virus-HIV or HTLV) का नाम दिया गया अग्रेज वैज्ञानिक ट्वार्ट (Twort, 1915) तथा फ्रासीसी वैज्ञानिक डी हेरिल (D Herelle, 19) एक बहुत ही रोचक वाइरस-बैक्टीरियोफेज (Bacteriophage)—का पता लगाया जो संग्रहणी रोग पीड़ित मनुष्य की आँत में पाये जाने वाले बैक्टीरिया-ईस्केराइकिया कोलाई (Escherichia coli) राइबोन्यूबल परजीवी होता है। यद्यपि वर्तमान सदी के प्रारम्भ में ही कई प्रकार के वाइरसों का पता लग चुका था, लेकिन नोबेल पुरुदाहरणार्थ विजेता (1946) अमेरिकी वैज्ञानिक स्टैनले (W.M Stanley), सन् 1935 में, कई प्रयासों के बाद पहलं बोल के = तम्बाकू के मोजैक वाइरस  को क्रिस्टलों के रूप में पृथक् करने में सफल हुए । इस इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी की सहायता से देखा गया कि यह वाइरस 300mgu (=3000 A) लम्बी सूक्ष्म छड़ों के में होता है। बाद में सूक्ष्म गोलियों (spheres) के रूप में पोलियो वाइरस देखा गया। बैक्टीरियोफेज वा की आकृति छोटे भेकशिशु (tadpole) जैसी होती है।


A.वाइरस से प्रभावित तम्बाकू की पत्ती

वाइरस की रचना (Structure of virus)
आधुनिक विधियों से बाँडेन (Bowden, 1936), डालिंगटन (Darlington, 1944) आदि कई वैज्ञानिकों ने वाइरसों की रचना का अध्ययन किया है। ये कोशाओं के समान नहीं, वरन् निष्क्रिय कणों के रूप में होते हैं जिन्हें 'विरिऑन (Virion)” कहते हैं । प्रत्येक कण में, भीतर एक DNA या RNA का कुण्डलित सूत्र है और इसके चारों ओर प्रोटीन का मोटा, रक्षात्मक खोल । खोल को कैप्सिड (capsid) कहते हैं  यह विरिऑन का लगभग 94% भाग और न्यूक्लीक अम्ल 6% भाग बनाता है। कैप्सिड प्रायः एक बहुतलीय की (head) और सँकरी, बेलनाकार या शंक्वाकार पूँछ (tail) में विभेदित होता है। किसी-किसी वाइरस में पूँछ छोर पर छोर-प्लेट (end-plate) होती है जिससे 6 पुच्छ तन्तु (tail fibres) लगे रहते हैं  राजयोन्यूक्लीक अम्ल (nibonucleic acid RNA) या डीऑक्सीराइबोन्यूक्लीक अम्ल (deoxyribo- nucleic acid DNA) का सूत्र इकहरा (single-stranded) या दोहरा (double-stranded) होता है।

उदाहरणार्थ HIV सहित, मानव के अधिकाश रोगों के बाहरसों में RNA का इकहरा सूत्र होता है। कुछ में प्रोटीन खोल के बाहर प्रोटीन एवं लिपिड (वसा) पदार्थ का बना एक महीन आवरण (envelope) भी होता है।

B.तम्बाकू मोजैक वाइस
 A.तम्बाकू के मोजैक वाइरस का एक भाग

वाइरस का जनन एवं जीवन-चक्र( Life cycle of virus)

वाइरसों में उपापचयी (metabolic) एन्जाइम नहीं होते। अतः इनमें उपापचय नहीं होता।  इसीलिए,स्वतन्त्र वाइरस न्यूक्लिओप्रोटीन का बना एक निर्जीव कणमात्र होता है। हाँ अधिकाश वाइरसों के खोल में न्यूरैमिनिडेज (neuraminidasc) या अन्य ऐसे एन्जाइम होते हैं जो सजीव कोशाओं की कोशाकला को गला सकते हैं (lytic) । किसी उपयुक्त सजीव कोशा के सम्पर्क में आते ही वाइरस इससे चिपक जाता है। फिर यह अपने खोल के एन्जाइमों द्वारा पोषद कोशा की कला के सम्पर्क भाग को गला देता है। अब वाइरस का न्यूक्लीक अम्ल सूत्र तो पोषद कोशा में चला जाता है और प्रोटीन खोल बाहर रह जाता है  कुछ वाइरस पोषद कोशा की कला को गलाकर नहीं, वरन् इससे समेकित होकर या फिर फैगोसाइटोसिस (phagocytosis) द्वारा इसमें अपना न्यूक्लीक अम्ल सूत्र पहुँचाते हैं। पोषद कोशा में पहुँचकर न्यूक्लीक अम्ल का सूत्र कोशा के पूरे उपापचय पर ऐसा नियन्त्रण कर लेता है कि कोशा में बारम्बार द्विगुणन द्वारा केवल इसी सूत्र का तोत्र गुणन (multiplication) होने लगता है। अत पोषद कोशा में बहुत शीघ्र इसी प्रकार के हजारों सूत्र बन जाते हैं। अन्न में प्रत्येक सूत्र के चारों ओर प्रोटीन खोल भी बन जाता है। फिर पोषद कोशा में, वाइरस के जीन्स के ही नियन्त्रण में, एक ऐसे एन्जाइम, लाइसोजाइम (lysozyme), का संश्लेषण होता है जो पोषद कोशा की कला को है। अत: नवीन वाइरस कण मुक्त होकर अन्य निकटवर्ती कोशाओं पर आक्रमण कर देते हैं। इस प्रकार, अविकल्पी परजीवी (obligate parasites) होते हैं। अनेक प्रकार के कीट (मक्खी, मच्छर, टिड्डे आदि) वाइरसों को एक पोषद से दूसरे पोषदों में फैलाते। अनेक पादप वाइरस बीजों द्वारा, भूमि में जड़ों के सम्पर्क से या पत्तियों की परस्पर रगड़ से फैलते हैं । जन्तुओं न थूक, कफ, साँस, सम्भोग आदि द्वारा भी फैलते हैं। वाइरस सजीव हैं या निर्जीव ? वाइरसों को सजीव माना जाये या निर्जीव ? अभी तक वैज्ञानिक इस गुत्थी को सुलझा नहीं पायी क्योंकि इनमें दोनों ही के लक्षण होते हैं।


A.बैक्टीरियोफेज़  B.इन्फ्लुएन्जा का वाइरस  C.पोलियो का वाइरस


वाइरसों के सजीवों जैसे लक्षण-1.किसी सजीव कोशा में पहुँचते ही वाइरस का न्यूक्लीक अम्ल सूत्र अत्यधिक सक्रिय होकर ऐसे डमों का संश्लेषण करने लगता है जिनके कारण पोषद कोशा का सम्पूर्ण उपापचय इसी सूत्र के बारम्बार के मान और वाइरस के खोलों के संश्लेषण में लग जाता है। कहते हैं कि इस सक्रिय प्रावस्था में एक ग्राम वाइरस वयस्क मानव शरीरों के बराबर ऊर्जा-रूपान्तरण कर देते हैं।
2.इनके न्यूक्लीक अम्ल के स्व द्विगुणन में वैसे ही जीन-उत्परिवर्तन (gene mutations) होते है जैसे धारण सजीव कोशाओं के न्यूक्लीक अम्ल में।

बैक्टीरियोफेज़ वाइरस का जीवन-चक्र

वाइरसों के निर्जीव होने के लक्षण तथा विकास क्रम में वाइरस का स्थान
साधारण सजीव कोशाओं के गुणसूत्रों की न्यूक्लिओप्रोटीन्स के न्यूक्लीक अम्लों की ही भांति, वाइरसों के न्यूक्लीक अम्ल सूत्र भी, अपनी रचना के अनुरूप प्रोटीन्स के संश्लेषण को प्रेरित करके, पदार्थ के संघटन को अपने साहित (coded) जन्मपत्री का व द्विगुणन द्वारा आनुवंशिक प्रसार करते हैं। हाँ, यह कार्य, वर्तमान वाइरस जीव कोशाओं के बाहर नहीं कर सकते, क्योंकि इनके पास अपना उपापचयी तन्त्र नहीं होता। इसीलिए, वर्तमान वी पर वाइरसों के वास्तविक पद या श्रेणी के बारे में वैज्ञानिकों में परस्पर महत्त्वपूर्ण मतभेद हैं कुछ वैज्ञानिक इन्हें जीव, कुछ सजीव और कुछ इन दोनों के बीच की संयोजक कड़ी मानते हैं। ओपैरिन सिद्धान्त के अनुसार, जैव-विकास क्रम में वाइरस जैसे कण आदिसागर में बने और इन्होंने तन्त्र रहकर भी सजीव जीवन बिताया, क्योंकि उस समय जल में इन्हें स्वः गुणन के लिए आवश्यक सभी पदार्थ प्रालब्ध थे। अब ये पदार्थ केवल सजीव कोशाओं में ही होते हैं। अतः एक प्रकार की वातावरणीय दशाओं आदिसागर) में स्वतन्त्र वाइरस सजीव थे और दूसरे प्रकार की दशाओं (वर्तमान) में ये अजीव पदार्थ के समान अतः हम इन्हें उस सीमा का पदार्थ मान सकते हैं जहाँ पर कि "अणुओं का कोई संग्रह एक साधारण है। सायनिक मिश्रण-मात्र न रहकर जीव पदार्थ बन सकता है" या यों कहिये कि जहाँ “एक सुव्यवस्थित जटिल रासायनिक तन्त्र की अजीवता (non-livingness) समाप्त होकर सजीवता (livingness) में दल सकती है।





















































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