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अर्धसूत्री विभाजन क्या है || what is meiosis ? in hindi

इस पोस्ट में हम अर्धसूत्री विभाजन का विस्तार से वर्णन, कोशिका विभाजन की परिभाषा,हेटरोटाइपिक विभाजन का वर्णन ,होमोटाइपिक विभाजन,अर्धसूत्री विभाजन के महत्वों का वर्णन के बारे में जानेंगे-



अर्धसूत्री विभाजन क्या है


अर्धसूत्री विभाजन (Meiosis Cell division) -

मियोसिस (Meiosis) शब्द की उत्पत्ति ग्रीक शब्द (Meioum to reduce) से हुई है क्योंकि इसमें पुत्री कोशिकाओं में गुणसूत्रों की संख्या घट जाती है अर्थात् पुत्री कोशिकाओं में गुणसूत्रों की संख्या मातृ कोशिका से आधी रह जाती है। इस प्रकार की कोशा विभाजन का अध्ययन सर्वप्रथम J. B. Farmer ने 1905 में किया। अर्ध-सूत्री कोशा विभाजन का जीवों में विशेष महत्व है। अर्धसूत्री विभाजन केवल जनन कोशिकाओं में होता है तथा यह विभाजन लैंगिक जनन के समय होता है जिसमें गुणसूत्रों की संख्या प्रारम्भ में द्विगुणित (Diploid = 2n) होती है तथा इस विभाजन के फलस्वरूप संतति कोशाओं में गुणसूत्रों की संख्या मातृ कोशाओं से आधी अर्थात् अगुणित (Haploid) n रह जाती है। बाद में नर तथा मादा युग्मकों के मिलने के परिणामस्वरूप युग्मनज (Zygote) बनता है जिससे गुणसूत्रों की संख्या पुनः द्विगुणित (Diploid) हो जाती है। इस प्रकार द्विगुणित जनन कोशा में गुणसूत्रों की संख्या घटने से युग्मकों में अर्धसूत्री विभाजन के परिणामस्वरूप अगुणित (Haploid) गुणसूत्र (n) रह जाते हैं जिससे जीवों की विभिन्न जातियों में गुणसूत्रों की संख्या स्थिर हो जाती है।

अर्धसूत्री विभाजन की प्रक्रिया (Process of Meiosis)

अर्थसूत्री विभाजन में किसी द्विगुणित कोशिका का दो बार पूर्व विभाजन होता है जिसके परिणामस्वरूप चार अगुणित संख्या वाली कोशिकायें बनती हैं। अर्धसूत्री विभाजन प्रथम में पूर्वावस्था लम्बी होती है जिसमें समजात गुणसूत्र एक-दूसरे से सम्बन्धित हो जाते हैं तथा गुण-सूत्रों के मध्य आनुवांशिक पदार्थों का आवागमन हो जाता है। इसके पश्चात पृथक अर्धसूत्री विभाजन के फलस्वरूप गुणसूत्रों की संख्या घट जाती है तथा दो अगुणित कोशिकाओं का निर्माण हो जाता है। प्रथम अर्थसूत्री विभाजन पूर्ण होने की प्रक्रिया को हेटरोटाइपिक विभाजन (Heterotypic division) कहते हैं। उसले पश्चात द्वितीय अर्धसूत्रीय विभाजन होता है जिसमें समसूत्री विभाजन प्रारम्भ होता है जिसमें समसूत्री विधि के द्वारा अगुणित कोशिकाओं का विभाजन होता है। अर्धसूत्री विभाजन की द्वितीय प्रक्रिया में होमोटाइपिक विभाजन (Homotypic division) कहते हैं। इस प्रकार के विभाजन में गुणसूत्रों का जोड़ा नहीं बनता है तथा गुणसूत्रों की संख्या में कमी हो जाती है तथा अनुवंशिक पदार्थों का आदान-प्रदान भी नहीं होता है। इस प्रकार अर्धसूत्री कोशिका विभाजन पूर्ण होने पर एक मातृ कोशिका जिसमें गुणसूत्रों की संख्या द्विगुणित (2n) होती है। उससे चार पुत्री कोशिकायें बन जाती हैं तथा प्रत्येक कोशिका में केवल अगुणित (n) गुणसूत्र ही रह जाते हैं।

(1) हेटरोटाइपिक विभाजन या प्रथम अर्थसूत्री विभाजन (Heterotypic or First Meiotic,
Division) -

 प्रथम अर्धसूत्री विभाजन के प्रारम्भ में केन्द्रक की मियोसाइट का आकार बड़ा हो जाता है। क्योंकि यह जल को कोशाद्रव्य से अवशोषित कर लेता है। उसके पश्चात् केन्द्रक का परिमाण बढ़ है तथा केन्द्रक के आयतन बढ़ जाने के कारण उसमें केन्द्रकीय तत्वों की वृद्धि होती है। कोशिका में इन परिवर्तनों के पश्चात् प्रथम अर्धसूत्री विभाजन की तैयारी पूर्ण हो जाती है। अर्धसूत्री विभाजन को सुगमता से समझने के लिये निम्न प्रावस्थाओं में विभक्त किया गया है-


प्रथम अर्धसूत्री कोशिका विभाजन की प्रोफेज की विभिन्न उपावस्थायें


1. प्रथम पूर्वावस्था (First Prophase) -

अर्धसूत्री कोशा विभाजन की यह सबसे लम्बी प्रावस्था है जिसे अनेक उप-अवस्थाओं में विभाजित किया गया है। इस अवस्था में केन्द्रक का आकार बढ़ जाता है तथा इसमें पायी जाने वाली DNA की मात्रा भी बढ़कर दो गुनी हो जाती है तथा DNA का संश्लेषण से होता है। इसकी प्रथम उप-अवस्था को पूर्व-लेप्टोटीन (Pre-Leptotene) कहते हैं।

(A) पूर्व-लेप्टोटीन (Pre-Leptotene) - 


पूर्व लेप्टोटीन प्रावस्था लगभग पूर्व समसूत्री प्रावस्था के समान होती है। इस अवस्था में गुणसूत्रों की रचना लम्बी तथा महीन होती है जो अकुण्डलित, अत्यन्त सम्बी धागेनुमा संरचना बनाते हैं।

(B) लेप्टोटीन या लेप्टोनीमा (Leptotene or Leptonema) -

1. इस प्रावस्था में केन्द्रक आकार अत्यधिक बढ़ जाता है जिसके परिणामस्वरूप उसका परिमाण भी अधिकतम हो जाता है।

2. गुणसूत्र विभेदित होकर लम्बे तथा अकुण्डलित धागे के समान हो जाते हैं तथा यह गुणसूत्र अनियमित रूप से जुड़े रहते हैं। प्रत्येक गुणसूत्र की आकृति माले के समान (Beaded) हो जाती है क्योंकि गुणसूत्रों पर बहुत सी दानेदार कणिकायें लगी रहती हैं, इन कणिकाओं को क्रोमोमीयर्स कहते हैं। इस उप-अवस्था में समसूत्री विभाजन के समान प्रत्येक गुणसूत्र लम्बाई में विभाजित नहीं रहता अपितु एक धागे के समान रचना बनाता है। जैसे-जैसे प्रोफेज अवस्था बढ़ती जाती है गुणसूत्रों में छोटे-छोटे कुण्डलन बन जाते हैं जिनसे बाद में दीर्घ कुण्डलन (Major Coils) बनते हैं।

(C) जाइगोटीन या जाइगोनीमा (Zygotene orzygonema) - 

यह अर्धसूत्री विभाजन की पूर्वावस्था की महत्वपूर्ण उप-अवस्था है जिसमें निम्नलिखित विशेषतायें पायी जाती हैं।

1. यह क्रिया साइनैप्सिस (Synapsis) कहलाती है जिसके द्वारा जो जोड़े बनते हैं उन्हें बाइवैलेन्ट्स (Bivalents) कहते हैं। प्रत्येक गुणसूत्र दो क्रोमैटिड्स में विभाजित हो जाता है। इस प्रकार प्रत्येक बाइवैलेन्ट में चार क्रोमैटिड्स होते हैं, इसलिये गुणसूत्र की यह दशा टेट्राड (Tetrad) कहलाती है।

2. जाइगोटीन अवस्था में गुणसूत्र निम्न प्रकार से जोड़ा बनाते हैं
(a) दो समजात गुणसूत्र अपने सिरों से जोड़ा बनान करते हैं। गुणसूत्रों के इस प्रकार से जोड़ा बनाने को प्रोटोटर्मिनल कहते हैं।

(b) दूसरी अवस्था में गुणसूत्र सेन्ट्रोमीयर के पास से जोड़ा बनाना आरम्भ करते हैं तथा आगे बढ़ते हुए गुणसूत्रों के सिरों तक जाते हैं। इस प्रकार की प्रक्रिया प्रोसेन्ट्रिक साइनैप्सिस कहलाती है।

(c) इस प्रकार के गुणसूत्रों के जोड़ा बनाने की प्रक्रिया में गुणसूत्र फैले हुए क्रम (Scattered Pattern) में जोड़ा बनाते हैं जिससे गुणसूत्रों के छोटे टुकड़े अपने ही जैसे टुकड़ों के साथ मिलकर जोड़ा बनाते हैं।

3. जब गुणसूत्र जोड़ा बना लेते हैं तो यह आपस में पैरानेमिक कुण्डनल (Paranemic Colls) के द्वारा कुण्डलित हो जाते हैं क्योंकि गुणसूत्रों का आधार छोटा तथा कुण्डलित हो जाता है। इसलिये एक जोड़ी के दोनों सजातीय गुणसूत्र एक-दूसरे के समीप आकर युग्मित हो जाते हैं। इस प्रकार से बने युग्मित जोड़े को द्विसंयोजी (Bivalent) कहते हैं।

4. केन्द्रिका का आकार बढ़ जाता है। इसके पश्चात् सेन्टरियोल्स गति करते हैं तथा स्पिंडल निर्माण के लिये प्रेरित करते हैं।

(D) स्थूल सूत्रावस्था अथवा पैकीटीन (Pachytene or Pachynema) -

इस अवस्था में साइनैप्सिस पूर्ण हो जाती है। पैकीटीन अवस्था में निम्नलिखित परिवर्तन होते हैं-

1. दो समजात गुणसूत्र एक-दूसरे से सर्पिलाकार क्रम में रस्सी के समान इस प्रकार मुड़ जाते हैं कि उन्हें आसानी से पहचाना नहीं जा सकता है।

2. इस उप-अवस्था के मध्य में दोनों गुणसूत्र लम्बवत् विखण्डित होकर दो क्रोमैटिड्स बनाते हैं।
दोनी कोमैटिड्स गुणसूत्रों के ऊपर कुण्डलित हो जाते हैं।

3. उसके पश्चात् गुणसूत्र छोटे तथा मोटे हो जाते हैं। इसीलिये यह स्पष्ट रूप से दिखायी है। देने लगते हैं। गुणसूत्र छोटे तथा मोटे इसलिये दिखाई देते हैं क्योंकि इसके ऊपर कुण्डलन का व्यास बढ़ जाता है। माइनर कुण्डलन (Minor Coils) मुख्य कुण्डलनों (Main Coils) के दाहिनी तरफ प्रकार प्रकट हो जाते हैं। इस अवस्था में विनिमय (Crossing over) होता है। विनिमय में युग्मित गुणसूत्रों के अर्थ गुणसूत्र एक साथ अलग नहीं होता है बल्कि कुछ स्थानों पर एक गुणसूत्र के अर्थ गुणसूत्र (Chromatids) दूसरे गुणसूत्र के अर्थ-गुणसूत्र के साथ विशेष प्रकार का क्रास बनाते हैं। इन विशेष स्थानों को किऐज्येटा (Chiasmata) कहते हैं। इस प्रकार के विशिष्ट स्थानों पर एक गुणसूत्र के अर्थगुण सूत्र तथा दूसरे गुणसूत्र के अर्थ गुणसूत्रों में आपसी आदान-प्रदान होता है जिसे गुणसूत्रीय विनिमय (Crossing over) कहते हैं।

4. केन्द्रिका का आकार बढ़ जाता है तथा सेन्ट्रियोल दूर खिंचने लगते हैं। स्टेन तथा हाटा (Stern and Hotta) ने बताया कि पैक्तीन तथा जाइगोटीन अवस्थाओं। DNA का अल्प मात्रा का संश्लेषण भी होता है। संश्लेषित DNA की मात्रा का उपयोग टूटे हुए DNA अणु के पुनः निर्माण में होता है क्योंकि किऐज्मेटा निर्माण तथा गुणसूत्रों के विनिमय के समय गुणसूत्र टूट जाते हैं।


(E) डिप्लोटीन या डिप्लोनेमा (Diplotene or Diplonema) - 

यह अत्यन्त महत्वपूर्ण चरण है क्योंकि इस अवस्था में गुणसूत्रों में अनेक परिवर्तन होते हैं -
1. इस अवस्था में किऐज्मेटा और अधिक विकसित हो जाता है जिसे क्रास के समान संरचना के रूप में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।

2. क्योंकि गुणसूत्रों का कुण्डलन अधिक हो जाता है इसलिये यह छोटे तथा मोटे हो जाते है तथा गुणसूत्र वृक्काकार (Curved) रचना बनाते हैं।

3. इस अवस्था में दो समजात गुणसूत्रों के मध्य में प्रतिकर्षण होता है यह प्रतिकर्षण किऐज्मेटा क्षेत्र में होता है।

4. इस चरण के अन्त में दो समजात गुणसूत्रों के सेन्टरोमीयर्स प्रतिकर्षित होते हैं। क्रोमैटिड्स के पृथक होने के कारण कैजिमा (Chiasma) टेट्राड के सिरे की तरफ गति करते हैं। इस गति को जिपर
फैशन (Zipper Fashion) कहते हैं तथा इस प्रक्रिया को टर्मिनाइजेशन कहते हैं। टर्मिनाइजेशन के पश्चात् ट्रेटाड का आकार कैज़िमेटा की संख्या पर निर्भर करता है।

(F) डाइकाइनोसिस (Dikinesis) -

 यह प्रोफेज अवस्था का अन्तिम चरण है जिसकी निम्नलिखित विशेषतायें होती हैं

1. विधुवी-गुणसूत्र अत्यन्त छोटे तथा मोटे होते हैं जिन्हें स्टेप्सीनीम कहते हैं, क्योंकि प्रत्येक गुणसूत्रों के दोनों क्रोमैटिड्स एक-दूसरे के अत्यन्त निकट होते हैं। इसलिये पृथक हुए क्रोमैटिड्स को अलग-अलग पहचाना नहीं जा सकता है।

2. अगर डिप्लोटीन अवस्था में टर्मिनेलाइजेशन की प्रक्रिया पूर्ण नहीं हो पाती है तो इस अवस्था ने यह क्रिया पूर्ण हो जाती है।

3.केन्द्रिका (Nucleolus) लुप्त हो जाती है।

4. द्विध्रुवी एक-दूसरे के प्रतिकर्षित होते हैं तथा केन्द्रक झिल्ली के अन्दर केन्द्रक के परिधीय क्षेत्र में स्थानान्तरित हो जाते हैं।

5. केन्द्रकीय झिल्ली लुप्त हो जाती है तथा पूर्ण ऐक्रोमैटिक रचना का निर्माण सेन्ट्रीयोल के द्वारा हो जाता है

2.मेटाफेज प्रथम (Metaphasel) - 

अर्धसूत्री विभाजन की मध्यावस्था समसूत्री कोशा विभाजन के मध्यावस्था के काफी समान होती है। डाइकाइनेसिस के अन्त में केन्द्रकीय झिल्ली लुप्त हो जाती है। तथा ऐकाऐस्टर का निर्माण पूर्ण हो जाता है। इसके साथ ही साथ ऐक्रोमैटिक रचना के निर्माण होने के पश्चात् स्पिंडल तन्तुओं का निर्माण भी पूर्ण हो जाता है। मध्यावस्था प्रथम में द्विध्रुवी गुणसूत्र एक्वेटर पर पहुंच जाते हैं। इसके पश्चात् यह ध्रुवों पर इस प्रकार से स्थिति हो जाते हैं कि उनके रोन्ट्रियोल एक-दूसरे की तरफ केन्द्रित हो जाते हैं तथा उनके सेन्ट्रोमीयर्स स्पिंडल ध्रुवों की तरफ उन्मुख होते हैं जबकि उनकी भुजायें एक्वेटर की तरफ स्थित होती हैं।


3. प्रथम पश्चावस्था (Anaphase l) - 

इस अवस्था में द्विध्रुवी गुणसूत्र, कोशिका के विपरीत ध्रुवों की तरफ स्थानान्तरित हो जाते हैं तथा चारों क्रोमैटिड्स के ट्रेटाड एक-दूसरे से पृथक हो जाते हैं तथा डाइड्स (Dyads) का निर्माण करते हैं जिनमें प्रत्येक में दो क्रोमैटिड्स होते हैं। उसके पश्चात् डाइड के दोनों क्रोमैटिड्स केवल सेन्ट्रोमीयर को छोड़कर एक-दूसरे से पृथक हो जाते हैं तथा V के आकार की रचना बनाते हैं। इस प्रकार पश्चावस्था प्रथम के क्रोमैटिड्स अधिक छोटे तथा मोटे होते हैं।


4. टीलोफेज प्रथम (Telophase First) -

 जब गुणसूत्रीय डायड्स अपने-अपने ध्रुवों में पहुँच जाते हैं तो यह लम्बे हो जाते हैं और गुणसूत्रों के प्रत्येक ध्रुवी समूह के चारों तरफ के केन्द्रकीय झिल्ली प्रकट हो जाती है। टीलोफेज प्रथम अवस्था में केन्द्रिका पुनः प्रकट हो जाती है तथा केन्द्रकीय झिल्ली का निर्माण एण्डोप्लाज्मिक रेटीकुलम के द्वारा होता है। इस प्रकार दो पुत्री गुणसूत्रों का निर्माण हो जाता है जिसमें कैरियोकाइनेसिस के पश्चात् साइटोकाइनेसिस की प्रक्रिया पूर्ण होती है जिससे दो अगुणित कोशिकाओं (Haploid cells) का निर्माण हो जाता है।


5. इण्टरकाइनेसिस (Interkinesis) - 

टीलोफेज अवस्था के पश्चात् दोनों हैप्लायड सूत्री कोशिकाओं में विरामावस्था आती है। इस प्रकार टीलोफेज प्रथम तथा प्रोफेज द्वितीय के बीच की अवस्था को इण्टरकाइनेसिस या इण्टरफेज' कहते हैं। यह अवस्था अल्प समय के लिये होती है। कभी-कभी विरामावस्था नहीं होती है और कोशिकायें टीलोफेज प्रथम अवस्था से सीधे ही प्रोफेज द्वितीय अवस्था में बिना किसी परिवर्तन के ही पहुँच जाती हैं। विरामावस्था में ही केन्द्रक कला का निर्माण हो जाता है तथा गुणसूत्र व्यवस्थित हो जाते हैं तथा केन्द्रक का निर्माण करते हैं।

(1) होमियोटाइपिक विभाजन (Homeotypic Division) 


होमियोटाइपिक विभाजन को द्वितीय अर्थसूत्री विभाजन भी कहते हैं यह वास्तव में अर्धसूत्री विभाजन है जिसमें प्रत्येक अगुणित कोशिका विभाजित होकर दो हैप्लायड कोशिकायें बनाती हैं। होमियोटाइपिक विभाजन को निम्न चार अवस्थाओं में विभाजित किया गया है -

1. पूर्वावस्था द्वितीय (Prophase ll) - 
पूर्वावस्था द्वितीय में प्रत्येक सेन्ट्रीयोल दो में विभाजित हो जाता है जिसके परिणामस्वरूप दो जोड़ी सेन्ट्रीयोल्स का निर्माण हो जाता है। प्रत्येक जोड़ी सेन्ट्रीयोल अपने-अपने विपरीत ध्रुवों की तरफ स्थानान्तरित हो जाता है तथा डायड्स की भुजायें आपस में पृथक हो जाती है क्योंकि उनमें कोई आपसी कुण्डलन नहीं होता है। परन्तु प्रत्येक क्रोमेटिड्स कुण्डलर बनाता  है। प्रत्येक डायड्स क्रोमैटिड्स के साथ x के आकार की रचना बनाता है। जिसमें प्रत्येक क्रोमैटिड्स सेन्द्रोमीयर की सहायता से आपस में जुड़ता है। प्रोफेज द्वितीय अवस्था के अन्तिम चरण में केन्द्रिका लुप्त हो जाती है तथा साथ ही साथ केन्द्रकीय झिल्ली भी नष्ट हो जाती है तथा गुणसूत्र की एक्रोमैटिक संरचना विकसित हो जाती है।

2. मध्यावस्था द्वितीय (Metaphase II) -
 मध्यावस्था द्वितीय में गुणसूत्र के स्पिंडल ध्रुवों में व्यवस्थित हो जाते हैं तथा सेन्ट्रोमीयर दो में विभाजित हो जाता है। इस प्रकार प्रत्येक गुणसूत्र से दो पुनी गुणसूत्र उत्पन्न हो जाते हैं। स्पिंडल की सूक्ष्म माइक्रो नलिकायें गुणसूत्रों के सेन्ट्रोमीयर से चिपकी हुई अवस्था में पायी जाती हैं।

3. पश्चावस्था द्वितीय (Anaphase II) - 
इस अवस्था के आरम्भ में क्रोमैटिड्स तथा उनके पृथक सेन्ट्रोमीयर्स अपने-अपने ध्रुवों की तरफ विपरीत दिशा में स्थानान्तरित हो जाते हैं तथा सिस्टर गुणसूत्रो (Sister Chromosomes) का निर्माण करते हैं। इस अवस्था के गुणसूत्र समसूत्री विभाजन की पश्चावस्था के गुणसूत्रों के काफी समान होते हैं क्योंकि यह गुणसूत्र अर्धसूत्री विभाजन की ऐनाफेज अवस्था में पाये जाने वाले गुणसूत्रों की तरह छोटे तथा मोटे नहीं होते हैं। परन्तु फिर भी इनमें काफी समानता होती है।

4. द्वितीय अन्तावस्था (Telophase ll) -
 इस अवस्था में प्रत्येक ध्रुव के गुणसूत्र अकुण्डलित दशा में पाये जाते हैं तथा महीन केन्द्रकीय जाल बनाते हैं। गुणसूत्रों के समूह चारों तरफ से केन्द्रकीय झिल्ली के द्वारा घिर जाते हैं तथा केन्द्रिका पुनः प्रकट हो जाती है। इस प्रकार प्रत्येक कोशिका में दो केन्द्रिकायें बन जाती हैं। कोशिका में सम्पूर्ण परिवर्तन साइटोकाइनेसिस के द्वारा होता है। द्वितीय अन्तावस्था में प्रत्येक अगुणित पुत्री कोशिका से दो कोशिकाओं का निर्माण हो जाता है। इस प्रकार अर्थसूत्री विभाजन के परिणामस्वरूप एक मातृ कोशिका से चार पुत्री कोशिकायें बनती हैं जिनमें प्रत्येक कोशिका में अगुणित गुणसूत्रों का समूह होता है। उपरोक्त वर्णित अवस्थाओं तथा उप-अवस्थाओं से अर्धसूत्री विभाजन पूर्ण हो जाता है जिसकी प्रमुख विशेषता यह है कि दो बार केन्द्रकीय विभाजन होता है परन्तु केवल एक बार ही गुणसूत्रों का द्विगुणन होता है। जिसमें पहले पैतृक जोड़े से एक समजात गुणसूत्र आता है जो आपस में मिलकर टेट्राडस बनाता है उसके पश्चात् डायड्स का प्रत्येक गुणसूत्र लम्बवत् रूप में विखण्डित होकर ट्रेटाइस बनाता है। जिसमें दोनों कोमैटिड्स के जोड़े एक दूसरे के ऊपर लिपट जाते हैं। साइनेटोलाइनोसिस प्रक्रिया के अन्तर्गत बाद में यह किसी विशेष स्थान से टूटकर दूसरे समजात गुणसूत्र के क्रोमैटिड खण्ड से गुणसूत्रीय विनिमय (Crossing over) द्वारा जुड़ जाते हैं। इस प्रकार मातृ तथा पितृ गुणसूत्रों के क्रोमैटिड्स का विखण्डन होकर आपसी स्थानान्तरण हो जाता है। उसके पश्चात् ऐनाफेज अवस्था में दो समजात गुणसूत्र के जोड़े एक दूसरे से पृथक होकर दो हैप्लायड केन्द्रिकायें बनाते हैं। पृथक होकर अपने-अपने दो में चले जाते हैं। जहाँ पर यह हैप्लायड कोशिकाओं का निर्माण करते हैं। अन्त में पुनः द्वितीय विभाजन है जो सरल सूत्री विभाजन के समान होता है। जिसके अन्त में एक मातृ कोशिका से चार पुत्री कोशिकाओं का निर्माण होता है।


अर्धसूत्री विभाजन का महत्व
(Significance of Meiosis Cell Division)

अर्धसूत्री विभाजन का विशेष जैवीय महत्व है क्योंकि यह जीवधारियों की जनन क्रिया इसी के द्वारा नियंत्रित होती है। अर्धसूत्री विभाजन का महत्व निम्न प्रकार से है -

1. किसी जीवधारी में अर्धसूत्री विभाजन का विशेष महत्व है क्योंकि इससे जीवों में गुणसूत्रों की संख्या निश्चित तथा स्थायी रहती है।

2. अर्धसूत्री विभाजन के द्वारा एक डिप्लायड कोशिका (2n) से चार पुत्री कोशिकायें बनती है जिसमें गुणसूत्रों की संख्या हैप्लायड (n) होती है। इन चार हैप्लायड कोशिकाओं से जो युग्मक बनते हैं। उसमें प्रत्येक में गुणसूत्रों की संख्या दूसरी कोशिका की अपेक्षाकृत आधी होती है तथा जब निषेचन के समय नर तथा मादा युग्मकों (हैप्लायड संख्या = n) का आपस में संयोजन होता है तो जाइगोट में गुणसूत्रों की संख्या पुनः (दो गुनी) डिप्लॉयड हो जाती है। इस प्रकार अर्थसूत्री विभाजन एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें युग्मकों के मिलने से निर्मित जाइगोट में गुणसूत्रों की संख्या वही होती है जो जीवधारियों की दैहिक कोशा (Somatic cells) में होती है। अतः अर्धसूत्री विभाजन निषेचन के पश्चात् भी गुणसूत्रों की संख्या को बढ़ने से रोकता है।

3. अर्धसूत्री विभाजन में क्रासिंग ओवर होता है जिससे जीन्स का आपसी स्थानान्तरण हो जाता है और सजातीय गुणसूत्रों के अर्थसूत्रों में पारस्परिक आदान-प्रदान भी हो जाता है। जिससे विभिन्न जीवों की जातियों के अनुवंशिक गुणों में विभिन्नतायें हो जाती हैं। अर्धसूत्री विभाजन के द्वारा जीवों के विकासक्रम के अध्ययन में सहायता मिलती है।


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