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बहुगुणिता क्या है तथा ये कितने प्रकार के होते है || bahugunit kya hai aur ye kitane prakaar ke hote hai

 इस पोस्ट में हम- बहुगुणिता क्या है? बहुगुणिता के विभिन्न प्रकारों का वर्णन तथा  वृद्धि और विकास में इसका योगदान क्या है , बहुगुणिता के विभिन्न कारणों का वर्णन ,बहुगुणिता की उत्पत्ति के बारे में बताइये।,बहुगुणिता कितने प्रकार के होते हैं? बहुगुणिता का वर्णन। आदि के बारे में चर्चा करेगें-



बहुगुणिता
(Polyploidy)

प्रायः जीव द्विगुणित (2n) होते हैं अर्थात् इनमें गुणसूत्रों के दो set होते हैं। कभी-कभी गुणसूत्रों के सेट की संख्या में परिवर्तन हो जाता है। गुणसूत्रों के दो सेट से अधिक सेट वाले जीवों को बहुगुणित (Polyploids) कहते हैं, अर्थात् इनमें वास्तविक द्विगुणित गुणसूत्रों के एक या अधिक अगुणित सेट और होते हैं। 3 सेट वाले जीवों को त्रिगुणित (Triploid), गुणसूत्रों के चार सेट वाले जीवों को चतुर्गुणित (Tetraploids), 5 सेट वाले जीवों को पंचगुणित (Pentaploid) कहते हैं। गुणसूत्रों के सेटों की संख्या में परिवर्तन की प्रक्रिया को बहुगुणिता कहते हैं। बहुगुणिता द्वारा जातियों की उत्पत्ति का सर्वोत्तम उदाहरण गेहूँ, जीनस Triticum है। इसमें गुणसूत्रों की मूल संख्या 7 होती है।

Triticum Monocoecum - Diploid Chromosome on 14

T. dicocoecum (emmer wheat) - Tetraploid chromosome on 28

D. durom (durom wheat) - Tetraploid chromosome on 28

T. Vulgare (common wheat) - Hexaploid chromosome on 42

बहुगुणिता की उत्पत्ति (Origin of Polyploidy)

 कोशिका विभाजन के समय उत्पन्न असामान्यताओं (Abnormalities) के फलस्वरूप बहुगुणिता अवस्था उत्पन्न होती है। समसूत्री विभाजन के समय विभाजन करती हुई कोशिका विभाजन के रुक जाने से बहुगुणिता उत्पन्न होती है।

बहुगुणिता के प्रकार
(Types of Polyploidy)

बहुगुणिता के निम्नलिखित दो प्रकार होते हैं

(1) स्वबहुगुणिता (Autopolyploidy) - 

इस प्रकार के बहुगुणिता में एक ही प्रकार के गुणसूत्र दो से अधिक बार प्रदर्शित होते हैं। एक द्विगुणित कोशिका का जीनोम AA होने पर त्रिगुणित कोशिका का जीनोम AAA तथा चतुर्गुणित कोशिका का जीनोम AAAA होगा। त्रिगुणित एक ही जाति के द्विगुणित युग्मन व एकगुणित युग्मन के समेकन से बनता है। स्वगुणित पौधों में सामान्य रूप से मिलते हैं। किन्तु जन्तुओं में यदा-कदा ही मिलते हैं। ये सामान्य द्विगुणित पौधों की अपेक्षा अधिक बड़े, तेजी से वृद्धि करने वाले तथा बड़े परागकण एवं फल धारण करते हैं। स्ट्राबेरी, टमाटर, अंगूर की अनेक जातियाँ स्वगुणित होती हैं। किन्हीं-किन्हीं पौधों में ट्रिप्लॉयडी (Triploidy) पाई जाती है। इन पौधों में युग्मन (Gametes) सामान्य नहीं होती है। अतः वे बन्ध्य (Sterile) होते हैं। सन् 1908 में सर्वप्रथम डी ब्रीज (De-vries) ने आइनोथेरा (Denothera) में ट्रिप्लायडी का अध्ययन किया। सन् 1933 में रमेयाँ (Remain) ने धान (Paddy) तथा सन् 1942 में रंगास्वामी (Rangaswami) ने बाजरा (Bajra) के पौधों में ट्रिप्लॉयडी (Triploidy) पर महत्वपूर्ण कार्य किये।

बहुगुणिता के विभिन्न प्रकार एवं उनके व्युत्पन्न

(2) बहुगुणिता (Allopolyploidy)-

 इसका निर्माण दो भिन्न जातियों से उत्पत्र , संकर (hybrids) सन्तति के गुणसूत्रों (Chromosomes) के द्विगुणन (Duplication) F1 के फलस्वरूप होता है अर्थात् F1 संकर संतति में गुणसूत्रों के अलग-अलग सेट्स (Sets) होते है, जैसे - किन्हीं दो जातियों के गुणसूत्र में सेट्स AA तथा BB हैं तो उनसे निर्मित संकर में गुणसूत्र का सेट AB होगा तथा AB के द्विगुणन से बने परबहुगुणिता का अणुसूत्र AABB होगा। रूस के प्रसिद्ध वैज्ञानिक जी डी. कापेशेनको (G.B. Karpechanko, 1927) ने अपने प्रयोग में मूली (Raphanus Satives 2n = 18) तथा बन्दगोभी (Brassica Oleracea 2n = 18) में क्रास (Cross) करके F1 संकर प्राप्त किया। इस F, संकर के द्विगुणन से रेफनोबेसिका नामक परबहुगुणिता पौधा प्राप्त किया, जिसमें गुणसूत्रों की संख्या 36 थी। यह पौधा बन्ध्य था, जिसकी जड़ें (roots) बन्दगोभी जैसी तथा पत्तियों  (leaves) मूली (radish) जैसी थीं। इस पौधे में यह बंध्यता (Sterility) गुणसूत्रों में युग्मान (Paining) नहीं होने के कारण पाई जाती है, अर्थात् मूली तथा बन्दगोभी के जीनोम्स (Genormes) में कोई समजातता (Homology) नहीं होती है।


(दो विभिन्न डिप्लॉयड जातियों से उत्पन्न टेट्राप्लायड)
कृत्रिम बहुगुणिता पौथे (Artificialy Produced)

(1) गेहूँ (Wheat) - 

परबहुगुणिता (Polyploids) का एक उत्तम उदाहरण गेहूँ है। वंश ट्रिटिकम (Triticum) में गुणसूत्रों की भिन्न-भिन्न 3 संख्यायें होती हैं। जैसे 2n = 14, 2n = 28 तथा 20-42 सबसे साधारण गेहूँ हेक्साप्लॉयड होता है जिसमें 2n = 42 होते हैं। इन गुणसूत्रों की संख्या 2n-42 डिप्लॉयड (Diploid) जातियों (Species) से प्राप्त होती है।

AA= Triticum aegillo poides (ट्रिटिकम एजिलोपाइडिस) 2n = 14

BB=Aegilops speltoides (एजिलोप्स स्पेलटोइडिस) 2n = 14

DD = Aegilops aquarrosa (एजिलोप्स एक्वारोसा) 2n = 14

अतः हेक्साप्लॉयड गेहूँ (Wheat) के AABB DD द्वारा टेट्राप्लॉयड को AA BB (2n=D28) द्वारा तथा डिप्लोयड को AA (2n = 14) द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। इन तीनों डिप्लॉयड्स (Diploids) के जीनोम्स A.B.D में अधिक भिन्नताये नहीं पायी जाती है। अत: ऐसा अनुमान किया जाता है कि हैक्साप्लॉयड गेहूँ को परबहुगुणिता के स्थान पर स्वबहुगुणिता (Autopolyplores) के नाम से पुकारा जाता है।

(2) कपास (Cotton) - 

एशियाई कपास (Asian Cotton) अर्थात् गोसीसिपयम हरवेशियम (Gossipium herbaceum) तथा अमेरिकी कपास (American Cotton) अर्थात् (G.vaimondi गासीपियम वेमोन्डी को आपस में cross कराकर (G. barbadense) गासीपियन बारबेडेन्स अथवा  भित्री कपास (Mishry Cotton) अथवा कोम्बोडियन कपास (Combodian Cotton) = उत्पादन किया गया है।



(3) तम्बाकू (Tobacco) - 

तम्बाकू की दो जातियों (Species) जैसे निकोटियाना सिल्वेस्ट्रस (Nicotiana sylvestris) तथा निकोटिना टीमेन्टोसा (N. tomentosa) को cross कराने पर निकोटियान टेबेकम को उत्पन्न किया गया है। नि. सिल्वेस्टिस (N. syivestris) में गुणसूत्रों की सख्या 12 और नि. टोनेन्टोसा में भी गुणसूत्रों की संख्या 12 होती है, जिसके द्विगुणन (Duplication) से निकोटियाना टेवेकम (N. tabacum) उत्पन होता है, जिसमें गुणसूत्रों की संख्या 24 होती है । क्रास कराने पर पहले बल्य (Sterile) पौधे प्राप्त होते हैं, जिनमें गुणसूत्रों की संख्या 36 होती है। इन पौधों में द्विगुणन के फलस्वरूप निकोटियाना डिग्लूटा (Nicotiana digluta) नामक पौधे प्राप्त होते हैं, जिसमें गुणसूत्रों की संख्या 72 होती है।

बहुगुणिता के कारण

 (Causes of Polyploidy)

बहुगुणिता अधिकतर पेड़-पौधों में देखने को मिलती है। बहुत से पौधे जिन्हें हम उगाते हैं, द्विगुणित (Diploids) की भाँति कार्य करते हैं, किन्तु वास्तव में ये पौथ बहुगुणित होते हैं। पौधों में पाई जाने वाली बहुगुणिता टेट्राप्लॉयडी (Tetraploidy) होती है। अतः बहुगुणित पौधे का निर्माण द्विगुणित पौधों से होता है। पौधों में बहुगुणिता निम्नलिखित किसी भी कारण से हो सकती है।

(A) अर्थसूत्रीय विभाजन में असमानतायें
(Anomalies in Meiotic Division)

1. प्रथम अर्थसूत्री विभाजन या द्वितीय अर्थसूत्री विभाजन अथवा प्रथम एवं द्वितीय अर्धसूत्रीय विभाजनों के सफल न होने के कारण द्विगुणित युग्मन उत्पन्न होते हैं, जो बहुगुणित पौधों का निर्माण करते है।

2. कभी-कभी द्वितीय अर्धसूत्री विभाजन में दोनो तर्कु (Spindles) एक-दूसरे से मिल जाते है, जिसके फलस्वरूप गुणसूत्र की संख्या दो गुनी होती है और इस प्रकार बनने वाले युग्मनजी द्विगुणित होते हैं। कोशिका विभाजन (Cell Division) में प्रायः गुणसूत्र लम्बवत् विभाजित होकर दो गुणसूत्रों का निर्माण करते हैं, लेकिन यदि ये गुणसूत्र लम्बवत् विभाजन द्वारा चार गुणसूत्रों का निर्माण करते हैं तो उनसे बनने वाले युग्मक द्विगुणित गुणसूत्र की संख्या वाले बनते हैं जो बहुगुणित पौधों को जन्म देते है।

(B) सूत्री विभाजन में असमानतायें
(Anomalies in Milotic Division)

1. अभी-कभी पौधों में सूत्री विभाजन की एनाफेज प्रावस्था के पश्चात् कोशिका भित्ति का निर्माण नहीं होने पाता है, जिससे द्विगुणित गुणसूत्र संख्या वाले युग्मक बनते हैं। इस प्रकार के द्विगुणित नर एक मादा युग्मक के संपुजन (Fusion) करने से टेट्राप्लॉयड पौधे बनते हैं।

2. सूत्रीय विभाजन की एनाफेज प्रावस्था से बने तओ कमजोर हो जाते हैं। अतः उनमें गुणसूत्र को पृथक करने की शक्ति नहीं रहती है जिसके फलस्वरूप अलग-अलग दो कोशिकायें नहीं बनती हैं अर्थात् एक ही कोशिका में अणुसूत्रों की संख्या दो गुनी पाई जाती है, जिससे द्विगुणित कोशिका टेट्राप्लॉयड कोशिका में बदल जाती है।

3. ऊतकों का चोटिल होना अथवा घावों का बनना (Injury in tissues & wound formation) - प्रायः पौधे चोट लग जाने पर घायल हो जाते हैं और इन घावों (wounds) को भरने के लिये बहुत तेजी के साथ कोशिका विभाजन होने लगता है, जिसके फलस्वरूप कोशिका विभाजन में अनेक असमानतायें आ जाती हैं और बहुगुणित कोशिकायें बन जाती हैं ब्रिन्कलर (Wrinkler) ने चिड़ियों के अण्डों में चोट लगने के कारण बहुगुणिता का अध्ययन किया।


मानव में गुणसूत्री विपथन से सम्बन्धित प्रश्न

 प्रश्न 1. यूप्लाइडी से आप क्या समझते हैं? इनकी उत्पत्ति के कारण बताइये।

सगुणिता या यूप्लॉयडी (Euploidy)

यूप्लाइडी में गुणसूत्रों की मूल संख्या के बराबर ही गुणसूत्रों की संख्या में कमी या वृद्धि होती है अतः सुगुणिता में गुणसूत्र संख्या (Chromosome numbers) मूल संख्या की गुणज (Mumple) होती है, अथवा मूल संख्या से विभाजित हो जाती है। किसी द्विगुणित (2x) जाति जिसमें एक जीनोग की दो प्रतियाँ (Copies) उपस्थित होती हैं, सुगुणिता का निर्धारण तुलनात्मक आधार पर किया जाता है, अर्थात् इसका निर्धारण कायिकी गुणसूत्र संख्या (2n) की तुलना में नहीं किया जा सकता है।

सुगुणितों का वर्गीकरण उनमें उपस्थित जीनोम्स की संख्या तथा उनमें समानता एवं असमानता को

आधार मानकर किया जाता है, जो निम्न प्रकार का होता है

(1) अगुणित एवं एकगुणित (Haploid & Monoploid)

(2) द्विगुणित (Diploid)

(3) बहुगुणित (Polyploid)

बहुगुणित दो प्रकार के होते हैं

(a) आटोप्लायडी (Autoploidy), (b) एलोप्लायडी (Alloploidy)

यूप्लॉयडी में सामान्य रूप से द्विगुणित अवस्था ही पाई जाती है तथा इसी दशा में बहुगुणिता निर्धारित होती है। द्विगुणितों में केवल एक जीनोम (Genome) की दो प्रतियों होती है। अगुणित पौधे है, जिनमें सम्बन्धित जाति की युग्मकी गुणसूत्र संख्या (Gametic Chromosome Number) होती है। उन पोषों को अगुणित (Haploid) कहा जाता है। यह अगुणित द्विगुणित जातियों में एकगुणित (Monoploid) कहलाते हैं और एक गुणितों में जीनोम की केवल एक प्रति होती है। किसी द्विगुणित जाति में पाये जाने वाले 'A' जीनोम की दो प्रतियों में 'AA' द्वारा दर्शाया जाता है तो एक गुणितो का कायिक गुणसूत्र कम्लीमेंट को भी 'A' दर्शाया जायेगा। अगुणितों एवं एकगुणितों में प्रायः अणुसूत्र की एक प्रति होती है। अतः इनके गुणसूत्र यूनीवेलेण्ट के रूप में अर्द्धसूत्रीय विभाजन के समय उपस्थित रहते है। प्रथम एनाफेज अवस्था में कुछ अयुग्म एक ध्रुव पर तथा कुछ दूसरे ध्रुव पर चले जाते है, अर्थात् सभी गुणसूत्र एक ही ध्रुव पर नहीं पहुँच पाते तथा इस प्रकार के सभी युग्मक निर्जीव होते है। कभी-कभी सभी अयुग्म एक ही ध्रुव पर स्थानान्तरित हो जाते हैं, जिनसे n या x प्रकार के युग्मक का निर्माण होता है, जिनरो द्विकायिक (Disomic) संतति उत्पन्न होती है। अतः अधिकांश एकगुणित तथा अगुणित पूर्णरूप से बन्ध्य (Sterile) होते हैं।

इनमें कभी-कभी द्विकायिक संततियाँ भी जन्म लेती हैं। द्विगुणित एवं द्विकायिकों की तुलना में एकगुणित एवं अगुणित बहुत निर्बल (weak) होते हैं। अतः जैवीय उद्विकास में इनका कोई महत्वपूर्ण स्थान नहीं होता है। कुछ जीवधारियों में बहुगुणितों में यह पाया गया है कि अगुणित द्विकायिकों की तरह ओन (Vigour) वाले तथा उर्वरक होते हैं, जैसे - आलू । आलू में प्रजनन अगुणित अवस्था में पाया जाता है। कीटों में अगुणित नर, उर्वर होता है। जैसे - चींटी, मधुमक्खी व दीमक आदि पर कीट अनिषेचित अण्डों से उत्पन्न होते हैं। एकगुणितों तथा अगुणितों की उत्पत्ति लार्वा के फलस्वरूप होती है।

(1) यह स्वतः (Spontaneously) अनिषेचित (Unfestilized), अण्डकोशिका (Egg cel)

परिवर्धन के फलस्वरूप उत्पन्न होते हैं।

(2) कुछ पादयों में अगुणितों के उत्पन्न होने की दर मृत परागकणों (Dead pollen grains) बारा परागण के फलस्वरूप होती है।

(3) परागकणों तथा परागकोषों (Anthers) का उत्पादन (in vitro) किया जा सकता है।

प्रश्न 2. स्थानान्तरण।

स्थानान्तरण (Translocation) - इसमें अगर एक गुणसूत्र का कोई एकला किसी दूसरे गुणसूत्र से मिल जाता है या अस्मजात गुणसूत्रों में खण्डों की अदला-बदली हो जाती है इस क्रिया में जीन विन्यास बदल जाता है। अतः इन परिवर्तनों में संकर बन्ध्यता का विकास होता है।

प्रश्न 3. प्राकृतिक ग से गुणसूत्र में कमी कैसे पैदा होती है? 
 अथवा
गुणसूत्रीय विलोपन को परिभाषित कीजिये। मनुष्य के 5 वें क्रोमोसोम में विलोपन से होने वाले विन्यास को समझाइये।


विलोपन अथवा न्यूनता का हास

(Chromosomal Deletions)

विलोपन में गुणसूत्र के किसी खण्ड का वास हो जाता है जिसके कारण विलोपन खण्ड में उपस्थित जीन्स गुणसूत्र कम हो जाते हैं। विलोपित खण्ड में सेन्ट्रोमीयर अनुपस्थित होता है इसलिये यह नष्ट हो जाता है। विलोपन उपांतरीय अथवा अन्तर्वशी दोनों प्रकार का हो सकता है। उपांतीय विलोपन में गुणसूत्र टूटकर अलग हो जाता है तथा अन्तर्वेशी विलोपन में गुणसूत्र के बीच से खण्ड टूटकर अलग होता है। अतः इसमें गुणसूत्र दो स्थानों पर टूटता है और बाद में बीच का खण्ड तो रह जाता है तथा टूटे हुए दोनों शीर्ष खण्ड जुडकर नया गुणसूत्र बना लेते हैं। अन्तर्वेशी विलोपन द्रोसोफिला र अन्य प्राणियों में अधिकता से मिलते है, किन्तु उपान्ती विलोपन केवल मक्का में देखे गये है। वैसे उपान्ती व अन्तर्वशी दोनों ही प्रकार के विलोपन को, अर्द्धसूत्री विभाजन की पैकीटीन प्रावस्था में तथा पोलोटीन गुणसूत्रों में देखा जा सकता है क्योंकि जब अन्तर्वेशी भाग विलोपित होता है तो पोलोटीन गुणसूत्रों के समजात गुणसूत्र के बीच का भाग बकसुए के आकार के फैदे के रूप में बाहर निकल आता है। इसी प्रकार अर्द्धसूत्र की पैकाइटीन अवस्था में सामान्य गुणसूत्र का वह भाग जो विलोपित गुणसूत्र के विलोपित भाग के संगत होता है बकसुए के रूप में बाहर की ओर निकलता है।

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