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क्रॉसिंग ओवर प्रक्रिया का वर्णन तथा इसका महत्व || krosing ovar prakriya ka varnan tatha isaka mahatv


 इस पोस्ट में हम- क्रॉसिंग ओवर प्रक्रिया का वर्णन तथा इसका महत्व, जीन विनिमय से आप क्या समझते हैं? इसके प्रारूप, प्रक्रिया तथा महत्व को विस्तार से समझाइये।, क्रासिंग ओवर क्या है? इसके महत्व को बताइये।क्रासिंग ओवर का वर्णन कीजिये।,क्रासिंग ओवर के प्रारूप का विवरण दीजिये।,क्रासिंग ओवर के महत्व को समझाइये।, क्रॉसिंग ओवर का चित्र,क्रॉसिंग ओवर किस अवस्था में होता है क्रासिंग ओवर क्या है इन हिंदी,जीन विनिमय (क्रॉसिंग ओवर) के दो महत्व लिखिए।,क्रॉसिंग ओवर की क्रिया किसमें होती है, क्रॉसिंग ओवर से जुड़े चार चरणों को लिखें,क्रासिंग ओवर मीनिंग इन हिंदी ,जीन विनिमय क्या है,क्रॉसिंग ओवर प्रक्रिया का वर्णन कीजिए एवं इसका महत्व, क्रॉसिंग ओवर किस अवस्था में होता है इन सभी के प्रश्नों के उत्तर पर चर्चा करेंगे-



जीन विनिमय (क्रासिंग ओवर) (Crossing Over)

मेण्डल के नियमों के सत्यापन के लिये कई प्रकार के जन्तुओं और पौधों पर प्रयोग करते समय वैज्ञानिक मॉर्गन ने देखा कि एक ही गुणसूत्र (Chromosome) पर उपस्थित समस्त जीन्स (Genes) में एक साथ रहने की प्रवृत्ति होती है। इस प्रकार के जीन्स सहलग्न जीन्स (Linked genes) और इनका यह गुण सहलग्नता (Linkage) कहलाता है। इस तरह से अगर एक गुणसूत्र जन्तु के जीवनपर्यन्त पूर्ण रहे तो उस पर उपस्थित सभी जीन्स सदैव एक साथ रहने चाहिए अर्थात् सहलग्नता सदैव पूर्ण होनी चाहिये एवं सहलग्न जीन्स कभी अलग नहीं होने चाहिये। किन्तु यह देखा गया है कि ये जीन्स सदैव एक साथ नहीं रहते क्योंकि युग्मक (Gamete) बनते समय कुछ स्थितियों में जीन्स अलग हो जाते हैं। फलस्वरूप किन्हीं दो गुणों के पैतृक तथा अपैतृक दोनों प्रकार के संयोग बनते हैं। ऐसे नये अपैतृक संयोग सहलग्न जीन्स के हैं। सहलग्न जीन्स के इस प्रकार अलग होने की क्रिया को क्रासिंग ओवर (Crossing Over) कहते हैं। अपैतृक संयोग वाले जीव क्रासिंग सरोवर सन्तति (Crossing over progeny) बनाते हैं।

‘समजात गुणसूत्रों' (Homologous chromosomes) के भागों के विनिमय से सहलग्न जीन्स के अलग होकर पुनः नये संयोग बनाने की क्रिया क्रासिंग ओवर (Crossing over) कहलाती है।

जैसे - ड्रोसोफिला में सलेटी रंग तथा कम विकसित पंखों वाली ड्रोसोफिला तथा काले रंग तथा लम्बे पंखों वाली ड्रोसोफिला मक्खियों के बीच मैथुन होने पर F1 पीढ़ी की मक्खियों तथा अप्रभावी गुण वाली नर मक्खियों में मैथुन होता है तो मुख्य रूप से चार प्रकार की मक्खियाँ बनती हैं -

(i) सलेटी रंग तथा अविकसित पंखों वाली

 (Grey-bodied and vestigial-winged) 41.5%

(ii) काले रंग लम्बे पंखों वाली

(Black-bodied and long-winged) 41.5%

(iii) काले रंग तथा अविकसित पंखों वाली

(Black-bodied and vestigial-winged) 8.5%

(iv) सलेटी रंग तथा लम्बे पंखों वाली

(Grey-bodied and long-winged) 8.5%

समजात गुणसूत्रों के टुकड़ों अथवा भागों में विनिमय द्वारा क्रासिंग ओवर की क्रिया होती है। अर्थसूत्री कोशिका विभाजन reduction division के समय गुणसूत्रों के व्यवहार को सूक्ष्मदर्शी से अध्ययन करने पर इस अवस्था में सहलग्न जीन्स के व्यवहार को भली-भाँति समझा जा सकता है।


क्रासिंग ओवर विधि -

चार धागीय अवस्था (Four strands stage) में क्रोमैटिड्स सर्पिलाकार ढंग से एक-दूसरे में चिपक कर एक या एक से अधिक क्याज्मा बनते हैं। चार में केवल दो ही क्रोमैटिड्स क्याज्या बनाने में भाग लेते हैं। ये क्रोमैटिड्स एक समजात जोड़ी क्रोमोसोम्स के भिन्न-भिन्न भाग होते हैं। प्रत्येक क्याज्मा बिन्दु पर क्रोमैटिड एक से टूटकर इस प्रकार दूसरे से जुड़ता है कि होमोलोगस भाग आपस में बदल जाते हैं। इस प्रकार नया क्रोमोसोम एक नये जेनेटिकल पदार्थ युक्त हो जाता है।


क्रासिंग ओवर के प्रकार (Kinds of  crossing Over)- 

क्याज्मा के बनने के आधार पर क्रसिंग ओवर निम्न प्रकार के होते हैं।




1. एकहरा क्रासिंग ओवर (Single crossing over) - 

इसमें केवल एक क्याज्मा बनता है।

2. दोहरा क्रासिंग ओवर (Double crossing over) -

इसमें दो क्याज्मा बताते है जिनका निर्माण एक ही अथवा दो भिन्न-भिन्न क्रोमैटिड्स से होता है। इसमें 2, 3 अथवा 4. क्रोमैटिड्स भाग ले सकती हैं।

3. बहुसंख्यक क्रासिंग ओवर (Multiple crossing over) - इसमें दो से अधिक क्याज्मा का निर्माण होता है जिसमें 3 (triple) अथवा 4 (quadruple) क्याज्मा होते हैं। यह क्रासिंग ओवर सामान्य रूप से नहीं होता है।

क्रासिंग ओवर के महत्व

क्रासिंग ओवर काफी फैला हुआ एवं जेनेटिक्स की महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। जीन्स के नये Combinations के कारण भिन्नताओं (variations) में वृद्धि होना स्वाभाविक है जिससे विकास की गति बढ़ती है। अतः प्रकृति का चयन सिद्धान्त की पुष्टि होती है। साथ ही इस बात का भी प्रमाण मिलता है कि क्रोमोसोम पर जीन्स की एक क्रमपूर्वक व्यवस्था होती है।



क्रासिंग ओवर को समझने के विभिन्न कोशिकीय प्रमाण
(Cytological Evidences of Crossing Over)

टी. एच. मॉर्गन ने जीन विनिमय की परिकल्पना प्रस्तुत की थी। लेकिन गुणसूत्रों में स्थित जीन्स का आपसी स्थानान्तरण कैसे होता है इसके सम्बन्ध में वह कोशिकीय प्रमाण देने में असफल रहे कि गुणसूत्रों के विखण्डित होने तथा उसके पुनर्निर्माण की प्रक्रिया क्या है? तथा यह प्रक्रिया कैसे सम्पन्न होती है क्योंकि -

(A) क्रासिंग ओवर दो समजात गुणसूत्रों के मध्य होता है तथा यह आइडेंटिकल (Identical) के रूप में प्रकट होता है इसीलिये इन्हें सूक्ष्मदर्शी की सहायता से विभेदित नहीं किया जा सकता है।

(B) जीवित कोशिकाओं में क्रासिंग ओवर नहीं देखा जा सकता है तथा अभिरंजित कोशिकाओं में यह कहना कठिन होता है कि क्रोमैटिड्स के भागों का स्थानान्तरण हो रहा है अथवा नहीं।

(C) क्रासिंग ओवर के समय चारों क्रोमैटिड्स एक-दूसरे के ऊपर पूर्ण रूप से कुण्डलन करते हैं। उपरोक्त जटिलताओं के कारण और कोशिकीय प्रमाणों के अभाव में जीन विनिमय की प्रक्रिया केवल परिकल्पना मात्र रह गयी परन्तु 20 वर्षों के पश्चात कर्ट स्टर्न (Curt Stern) ने 1931 में कोशिकीय प्रमाणों के आधार पर जीन विनिमय की प्रक्रिया को प्रमाणित किया।

स्टर्न का प्रयोग (Stern's Experiments) -

स्टर्न ने अपना प्रयोग मादा ड्रोसोफिला पर किया। उन्होंने देखा x-गुणसूत्र युगल के दोनों गुणसूत्र आकारिक रूप से एक-दूसरे के भिन्न होते हैं तथा साथ ही साथ यह उनके प्रयोग में अन्य समजात गुणसूत्र युगलों से भी भिन्न होते हैं।

(A) जोड़ीदार X-गुणसूत्रों में से एक x गुणसूत्र दो टुकड़ों में टूटा हुआ था जिसके एक टुकड़े में दोनों जीन्स थे और वह स्वतंत्र गुणसूत्र की तरह कार्य कर रहे थे, जबकि दूसरा छोटा टुकड़ा चौथे जोड़ी गुणसूत्र के साथ चिपका हुआ था जिसका स्टर्न के प्रयोग में कोई महत्व नहीं था।

(B) दूसरे x-गुणसूत्र से एक y-गुणसूत्र का टुकड़ा जुड़ा हुआ था। क्रासिंग ओवर के अध्ययन के लिये मादा ड्रोसोफिला उपयुक्त थी क्योंकि इसके x जोड़ी गुणसूत्रों में संरचनात्मक विभिन्नतायें थी जिनके आधार पर किसी गुणसूत्रीय पदार्थ का आदान-प्रदान को आसानी से सूक्ष्मदर्शी की सहायता से पहचाना जा सकता था।

इसके अतिरिक्त --गुणसूत्र आनुवांशिक दृष्टिकोण से भी एक-दूसरे से भित्र थे। जैसे कि टूटे हुए X--गुणसूत्र अप्रभावी जीन था जैसे नेत्रों के लाल रंग का कार्नेशन वर्ण (c) तथा दूसरे गुणसूत्र में नेत्रों का लाल वर्ण (c) था इसी प्रकार टूटे हुए x-गुणसूत्र में एक दूसरा लक्षण भी था जैसे नेत्रों का प्रभावी नर लक्षण (B) जिसमें नेत्र का आकार संकरा तथा पट्टीनुमा था तथा दूसरे x-गुणसूत्र में सामान्य गोल नेत्र (b) थे।

इस प्रकार मादा ड्रोसोफिला में x-गुणसूत्रों पर स्थित निम्न दो लिंग सहलग्न उत्परिवर्तित लक्षण थे, जो निम्न हैं

(i) नेत्रों का कार्नेशन वर्ण (c)

(i) नेत्रों का लाल वर्ण (C)

(iii) नेत्रों का बार लक्षण, जो सामान्य गोल नेत्रों पर प्रभावी है (B)

(iv) सामान्य गोल नेत्र (b)

स्टर्न ने लाल नेत्रों वाली मादा का क्रॉस दोहरे अप्रभावी लक्षणों वाले नर के साथ कराया जिनमें सामान्य तथा गोल नेत्र थे। उन्होंने प्रथम पीढ़ी (E.) में केवल मादा संतति का अध्ययन किया तो देखा कि क्रासिंग ओवर की अनुपस्थित में केवल दो प्रकार के अण्डाणु मुक्त होते हैं।

(1) टूटे हुए X-गुणसूत्र जिनमें c तथा B लक्षण विद्यमान थे।

(ii) x-गुणसूत्र जिनमें y के टुकड़े जुड़े हुए थे तथा C और b लक्षण थे।

परन्तु अगर क्रासिंग ओवर की प्रक्रिया होती है तो ऐसी स्थिति में उपरोक्त दो लक्षणों के अतिरिक्त चार प्रकार की संतति प्राप्त होती है अर्थात् कुल चार प्रकार की संतति उत्पन्न होती है-

(i) कार्नेशन एवं बार नेत्र (cB)/(cb)

(i) लाल व गोल नेत्र (Cb/cb)

(i) लाल व बार नेत्र (CB/cb)

(iv) कार्नेशन व गोल नेत्र (cb/cb)

इस प्रकार स्टर्न द्वारा किये गये प्रयोग से कोशिकीय अध्ययन किया गया जिसके द्वारा यह प्रमाणित होता है कि चारों प्रकार की मादा संतति मक्खियों में से पिता से मिलने वाले x गुणसूत्र पर दोनों ही जीन्स अप्रभावी थे जबकि मादा के द्वारा प्रेषित x-गुणसूत्र में चारों प्रकार की संतति मक्खियाँ अलग-अलग लक्षणों से युक्त थी जिनमें से दो प्रकार की संतति में जीन-विनिमय नहीं होता क्योंकि वह जनकीय संयोग वाली मक्खियाँ थी। जबकि मातृ संयोग से आने वाले x-गुणसूत्र या तो दो से अधिक खण्डित रूप में थे अथवा y-गुणसूत्र के स्थानान्तरण खण्ड से निर्मित थे।

इस प्रकार जीन विनिमय वाली ड्रोसोफिला में केवल मातृ x-गुणसूत्र में ही क्रासिंग ओवर होता है और उनके प्रयोग में लाल व बार नेत्रों वाली ड्रोसोफिला के y-गुणसूत्र के खण्ड को विभक्त x-गुणसूत्र के ऊपरी खण्ड पर लगा पाया गया। परन्तु कार्नेशन व गोल नेत्र वाली मक्खियों में ऐसा नहीं होता है तथा उसमें पाया जाने वाला x-गुणसूत्र सामान्य था। इस प्रकार Stern द्वारा किये गये प्रयोग और कोशिकीय अध्ययन के द्वारा जीन विनिमय की पुष्टि प्रमाणित हो जाती है।


 बेलिंग की परिकल्पना क्या है?

उत्तर बेलिंग की परिकल्पना (Belling Hypothesis) - बेलिंग ने (1933) में यह सिद्ध किया कि नये क्रोमैटिड्स के निर्माण के समय उनमें पारस्परिक स्थानान्तरण के परिणामस्वरूप क्रासिंग ओवर होता है। अर्थात् क्रासिंग ओवर का गुणसूत्रों के द्विगुणन से सीधा सम्बन्ध होता है। जिसमें गुणसूत्र आपस में कुण्डलित होते हैं। उससे पहले ही क्रोमैटिड्स का निर्माण होता है तत्पश्चात् गुणसूत्रों का द्विगुणन होता है। इस धारणा के अनुसार पहले मध्य में गुणसूत्र बन जाते हैं जिसके पश्चात् किनारों पर सिस्टर क्रोमैटिड्स का निर्माण हो जाता है तथा सबसे अन्त में इन्हें जोड़ने वाले तन्तुओं का निर्माण होता है।

इस प्रकार जो नवनिर्मित क्रोमैटिड्स बनते हैं उनमें पैतृक (माता और पिता) क्रोमोमीयर्स होते हैं जो बाद में क्रास-ओवर (Cross over) क्रोमैटिड्स का निर्माण करते हैं।


क्रासिंग ओवर, उद्वविकास  की प्रक्रिया है। 

मॉर्गन के अनुसार समजात गुणसूत्रों के Non-sister chromstids के मध्य विनिमय के परिमाणस्वरुप  सहल्गन जीन्स के अलग  होकर पुनः नये संयोग बनाने की क्रिया को क्रॉसिग ओवर कहते है। 

क्रॉसिंग ओवर द्वारा सहलग्न जीन्स एक-दूसरे से अलग हो जाते हैं तथा द्विसंकर क्रॉस की तरह चार प्रकार के युग्मक बनते हैं, परन्तु इनकी संख्या में बहुत अन्तर होता है। अतः एक द्विसंकर टैस्ट क्रॉस के फलस्वरूप F2 पीढ़ी में चार प्रकार के संतति जीव बनते हैं, परन्तु इनकी संख्या में बहुत अन्तर होता है।

क्रासिंग ओवर के फलस्वरूप नये जीन-संयोग बनते हैं जिससे किसी समष्टि के जीन-मूल में जीन-आवृत्ति का परिवर्तन हो जाता है। यह क्रिया जातियों के विकास में ज्यादा सहायक होती है।

क्रॉसिंग ओवर की सहायता से गुणसूत्रों के सहलग्न मानचित्र बनाना सम्भव हो सका है। मानचित्र एक सहलग्न बनाना समूह के सभी जीन्स के बीच की आपेक्षिक दूरी को पुनर्योजन की प्रतिशतता के रूप में व्यक्त करते हैं।

क्रासिंग ओवर से सिद्ध होता है कि जीन्स पंक्तिबद्ध क्रय में विन्यासित होते हैं।

इन्हीं सब कारणों से सिद्ध होता है कि क्रॉसिंग ओवर उद्विकास की प्रक्रिया है।


 ड्रोसोफिला में CO2 की संवेदनशीलता कैसे निर्धारित होती है? 


L. Heritier एवं Teissier ने पाया कि ड्रोसोफिला मेलेनोगैस्टर (Drosophila malangaster) में CO2 के प्रति बहुत अधिक संवेदनशीलता होती है। जबकि जंगली प्रजाति में संवेदनशीलता न के बराबर है। वह लम्बे समय तक बिना खतरे के CO, में रह सकती है।

ड्रोसोफिला में यह संवेदनशीलता रोग ग्रसित डी. एन. ए. वायरस के कारण होती है। इसे सिग्मा कहते हैं जो संवेदनशील ड्रोसोफिला के साइटोप्लाज्मा में पाया जाता है।


ड्रोसोफिला में CO2, सुग्राहिता की वंशागति - 

ड्रोसोफिला के कुछ प्रभेद CO, के लिये सुग्राही होते हैं और CO, की सान्द्रता में थोड़-सा परिवर्तन होने पर गतिशील हो जाते हैं। Co, की अधिक सान्द्रता में ये बेहोश होकर मर जाते हैं। सामान्यतया सुग्राही प्रभेदों में व्युत्क्रम संकरण के फलस्वरूप परिणाम अलग-अलग होते हैं। जब सुग्राही प्रभेद की मादा व सामान्य नर में संकरण कराया जाता है तो F, पीढ़ी के सभी ड्रोसोफिला सुग्राही होते हैं लेकिन इनमें से केवल मादा ड्रोसोफिला ही इस सुग्राही लक्षण को अपनी संतति में पहुँचा सकती है। नर पहुँचाने में असमर्थ होता है। जब सुग्राही प्रभेद की ड्रोसोफिला के गुणसूत्रों को एक-एक करके सामान्य स्ट्रेन गुणसूत्रों द्वारा विस्थापित कर दिया जाता है

तो उनका सुग्राही लक्षण नष्ट हो जाता है। इससे प्रतीत होता है कि ड्रोसोफिला में CO) के प्रति सुग्राहिता का लक्षण गुणसूत्रों द्वारा वंशागति नहीं होता है वरन् केन्द्रक के बाहर किसी पदार्थ अथवा कोशिका द्रव्य द्वारा वंशागति होता है।


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