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डीएनए क्या है || What is DNA

 इस पोस्ट हम DNA के बारे में जानेंगे-



न्यूक्लिक अम्ल 

(Nucleic Acid)

सामान्य रूप से जीवधारियों की जीवित कोशिका में दो प्रकार के न्यूक्लिक अम्ल पाये जाते हैं इन्हें क्रमशः डी-ऑक्सी-राइबोन्यूक्लिक अम्ल (DNA) तथा राइबोन्यूक्लिक अम्ल (DNA) कहते हैं। जीवधारियों में यह आनुवांशिक पदार्थ के रूप में पाया जाता है। इसमें कार्बन (C) ऑक्सीजन (O) हाइड्रोजन (H) नाइट्रोजन (N) तथा फास्फोग्रः (P) आदि तत्व होते हैं। इसे सर्वप्रथम (F. Miescher) ने 1868 में सर्वप्रथम लसीका कोशिकाओं से पृथक किया तथा इसकी अम्लीय प्रकृति होने के कारण इसका नाम न्यूक्लिक अम्ल रखा ।



प्राप्ति स्थान (Occurrence) DNA लगभग समस्त जीवधारियों की कोशिकाओं में पाया जाता है केवल यह पादप विषाणुओं में नहीं पाया जाता है क्योंकि इन कोशिकाओं में RNA आनुवंशिक पदार्थ के रूप में पाया जाता है। यूकैरियोटिक कोशिकाओं में यह प्रोटीन्स के साथ मिल कर न्यूक्लियोप्रोटीन्स बनाता है। कुछ प्रोकैरियोटिक कोशिकाओं जैसे बैक्टीरिया, Escherichia-coli में DNA एकल आण्विक रूप से होता है जिसकी लम्बाई 10004 तक होती है तथा इसमें कोई सहायक प्रोटील्स नहीं आता है। इसके अतिरिक्त लगभग समस्त पादपों तथा जन्तुओं तथा अनेक विषाणुओं में DNA दोहरी पट्टिका (Double Strands) के रूप में पाया जाता है। कुछ विषाणुओं में आनुवांशिक पदार्थ RNA के रूप में होता है जबकि टोबैको मोजैक विषाणु (T.M.V.) इन्फ्लूएन्जा विषाणु, वैवटीरियल विषाणुओं या पोलियोमाइटिक्स विषाणुओं में डी. एन. ए. एकल पट्टिका द्वारा निर्मित होता है। जीवाणुओं तथा उच्चकोटि के पादप तथा जन्तुओं में DNA तथा RNA दोनों ही पाये जाते हैं।


बाह्य आकारिकी

 (External Morphology)

डी-आक्सी राइबोन्यूक्लिक अम्ल (DNA) अत्यधिक आणिवक भार वाला दीर्घ अणु है इसका आण्विक भार एक हजार से लेकर कई लाख तक होता है।

आकृति (Shape) - प्रोकैरियोटिक कोशिकाओं में DNA का आकार लम्बा तथा सर्पिलाकार (Spiral) होता है जो बाह्य रूप से कुण्डलित अशाखित तन्तुओं के समान प्रतीत होता है। कुछ सामान्य कोशिकाओं जैसे लवकों तथा अन्य कोशिकाओं में DNA की आकृति वृत्ताकार होती है।


DNA का रासायनिक संगठन 

(Chemical Composition of DNA)

DNA की संरचना काम्प्लेक्स दीर्घ आण्विक रूप में होती है अथवा इसकी रासायनिक प्रकृति बहुरूपी रासायनिक यौगिकों के रूप में होती है जिनमें चार प्रकार के मोनोमर्स (Monomers) पाये जाते हैं। जिन्हें डी-ऑक्सी राइबोटाइड्स या डी-आक्सी राइबोन्यूक्लियोटाइड्स कहते हैं। इनमें से प्रत्येक राइबो न्यूक्लियोहाइड्स का निर्माण तीन मोईटीस (Moieties) से होता है। इसके रासायनिक संगठन को सर्वप्रथम (Levene) ने बताया, जिनमें से एक फास्फोरिक अम्ल अणु (फास्फेट) एक डी आक्सी-राइबोस तथा नाइट्रोजनी आधारों से मिलकर DNA श्रृंखला का निर्माण होता है। Fisher ने 1880 में बताया कि DNA एक नाइट्रोजन युक्त कार्बनिक यौगिक है जिन्हें क्रमशः प्यूरीन्स तथा पिरीमिडीन्स समूहों में विभक्त करते हैं। प्यूरीन्स तथा पिरीमिडीन बेस डी आक्सी राइबोज शर्करा अणुओं के द्वारा जुड़े होते हैं। इस प्रकार DNA के डी-आक्सी राइबोन्यूक्लियोटाइड्स में चार प्रकार के नाइट्रोजन युक्त शार होते हैं। जिन्हें क्रमशः एडनीन (Adenine) (A), ग्वानीन (Guanine) (G), थाइमीन (Thymine) (T) तथा साइटोसीन (C) कहते हैं।

1. प्यूरीन्स (Purines) - यह हेटरोसाइक्लिक होते हैं अर्थात् इनमें दो कार्बन वलय (rings) पाये जाते हैं। इसके अन्तर्गन एडीनीन तथा ग्वानीन आतें हैं जिन्हें क्रमशः (A) तथा (G) के द्वारा प्रकट करते है।

2. पिरीमिडीन्स (Pyrimidines) - यह एक कार्बन वलय वाले यौगिक हैं जिन्हें क्रमशः थाईमीन (T) तथा साइटोसिन (C) के द्वारा निरूपित करते हैं।

DNA की आणुविक संरचना को व्यक्त करने के लिए वाटसन तथा क्रिक (Watson and Crick) ने 1953 में दोहरी हैलिकल संरचना व्यक्त की जिसके अनुसार DNA का अणु दोहरे हेलिक्म से युक्त संरचना है जिसमें दोनों हेलिक्स एक-दूसरे से रस्सी के समान सर्पिलाकार क्रम में कुण्डलित होते हैं जिनमें DNA के प्रत्येक स्ट्रेण्ड में समानान्तर क्रम में व्यवस्थित एक अणु डी-आक्सी राइबोज (पेण्टोन शर्करा), तथा फास्फेट समूह होता है। जो आपस में मिलकर एक सर्पिलाकार सोपान “spiral Stepe" का निर्माण करते हैं। प्रत्येक सोपान का निर्माण प्यूरीन्स तथा पिरीमिडीन तथा नाइट्रोजन युक्त क्षारों से होता है। दोनों ही आधार, डी-आक्सी राइबोज शर्करा के द्वारा जुड़े होते हैं। इस प्रकार DNA के दोनों पट्टिकाएँ इस प्रकार से कुण्डलित होती हैं कि दाहिनी तरफ का हेलिक्स विपरीत दिशा आगे की तरफ गति करता है। DNA की एक पट्टिका के सम्पूर्ण कुण्डलन (tum) की दूरी 34A° तक होती है तथा उसका प्रत्येक न्यूक्लियोटिड 3.4A° का स्थान घेरता है। इस प्रकार DNA के सम्पूर्ण घुमाव (turn) में 10 न्यूक्लियोटाइड्स होते हैं। प्रत्येक न्यूक्लियोटाइड क्षैतिज अक्ष से 36° में घूमता है डी.एन.ए. अणु की चौड़ाई 20A° तक होती है। DNA के स्ट्रेण्ड का कुण्डलन के कारण गहरे तथा छिछले सर्पिलाकार खाँचों का निर्माण होता है।


इस प्रकार DNA का अणु पॉलीमर (Polymer) होता है जिसकी रचना कई हजार जोड़ो के न्यूक्ल्यिोटाइड (मोनोमस्र) से मिलकर होती है। प्रत्येक न्यूक्लियोटाइड में डी-आक्सी राइबोज, नाइट्रोजनयुक्त आधार तथा फास्फेट समूह होता है जबकि डी-आक्सी राइबोज तथा नाइट्रोजन युक्त क्षार आपस में मिलकर न्यूक्लियोसाइड बनाते हैं।


डी आक्सीराइबोस (De-oxyribose)- यह पंचभुजी शर्करा के अणु हैं जिसमें 5 कार्बन परमाणु होते हैं। पाँच कार्बन परमाणुओं में से चार कार्बन परमाणु तथा आक्सीजन का अकेला परमाणु आपस में संयोजित होकर पंच सदस्यीय वलय का निर्माण करता है। इसमें से पाँचवौं कार्बन परमाणु वलय के बाहर होता है तथा CH2) समूह का एक भाग बनाता है। वलय के अन्दर चार कार्बन परमाणुओं को 1', 2', 3' तथा 4' से प्रकट करते हैं जबकि CH2) के कार्बन परमाणु 5 से व्यक्त करते हैं। हाइड्रोजन परमाणु, कार्बन परमाणु 1', 2', 3' तथा 4' से जुड़ा होता है।

राइबोस (Ribose) - इसकी संरचना पंचकोणीय शर्करा के अणुओं से मिलकर होती है तथा इसमें कार्बन परमाणु 2' में हाइड्रोजन के स्थान पर -OH समूह होता है तथा शर्करा के समस्त परमाणु एक पट्टिका में व्यवस्थित होते हैं तथा एक ही दिशा में निकले होते हैं।


नाइट्रोजन युक्त क्षार

(Nitrogenous Base)

नाइट्रोजन युक्त क्षार मुख्य रूप से दो प्रकार के होते हैं जिन्हें क्रमशः प्यूरीन्स तथा पिरीमिडीन कहते हैं। पिरीमिडीन एकल वलय युक्त यौगिक है जिनमें नाइट्रोजन की स्थित 1' तथा 5' होती है तथा इसमें 6 सदस्यीय बेन्जीन रिंग होती है जबकि प्यूरीन दोहरे वलय युक्त यौगिक हैं। प्यूरीन के अणु की रचना 5 सदस्यीय imidazole वलय से होती है जो पिरीमिडीन वलय से 4' तथा 5 पर जुड़ता है। यूरीन तथा पिरीमिडीन नाइट्रोजन युक्त क्षारों को निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है।

(A) प्यूरीन्स क्षार एडनीन - Adnine (A)

(Purine base) ग्वानीन - Guanine (G)

(B) पिरीमिडीन क्षार थाइमीन Thmine (T)

(Pyrimidine base) साइटोसीन Cytosine (C)

परन्तु RNA में थायमीन के स्थान पर यूरेसिल (U) होता है।

E.Charyeff ने विभिन्न प्रकार के जन्तुओं में पाये जाने वाले DNA का रासायनिक विश्लेषण किया तथा विश्लेषण के आधार पर निम्न आधारीय तथ्यों का अध्ययन किया, जिसके अनुसार-

1.DNA के अणु में प्यूरीन तथ पिरीमिडीन के अवयव समान मात्रा में पाये जाते हैं।

2. एडीनीन (A) की मात्रा सदैव थाइमीन (T) के बराबर होती है इसी प्रकार साइटोसिन (C)

तथा ग्वानीन (G) भी समान अनुपात में होता है।

3. विभिन्न वर्ग के जीवों के DNA में क्षारीय अनुपात (A + TIG + C) अलग-अलग होता है  किन्तु एक ही जाति के भिन्न-भिन्न जीवों में यह मात्रा निश्चित होती है DNA के इस अनुपात के कारण ही विभिन्न प्रकार के जीवों में विभिन्न जातियाँ निर्धारित होती हैं।

क्षार का युग्मन (Base pairing) - DNA का प्रत्येक सोपान (Step) की संरचना सर्पिलाकार होती है जिसका निर्माण प्यूरीन तथा पिरीमिडीन के जोड़ों से मिलकर होता है। अर्थात् दोहरे वलय (Dauble ring) के साथ एक वलय यौगिक (Single ring Compound) साथ में मिलकर एक 'जोड़ा बनाता है। ऐसा देखा गया है कि दो प्यूरीन्स जोड़े अधिक स्थान को घेरते हैं जबकि दो पिरीमिडीन कम स्थान को घेरते हैं क्योंकि DNA के किसी अणु में प्यूरीन तथा पिरीमिडीन का जोड़ा बनाते समय यूरीन्स की संख्या पिरीमिडीन्स की कुल संख्या के समान होती है। इस प्रकार A/T=1 तथा G/C=1 या A+G = C + T समान होता है तथा A + T/G +C का अनुपात हमेशा भिन्न होता है। परन्तु यह अनुपात निम्न वर्ग के जीवों में कम तथा उच्च जन्तुओं में अधिक होता है।

प्यूरीन्स तथा पिरीमिडीन क्षार हमेशा एक निश्चित स्थान पर ही जोड़ा बनाते हैं जिसमें एडीनीन हमेशा थाइमीन (A : T) के साथ तथा ग्वानीन, साइटोसीन (G: C) के साथ मिलते है। एडीनीन तथा ग्वानीन दो हाइड्रोजन बन्धों के द्वारा एक दूसरे से जुड़ते हैं तथा इनके परमाणु की जुड़ने की स्थित 6' 'तथा 1' होती है। इसी प्रकार साइटोसीन तथा ग्वानीन 6,1 तथा 2' की स्थित में तीन हाइड्रोजन बन्धों के द्वारा जुड़े होते हैं। हाइड्रोजन परमाणु में धनात्मक आवेश होता है इसलिए वह ऋणात्मक आवेश वाले आक्सीजन तथा नाइट्रोजन परमाणुओं के साथ जुड़ता है। हाइड्रोजन बन्ध दुर्बल होते है इसलिए यह DNA अणुओं के स्थायित्व प्रदान करते हैं क्योंकि दुर्बल हाइड्रोजन बन्धन (hydrogen bonding) होने के कारण DNA के द्विगुणन के समय दोनों पट्टिायें एक-दूसरे से पृथक हो जाते हैं। पिरामिडीन तथा प्यूरीन क्षार, डी आक्सीराइबोज शर्करा के अणुओं के साथ जुड़े होते है जिसमें पिरीमिडीन न्यूक्लियोसाइड्स की स्थित डी आक्सीराइबोज के 1' तथा पिरीमिडीन के 3 पर होती। इसी प्रकार प्यूरीन न्यूक्लियोसाइड्स की स्थित डी आक्सी राइबोज के 1' तथा प्यूरीन के 'के बीच में होती  है।

फास्फेट (Phosphate PO4) - DNA के स्टैण्ड में फास्फेट समूह डी-ऑक्सीराइबोस के बाद व्यवस्थित होता है जिसमें प्रत्येक फास्फेट समूह कार्बन परमाणु 3' के साथ एक ही आक्सी राबोस दूसरे कार्बन परमाणु 5' के साथ जुड़ता है अर्थात् प्रत्येक स्ट्रेण्ड के आमने-सामने 3 4 5 कार्यन सिरे होते हैं तथा दोनों ही स्टैण्ड विपरीत दिशा में स्थित होते हैं अर्थात् एक स्ट्रेण्ड का 3' सिरा दूसरे स्ट्रेण्ड के 5'सिरे के सामने स्थित होता है। डी आक्सी-राइबोस का आक्सीजन परमाणु दोनों की विपरीत दिशा में पाया जाता है। इस प्रकार न्यूक्लियोटाइड्स के दो जोड़ों के बीच में फास्फेट, डी आक्सी राइबोस तथा नाइट्रोजन युक्त क्षार बन्धकों के द्वारा जुड़े होते हैं।


न्यूक्लियोसाइड्स तथा न्यूक्लियोटाइड्स

(Nucleosides and Nucleotides)

DNA की श्रृंखला में एक शर्करा का अणु तथा नाइट्रोजन युक्त भार न्यूक्लियोसाइड्स (Nucleoside) का निर्माण करता है तथा न्यूक्लियोसाइड और फास्फेट समूह मिल कर न्यूक्लियोटाइड बनाता है दूसरे शब्दों में न्येक्लियोसाइड एक क्षार-शर्करा संगठन है जबकि न्यूक्लियोटाइड, एक न्यूक्लियोसाइड फास्फेट का समूह है। RNA के न्यूक्लियोटाइड्स, राइबोन्यूक्लियोटाइड्स कहलाते है जो DNA के डी-आक्सी राइबोन्यूक्लियोटाइड्स का निर्माण करते हैं जिनमें क्रमशः शर्करा राइबोस तथा शर्करा डी-आक्सी राइबोस पाया जाता है।

राइबोस में न्यूक्लियोसाइड कार्बन पर 2', 3' तथा 5' हाइड्राक्सिल न्यूक्लियोसाइड तथा न्यूक्लियोटाइड समूह होता है। जिसके कारण फास्फेट का अणु इनमें से किसी भी स्थित पर चिपक सकता है। सामान्य रूप से सभी न्यूक्लियोसाइड्स मोनोफास्फेट होते हैं।

DNA के अणु में चार प्रकार के न्येक्लियोसाइड्स पाये जाते हैं

1. एडिनोसिन -----> एडीनीन + 'डी आक्सी राइबोस

2. ग्वानोसिन---> ग्वानीन + डी आक्सी राइबोस

3. साइटीडीन -----> साइटोसीन + डी आक्सी राइबोस

4. थाईमिडीन -----> थाइमीन + डी आक्सी राइबोस


डी.एन.ए. की पालीन्यूक्लियोटाइड संरचना

(Poly nucleotide chain of DNA)

DNA एक दीर्घ अणु है जिसका निर्माण कई हजार न्यूक्लियोटाइड्स के मिलने से होता है। इन्हें मोनोमस्र (Monomers) कहते हैं। न्यूक्लियोटाइड में फास्फेट (फास्फोरिक अम्ल) अणु एस्टर अणु की बंधता के द्वारा डी आक्सी राइबोस अणु के पाँचवें कार्बन परमाणु से जुड़ा रहता है तथा दो परस्पर संलनग्न न्यूक्लियोटाइड्स एक न्यूक्लियोटाइड्स के फास्फेट अणु तथा दूसरे के शर्करा अणु के बीच फास्फोडाइऐस्टर बाण्ड के द्वारा परस्पर जुड़ते हैं तथा एक शर्करा-फास्फेट श्रृंखला का निर्माण करते हैं।


इस श्रृंखला में शर्करा तथा फास्फेट अणु एकान्तरण क्रम में इस प्रकार से व्यवस्थित होते हैं कि जिसमें किसी न्यूक्लियोटाइड्स का फास्फेट अणु दूसरे न्यूक्लियोटाइड के डी-आक्सी राइबोस के तीसरे कार्बन परमाणु के द्वारा जुड़ता है तथा नाइट्रोजन युक्त क्षार डी ऑक्सी-राइबोस के प्रथम कार्बन परमाणु से जुड़ा रहता है। इस प्रकार पॉली न्यूक्लियोटाइड' श्रृंखला का निर्माण होता है। ये पॉलीन्यूक्लियोटाइड श्रृंखला के अनुदैर्ध्य अक्ष के समकोण (90°) पर तथा एक दूसरे के ऊपर समानान्तर क्रम में व्यवस्थित होते हैं तथा इसमें किसी पॉलीन्यूक्लियोटाइड श्रृंखला के एक सिरे की शर्करा का C-5 किसी अन्य न्यूक्लियोटाइड से नहीं जुड़ते हैं। इसलिए इन्हें अलग-अलग (क्रमशः 3' तथा 5) सिरे कहते हैं | DNA की श्रृंखला सीधी नहीं होती है बल्कि कुण्डलिनी (Spiral) के रूप में होती है।

DNA का भौतिक तथा आण्विक संगठन

(Physical and Molecular Organisation of DNA)

W.T.Astbury प्रथम जीव वैज्ञानिक थे जिन्होंने DNA की त्रिविम संरचना (3D Structure) को देखा जिसके लिए उन्होंने 1940 में DNA अणु की x-ray क्रिस्टलीय ग्राफिक अध्ययन किया। क्योंकि DNA का घनत्व अधिक था। इसलिए उन्हें दिखाई देने वाले पॉली न्यूक्लियोटाइड्स, चपटे न्यूक्लियोटाइड्स के चपटे गट्ठर (Stack) के रूप में थे। जिनमें से प्रत्येक अपने अणु के लम्बवत अक्ष के क्षेतिज दिशा में स्थित होता है तथा न्यूक्लियोटाइड्स का यह स्टैक प्रत्येक 3.4A दूरी पर होता है। Astbury के x-ray क्रिस्टैलोग्राफिक अध्ययन को Wikins सत्यापित किया तथा उसके पश्चात Rosalind Franklin ने भी DNA की त्रिविम संरचना अध्ययन करते हुए एस्टबरी तथा विल्किन्स के सिद्धान्त को समर्थन दिया और स्पष्ट रूप से प्रमाणित किया कि प्रत्येक इण्टर न्यूक्लियोटाइड की दूरी 3.4A होती है तथा इसी आधार पर उन्होंने DNA के हेलिकल मॉडल को निरूपित किया। वाटसन तथा क्रिक ने डी.एन.ए. की दोहरे हेलिकल संरचना (Double helical structure) का एक मॉडल प्रस्तुत किया जिसके अनुसार DNA एक पॉलीन्यूक्लियोटाइड श्रृंखला है जो हेलिक्स के रूप में पायी जाती है। हेलिक्स का व्यास 20A तक होता है तथा हेलिक्स के सम्पूर्ण कुण्डलन की लम्बाई 34A°  तक होती है। जबकि इण्टर न्यूक्लियोटाइड के मध्य की दूरी 3.4A°  होती है। प्रत्येक कुण्डलन में दस न्यूक्लियोटाइड्स का समूह होता है। वाटसन तथा क्रिक ने निष्कर्ष निकाला कि हेलिक्स की रचना दो पॉलीन्यूक्लियोटाइड श्रृंखलाओं से होती है। जिसकी निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं।

1. DNA के प्रत्येक अणु का निर्माण दो पॉलीन्यूक्लियोटाइड. श्रृंखलाओं द्वारा होता है।

2. दोनों श्रृंखलाएँ अपने अक्ष के चारों ओर एक सर्पिलाकार (Spiral) क्रम में व्यवस्थित होती है तथा यह श्रृंखलाएँ अपने विपरीत दिशा में इस प्रकार से व्यवस्थित होती हैं कि एक का 3 सिरा दूसरी श्रृंखला के 5: सिरे के साथ स्थित होता है।

3. प्रत्येक श्रृंखला में अनेक न्यूक्लियोटाइड्स फास्फेट अणुओं के द्वारा परस्पर जुड़े होते हैं तथा उनके मध्य में फास्फो डाइएस्टर बन्ध होता हैं।

4. प्रत्येक न्यूक्लियोटाइड की रचना पेण्टोज शर्करा (डी आक्सी-राइबोज) नाइट्रोजन युक्त क्षार तथा फास्फोरिक अम्ल के एक-एक अणु से होती है जिसमें नाइट्रोजिनस क्षार का अणु पेण्टोज शर्करा से अन्दर की ओर तथा फास्फेट अणु से बाहर की ओर जुड़ा रहता है।

5. DNA के दोनों न्यूक्लियोटाइड्स श्रृंखलाओं में प्यूरीन्स तथा पिरीमिडीन की मात्रा समान होती है। जिसमें एक श्रृंखला के प्यूरीन दूसरी श्रृंखला के पिरीमिडीन से जुड़े होते हैं।

6. दोनों श्रृंखलाओं के न्यूक्लियोटाइड्स भी परस्पर जुड़े रहते हैं तथा इनके नाइट्रोजन युक्त क्षार भी दुर्बल हाइड्रोजन बन्धों की सहायता से जुड़े रहते हैं।

7. एक श्रृंखला की एडीनीन दूसरी श्रृंखला के थाइमीन (T) से जुड़ता है। इसी प्रकार साइटोसीन दूसरी श्रृंखला के ग्वानीन (G) से सम्बन्धित होता है। नाइट्रोजन युक्त क्षारों के परस्पर संयोजन को

निम्नलिखित समीकरण के द्वारा प्रकट किया जा सकता है।

(1) फास्फेट (PO4) + डीआक्सीराइबोस + साइटोसिन-----> ग्वानीन + डी आक्सीराइबोस +PO4

(i) फास्फेट (POK) + डीआक्सीराइबोस + थाइमीन ---> एडीनीन + डी आक्सीराइबोस +PO4

8. दोनों श्रृंखलाओं के शर्करा अणुओं की दूरी 11A°होती है तथा नाइट्रोजन युक्त क्षारों और शर्करा के C1 परमाणुओं को आपस में जोड़ने वाले बाण्ड हमेशा 51° का कोण बनाते है।

9. एडीनीन तथा थाइमीन के बीच दो हाइड्रोजन बन्ध होते हैं जबकि साइटोसीन व ग्वानीन के मध्य तीन हाइड्रोजन बन्ध होते हैं।

10. DNA के दोनों श्रृंखलाओं के मध्य में 20A° की दूरी होती है जबकि एक ही श्रृंखला के मध्य किसी भी न्यूक्लियोटाइड्स की दूरी 3.4A° होती है।

11. कुण्डली का एक सम्पूर्ण चक्कर 34A° के अन्तर में पूर्ण होता है तथा प्रत्येक चक्कर में दस न्यूक्लियोटाइड्स होते हैं। जिनमें से प्रत्येक न्यूक्लियोटाइड के मध्य की दूरी 3.4A° होती है।

12. DNA की दोनों श्रृंखलाएँ एक-दूसरे की विपरीत दिशा में स्थित होती है अर्थात् एक श्रृंखला में शर्करा के कार्बन परमाणु 3'-5' दिशा में स्थित होते हैं परन्तु दूसरी श्रृंखला में इसके विपरीत कार्यर 3-5 दिशा में होते हैं।

इस प्रकार वाटसन तथा क्रिक के द्वारा प्रतिपादित DNA की आण्विक रचना का अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि एक सम्पूर्ण हेलिक्स का प्रतिवर्तन 34A होता है जिसमें न्यूक्लियोटाइड्स के 10 जोड़े एक निश्चित क्रम में 3.4A की समान दूरी पर स्थित होते हैं। DNA हेलिक्स की सम्पूर्ण लम्बाई में दो प्रकार की खांच (groove) होती है जिन्हें क्रमशः संकीर्ण खाँच तथा चौड़ी खाँच कहते है। चौड़ी खाँच क्रमिक परिवर्तनों के बीच द्विक स्थान को निरूपित करती है जबकि संकीर्ण खाँच युग्मित अणुओं के मध्य की दूरी को प्रदर्शित करती है।

आधुनिक खोजों ने वाटसन तथा क्रिक के द्वारा प्रतिपादित DNA के आण्विक माडल को पूर्ण समर्थन दिया है तथा वैज्ञानिकों द्वारा किये गये आधुनिकतम अध्ययनों के आधार से यह स्पष्ट होता है कि DNA की दोनों ही श्रृंखलाएँ न्यूक्लियोटाइड्स की प्यूरीन तथा पिरीमिडीन बन्धुता के द्वारा दोहरी अवस्था में रहती है। जिसमें हाइड्रोजन परमाणु के द्वारा एक पिरीमिडीन तथा प्यूरीन के मध्य क्रास बन्धुता (Cross linkage) पायी जाती है। इस बन्धुता में हाइड्रोजन बाण्ड दुर्बल होने के कारण आसानी से टूट जाते हैं। रासायनिक विश्लेषणों के आधार पर यह भी स्पष्ट होता है कि DNA के एक स्ट्रेण्ड में एडीनीन की मात्रा DNA के आण्विक संरचना में प्यूरीन तथा पिरामिडीन को क्रमशः A-T, T-A.G-C तथा C-G कहते हैं। यह संयोग बाद में विभिन्न अनुक्रमों में व्यवस्थित होकर कोड (Code) का निर्माण करते हैं।

DNA का जैवीय महत्व

 (Biological significance of DNA)

DNA कोशिका का महत्वपूर्ण आनुवंशिक पदार्थ है जो निम्नलिखित विशेष कार्यों को सम्पन्न करता है।

(A) स्वतः द्विगुणन (Self duplication) - DNA में स्वतः द्विगुणन की विशेष क्षमता पायी जाती है। DNA के प्रत्येक स्ट्रेण्ड की रचना एक काम्प्लीमेण्ट्री स्ट्रैण्ड के समान होती है जो एक टेम्पलेट (Tamplete) की भाँति कार्य करती है। क्योंकि किसी स्ट्रेण्ड में नाइट्रोजन युक्त क्षारों का क्रम आसानी से दूसरे स्ट्रेण्ड के क्षारों में प्रतिरक्षित हो जाता है।

2. DNA पर्याप्त रूप से एक स्थायी रचना है जिसमें उत्परिवर्तन (Mutation) एवं आनुवंशिकी सम्बन्धी परिवर्तन की संभावनाएँ बहुत ही कम होती हैं।

3. DNA की दोहरी हेलिक्स संरचना स्थायी होती है। जिसमें जीव की समस्त कोडेड सूचनाएँ संकलित रहती हैं। दो पॉलीन्यूक्लियोटाइड श्रृंखला का क्षारीय क्रम काम्प्लीमेन्ट्री होता है इसलिए DNA के अणु में कोडेड सूचनाएँ दोहरे क्रम में संचित रहती है यदि किसी श्रृंखला में कोई क्रम विघटित हो जाता है तो दूसरी श्रृंखला में स्थित सही क्रम के द्वारा त्रुटि दूर हो जाती है तथा काम्प्लीमेन्ट्री स्ट्रैग सही सूचना में प्रविष्ट हो जाता है।

4. DNA में उपर्युक्त सूचनाओं को किसी लक्षण के रूप में नयी पीढ़ी में स्थानान्तरित करने की विशेष क्षमता होती है।

5. DNA की संरचना प्रोटीन संश्लेषण के लिए उपयुक्त सूचनाओं के स्थानान्तरण को समझने में सहायक होती हैं। क्योंकि यह सूचनाएँ नाइट्रोजन युक्त क्षारों के क्रम में कोडेड होती है अगर यही क्रम से दूसरे अणु (MRNA) में कोडेड हो जाता है तो नयी सूचनाओं का स्थानान्तरण DNA के द्वारा हो जाता है।


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