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Female reproductive system of rabbit IN HINDI



मादा शशक के जननांग

Female reproductive system of rabbit
मादा शशक के जनद या अण्डाशय (ovaries) दो छोटी, सफेद, अण्डाकार-सी रचनाएँ होती है। ये उदरगुहा में, वृक्कों के पीछे, दोनों ओर एक-एक होते हैं (चित्र 1) प्रत्येक अण्डाशय मीसोवेरियम (mesovarium) नामक मीसेन्टरी द्वारा उदरगुहा की भित्ति से लटका होता है। इसके निकट, मीसोवेरियम द्वारा ही सधी, एक कीपनुमा (infundibular) रचना होती है जिसकी चौड़ी मुखिका (ostium) झालरदार (fimbriated) तथा रोमाभि (ciliated) होती है। इसलिए मुखिका को फिम्ब्रियेटेड कीप (fimbriated fannel) कहते हैं। यह छोटी-सी, सँकरी एवं कुछ कुण्डलित-सी अण्डवाहिनी (oviduct) में खुलती है जिसे गर्भाशयी या फैलोपियन नली (uterine or fallopian tube) कहते हैं। यह मुखिका से प्रारम्भ होकर मध्य रेखा की ओर बढ़ती हुई चौड़े, नालवत् गर्भाशय (uterus) में खुल जाती है। दोनों ओर के गर्भाशय, मलाशय (rectum) के पृष्ठतल पर बीच में स्थित, एक चौड़ी थैलीनुमा योनि या वैजाइना (vagina) में खुलते हैं । योनि  के अधरतल पर मादा का मूत्राशय (urinary bladder) होता है। यह छोटे-से मूत्रमार्ग (urethra) द्वारा योनि के सैकरे पश्च भाग में खुलता है। योनि के इस छोटे एवं संकरे, नालवत् भाग को इसलिए मूत्रोजनन वेश्म (urinogenital sinus) या वेस्टीव्यूल (vestibule) कहते हैं। यह अधरतल की ओर दरारनुमा मादा जनन छिद्र अर्थात् भग (vulva) द्वारा बाहर खुलता है। भग के अग्र छोर पर एक नन्हीं-सी पेशीय रचना होती है जिसे क्लाइटोरिस (clitoris) कहते हैं। क्लाइटोरिस अविकसित शिश्न माना जाता है। यह शिश्न की ही भाँति स्पंजी एवं उतेजनशील होता है।


                          मादा शशक के जननांग (अधर दृशय)

मूत्रोजनन वेश्म एवं मलाशय के बीच एक जोड़ी बाथोलिन की प्रन्थियाँ (Bartholin's glands) तथा कुछ पीछे नर शशक की भाँति की रेक्टल एवं पेरिनीयल ग्रन्थियाँ (rectal and perineal glands) होती हैं। बाथिलिन की ग्नन्थियों से मैथुन उत्तेजना के समय स्रावित चिपचिपा द्रव्य मूत्रोजनन वेश्म को लसदार एवं क्षारीय बनाता है।

मादा जननांगों की औतिक रचना-अण्डाशय ठोस होते हैं। प्रत्येक अण्डाशय का प्रमुख भाग एक सघन तन्तुमय संयोजी ऊतक का बना होता है जिसे इसकी पीठिका या स्ट्रोमा (stroma) कहते हैं। प्रत्येक अण्डाशय के चारों ओर एक खोल होता है। खोल में सबसे बाहर पेरिटोनियम (peritoneam) का आवरण, बीच में घनाकार कोशाओं की इकहरी उत्पादक या जननिक एपिथीलियम (germinal epithelium) तथा इसके नीचे संयोजी ऊतक की बनी, दयूनिका ऐल्बूजीनिया (tunica albuginea) नामक महीन कला होती है (चित्र 2)। स्ट्रोमा एक मोटे एवं अधिक सघन वल्कलीय (cortical) स्तर तथा अपेक्षाकृत ढीले-से मध्यस्थ पिण्ड (medullary mass) में विभेदित होता है । वल्कलीय स्तर में रेटीकुलर तन्तुओं एवं तर्कुरूपी संयोजी ऊतक कोशाओं की तथा मध्यस्थ पिण्ड में पीले इलास्टिक तन्तुओं, अरेखित पेशी तन्तुओं और रुधिरवाहिनियों की बहुतायत होती है।

स्ट्रोमा के वल्कलीय स्तर में अनेक छोटी-बड़ी अण्डाशय या प्रैफियन पुटिकाएँ (ovarian or graafian folliclec) होती है। ये सब भ्रूण में ही उत्पादक एपिथीलियम की कोशाओं के सक्रिय विभाजन से बनती हैं। पहले, प्रत्येक प्रारम्भिक पुटिका (primordial follicle) में बीच में एक डिम्बाणुजन कोशा (oogonial cell) होती है और इसके चारों ओर चपटी पुटिकीय कोशाओं (follicular cells) की इकहरी एपिथोलियम का आवरण। ये पुटिकाएँ मादा के लैंगिक परिपक्वन (sexual maturation) तक निष्क्रिय रहती है। लैंगिक परिपक्वन के बाद, प्रत्येक जनन ऋतु में कुछ प्रारम्भिक पुटिकाएँ सक्रिय हो जाती हैं। प्रत्येक ऐसी पुटिका में डिम्बाणुजन कोशा वसा का संचय एवं वृद्धि करके प्राथमिक अण्डक कोशा (primary oocyte) बन जाती है।

इसी बीच पुटिका कोशाएँ (follicle cells) स्तम्भी (columnar) हो जाती हैं तथा इनके स्तर एवं प्राथिमक अण्डक कोशा के बीच जोना पेल्यूसिडा (zona pellucida) नामक महीन कला बन जाती है  इस अवस्था की पुटिका को प्राथमिक पुटिका (primary follicle) कहते हैं । इसमें अब, कार्बोहाइड्रेट्स एवं ग्लाइकोप्रोेटीन्स के जमाव के कारण, जोना पेल्यूसिडा मोटी होने लगती है। अण्डक कोशा की सतह पर अनेक सूक्षमांकुर  (microvilli) निकल आते हैं। पुटिका कोशाओं से अनेक महीन प्रवर्ध निकल कर जोना पेल्यूसिडा को बेधते हुए अण्डक कोशा के सूक्ष्मांकुरों के सम्पर्क में आ जाते हैं ताकि ये वृद्धिशील अण्डक कोशा को पोषक पदार्थ पहुँचा सके 


  शशक के अण्डाशय की अनुप्रस्थ काट का चित्र

अण्डक कोशा की निरन्तर वृद्धि के साथ-साथ, पुटिका कोशाओं का सक्रिय विभाजन होता है। इसके का फलस्वरूप इकहरी पुटिकीय एपिथीलियम स्तृत स्तम्भी एपिथीलियम बन जाती है जिसे मेम्ब्रैन ग्रैन्यूलोसा (membrana granulosa) कहते हैं। इस अवस्था की पुटिका को द्वितीयक पुटिका (secondary follicle) कहते हैं। ऐसी पुटिकाओं में से भी कुछ का विघटन हो जाता है। शेष में से प्रत्येक में मेम्बैना ग्रैन्यलोसा में, पुटिकीय तरल (liquor folliculus) से भरी, एक पुटिकीय गुहा (follicular cavity or antrum folliculus) बन जाती है। इस अवस्था की पुटिकाओं को आशयी या ग्रैफियन पुटिकाएँ (vescicular or Graafian follicles) कहते हैं। अब धीरे-धीरे पुटिकीय गुहा के विस्तार के कारण पुटिका बड़ी होती जाती है।

और मेम्ब्रैना ग्रैन्यूलोसा दो स्तरों में बँट जाती है-परिधीय (peripheral) एवं अण्डक कोशा के चारों ओर का मध्यस्थ (medullary) स्तर । एक ओर पुटिका गुहा का विस्तार नहीं होता। अतः यहाँ अण्डक कोशायुक्त पिण्ड मेम्ब्रेला पैन्यूलोसा की कोशाओं के एक मोटे पिण्ड द्वारा पुटिका की दीवार से जुड़ा रहता है। इस संयोजक पिण्ड को क्यूम्यूलम ओवैरिकस (cumulus ovaricus, or discus proligerus, or cumulus oophoricus) कहते है अब वृद्धिशील पुटिका के चारों ओर निकटवर्ती स्ट्रोमा की कोशाएँ एक द्विस्तरीय खोल बनाती हैं जिसे पुटिकीय थीका (theca folliculus) कहते हैं। थीका का बाह्य स्तर (theca externa) तन्तुमय तथा भीतरी स्तर  theca interna) कोशिकीय, रुधिर केशिकाओं से युक्त एवं मेम्बैना ग्रैन्यूलोसा से एक आधार कला द्वारा पृथक् होता है।

पुटिका के वृद्धिकाल में, अण्डक कोशा अपनी पूर्ण वृद्धि हो जाने पर अर्धसूत्री (reductional or meiotic) विभाजन द्वारा बँट जाती है। इस विभाजन के फलस्वरूप द्विगुण (diploid) प्राथमिक अण्डक कोशा एकागुण (haploid) द्वितीयक अण्डक कोशा (secondary oocyte) बन जाती है और इसमें से एक नन्हीं 
एकागुण कोशा- -प्रथम ध्रुवीय कोशा (first polar)—पृथक् हो जाती है। इस प्रकार अण्डक कोशा का आधा परिपक्वन  (maturation) हो जाता है।

वृद्धिशील पुटिकाएँ धीरे-धीरे अण्डाशय की दीवार की ओर खिसक कर इसकी सतह पर उभर आती हैं। पूर्ण वृध्दि के बाद पुटिका में संयोजक पिण्ड फट जाता है जिससे अण्डकयुक्त पिण्ड पुटिकीय गुहा के द्रव्य में मुक्त हो जाती है 

अब संयोजक पिण्ड की वे कोशाएँ जो अण्डकयुक्त पिण्ड से लगी रह जाती हैं इसके चारों ओर फैल कर स्तम्भी हो जाती हैं। इस प्रकार, अण्डकयुक्त पिण्ड के चारों ओर इन कोशाओं का एक खोल बन जाता है जिसे कोरोना - रेडियैटा (corona radiata) कहते हैं। इसी अवस्था की पुटिकाओं से द्वितीयक अण्डक कोशाएँ मुक्त होती है  
अर्थात् अण्डाशयों से इनका डिम्बोत्सर्ग (ovulation) होता है । डिम्बोत्सर्ग में अण्डाशय की सतह पर पूर्ण परिपक्व पुटिका फट जाती है और अपने खोलों सहित द्वितीयक अण्डक कोशा सीधी अण्डवााहीनी की झालरदार मुखिका में गिर जाती है ।

फटी हुई पुटिका विघटित नहीं होती, वरन् एक पीली, ग्रन्थिल रचना में बदल जाती है जिसे कॉर्पस लूटियम corpus luteum) कहते हैं। फटे हुए स्थान पर पुटिका बन्द हो जाती है और इसकी गुहा में रक्त एकत्रित होकर एक थक्का  (clot) बना लेता है। अब मेम्बैना ग्रैन्यूलोसा की पुटिका कोशाएँ अत्यधिक बड़ी और गोल होकर लूटियल  कोशाएँ (luteal cells) बन जाती हैं। इनके कोशाद्रव्य में लूटीन (lutein) नाम की पीली-सी रंगा बन जाती है

ये कोशाएँ पुटिका गुहा के चारों ओर एक मोटी स्तृत एपिथीलियम (stratified epithelium) बना लेती  है। इसी एपिथीलियम को कॉर्पस लूटियम कहते हैं। यह एक प्रकार की अन्तःस्रावी ग्रन्थि होती है। यदि पुटिका निकले डिम्ब का निषेचन (fertilization) हो जाता है तो यह ग्रन्थि प्रोजेस्टीरॉन (progesteron) नामक हॉरमोन का स्रावण करती है। अन्यथा, यह निष्क्रिय होकर कुछ समय तक तो कॉर्पस ऐल्बिकैन्स (corpus luteum) नामक धब्बे के रूप में दिखायी देती है, परन्तु अन्त में समाप्त हो जाती है। प्रोजेस्टीरॉन गर्भाशय  में आँवल (placenta) के निर्माण, भ्रूण के आरोपण तथा गर्भ के दृढ़तापूवर्क स्थापित रहने से सम्बन्धित क्रियाओं  का नियमन करता है।

अण्डवाहिनियों की दीवार में सबसे बाहर पेरिटोनियम की बनी सीरमी कला (serous membrane), बीच एक पेशी स्तर तथा भीतर श्लेष्मिका (mucosa) होती है। स्वयं श्लेष्मिका में बाहर की ओर महीन संयोजी ऊतक का स्तर तथा भीतर की ओर रोमाभि एपिथीलियम की बनी श्लेष्मिक कला (mucous membrane) होती है 

गर्भाशयों की दीवार में पेशी स्तर तथा श्लेष्मिका मोटी हो जाती है। श्लेष्मिका को गर्भाशयी एणडोमीट्रियम (uterine endometrium) कहते हैं।


जननकाल, मैथुन तथा निषेचन

जननकाल (Breeding season) तथा मैथुन (Copulation)—शशक में प्रजनन बसन्त ऋतु में फरवरी से मई-जून तक होता है। इस ऋतु के वातावरण से प्रभावित होकर जन्तु का तंत्रिका तंत्र पिट्यूटरी ग्रन्थि को उत्तेजित करता है । यह ग्रन्थि जननांगों को उत्तेजित करने वाले हॉरमोन्स का स्रावण करने लगती है। उत्तेजित जनद (gonads) परिवर्ती लैंगिक लक्षणों (secondary sexual characters) को सक्रिय करने वाले हॉरमोन्स का  स्रावण करने लगते हैं। जनदों में परिपक्वन द्वारा जनन कोशाएँ (अण्डाणु एवं शुक्राणु) बनने लगती है।  
योनि तथा गर्भाशय की दीवारें मोटी एवं दृढ़ तथा मादा की स्तन ग्रन्थियाँ सक्रिय हो जाती हैं और नर एवं मादा दोनों में मैथुनेच्छा जाग्रत हो उठती है।

मैथुनेच्छा के कारण नर एवं मादा में परस्पर लैंगिक सम्भोग (cohabitation) होता है । इस क्रिया में नर का शिश्न लम्बा एवं कड़ा होकर मादा की योनि में प्रवेश करता है। मैथुन समाप्त होने पर शिश्न के 
स्थित नर मूत्रोजनन छिद्र से वीर्य निकलकर मादा की योनि में चला जाता है। फिर शिश्न छोटा एवं शिथिल हो जाता है तथा नर एवं मादा सदस्य पृथक् हो जाते हैं।

निषेचन (Fertilization) मैथुन में वीर्यपात या स्खलन (ejaculation) होते ही गर्भाशय में तरंग-गति (peristalsis) उत्पन्न होती है। इससे वीर्य योनि में खिंचकर गर्भाशय में पहुँच जाता है। यहाँ से इसके
शुक्राणु, अपनी पूँछ की सहायता से, धीरे-धीरे फैलोपियन नलिकाओं में चढ़ने लगते हैं। 

मैथुन में होने वाले तंत्रिकीय उद्दीपन (nervous stimulation) के कारण पिट्यूटरी ग्रन्थि से वह हॉरमोन (LH) स्त्रावित होता है। जिसके प्रभाव से डिम्बोत्सर्ग होने लगता है, अर्थात् अण्डाशयों में ग्रैफियन पुटिकाओं के फटने से द्वितीयक अणंडुक कोशाएँ (oocytes) मुक्त होकर फैलोपियन नलिकाओं में पहुँचने लगती हैं। इसीलिए, शशक को प्रतिवर्ति डिम्बोत्सर्गी (reflex, provoked or induced ovulator) जन्तु कहते हैं । इसके विपरीत, अनेक अन्य स्तनी स्वतः डिम्बोत्सर्गी (spontaneous ovulators) होते हैं, क्योंकि इनमें डिम्बोत्सर्ग ऋतु के अनुसार या वातावरणीय दशाओं के कारण स्वतः हो जाता है।

 शशक में डिम्बोत्सर्ग (ovulation) में मुक्त हुई कोशाएँ द्वितीयक अण्डक कोशाएँ (secondary oocytes) होती हैं, अर्थात् इनमें प्रथम परिपक्वन विभाजन हो चुका होता है। फैलोपियन नलिकाओं में पहुँचते ही वीर्य का हाएलूरोनिडेज (hyaluronidase) नामक एन्जाइम प्रत्येक द्वितीयक अण्डक कोशा के चारों ओर के कोरोना रेडियेटा को गला देता है। 

अतः अब कई शुक्राणु, अपने सिरों (head) द्वारा जोना पेल्यूसिडा पर चिपक जाते हैं। इनमें से केवल कोई एक शुक्राणु, अपने ऐक्रोसोम द्वारा स्रावित शुक्राणु लाइसिन (sperm lysin) नामक पदार्थ की सहायता से, जोना पेल्यूसिडा के पार डिम्ब कोशा में धसने  में  सफल  होता है। इसका सना प्रारम्भ होते ही डिम्ब कोशा में द्वितीय परिपक्वन विभाजन होने लगता है जिससे यह शीघ्र ही डिम्बाणु या अण्डाणु (ovum) बन जाती है। इस बीच जोना पेल्यूसिडा दृढ़ होकर निषेचन कला (fertilization membrane) बन जाती है जिससे डिम्बाणु में अन्य शुक्राणु नहीं घुस पाते । निषेचन कला एवं डिम्बाणु के बीच  में जल-सदृश तरल से भरी एक संकरी पेरीविटेलाइन गुहा (perivitelline space) बन जाती है।

डिम्बाणु में घुसने वाला शुक्राणु इसमें अपनी पूँछ सहित पूरा फँसता है। शुक्राणु की पूँछ शीघ्र डिम्बाणु के कोशाद्रव्य में घुल-मिल जाती है। इसका केन्द्रक डिम्बाणु के केन्द्रक से मिलकर युग्मक या जाइगोट केन्द्रक  (zygote nucleus) बनाता है। इसी क्रिया को डिम्बाणु का निषेचन (fertilization) कहते हैं।निषेचित डिम्बाणु या ज़ाइगोट के चारों ओर फैलोपियन नलिका की ग्रन्थिल कोशाओं द्वारा स्रावित ऐल्बुमेन का मोटा आवरण बन जाता है। शीघ्र ही जाइगोट का विखण्डन या विदलन (segmentation or cleavage) भी प्रारम्भ हो जाता  है। दो-तीन दिन में विकासशील भ्रूण गर्भाशय में पहुँच जाता है।

किसी डिम्बाणु का निषेचन हो जाने पर इसकी पुटिका में बने कॉर्पस लटियम (corpus luteum) से
सावित प्रोजेस्टीरॉन हॉरमोन के प्रभाव से गर्भाशय की रुधिरवाहिनियों में अधिकाधिक रक्त आने लगता है तथा भ्रूण आँवल अर्थात् प्लेसेन्टा (placenta) द्वारा गर्भाशय की दीवार से जुड़ जाता है। इसी को गर्भाधान (conception) कहते हैं। इस प्रकार, गर्भाशय में भ्रूण को अधिकाधिक पोषक पदार्थ मिलते हैं। 

अत यह लगभग एक महीने में पूर्णरचित शिशु बनकर मादा की योनि में होता हआ भग से बाहर निकलता है। इसे शिशु का  जन्म (birth or parturition) कहते हैं। निषेचन से लेकर जन्म तक के समय को गर्भकाल (gestationod) कहते हैं। एक बार में मादा शशक पाँच से सात तक बच्चों को जन्म देती है। जन्म से पहले आँवल की कोशाएँ रिलैक्सिन (relaxin) नामक हॉरमोन का स्रावण करने लगती हैं। यह हॉरमोन आँवल को गर्भाशय की से पृथक् करने, श्रोणिमेखला (pelvic girdle) तथा अन्य विविध सम्बन्धित अंगों को फैलाकर चौड़ा करने नमें तरंग-गति उत्पन्न करने का महत्त्वपूर्ण कार्य करता है। श्रोणिमेखला के चौड़ी हुए बिना शिशु गर्भाशय में नहीं खिसक सकता।

जन्म के समय शिशु कोमल एवं असहाय होते हैं। इनके शरीर पर बाल नहीं होते, टाँगें कमजोर होती हैं तथा बन्द रहते हैं। लगभग एक सप्ताह में, माँ का दूध पीकर, शिशु साधारण अवस्था में आ जाते हैं  छ: माह के स्वयं प्रजनन योग्य वयस्क बन जाते हैं।



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