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गुणसूत्रीय विपथन का वर्णन || gunasootreey vipathan ka varnan

 हम इस पोस्ट में हम- गुणसूत्रीय विपथन पर एक निबन्ध ,गुणसूत्रीय विपथन का वर्णन ,गुणसूत्री परिवर्तन की परिभाषा , गुणसूत्र के संख्यात्मक परिवर्थन से आप क्या समझते हैं? ,प्राकृतिक ढंग से गुणसूत्र में कमी कैसे पैदा होती है, गुणसूत्रों में संरचनात्मक परिवर्तन कैसे होते हैं?,गुणसूत्रीय विलोपन को परिभाषित ,मनुष्य के पाँचवें क्रोमोसोम में विलोपन से होने वाले विन्यास को समझाइये।,मानव भ्रूण की गुणसूत्रीय विपथन ज्ञात करने की विधि बताइये। ,जीन द्विगुणन को परिभाषित कीजिये। द्विगुणन के कारण ड्रोसोफिला में होने वाले आनुवंशकीय विन्यास को समझाइये।,गुणसूत्रों में संख्यात्मक परिवर्तन कैसे होता है?,उस गुणसूत्रीय विपथन का वर्णन कीजिये जो स्यूडोडॉमिनेन्स अवस्था को दर्शाता है।,स्थानान्तरण। आदि प्रश्नो पर चर्चा करेगें



मानव में गुणसूत्री विपथन

(Chromosomal Aberration in Man)

गुणसूत्र विपथन (Chromosomal Aberrations)

गुणसूत्रों में जीन्स के विन्यास में जो परिवर्तन होते हैं उनको गुणसूत्रों का संरचनात्मक परिवर्तन अथवा गुणसूत्र विपथन (Aberrations) कहते हैं। इन परिवर्तनों से प्राणियों में संरचनात्मक या फीनोटाइपिक परिवर्तन आ सकते हैं, सम्भावित जैनेटिक अनुपात में परिवर्तन आ जाते हैं तथा कुछ जीन्स के सहलग्न सम्बन्धों में भी अन्तर आ जाते हैं। गुणसूत्र विपथन विकास सम्बन्धी परिवर्तन उत्पन्न करने तथा गुणसूत्रों एवं जीन्स में नये सम्बन्ध स्थापित करने का कार्य करते हैं। गुणसूत्रों की संरचना में चार प्रकार के संरचनात्मक परिवर्तन उत्पन्न हो सकते हैं

1. विलोपन अथवा न्यूनता (Deletion or Deficiency)

2. द्विगुणन (Duplication)

3. स्थानान्तरण (Transformation)

4. प्रतिलोमन (Inversion)


1. विलोपन अथवा न्यूनता या हास -

विलोपन में गुणसूत्र के किसी खण्ड का भास हो जाता है जिसके कारण विलोपित खण्ड में उपस्थित जीन्स गुणसूत्र में कम हो जाते हैं विलोपित खण्ड में सेन्ट्रोमीयर अनुपस्थित होता है इसलिये यह नष्ट हो जाता है। विलोपन उपांतरीय अथवा अन्तर्वेशी (terminal or intercalory) दोनों प्रकार का हो सकता है। उपांतीय में गुणसूत्र टूटकर विलोपित हो जाता है तथा अन्तर्वेशी विलोपन में गुणसूत्र के बीच से खण्ड टूटकर अलग होता है। इसमें गुणसूत्र दो स्थानों पर टूटता है और बाद में बीच का खण्ड तो रह जाता है तथा टूटे हुए दोनों शीर्ष खण्ड जुड़कर नया गुणसूत्र बना लेते हैं। अन्तर्वेशी विलोपन ड्रोसोफिला ब अन्य प्राणियों में अधिकता से मिलते है, किन्तु उपान्ती विलोपन केवल मक्का में देखे गये हैं। उपान्ती व अन्तर्वेशी दोनों ही प्रकार के विलोपन को अद्धसूत्री विभाजन की पैकीरीन प्रावस्था में तथा पोलोटीन गुणसूत्रों में देखा जा सकता है। क्योंकि जब अन्तर्वेशी भाग विलोपित होता है तो पोलोटीन गुणसूत्रों के समजात गुणसूत्र के बीच का भाग बकसुर के आकार के फंदे के रूप में बाहर निकल आता है। इसी प्रकार असूत्र की पैकाइटीन अवस्था में सामान्य गुणसूत्र का वह भाग जो विलोपित गुणसूत्र के विलोपित भाग के संगत होता है बकसुए के रूप मे बाहर की ओर निकलता है।

2. द्विगुणन -

किसी गुणसूत्र में कुछ जीन्स की दो बार पुनरावृत्ति को द्विगुणन कहते है। यह पुनरावृत्ति जीन समूह चाहे तो अपने समजात गुणसूत्र से जुड़ा हो सकता है या सेन्ट्रोमीयर सहित केन्द्रक में स्वतन्त्र पड़ा हो सकता है अर्थात् द्विगुणन के अन्तर्गत एक गुणसूत्र का कुछ भाग दूटकर समजात गुणसूत्र से जुड़ जाता है अथवा यह टूटा हुआ भाग सेन्ट्रोमीयर सहित केन्द्रक में स्वतन्त्र पड़ा रहता है।

द्विगुणन दो विधियों द्वारा विकसित होते हैं -

(1) एक गुणसूत्र का कुछ भाग टूटकर अपने समजात गुणसूत्र पर यथा स्थान पर जुड़ जाता है।

(2) अर्द्धसूत्री विभाजन के समय समजात गुणसूत्रों में असमान क्रासिंग ओवर होने से एक समजात गुणसूत्र में कुछ जीन्स दो बार आ जाते हैं और दूसरे गुणसूत्र में ये अनुपस्थित होते है।

ब्रिजिस ने 1919 में ड्रोसोफिला के x गुणसूत्र में बार लोकस द्विगुणन का प्रदर्शन किया। बार जीन -B के लिये असमयुग्मजी होने पर ड्रोसोफिला में आँखें सामान्य की अपेक्षा छोटी व कुछ लम्बी व छड़ी नुमा होती है। समयुग्मजी अवस्था (BB - जीन्स पर) आँखों और भी छोटी होती है। मूलर ने देखा कि बार जीन के दो लोकस पर समयुग्मजी होने पर ड्रोसोफिला की आँखें बहुत छोटी हो जाती है।

3. स्थानान्तरण -

 स्थानान्तरण में असमजात गुणसूत्रों (Non-homologous) के एक या अधिक खण्ड टूटकर इस प्रकार जुड़ जाते हैं कि असमजात गुणसूत्रों के खण्डों का आदान प्रदान हो जाता है। जैसे ड्रोसोफिला के दूसरे व तीसरे गुणसूत्र के बीच खण्डों के विनिमय को स्थानान्तरण कहते है। असमजात गुणसूत्रों के बीच विनिमय को व्युत्क्रम स्थानान्तरण कहते हैं।

अतः स्थानान्तरण में जीन्स का विलोप या द्विगुण नहीं होता, केवल जीन्स के विन्यास एवं स्थिति में परिवर्तन हो जाता है इस प्रकार के जीन विन्यास वाले प्राणियों में शारीरिक लक्षणों में कोई परिवर्तन नही होता।

प्रतिलोमन -

 इसमें किसी गुणसूत्र के अन्दर ही कुछ जीन्स का एक खण्ड 180° पर धूम जाता है जिससे जीन्स के विन्यास में परिवर्तन हो जाता है। कभी-कभी गुणसूत्र दो स्थानों पर टूट जाता है तथा टूटा हुआ बीच का खण्ड अपने स्थान पर इस प्रकार घूम जाता है कि इसके दोनों सिरों की स्थिति बदल जाती है। यह धूमा हुआ खण्ड अपने ही स्थान पर गुणसूत्र के दोनों खण्डों में जुड़ जाता है। इससे जीन्स के विन्यास में प्रतिलोभन हो जाता है। प्रतिलोमन दो प्रकार का होता है

(1)Paracentric Inversion-पराकेन्द्री प्रतिलोभन  में प्रतिलोमित खण्ड में सेन्ट्रोमीयर नहीं होता 

(2) Paricentric-परिकेन्द्री प्रतिलोमन में प्रतिलोमित खण्ड में सेन्ट्रोमीयर होता है।


प्रश्न 2. असुगुणिता किसे कहते हैं? विभिन्न प्रकार की असुगुणिताओं का वर्णन  तथा इनकी उत्पत्ति के स्रोत बताईये।

                                                        अथवा

प्रश्न .असुगुणिता के बारे में संक्षेप में वर्णन कीजिये।

                                                        अथवा

 प्रश्न .द्विन्यूनसूत्रता।

असुगुणिता (Aneuploidy)

कायिक गुणसूत्र संख्या (Somatic Chromosome Number) में एक अथवा अनेक गुणसूत्रों की कमी या वृद्धि असुगुणित (Aneuaploidy) कहलाती है, तथा इसमें कभी भी सम्पूर्ण जीनोम (Genome) की कमी अथवा वृद्धि नहीं पायी जाती है। असुगुणिता को 4 भागों में विभाजित किया जा सकता है।


(1) मोनोसोमी (Monosomy) -

 कायिक गुणसूत्र संख्या में एक गुणसूत्र का कम होना मोनोसोमी (Monosomy) कहलाता है, जिसे 2n-1 द्वारा प्रदर्शित करते हैं। इनमें से किसी गुणसूत्र का समजात नहीं पाया जाता है। अतः समसूत्री विभाजन (Meiosis) के समय यह गुणसूत्र अयुग्मित (Unpaired) रहता है और यह यूनीवेलेण्ट (Univalent) ही रह जाता है। इसमें प्रथम एनाफेज (Anaphasel) के समय कुछ विशेषतायें जैसे - (i) यह एक ध्रुव की ओर चला जाता है। (1) कभी-कभी यह ध्रुव पर न जाकर लुप्त हो जाता है। (iii) कभी-कभी समसूत्रीय विभाजन (Mitosis) के गुणसूत्रों की तरह विभाजन करने लगता है जिसके फलस्वरूप इसका प्रत्येक अर्ध-गुणसूत्र (Chromatid) विपरीत ध्रुव पर चला जाता है। अतः एक न्यूनसूत्री पौधों के 50% युग्मकों में 1-1 गुणसूत्र पाये जाते हैं। जीवधारियों में सम्पूर्ण एक गुणसूत्र की कमी के कारण बहुत हानिकारक कुप्रभाव पड़ता है, अर्थात्के वल बहुगुणित (Polyploid) जातियों में ही एक न्यूनसूत्री जीवित रहते हैं और द्विगुणित जातियों में इनका जीवनयापन हो जाता है, किन्तु द्विगुणित टमाटर में एक न्यूनसूत्री होते हैं। इसी प्रकार गेहूँ, जई तथा कपास में एक न्यूनसूत्री पाये जाते हैं।

एक न्यूनसूत्री जाति 2n-C में अर्द्धसूत्री विभाजन की प्रथम एनाफेज अवस्था (A) यूनिवेलेण्ट गुण सूत्र एक ध्रुव की ओर स्थित, (B) बीच में स्थित गुणसूत्र, (C) गुणसूत्र विभाजन एवं अर्द्धगुणसूत्र का विभाजन

(2) द्विन्यूनसुत्रिता या नलीसोमी (Nullisomy) -

 कायिक गुणसूत्र संख्या में एक जोड़ा (par) समजात गुणसूत्रों (Homologous Chromosomes) का कम होना नलीसोमी (Nulisomy) कहलाता है। नलीसोमी गुणसूत्रों की संख्या 2n-1 पायी जाती है। इसका हानिकारक कुप्रभाव जीवधारियों पर पड़ता है।

(3) एकाधिसूत्रता या ट्राईसोमी (Trisomy) -

 कायिक गुणसूत्र संख्या में एक गुणसूत्र की वृद्धि पर ट्राईसोमी (Trisomy) कहलाता है जिसे 2n + 1 द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। इसमें एक गुणसूत्र की 3 प्रतियाँ (Copies) पायी जाती हैं। इसमें अर्द्धसूत्री विभाजन में तीनों समजात गुणसूत्र मिलकर जोड़ा बनाते हैं, जो बाईवेलेण्ट (Bivalent) होता है तथा शेष अतिरिक्त समजात गुणसूत्र यूनीवेलेण्ट (Univalent) के रूप में पाया जाता है। अर्द्धसूत्रीय विभाजन का प्रथम एनाफेज में ट्राइवेलेण्ट के दो गुणसूत्र यूनीवेलेण्ट एक न्यूनसूत्री एक ध्रुवण पर एक गुणसूत्र दूसरे ध्रुव पर पहुँच जाता है। Univalent एक न्यूनसूत्री के आयुग्मों की तरह रहता है जिसमें n + 1 गुणसूत्र वाले युग्मकों की संख्या 50% से घट जाती है। यद्यपि एकाधिसूत्री जीवित रहते हैं, किन्तु एक गुणसूत्र की अधिकता का कुप्रभाव जीवधारियों पर पड़ता है। टमाटर, मटर, जौ तथा बाजरा की द्विगुणित जातियों में एकाधिसूत्री पाये जाते हैं।

(4) टेट्रासोमी (Tetrasomy) - 

इसमें कायिक गुणसूत्र संख्या के अतिरिक्त दो समजात गुणसूत्र (Homologous chromosomes) अधिक पाये जाते हैं। अतः यह दशा टेट्रासोमी (Tetrasomy) कहलाती है जो 2n +2 द्वारा प्रदर्शित किया जाता है।

इसमें एक गुणसूत्र की चार प्रतियाँ (Copies) होती हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार एक गुणसूत्र में उपस्थित होने की तुलना में गुणसूत्रों का एक जोड़ी उपस्थित होना अत्यधिक कुप्रभावी होता है, जिससे हानि होती है, यही कारण है कि टेट्रासोमिक्स ट्राइसोमिक्स की तुलना में कमजोर होते हैं।

टेट्रासोमी में 4 समजात गुणसूत्रों के एक साथ जोड़े बनने में एक क्वाड्रीवेलेण्ट (Quadrivalent) का निर्माण होता है अथवा इन गुणसूत्रों के परस्पर युग्मन के फलस्वरूप एक ट्राईवेलेण्ट, एक यूनीवेलेण्ट तथा दो बाई वेलेण्ट का भी निर्माण हो सकता है। एनाफेज प्रथम में क्वाण्ड्रीवेलेण्ट, ट्राइवेलेण्ट तथा यूनीवेलेण्ट में अनियमित विलगन (Dijunction) होता है, जिससे अधिकांश युग्मकों में केवल । गुणसूत्र पाये जाते हैं तथा अन्य गुणसूत्र n+1 प्रकार के होते हैं।

असुगुणित बीज तुलना में छोटे होते हैं। इनमें बहुत कम अंकुरण हो पाता है। इसी प्रकार परागनलिका काफी धीमी गति से वृद्धि करती है। इसी प्रकार नर युग्मकों में पारगमन (Transmission) बहुत कम होता है। इसके विपरीत मादा युग्मकों द्वारा असुगुणिता का परागमन नर की अपेक्षा अधिक होता है।

असूगुणिता का उद्गम (Origin of Aneuploidy) - इसे निम्नलिखित बिन्दुओं द्वारा समझाया जा सकता है

1. प्रवृत्ति में स्वतः (Spontaneously) n + 1 अथवा n-1 युग्मकों का निर्माण होता रहता है।n+1 अथवा n-1 युग्मकों के साथ संयोग करने से 2n + 1 अथवा 2n-1 प्रकार के युग्मनज का निर्माण हो सकता है।

2. त्रिगुणित (Triploid) पौधों में अधिकतर युग्मक असुगुणित n+ 1 या n-1 प्रकार के होते हैं, जिनसे प्रायः असुगुणित सन्ततियाँ प्राप्त होती हैं।

3. अर्द्धसूत्रीय विभाजन (Meiosis) के समय असनेप्टिक (Asynaptic) पौधों में समजात गुणसूत्रों में युग्मन (Pairing) नहीं पाया जाता है। इसके विपरीत डिसनेप्टिक (Desynaptic) पौधों युग्मन होता है। यह गुणसूत्र अपना युग्मन मेटाफेज तक पहुँचने के पूर्व ही समाप्त कर देते हैं जिसके कारण n+1 तथा 1-1 के युग्मक बनते हैं जो उत्परिवर्तन प्रदर्शित करते हैं। 4. स्थानान्तरण वाले विषमयुग्मजों (Heterozygotes) में क्वाड्रीवेलेण्ट के चारों गुणसूत्रों का यह युग्मक सामान्य । युग्मकों से संयोग करते हैं तो असुगुणित (Aneuploid) पौधे बनते हैं। 5. अधिकतर (n+ 1) प्रकार के युग्मन टेट्रासोमिन पौधों में पाये जाते हैं और इस प्रकार के पौधों का संकरण करने से ट्राइसोमिक 2n + 1 प्रकार के युग्मनज बनते हैं।



प्रश्न 3. गुणसूत्रों में संख्यात्मक परिवर्तन कैसे होते हैं?

                            अथवा

गुणसूत्रों में संरचनात्मक परिवर्तन कैसे होते हैं?


उत्तर-जीवों के आनुवंशिक पदार्थ में होने वाले परिवर्तन जो यशागति होते । आनुवांशिक विभिन्नतायें उत्पन्न करते हैं। ये परिवर्तन तीन प्रकार  के हो सकते है

(1) गुणसूत्रों की संख्या में परिवर्तन,

(2) गुणसूत्रों की संरचना में परिवर्तन,

(3) जीन्स की संरचना में परिवर्तन ।

(1) गुणसूत्रों की संख्या में परिवर्तन (Change in the number of Chromosomes) - या परिवर्तन दो प्रकार के होते हैं

(i) बहुगुणिता (Polyploidy) -

 इनमें गुणसूत्रों की संख्या एकसूत्री, संख्या की तीन से पांच गुनी तक होती है गुणसूत्रों के एक सैट को n द्वारा प्रदर्शित करते हैं इस क्रिया में भी दो प्रकार के क्रम होते हैं। एक स्थबहुगुणित दूसरा परबहुगुणित होता है।

किसी भी जीव के द्विगुणित गुणसूत्रों के गुणन में स्वबहुगुणित विकसित होते हैं। किन्हीं दो विभिन्न जातियों के संकरण से बने संकर के जीनोम के सैट जुड़ने से परबहुगुणित बनते है।

(ii) असूगुणित (Anouploidy) -

 गुणसूत्रों के एक सैट में एक से अधिक गुणसूत्रों की संख्या कमी था अधिकता को असुगुणिता कहते हैं।

यह तीन प्रकार से होते हैं-

(a) एक न्यून सूत्री, 

(b) द्विन्यून सूत्री,

 (c) अधिसूत्री।

(a) एक न्यून सूत्री (Monosomics) - 

इनमें गुणसूत्रों के दो सैटों में केवल एक सैट में एक गुणसूत्र कम हो जाता है। इनमें गुणसूत्र संख्या 2n-1 होती है।

(b) बिन्यून सूत्री (Nullisomics) -

 इनमें एक जोड़ी के दोनों गुणसूत्र उपस्थित नहीं होते है।

इनकी गुणसूत्र संख्या 2n-2 होती है।

(c) अभिसूत्री (Polysomics) -

 इनमें द्विगुणित जीनोम में एक या एक से अधिक गुणसूत्र पाये जाते हैं एक गुणसूत्र अधिक होने पर इन्हें एकाधिसूत्री तथा दो होने पर द्विअधिसूत्री कहते हैं एक संतति कोशा में 2n+a होते हैं।

(2) गुणसूत्र संरचना में परिवर्तन या गुणसूत्र विपथन (Change in the structure of Chromosomes or Chromosomal Aberrations) - गुणसूत्रों की संरचना परिवर्तन का अर्थ है कि जीन्स की संख्या तथा उनके विन्यास में होने वाले परिवर्तन गुणसूत्र विपधन कहलाते हैं। ये प्राय: अर्थसूत्री विभाजन के अन्तर्गत आते हैं ये उत्परिवर्तन निम्न प्रकार के होते हैं

(i) विलोपन (Deletions) -

इनमें गुणसूत्र का कोई भाम टूट कर मूल भाग से अलग हो जाता है। जिससे विलोपित गुणसूत्र में जीन की संख्या कम हो जाती है।

(ii) आवृत्ति या द्विरावृत्ति (Duplication) -

 इसमें एक ही प्रकार के जीन एक से अधिक बार मिलते है तो एक जीन में विलोपन तथा दूसरे में द्विरावृत्ति होती है।

(iii) उत्क्रमण (Inversion) -

 इसमें गुणसूत्रों के व्यवस्थित क्रम उल्टा हो जाता है। गुणसूत्रों के टुकड़ों के आपस में जुड़ते समय उनके सिरों के पलट कर 180° पर घूम जाने से उत्क्रमण होता है।

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