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यूजेनिक्स या सुजननिकी क्या है || yoojeniks ya sujananikee kya hai

यूजेनिक्स या सुजननिकी क्या है,यूजेनिक्स पर एक निबन्ध,सुजननिकी तथा मानव के उत्थान में क्या अन्तर है?,यूजेनिक्स अथवा सुजननिकी को परिभाषित कीजिये।,स्वीकारात्मक और निषेधात्मक सुजननिकी में अन्तर स्पष्ट कीजिये। इन सभी प्रश्नों पर पर चर्चा करेंगे


यूजेनिक्स 
(Eugenics) 

यूजेनिक्स विज्ञान की वह आधुनिकतम शाखा है जिसमें अनुवंशिकी के नियमों का उपयोग करके मनुष्य जाति में उत्पन्न लक्षणों का उत्थान किया जाता है।

यूजैनिक्स शब्द ग्रीक भाषा के शब्द (Gr, Eugenes = well born) से मिलकर बना है। यूजैनिक्स  शब्द का उपयोग सर्वप्रथम अंग्रेज वैज्ञानिक फ्रांसिस गाल्टन (Francis Galton) ने 1855 में किया। उन्होंने विभिन्न जीव जातियों में उनके लक्षणों का कई पीढ़ियों तक अध्ययन किया और निष्कर्ष निकाला कि बाह्य शारीरिक लक्षणों की तरह मानसिक क्षमता, बुद्धिलब्धता, विद्वता और चरित्र बल भी आनुवंशिक लक्षण हैं और उन्हें आनुवंशिकी के विभिन्न सिद्धान्तों का प्रयोग करके विकसित किया जा सकता है तथा इन सिद्धान्तों के द्वारा मनुष्य प्रजाति में स्वस्थ तथा अच्छे लक्षणों को प्रोत्साहित किया जा सकता है और समाज में अवांछनीय तथा अश्लील लक्षणों को दूर करके मानव जाति की उन्नति की जा सकती है तथा इसी आधार पर सर गाल्टन ने जीव विज्ञान की एक नवीन शाखा की नींव डाली जिसे युजनन विज्ञान सुजननिकी या यूजेनिक्स (Eugenics) कहते हैं। इस शाखा के अन्तर्गत जीव जातियों की उन्नति एवं विकास का अध्ययन किया जाता है। इसीलिये गाल्टन को सुजननिकी विज्ञान का पिता (Father of Eugenics) कहते हैं।

चार्ल्स डार्विन का भी सुजनन विज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान है तथा उन्होंने इसकी तुलना तीन दिशाओं में की

(i) उन्होंने आनुवांशिकी के आधार पर उन नियमों के अनुपालन के द्वारा देश का उत्थान किया जा सकता है।

(i) इन नियमों के द्वारा कोई जीव लक्षणों को उसके पैतृक से प्राप्त करता जो आनुवांशिकी पर आधारित होते हैं। अतः मनुष्य के लक्षणों को सुधारा जा सकता है।

(iii) सुजनन विज्ञानं का तीसरा उद्देश्य इस बात का संकेत देता है कि समाज के द्वारा इन लक्षणों का नियंत्रण कैसे किया जा सकता है। अर्थात् अच्छे लक्षणों के द्वारा समाज को किस प्रकार से प्रोत्साहित किया जा सकता है।

इस प्रकार डार्विन ने स्पष्ट किया कि सुजनन विज्ञान का मुख्य उद्देश्य क्या हो सकता है तथा इसकी उपयोगिता क्या है इन वैज्ञानिकों के द्वारा किये गये अध्ययनों के आधार पर सुजनन विज्ञान की परिभाषा निम्न प्रकार से दी जा सकती है

"सुजनन विज्ञान, विज्ञान की वह शाखा है जिसके अन्तर्गत आनुवंशिकी की आधुनिक विधियों के द्वारा जनन कराया जाता है तथा नवजात शिशुओं की उत्तम नस्लें उत्पन्न की जाती हैं।"

सुजननिकी व्यवहारिकी आनुवांशिकी की वह शाखा है जिसके अन्तर्गत आनुवंशिकी के सिद्धान्तों की सहायता से मनुष्य की भावी पीढ़ियों में लक्षणों की वंशागति को नियंत्रित करते हैं तथा मानव की जाति को सुधारने के लिये अध्ययन किया जाता है। इसके अतिरिक्त विज्ञान की एक अन्य शाखा सुजननिकी अर्थात् डिस्जेनिक्स (Dysagenics) है जिनके अन्तर्गत निम्न स्तर के लक्षणों की वंशागति के कारण किसी जाति की अवनति के बारे में अध्ययन किया जाता है।

प्रकृति एवं पालन पोषण (Nature and Nurture)

प्राचीन काल के लोगों की यह धारणा होती थी कि राजघरानों तथा उच्चकोटि के अन्तर्गत आने वाले परिवारों की सन्ताने उत्कृष्ट तथा बुद्धिमान होती हैं क्योंकि उनका पालन पोषण अच्छा होता है। तथा सन्तानों में पहले उत्कृष्ट लक्षणों के लिये वातावरणीय दशाओं को ही जिम्मेदार कहा जाता था परन्तु इस धारणा को गैल्टन ने असत्य कहा और स्पष्ट किया कि इसे वैज्ञानिक स्तर पर मानव के आनुवांशिक लक्षणों में सुधार करके जाति को सुधारा जा सकता है। उनके अनुसार किसी जीव की रचना एवं कार्यिकी मूल रूप से उसमें पाये जाने वाले जीन्स पर निर्भर करती है क्योंकि यह जीन्स किसी सन्तान को अपने जनकों से प्राप्त होते हैं। 

मनुष्य में प्रत्येक व्यक्ति का शारीरिक और मानसिक विकास मूल रूप से आनुवांशिकी पर निर्भर करता है क्योंकि किसी संतान के गुण उसे अपने पैतृकों से प्राप्त होते हैं। इसीलिये उसके लक्षणों को उसकी प्रकृति या जन्मजात स्वभाव (Nature) कहते हैं। पालन पोषण (Nurture) जीन्स या प्रकृति को तो नहीं बदल सकता है लेकिन जीन्स के दर्शरूप को अवश्य प्रभावित करता है। कोई व्यक्ति अपने भविष्यकाल में कैसा होगा इसका निर्धारण आनुवांशिकी (प्रकृति) के साथ-साथ वातावरणीय दशाओं (Climatic Factors) पर भी निर्भर करता है।

सुजननिकी तथा मनुष्य उत्थान (Eugenics and Human Progress)

इस प्रकार किसी जीवन के समुचित विकास के लिये आनुवंशिकी तथा वातावरणीय कारकों का महत्वपूर्ण योगदान होता है। अच्छे आनुवंशिकी लक्षणों और वातावरणीय कारकों का होना किसी अच्छी नस्ल के विकास के लिये आवश्यक है। जब हम मनुष्य जाति के उत्थान तथा उसके कल्याण की बात करते हैं तो हमें दो कारकों को ध्यान में रखना चाहिये

(A) सामान्य तथा उच्चकोटि के व्यक्तियों में जन्म की दर नियंत्रित होनी चाहिये क्योंकि इससे अच्छा जर्मप्लाज्य (Germplasm) विकसित होता है।

(B) असामान्य तथा दोषयुक्त मनुष्यों को जन्म दर घटा देनी चाहिये क्योंकि इनमें जर्मप्लाज्म दोषयुक्त होता है जिससे कम बुद्धिलब्धि की जनसंख्या भी तेजी के साथ विकसित हो जायेगी।

भावी पीढ़ी के निर्माण तथा कल्याण के लिये यह आवश्यक है कि मनुष्य जाति सुजननिकी के सिद्धान्त को ध्यान में रखें तथा उसी के अनुसार जनसंख्या पर नियंत्रण रखे और असामान्य तथा दोषयुक्त बच्चों की सन्तानोत्पत्ति को रोकें।

सुजननिकी का उपयोग निम्न दो प्रमुख विधियों को ध्यान में रखकर किया जा सकता है तथा इनमें वर्णित तरीकों को अपना कर उत्तम नस्ल की संतति उत्पन्न की जा सकती है।

1. सकारात्मक सुजनन विज्ञान

2. निषेधात्मक सुजनन विज्ञान

1. सकारात्मक सुजनन विज्ञान (Positive Eugenics) -

इसमें उत्कृष्ट जर्मप्लाज्म अथवा उत्तम गुणों की वंशानुगति को प्रोत्साहन देते हैं और उसके द्वारा मानव जाति की जीनी संरचना को सुधारने का प्रयास करते हैं। सकारात्मक सुजननिकी के अन्तर्गत निम्न विधियाँ आती हैं -

(i) उपर्युक्त लक्षणों के होने पर शीघ्र विवाह (Early marriage of those having
desirable traits) 

सामान्य रूप से यह देखा गया कि समाज में उच्च सन्तान रखने वाले युवक अत्यधिक प्रतिभावान तथा अपने भविष्य के प्रति चिंतित होते हैं तथा अपने जीवन के श्रेष्ठतम लक्ष्य तक पहुँचने के लिये वह काफी परिपक्व होने पर अर्थात् 30 से 35 वर्षों में विवाह करते हैं जो जीव वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से उचित नहीं है क्योंकि उच्च बुद्धिलब्धता रखने वाले व्यक्तियों के जयप्लाज्म का सही समय पर उपयोग नहीं हो पाता है तथा उनमें लैंगिक चाह का अभाव हो जाता है इसलिये सुजननिकी के दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए विलम्ब होने वाले विवाहों में प्रतिबन्ध लगाते हुए शीघ्र विवाह को प्रोत्साहित करना चाहिये जिससे अच्छे सामाजिक परिवेश का निर्माण हो।

(ii) योग्य व्यक्तियों का चुनाव -

क्योंकि उच्चकोटि के व्यक्तियों की सुनियोजित योजना होती है क्योंकि वह विवाह के पश्चात् बच्चों के पालन पोषण में आने वाली कठिनाइयों से बचने के लिये सीमित परिवार रखना चाहते हैं। इस प्रकार कुछ चुने हुए पुरुषों व महिलाओं को उत्तम सुजननिकी के लिये प्रोत्साहित करना चाहिये जिससे उनके द्वारा जन्म दर में वृद्धि हो। इसलिये समाज में बुद्धिमान स्वस्थ और उच्च मानसिक क्षमता वाले व्यक्तियों को शादी एवं जनन के लिये प्रोत्साहित करना चाहिये।

मुलर (Muller) के अनुसार उच्च बुद्धिलब्धता वाले व्यक्तियों को न सिर्फ अपना परिवार ही बढ़ाना चाहिये बल्कि कृत्रिम रूप से शुक्राणु संचय प्रयोगशाला में करना चाहिये जिसका उपयोग बाद में कृत्रिम रूप से उन खियों पर करना चाहिये जिनके पति शारीरिक व मानसिक रूप से अपंग होते हैं या उनमें आनुवंशिक बीमारियाँ होती हैं।

आजकल ऐसी अनेक प्रयोगशालायें हैं. जहाँ पर शुक्राणुओं व अण्डों का कृत्रिम रूप से संरक्षण किया जाता है। जिनका बाद में निषेचन तथा वर्धन होता है।

(iii) सुनियोजित विवाहों के द्वारा (By Planned marriages) - 

ऐसा देखा गया है कि हमेशा स्वस्थ, निरोगी, बलवान, बुद्धिमान एवं उच्च मानसिकता वाले माता-पिता के बच्चे स्वस्थ एवं अच्छे गुणों से युक्त होते हैं क्योंकि यह लक्षण माता-पिता के द्वारा पीढ़ी-दर-पीढ़ी स्थानान्तरित होते रहते हैं। इसीलिये यदि विवाह के समय यदि जोड़े का चुनाव शारीरिक एवं मानसिक क्षमताओं के आधार पर किया जाये तो मानव जाति के अवगुणों को दूर करके उसका उत्थान किया जा सकता है।

(iv) शिक्षा द्वारा (By Education) - 

समाज में समय-समय पर सुजनन-विज्ञान से सम्बन्धित गोष्ठियों का आयोजन करते रहना चाहिये जिसमें लोगों को सुजनन विज्ञान, लिंग (Sex) शिक्षा, मानव आनुवांशिकी तथा मानव जीव विज्ञान से सम्बन्धित तथ्यों की जानकारी देते रहना चाहिये।

(v) अच्छे जर्म प्लाज्म को नष्ट होने से बचाना (Prevention of the wastage of good germplasm) - ऐसा देखा गया है कि अधिक आयु में शादी होने पर बहुत-सा अच्छा जर्मप्लाज्म कार्य ही नष्ट हो जाता है। अधिकांश विद्वान शादी ही नहीं करते और कभी-कभी अनुपयुक्त परिस्थितियों में अच्छा जर्मप्लाज्म भी नष्ट हो जाता है। अतः जर्मप्लाज्म को नष्ट होने से बचाना चाहिये जिन्हें निम्न विधियों के द्वारा नष्ट होने से बचाया जा सकता है

(A) विवाह के लिये योग्य दम्पत्तियों का चुनाव काफी सोच-समझ कर बुद्धिमानी के साथ करना चाहिये।

(B) युद्धों से भी बचना चाहिये क्योंकि युद्ध से बहुत से बहादुर वीर सैनिकों की मृत्यु हो जाती है जिनका जर्मप्लाज्म उपयोगी हो सकता है।

(vi) सामाजिक प्रतिबंधों को हटाना (Removal of Social Binding) -

 बहुत से सामाजिक तथा धार्मिक प्रतिबंधों के कारण विभिन्न जातियों के स्त्री-पुरुषों में विवाह सम्बन्ध नहीं होता है। इसके कारण बहुत-सा अच्छा जर्मप्लाज्म आपस में मिल नहीं पाता है। मनुष्य जाति की उन्नति एवं विकास के लिये सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक प्रतिबंध नहीं होने चाहिये।

(vii) जीन सर्जरी या जीन इन्जीनियरिंग (Genetic Surgery or Genetic Engineering)

कुछ आधुनिक वैज्ञानिकों ने प्रारम्भिक दशा के भ्रूण में ही अनुवंशिक दुर्बलताओं एवं दोषों का पता लगाने और व्यक्तियों के आनुवांशिक पदार्थ (DNA) में परिवर्तन करने की बात पर जोर दिया है। इसे आनुवांशिक सर्जरी कहते हैं जिसके अन्तर्गत एक जीव के DNA का अंश निकालकर दूसरे जीव के DNA में जोड़ देते हैं या फिर रसायनों और विकिरणों के द्वारा जीव के DNA में रासायनिक परिवर्तन (उत्परिवर्तन) कर देते हैं। ऐसा करने का प्रयास किया जा रहा है कि उत्तम लक्षणों वाली स्त्रियों के अण्डाशयों में द्विसूत्री अण्डाणु बने जिससे निषेचन के बिना ही अनिषेक जनन के द्वारा ही भ्रूणीय परिवर्धन के द्वारा संतानें बन जायें।

(vii) चिकित्सीय इंजीनियरिंग या यूफेनिक्स (Medical engineering or Euphenics)

लीडरबर्ग ने 1963, 1966 में आनुवांशिक लक्षणों के सुधार में नयी विधि खोज निकाली इसमें जीन्स के द्वारा प्रभावित दोषपूर्ण निम्न दर्शरूपी लक्षणों को विकसित होने से पहले ही नष्ट कर या परिवर्तित कर दिया जाता है। क्योंकि हम जानते हैं कि प्रत्येक जीन प्रोटीन के संश्लेषण को नियंत्रित करता है और यह प्रोटीन फिर किसी दर्शरूप लक्षणों के विकास के लिये उत्तरदायी होता है। एक जीन....... एक प्रोटीन.......... एक लक्षण इसी से सम्बन्धित एक अन्य शाखा है जिसके अन्तर्गत मेटाबोलिक प्रक्रियाओं की इस श्रृंखला में परिवर्तन करके निम्न लक्षणों के विकास को रोकते हैं।

(ix) आनुवंशिक सलाह के द्वारा (By Genetic Councelling) - 

आनुवंशिक सलाह के द्वारा भी मानव समाज का कल्याण किया जा सकता है जिसका उद्देश्य मनुष्य को उत्परिवर्तित लक्षणों और उसकी प्रकृति की जानकारी देना है तथा मानव जाति के समुचित विकास के लिये सिर्फ आनुवांशिकी ही पर्याप्त नहीं है बल्कि उसे विभिन्न रोगों और उपापचयी क्रियाओं के असंतुलन की जानकारी भी होनी चाहिये जो जीन्स से सम्बन्धित होती है। अतः सुजननिकी का विकास करने के लिये कोशा आनुवांशिकी (Cytogenetics) का क्षेत्र में नये अनुसंधान करने चाहिये।

(x) वातावरणीय दशा को बढ़ावा देकर (Improvement of environmental conditions)

सुजननिकी के द्वारा मानव जाति के उत्थान करने के लिये आनुवांशिकी तथा वातावरणीय दशाओं का आपसी सम्बन्ध होता है इसलिये प्रत्येक व्यक्ति को अच्छा खाना, शिक्षा तथा रहने के लिये समुचित प्रबन्ध होना चाहिये जिनके द्वारा मनुष्य जाति में अच्छे लक्षणों का विकास किया जा सकता है।

2. निषेधात्मक सुजननिकी (Negative Eugenics) - 

इसके अन्तर्गत समाज के घटिया तथा दोषपूर्ण जर्मप्लाज्म से युक्त आनुवांशिक लक्षणों वाले व्यक्तियों को संतानोत्पत्ति करने से रोका जाता है जिससे निम्नकोटि के लक्षणों वाले जीन्स धीरे-धीरे घट जाये। निषेधात्मक सुजननिकी की निम्न विथियाँ हैं

(A) दोषपूर्ण व्यक्तियों का लैंगिक पृथक्करण - 

आनुवांशिकी रूप से दोषपूर्ण व्यक्तियों में विभिन्न प्रकार की लिंग सहलग्न बीमारियाँ होती हैं जिनमें से हीमोफीलिया, रतौंधी, वर्णान्धता आदि प्रमुख रोग हैं इन रोगों के लक्षण प्रभावी तथा अप्रभावी जीन्स के द्वारा नियंत्रित होते हैं जिन लोगों में इन लक्षणों से युक्त जर्मप्लाज्म होता है उनके इन जीन्सों के पृथक्करण के द्वारा समाज में इन रोगों का नियंत्रण किया जा सकता है। कई प्रदेशों में इन मानसिक तथा आनुवांशिक रोगों से युक्त व्यक्तियों को समाज से दूर किसी मानसिक अस्पताल में रखा जाता है।

(B) बन्ध्याकरण या नसबन्दी (Sterilization) -

 इनमें किसी सामान्य प्रक्रिया को बाधित किये बिना ही दोषपूर्ण जर्मप्लाज्म को उत्तम जर्मप्लाज्म बनने से रोकने का एक उपाय है जिसके अन्तर्गत वृषणों से आने वाले शुक्राणुओं और अण्डाशयों के द्वारा आने वाले अण्डाणुओं के मार्ग को शल्य क्रिया के द्वारा अवरुद्ध कर दिया जाता है घटिया लक्षणों वाले व्यक्तियों को समाज हित में बन्ध्याकरण के लिये प्रेरित करना चाहिये जिनके द्वारा संतानोत्पत्ति न करने पर समाज में उच्चकोटि के बुद्धिलब्धि वाली संतानें उत्पन्न होती हैं। पुरुषों के बन्ध्याकरण (वैसेक्टोमी) में शुक्र वाहिनियों को खणीय काट कर या बांध कर शुक्राणुओं के निकलने का मार्ग अवरुद्ध करते हैं। इसी प्रकार स्त्रियों में अण्ड वाहनियों को काट या बांध कर अण्डाणुओं का मार्ग अवरुद्ध कर देते हैं इस प्रक्रिया को ट्यूबैक्टोमी या सैल्यिजेनटोमी कहते हैं। इस प्रकार मन्द बुद्धि वाले रोग ग्रस्त व्यक्तियों को शादी हेतु आज्ञा तो प्रदान कर दी जाती है परन्तु यह संतानोत्पत्ति नहीं कर सकते हैं।

(C) वैवाहिक प्रतिबन्ध (Restriction on Marriages) कुछ देशों में मूर्ख, रोगग्रस्त, शारीरिक व मानसिक रूप से विकलांग, शराबी तथा अन्य दोषयुक्त व्यक्तियों को विवाह प्रतिबन्धित होता है जिससे आने वाली पीढ़ियाँ इन रोगों से मुक्त हो जाती हैं तथा उत्तम समाज के निर्माण के लिये विवाह से सम्बन्धित नियमों का दृढ़ता से पालन होना चाहिये।

(D) पृथक्करण (Segregation) -

 मन्दबुद्धि, रोगग्रस्त, दुष्ट, पतित व्यक्तियों को अस्पतालों को अन्य ऐसे स्थानों में रखना चाहिये जहाँ पर अच्छे व बुरे लक्षणों से युक्त व्यक्तियों के बीच में सहवास न हो सके। जिससे भावी पीढ़ी में अच्छे व बुरे आनुवांशिक लक्षणों के मिश्रण की सम्भावनायें समाप्त हो जाती हैं।

(E) अप्रवासन नियंत्रण (Control of Immigration) 

देशान्तरण के द्वारा घटिया आनुवांशिक लक्षणों वाले व्यक्तियों पर एक देश से दूसरे देश में जाकर रहने की रोक लगा देनी चाहिये तथा देश में बीमार अवांछित अन्य दोषपूर्ण व्यक्तियों एवं उनके रिश्तेदारों को आने से रोकने के लिये अप्रवासन के नियमों का दृढ़ता से पालन होना चाहिये जिससे रोगग्रस्त व्यक्तियों के द्वारा आनुवांशिक लक्षण एक जगह से दूसरी जगह जाने नहीं पायेंगे।

(F) संतति नियंत्रण (Birth Control) -

 घटिया आनुवंशिक लक्षणों वाले व्यक्तियों में बन्ध्याकरण के अतिरिक्त अन्य संतति नियंत्रण पर भी प्रतिबन्ध लगाना चाहिये जिससे समाज की जीन राशि में सुधार होने के समय ही मानव की जनसंख्या की वृद्धि की संभावना भी कम हो जायेगी। गर्भ के समय ही यदि भावी संतान के दोषपूर्ण आनुवांशिक लक्षणों का पता लग जाये तो दोषयुक्त संतानों का उनके जन्म से पूर्व ही गर्भपात (Abortion) करा देना चाहिये।

(G) समरक्त या समगोत्री विवाहों पर प्रतिबन्ध (Control on Consanguineous marriages) - एक ही पूर्वज की सन्तानों में परस्पर सहवास प्रतिबन्धित होना चाहिये क्योंकि इससे निम्नकोटि के घटिया आनुवंशिक लक्षणों की वंशानुगति बढ़ जाती है क्योंकि रोगों आदि के लक्षण अप्रभावी जीन्स के कारण होते हैं जो कि प्रकार की इनब्रीडिंग (Inbreeding) में होमोजाइगस होकर अपने लक्षणों का विकास करते हैं।


 यूजेनिक्स तथा यूथेनिक्स में क्या अन्तर है? 





 सौपरिवेशकी (Euthenics) से आप क्या समझते हैं?

सौपरिवेशकी (Euthenics) - व्यावहारिक आनुवांशिकी की वह शाखा जिसके अन्तर्गत उत्तम प्रशिक्षण एवं पालन पोषण के द्वारा मानव के उच्च आनुवांशिक लक्षणों के समुचित विकास की विभिन्न विधियों का अध्ययन करते हैं। जिस प्रकार से स्वीकारात्मक सुजननिकी में उत्कृष्ट लक्षणों वाल व्यक्तियों के द्वारा अत्यधिक जनन की बात कही जाती है, ठीक उसी प्रकार सौपरिवेशकी में विद्यार्थिव में से श्रेष्ठ तथा मेधावी छात्र को चुनकर उनके बहुमुखी विकास को महत्व देते हैं तथा उन्हें समस्त सुविधायें प्रदान करने के अवसर सुनिश्चित किये जाते हैं।

मेधावी छात्रों का चयन

मेधावी छात्रों का चयन बुद्धिलब्धता Intelligence Quotient (I. Q.) के आधार पर किया जाता है। विद्यार्थियों के किसी समूह में श्रेष्ठतम विद्यार्थी का चुनाव करना कठिन नहीं होता तथा उससे स्मरण शक्ति, तर्क शक्ति, उत्साह, आत्मसंयम, विचारशीलता की क्षमताओं पर आधारित प्रश्नों को पूछते हैं तथा उसके द्वारा दिये गये उत्तरों से उसकी मानसिक आयु की गणना कर लेते हैं तथा उसकी वास्तविक आयु को जान कर बुद्धिलब्धि के सूत्र के द्वारा उसकी बुद्धिलब्धता की गणना करते हैं।

बुद्धि लब्धि के विभिन्न स्तर (Levels of I. Q.)

बुद्धि लब्धि के आधार पर किसी भी विद्यार्थी समूह का वर्गीरण किया जा सकता है। बुद्धि लछि पर आधारित विभिन्न श्रेणियाँ हैं जिन्हें निम्न तालिका के द्वारा प्रदर्शित किया जा सकता है-




मेधावी छात्रों को समाज से चयन करना तथा उन्हें शैक्षिक व अन्य सुविधायें प्रदान करने से समाज का उत्थान होता है जिससे राष्ट्र की उन्नति होती है। प्राचीन काल से ही समाज और राज्य के द्वारा ऐसी सुविधायें दी जा रही हैं तथा अनेक राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय संस्थायें इन दिशाओं में महत्वपूर्ण कार्य कर रही हैं इन विधियों के द्वारा सौपरिवेशिकी का विकास किया जा रहा है इनमें से कुछ विधियाँ निम्न हैं

1. देशाटन की सुविधायें - क्योंकि देशाटन के द्वारा बुद्धि, ज्ञान और विवेक के विकास में वृद्धि होती है इसीलिये मेधावी छात्रों को देशाटन की विशेष सुविधायें प्रदान की जाती हैं।

2. विशिष्ट शिक्षण संस्थाओं की स्थापना - मेधावी छात्रों के लिये सरकार के द्वारा विशेष शिक्षण संस्थायें स्थापित की जाती हैं जिसमें अनेक बौद्धिक तथा शारीरिक विकास के लिये समुचित हैं जिससे मेधावी छात्र प्रशिक्षण ग्रहण करते हैं।

3. विशेष क्रियायें (Extra carricular activities) - निर्धारित पाठ्यक्रम के अतिरिक्त छात्रों का विशेष पाठ्योत्तर क्रियाओं की भी सुविधा प्रदान की जाती है जैसे खेलकूद, स्काउटिंग, सैनिक प्रशिक्षण, सांस्कृतिक कार्यक्रम, N. C. C. आदि यह क्रियायें छात्रों के चतुर्मुखी विकास में सहायक होती हैं।

4. विशिष्ट पाठ्यक्रम एवं शिक्षण विधियाँ - उच्च कोटि के पाठ्यक्रम एवं शिक्षण सुविधाओं के द्वारा मेधावी छात्रों को प्रोत्साहित किया जाता है जिससे उनमें और बुद्धि का विकास हो जाता है।

5. अच्छा आवास एवं समुचित पोषण - मेधावी छात्रों को अच्छी आवासीय सुख-सुविधा प्रदान की जाती है तथा उन्हें उत्तम पोषण दिया जाता है जिससे उनमें और अधिक बुद्धि का विकास हो सके।

उत्तम प्रशिक्ष के पश्चात इन प्रतिभा सम्पन्न छात्रों की प्रतिभा का उचित समय पर उपयोग किया जाना चाहिये सौपरिवेषिकी के अन्तर्गत इन्हीं बातों का ध्यान रखा जाता हैं।


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