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क्या था ? भक्ति-आन्दोलन || What was Devotional movement

भक्ति-आंदोलन का क्या था इतिहास  ः-

भक्ति आन्दोलन भारतीय इतिहास की महत्त्वपूर्ण घटना है। इस आन्दोलन का उद्भव तुर्कों के आगमन के पश्चात् भारतीय धर्म एवं समाज में व्याप्त संकीर्णताओं के फलस्वरूप हुआ। तुर्की शासों की धार्मिक कट्टरता से हिन्दू एवं मुस्लिम दोनों धर्मों में वैमनस्य की खाई पैदा हुई और भारतीय समाज और अधिक अंधविश्वासी एवं संकीर्ण हो गया। ऐसी स्थिति में सामाजिक एवं धार्मिक चीजों में सुधार की दृष्टि से भक्ति को आधार बनाकर जिस आन्दोलन का सूत्रपात हुआ, वह 'भक्ति आन्दोलन के नाम से जाना गया। इस आन्दोलन के उद्देश्य के बारे में डॉ० आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव ने लिखित रूप से कहा है की भक्ति आन्दोलन के दो मुख्य उद्देश्य हो सकते है। पहला- हिन्दू धर्म में सुधार करना जिससे वह इस्लामी प्रचार और प्रसार के आक्रमणों को निपट सके तथा दूसरा -हिन्दू इस्लाम धर्म में समन्वय व्यापित करना और दोनों जातियों में सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करना।"

भक्ति आन्दोलन के उदय होने के कौन कौन कारण थेः-

पंक्ति आन्दोलन के उद्भव एवं विकास में निम्न कारणों का योगदान रहा-
1. वर्ण-व्यवस्था की जटिलता-मध्यकाल में विदेशी आक्रमणकारियों से भारतीय समाज की रक्षा के लिए कई हिन्द विचारकों ने वर्ण व्यवस्था को पहले की अपेक्षा अधिक कठिन बना दिया। उच्च जातियों ने निम्न जातियों के साथ खान-पान, विवाह आदि प्रतिबंधित लगा दिया गया। हुआ छूत और विभिन्न वर्गों में भेद-भाव जैसी कुप्रथाएँ समाज में उत्पन्न हुई। निम्न जातियों की स्थिति पहले से अधिक खराब हो गयीं। वे अधिकारों से वंचित कर दिये गये। परन्तु भक्ति आन्दोलन ने ऊँच-नीच, छुआछूत का भेदभाव मिटाकर भक्ति के मार्ग द्वारा मोक्ष का द्वार सभी के लिए खोल दिया गया।

2. राजनीतिक वातावरण का भी कुछ कारण रहा -तुर्कों के आक्रमण से हिन्दू धर्म एवं समाज को गहरा आघात लगा। कुतुबुद्दीन, इल्तुतमिश, बलवन, अलाउद्दीन खिलजी जैसे अनेक शासकों ने भी सुदृढ़ रूप से हिन्दू राज्यों की स्थापना की। विजयनगर एवं मेवाड़ के राजपूतों ने पुनः एक बार हिन्दुओं को संगठित करना प्रारम्भ किया एवं मुस्लिम शासकों के कमजोर पड़ते ही हिन्दुओं को उन्नति करने का सुअवसर प्राप्त हुआ। रामधारीसिंह दिनकर जी बातते है कि, “कुछ लोग तो इस्लाम का धक्का खाने से घबराकर और कुछ सूफियों के प्रभाव मे आकर हिन्दुत्व जगा और जागकर अपने रूप को सुधारने लगा। वह बहुत कुछ इस्लाम का प्रभाव था और इस प्रभाव के कारण रूढियों मे सिकुड़ा हुआ हिन्दुत्व और उदार हो गया।

 3.कठिन ब्राह्मण धर्म-इस समय तक ब्राह्मण धर्म का स्वरूप अत्यन्त जटिल, आडम्बरयुक्त तथा कर्मकाण्डी हो चुका था जिससे साधारण जनता उसका पालन नहीं कर पा रही थी। इन्हीं परिस्थितियों में 'भक्ति के सरल मार्ग पर आधारित आन्दोलन की तैयारी का अनुकूल समय तैयार हुआ।

4. मुस्लिम आक्रमणकारी की विध्वंस नीति-मध्यकाल में मुस्लिम शासकों की धार्मिक कट्टरता एवं अनेक मुस्लिम आक्रमणकारी शासकों के विध्वंस की नीति ने अनेक हिन्दू मंदिरों एवं मूर्तियों को क्षति पहुँचायी। उनके धार्मिक कार्यों एवं पूजा आदिपर भी प्रतिबन्ध लगाया गया जिसमें ईश्वरभक्त हिन्दुओं ने अपने इष्ट देवताओं की पूजा के लिये भक्ति का सरल मार्ग अपनाया एवं उपासान पर बल दिया ।

5. इस्लाम का प्रभाव-कुछ विद्वानों की मान्यता है कि भक्ति आन्दोलन का प्रारम्भ इस्लाम के सम्पर्क के कारण हुआ। इस्लाम में एक ईश्वर की कल्पना तथा जातिप्रथा का स्थान नहीं है। भक्ति आन्दोलन के सभी सन्तों ने इन दोनों सिद्धान्तों का समर्थन किया (एकेश्वरवाद तथा जाति प्रथा का विरोध) यद्यपि इन विद्वानों की बातों को पूरी तरह स्वीकार नहीं किया जा सकता फिर भी यह सत्य है कि इस्लाम की सरलता, जाति-पाति का विरोध, एकेश्वरवादी सिद्धान्तों ने हिन्दू विद्वानों का ध्यान आकर्षित किया।

भक्ति आन्दोलन की कौन कौन सी विशेषताएँ थीः-

1. मानवतावादी दृष्टिकोण-इस आन्दोलन के सुधारकों ने लोगों को आपसी कटुता एवं वैमनस्यता को दूर कर प्रेम एवं विश्वबन्धुत्व का पाठ पढ़ाया। इन्होंने कहा कि सभी एक ही ईश्वर की सन्तान हैं और सभी में उसी की आत्मा का अंश विद्यमान है।

2. सामाजिक कुरीतियों पर बल  -भक्ति आन्दोलन के मदद से समाज में व्याप्त कुरीतियों, पूरी--जाति, अस्पृश्यता, मूर्तिपूजा पर प्रहार किया गया। जातिप्रथा पर प्रहार करते हुए रामानंद जी ने कहा, "जाति-पाँति पूछे नहीं कोई। हरि को भजे जो हरि का होई।" मूर्तिपूजा का खण्डन कबीरदास ने इन पंक्तियों में इस प्रकार किया-"पाहन पूजे हरि-मिले, तो मैं पूनँ पहार। ताते यह चाकी भली, पीसि खाय-संसार।" इस प्रकार इन कुरीतियों पर प्रहार कर इन्होंने विभिन्न वर्गों के बीच प्रेम एवं भाई-चारे का संदेश दिया।

3. सदाचार एवं पवित्रता पर बल-इस आन्दोलन के समर्थकों ने धार्मिक कर्मकाण्ड एवं आडम्बरों की निन्दा करते हुए सदाचार एंव पवित्रता का उपदेश दिया।

4.  ईश्वर एक ही है ऐसी कल्पना करना -इस आन्दोलन के संतों ने ईश्वर की एकता का संदेश दिया जिससे विभिन्न धर्मों के बीच एकता का प्रसार हुआ।

5. गुरु की महत्ता पर बल-इन सन्तों ने ईश्वर की प्राप्ति 'गुरु' द्वारा ही सम्भव बताया इसलिये 'गुरु' को अत्यधिक महत्त्व दिया गया। वही लोगों की अज्ञानता दूर कर उन्हें भक्ति मार्ग पर आगे ले जाता है।

6. सरल भाषा पर जोर दिया गया -इन संतों ने जो भी उपदेश दिया वह जनसाधारण की भाषा में दिये जिससे अधिक से अधिक लोग उसे समझ संके और उन्हें अपना सकें। इस प्रकार से भक्ति आन्दोलन ने शीध्र ही भारतीय समाज को भक्ति का मार्ग दिखाया और उसी के आधार पर अपने इष्टदेव को प्राप्त करने का उद्देश्य सामने रखा। आशीर्वादीलाल कथन के अनुसार- उन्हों ने कहा की “दूर-दूर तक फैलकर भक्ति आन्दोलन सदियों तक आधे महाद्वीप को प्रभावित करता रहा। बौद्ध धर्म के पतन के बाद भक्ति आन्दोलन जैसा देशव्यापी जनआन्दोलन हमारे देश में दूसरा नहीं हुआ।"

भक्ति-आन्दोलन के प्रमुख सन्त कौन कौन थेः-

पूर्व-अध्ययुग या सुल्तनत-युग में इस्लाम और भारत की प्राचीन संस्कृति के समन्वय की सबसे स्पष्ट और मुखर अभिव्यक्ति भक्ति आन्दोलन के रूप में हुई। भक्ति-आन्दोलन भारतीय इतिहास का वह आन्दोलन है, जिसमें कि हिन्दू-मुस्लिम सन्तों की गौरवमयी परम्परा ने ईश्वर-भक्ति के साथ ही सामाजिक कुरीतियों को दूर करने का मधुर स्वर झंकृत किया। भक्ति-आन्दोलन के इन सूत्रधारों और प्रवर्तकों में सन्त, कबीर, चैतन्य, नानक, दादू, रैदास, मलूकदास, नामदेव इत्यादि मुख्य थे ।

1. चैतन्य महाप्रभु-नदिया के महान् वैष्णव धर्म के आचार्य चैतन्य महाप्रभु थे। वे सन् 1485 ई० में ब्राह्मण-वंश में उत्पन्न हुए थे। 25 वर्ष की अवस्था में उन्होंने प्रेम, दया, भातृभाव का उपदेश दिया और जाति को व्यर्थ बताया। दीनों तथा असहायों के लिए उनका इदय दया से उमड़ पड़ता था। उन्होंने चाण्डालों तक को श्रद्धा और प्रेम की शिक्षा दी। उनके धर्म में बड़े-छोटे का कोई भेद न था।

2. कबीर-कबीर का जन्म 1398 ई0 या 1440 ई0 में बनारस में हुआ था। ये रामानन्द के शिष्य थे। कहा जाता है कि इनका जन्म एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से हुआ था, जिसने लोक-लाज के भय से इन्हें काशी के पास लहरतारा नामक तालाब किनारे डाल दिया था। वहाँ से नीरू नाम के एक जुलाहे ने इन्हें उठा लिया और पालन-पोषण किया। कबीर जन्म से ही धार्मिक प्रवृत्ति के थे। कबीर के उपदेश में इस्लाम का प्रभाव दिखायी पड़ता है। इन्होंने ईश्वर की एकता पर बल दिया और जाति-भेद तथा मूर्तिपूजा की निन्दा की। कबीर हिन्दू और तुर्क में कोई भेद नहीं करते थे। वह कहते थे, दोनों ही मिट्टी के पुतले हैं और विभिन्न मार्गों से एक
ही लक्ष्य पर पहुंचने का प्रयत्न कर रहे हैं।

3.नामदेव-नामदेव भक्तिमार्गी सन्तों में से एक थे। वे महाराष्ट्र के रहने वाले थे। डॉ0 ताराचन्द्र ने परम्परा के आधार पर इनकी जन्मतिथि 1270 ई0 बतायी है। कुछ विद्वान् इनका जन्म 14वीं शताब्दी में मानते हैं। इन्होंने प्रारम्भ में सगुण भक्ति तथा बाद में निर्गुणोपासना पर बल दिया। इन्होंने खेचरनाथ नामक नागपंथी से दीक्षा ली थी। वे स्वयं कहते थे-"मन मेरी सुई, तन मेरा धागा।खेचर जी के वरण पर नामा सिंपी लागा।" नामदेव ने गुरु की महत्ता पर अधिक बल दिया। दुखों का अन्त गुरु कृपा से ही सम्भव है, ऐसी उनकी धारणा थी।

4. गुरु नानक-इस काल के दूसरे महान् सन्त सिख धर्म के मूल प्रवर्तक गुरु नानक थे। वे 1469 ई० में लाहौर जिले में रावी तट पर तलवण्डी गाँव में पैदा हुए थे। उनके माता-पिता दीन थे। उनके पिता कालू अपने गाँव में बनिया तथा पटवारी का काम करते थे नानक बचपन से ही एकान्तप्रिय, उदासीन तथा विचारशील स्वभाव के थे। पाठशाला में वे अपने सहपाठियों स बातचीत नहीं करते थे। जिस  समय पाठशाला के अन्य विद्यार्थी अध्ययन में लीन होते, वह एकान्त और मनन में समय व्यतीत करते थे। जब वे बड़े हुए तो पिता ने उन्हें वैराग्य-वृत्ति से विमुख करने के लिए व्यापार के लिए कुछ रुपया दिया जिसे उन्होंने भूख फकीरों में बाँट दिया। 16 वर्ष की अवस्था में पिता ने यह सोचकर उनका विवाह कर दिया कि बहुत सम्भव है वैवाहिक सुख की ओर झुककर वह सांसारिक कार्यों में प्रवृत्त हो जायें किन्तु उन्हें मार्ग से विचलित करने का कोई प्रयत्न सफल न हुआ। उन्होंने देश-विदेश का भ्रमण किया तथा विभिन्न मतानुयाथियों से विचार-विनिमय करके अपनी बुद्धि और अनुभव को विकसित किया। अन्त में वे संसार का परित्याग करके रावी तट पर कुटी बनाकर रहने लगे। यहाँ 70 वर्ष की अवस्था में उनका देहान्त हो गया।
गुरु नानक का ईश्वर की एकता में विश्वास था। उन्होंने भी परमात्मा की भक्ति का उपदेश दिया। उन्होंने मूर्तिपूजा की निन्दा की,देव पूजा का विरोध किया और इस बात का समर्थन किया कि सच्चा धर्म एक है। उन्होंने मुल्लाओं, पण्डितों, दरवेशों और सन्यासियों से प्रभुओं के प्रभु को स्मरण करने को कहा जिसने कि अगणित मुहम्मद, विष्णु तथा शिवों को आते-जात देखा है। वे अत्यन्त नम्र एवं सहनशील थे। ये नबी और अवतारों का समान आदर करते थे। वे अपने को ईश्वर का दास कहते थे। अन्य अलौकिक शक्ति में उनका विश्वास नहीं था। उनके लिए ईश्वर का नाम तथा उनके सिद्धान्त की शुद्धता और सरलता ही आडम्बरों से लड़ने के एकमात्र अस्त्र-शस्त्र थे। उन्होंने सच्चरिखता पर जोर दिया और मनुष्यों को सत्यवादी, ईमानदार होने पर इश्वर से डरने का उपदेश दिया। संसार का चरित्याग करना ईश्वर की दृष्टि में आवश्यक नहीं है। उनकी दृष्टि में धार्मिक संन्यासी तथा भक्त गृहस्थ सभी समान हैं। वे जब तक जीवित रहे, उन्होंने हिन्दू-मुसलमानों के विभेदों को दूर करने की चेष्टा की और अपने अनुयायियों पर कोई कड़े प्रतिबन्ध नहीं लगाये। उनकी मृत्यु के उपरान्त राजनीतिक परिस्थितियों के कारण सिखों को एक दृढ़ संगठन कर सैनिक जाति बन जाना पड़ा। गुरू नानक के सिद्धान्त सिखों की धर्म पुस्तक 'ग्रन्थ साहब' में लिखे हुए हैं। इस अन्य के द्वितीय भाग की रचना गुरु गोविन्दसिंहने की और अपने पूर्वाधिकारियों के सिद्धान्तों में उन्होंने परिवर्तन किया। नानक साहब का ईश्वर के साथ अटूट प्रेम था। उसके सद्गुणों में उन्हें पूरा विश्वास था।

5. राशनन्द-रामानन्द का जन्म 1229 ई0 में प्रयाग में एक कान्यकुब्ज परिवार में हुआ था। उन्होंने भी भक्ति का उपदेश दिया। उनका सिद्धान्त रामानुज से भिन्न था। उन्होंने राम और सीता की उपासना का उपदेश दिया और सब जातियों के मनुष्यों को अपना शिष्य बनाया। उन्होंने अपने उपदेश की भाषा हिन्दी रखी। इस प्रकार सर्वसाधारण में विशेषकर निम्न श्रेणी के लोगों में उन्होंने बड़ी ख्याति प्राप्त कर ली। रामानन्द के शिष्यों में कबीर बहुत प्रसिद्ध हैं। इनकी मृत्यु 1411 ई0 में हो गयी।

6. रामानुजाचार्य-भक्ति के सिद्धान्त का प्रतिपादन करने वालों में रामानुजाचार्य का नाम अग्रगण्य है। उनका जन्म दक्षिण में 12वीं शताब्दी में हुआ था। उन्होंने विष्णु की भक्ति का उपदेश दिया और शंकराचार्य के अद्वैत मत का विरोध किया। उनका कहना था कि आत्या तथा परमात्मा भिन्न हैं, यद्यपि आत्मा का उसी से उदय होता है, जैसे आग से चिनगारी। वह पूर्ण निराकार वस्तु नहीं है, किन्तु उसमें सौन्दर्य तथा शोभा इत्यादि विशिष्ट गुण असीम मात्रा में पाये जाते हैं। इस प्रकार उन्होंने सगुण ईश्वर की उपासना की शिक्षा दी और दक्षिण भारत में बहुत-से लोग उनके अनुयायी हो गये। उनका सिद्धान्त विशिष्टाद्वैत के नाम से प्रसिद्ध है। उनकी मृत्यु लगभग
1137  ई0 हो गयी।

7.वल्लभाचार्य- जिस प्रकार रामानन्द रामभक्ति का उपदेश देते थे, उसी तरह वल्लभाचार्य ने कृष्णभक्ति का उपदेश दिया। वे दक्षिण के तैलंग ब्राह्मण थे। उनका जन्म 1479 ई० में हुआ था। अलौकिक प्रतिभा के धनी होने के कारण वह अल्पकाल में ही विधायन्माना हो गये। जे बाल-गोपाल के रूप में कृष्ण की उपासना करते थे। उन्होंने अपने भक्तों को प्रत्येक वस्तु कृष्ण की सेवा में समर्पित कर देने का आदेश दिया। समर्पण का अर्थ यह था कि प्रत्येक मनुष्य अपनी प्रत्येक वस्तु कृष्ण को अर्पित कर दे किन्त वल्लभाचाची के उपरान्त उनके अनुयायियों ने इस सिद्धान्त का भौतिक अर्थ लगाया। इस कारण उसकी पवित्रता एवं मान्यता कम हो गयी।

8. निम्बार्काचार्य-निम्बार्काचार्य रामानुजाचार्य के समकालीन थे। इन्होंने कृष्णभक्ति पर बल दिया। इनके अनुसार कृष्णभक्ति से मोक्ष प्राप्त हो सकता है। इनका सिद्धान्त अद्वैत तथा द्वैत दोनों में सामंजस्य स्थापित करता है।

9. मध्वाचार्य-माधवाचार्य का जन्म 1199 ई० में हुआ था। ये भगवान् विष्णु के उपासक थे। इन्होंने युवावस्था में संन्यास धारण किया। इनका अध्ययन व्यापक था। इन्होंने शास्त्रार्थ में अपने विरोधियों को पराजित किया था। आप हरिद्वार में रहते थे। वहीं पर वेदान्त घर इन्होंने भाष्य तैयार किया। इन्होंने शंकराचार्य के अद्वैतवाद तथा रामानुजाचार्य के विशिष्टाद्वैतवाद का खण्डन किया। ये स्पष्ट द्वैतवाद के समर्थक थे। इन्होंने विष्णु की भक्ति पर जोर दिया। 1278 ई0 में इनकी मृत्यु हो गयी।




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