हम इस पोस्ट में रूधिर वर्ग पर टिप्पणी, रुधिर वर्ग का वर्णन एवं इनके प्रकार तथा वंशागति का वर्णन , रुधिर वर्गों को कैसे ज्ञात किया जाता है?,M तथा N रुधिर वर्ग,Rh तत्व (Rh Factor),Rh तत्व का महत्व,Rh तत्व की वंशागति, लिंग गुणसूत्र ,बेटसन और पुनेट की परिकल्पना ,बहुजीनी वंशागति,वर्णहीनता आदि पर चर्चा करेंगे
रूधिर वर्ग
मानव का सथिर वर्ग बहुविकल्पियों का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। मानव समष्टि में रुथिर के चार वर्ग होते हैं
A B AB O
इन यों का निर्धारण एक म्यूकोपालीसेकेराइड करता है जो लाल रुधिर कणिकाओं की झिल्ली में लिपिड अणुओं के साथ बंथित रहता है। इस पदार्थ को एण्टीजन (Antigen) कहा जाता है।
1. रुधिर वर्ग वाले मनुष्यों में एण्टीजन होता है ......A
2.B रुधिर वर्ग वाले मनुष्यों में एण्टीजन होता है .....B
3. AB रुथिर वर्ग वाले मनुष्यों में एण्टीजन होता है.....AB
4.O, रुथिर वर्ग वाले मनुष्यों में कोई एण्टीजन नहीं होता है।
उपरोक्त एण्टीजन का संश्लेषण तीन ऐलील या युग्मविकल्पियों द्वारा नियंत्रित होता है। ये IA I० तथा I० हैं। रुधिर वर्ग 0 का लक्षण प्रारूप वन्य (Wild) एवं अप्रभावी होता है। यह जीन 1000 द्वारा नियंत्रित रहता है तथा ।० वन्य जीन है तथा LA व L B इसके दो उत्परिवर्तित ऐलील है जो सह-प्रभाविता (Co-dominance) प्रदर्शित करते हैं। अतः इनकी जीनी संरचना निम्न प्रकार से होती
1.O रुधिर वर्ग वाले मनुष्यों की जीनी संरचना :।० ।० (समयुग्मी अप्रभावी)
2. A रुथिर वर्ग वाले मनुष्यों की जीनी संरचना : LA।० या LB LB (विषमयुग्मजी या समयुग्मजी
प्रभावी)
3.B रुधिर वर्ग वाले मनुष्यों की जीनी संरचना : LB ।० या LB-LB (विषमयुग्मी या समयुग्मजी
प्रभावी)
4.AB रुधिर वर्ग वाले मनुष्यों की जीनी संरचना LA LB (सहप्रभावी)
जीन A व B दोनों जीन ।० के लिये प्रभावी हैं, किन्तु एक-दूसरे के लिये सहप्रभावी हैं, तथा ये दोनों साथ-साथ होने पर स्वयं को अभिव्यक्त करते हैं।
रुधिर वर्गों की वंशागति (Inheritance of Blood Groups)
जीन A तथा B दोनों ही जीन | पर प्रभावी हैं किन्तु एक-दूसरे के लिये सहप्रभावी हैं तथा वे दोनों साथ-साथ होने पर भी स्वयं को अभिव्यक्त करते हैं।
1.A रुधिर वर्ग के लिये संयुग्मजी व्यक्ति या स्त्री द्वारा O रुधिर वर्ग की स्त्री या पुरुष से विवाह
करने पर इनके सभी बच्चों का रुधिर वर्ग A होगा।
2. इसी प्रकार रुधिर वर्ग B के समयुग्मजी पुरुष या स्त्री द्वारा O रुधिर वर्ग वाले पुरुष या स्त्री
से विवाह करने पर उनके बच्चों में रुधिर वर्ग B होगा।
3. सहयुग्मजी रुधिर वर्ग A वाले पुरुष या स्त्री द्वारा समयुग्मजी रुधिर वर्ग B के पुरुष या स्त्री
से विवाह करने पर उनके समस्त बच्चों का रुधिर वर्ग AB होगा।
4. रुधिर वर्ग A के लिये असमयुग्मजी पुरुष द्वारा B रुधिर वर्ग की असमयुग्मजी स्त्री से विकार करने पर उसके बच्चे चार प्रकार के होंगे
5. AB रुधिर वर्ग वाले पुरुष द्वारा AB वाली स्त्री से विवाह करने पर उनके बच्चों का रुधिर वर्ग A, B या AB होगा।
रुधिर वर्गों को कैसे ज्ञात किया जाता है?
रुधिर वर्गों. को ज्ञात करने के लिये रुधिर वर्ग तथा B का प्रमाणिक सीरम (Standardsera) बनाकर कम तापमान पर इकट्ठा कर लेते हैं। जिस रुधिर का वर्ग पता करना होता है उसकी एक बूंद प्रमाणिक सीरम A की एक बूंद के साथ स्लाइड के एक सिरे तथा एक बूंद प्रमाणिक सीरम B की एक बूंद के साथ स्लाइड के दूसरे सिरे पर मिश्रित किया जाता है। एग्लूटिनेशन निरीक्षण के आधार पर रुधिर वर्ग ज्ञात किया जाता है। अगर एग्लूटिनेशन सीरम B के साथ होता है तथा सीरम A के साथ नहीं होता है तो ज्ञात किया जाने वाला रुधिर वर्ग A का है। अगर एग्लूटिनेशन सीरम A के साथ होता है तो ज्ञात किया जाने वाला रुधिर वर्ग B है। अगर एग्लूटिनेशन दोनों सीरम के साथ हो तो रुधिर वर्ग AB को दर्शाता है, अगर एग्लूटिनेशन दोनों ही सीरम के साथ नहीं हो तो रुधिर का वर्ग O है।
एफा-एण्टीबॉडी में A एण्टीजन्स की सतहों की पूरक सतहें होती हैं, जबकि -एण्टीबॉडीज में नहीं, -एण्टीबॉडीज में A एण्टीजन्स को आपस में जोड़ देने की क्षमता होती है तथा इसीलिये A एण्टीजन्स से युक्त लाल रुधिर कणिकायें आपस में गुंथ जाती हैं।
M तथा N रुधिर वर्ग
(M and N Blood Groups)
A तथा B एग्लूटिनोजन के अलावा लाल रुधिर कणिकाओं (RBCs) में M तथा N एग्लुटिनोजन या प्रतिजन भी होते हैं, किन्तु सीरम में इनके प्रति एण्टीबॉडीज नहीं होते। शशक में मनुष्य के रुधिर को अन्तःक्षिप्त करने पर शशक के सीरम में एण्टीबॉडीज विकसित हो जाते हैं। ये एण्टीबॉडीज विभिन्न प्रतिजन के प्रति विरोधी होते हैं। लैण्डस्टीनर तथा लेवाइन (Levine) ने 1927 में शशक में विकसित एण्टीबॉडीज के साथ प्रतिक्रिया करने के आधार पर मानव जनसंख्या को तीन वर्गों में विभक्त किया है।
ये वर्ग निम्न प्रकार से हैं
Rh तत्व (Rh Factor)
प्रसिद्ध वैज्ञानिक लैण्डस्टीनर एवं वीनर (1940) ने रहीसस बन्दर (Rhesus Monkey) के लाल रुधिराणुओं की कला में एक एण्टीजन की उपस्थिति का पता लगाया और इसे रहीसस तत्य या प्रतिजन का नाम दिया। पहले उन्होंने इन बन्दरों के रुधिर को खरहों एवं गिनी पिग्स के शरीर में इंजेक्ट किया। इन जन्तुओं के रुधिर में रहीसस प्रतिजन को प्रभावहीन और चिपकना बनाने वाले प्रतिरक्षी बन गये। इसके बाद इन जन्तुओं का सीरम तैयार किया गया, जिसमें कि ये प्रतिरक्षी उपस्थित थे। फिर इस Rh Anti Serum से बन्दरों के ही नहीं बल्कि न्यूयार्क के अनेक व्यक्तियों के रुधिर की भी, लाल रुधिराणुओं के अभिश्लेषण के आधार पर जाँच की गयी तो मालूम हुआ कि रहीसस बन्दरों के अलावा गोरी प्रजातियों के 85% मनुष्यों में भी यह प्रतिजन पाया जाता है। भारतीयों में 97% व्यक्तियों में यह पाया गया है। जिन व्यक्तियों में यह होता है उन्हें Rh(+) तथा जिनमें नहीं होता उन्हें Rh(-) कहते हैं।
Rh तत्व का महत्व (Importance of Rh Factor) -
यद्यपि मनुष्य के रुधिर में Rh Antibodies नहीं होते। लेकिन यदि रुधिर आधार में किसी Rh- में किसी Rh' का रुथिर चढ़ा दिया जाये तो प्रापक के प्लाज्मा में धीरे-धीरे Rh-Antibodies बन जाते हैं। इन Antibodies की मात्रा कम होने के कारण तुरन्त तो प्रापक पर कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ता लेकिन यदि ऐसे प्रापक को किसी Rh+ का रुधिर चढ़ा दिया जाता है तो इन Antibodies के कारण Donor के RBCs चिपकने लगते हैं और प्रापक की मृत्यु हो सकती है। अतः अब रुधिर आधान में ABO रुधिर वर्गो के Antigen की तरह Rh तत्व का भी पहले पता लगा लेना आवश्यक होता है।
Rh तत्व की वंशागति (Inheritance of Rh Factor) -
Rh तत्व का भी लक्षण आनुवंशिक होता है। इसकी वंशागति Mendelian नियमों के अनुसार दो Alles genes (R, r) द्वारा होती है। इनमें GeneR (Rh* लक्षण) जीन r(Rh- लक्षण) पर प्रबल होता है। एरिथ्रोब्लास्टोसिस फीटैलिस Rh तत्व से सम्बन्धित रोग है, जो केवल शिशुओं में जन्म पहले ही गर्भावस्था से होता है। यह बहुत कम परन्तु घातक होता है। इससे प्रभावित शिशु की गर्भावस्था में ही या जन्म के बाद मृत्यु हो जाती है। ऐसे शिशु सदैव Rh+ होते हैं। इनकी माता Rh- तथा पिता Rh* होते हैं। इन्हें यह पिता से ही वंशागति में मिलता है। परिवर्द्धनकाल में भ्रूण के RBCs प्रायः माता के रुधिर में पहुंच जाते हैं। अतः माता के रुधिर में Rh- प्रतिरक्षी का संश्लेषण होने लगता है। यह प्रतिरक्षी माता के रुधिर में Rh-Antigen की अनुपस्थिति के कारण माता को कोई नुकसान नहीं पहुँचाता, परन्तु जय यह माता के Blood में रुधिर के साथ भ्रूण में पहुँचता है तो इसकी RBCs में चिपकाने लगता है। साधारणतः प्रथम गर्भ के शिशु को विशेष हानि नहीं होती, क्योंकि इस समय तक माता में Rh प्रतिरक्षी की थोड़ी सी ही मात्रा बन पाती है। बाद के गर्भ में Rh शिशुओं में इस रोग की सम्भावना बढ़ जाती है।
एक Rh* स्त्री, Rh पुरुष से शादी करती है। इनकी संतति में एरेथ्रोब्लास्टोसिन की क्या सम्भावना है?
उत्तर Erythroblastosis foetalis से पीड़ित सन्तान, स्त्री के Rh- तथा पुरुष के Rh* होने पर ही उत्पन्न होती है। प्रारम्भ में Rh- स्त्री के रुधिर में एण्टीबॉडीज नहीं होती। Rh* पुरुष से शादी होने पर वह Rh* बच्चा धारण करेगी। उसमें न तो एण्टीबॉडीज होती है और न ही उसमें रुधिर का संचरण होता है, अतः उसका प्रथम Rh* बच्चा सामान्य होगा। किन्तु Rh* गर्भ के कारण उसके रुधिर में एण्टीबॉडीज बनने लगती है क्योंकि भ्रूण की कुछ रुधिर कणिकायें स्त्री के रुधिर में मिल जाते हैं। किन्तु एण्टीबॉडीज की मात्रा इतनी नहीं होती जिससे कि प्रथम गर्भ को कोई हानि पहुँच सके। किन्तु दूसरा गर्भ भी Rh* होने पर उसके रुधिर में एण्टीबॉडीज की पर्याप्त मात्रा हो जाती है जिससे गर्भ के रुधिर में रुधिरलयन (hemolysis) हो जाता है। इसी को Erthroblastosis foetalis कहते हैं।
लिंग गुणसूत्र
लिंग निर्धारण, गुणसूत्र सिद्धान्त का सबसे पहला प्रमाण है। टिड्डों (Grasshooper) में सर्वप्रथम सी. ई. मक्कलंग (C.E. Meclung) ने 1902 में दो प्रकार के शुक्राणु पाये। एक प्रकार क्योंकि गुणसूत्रों में केवल यही भिन्नता थी और x-गुणसूत्र के संदर्भ में अण्डों में कोई भिन्नता नहीं थी। के शुक्राणुओं में ४-गुणसूत्र होता है और दूसरे प्रकार के शुक्राणुओं में ४-गुणसूत्र का अभाव होता है, अतः यह निष्कर्ष निकाला गया कि लिंग निर्धारण के लिये x-गुणसूत्र उत्तरदायी होना चाहिये। स्वतन्त्र अपव्यूहन के संदर्भ में गुणसूत्रों और मेण्डलीय कारकों के बीच समानता का प्रमाण 1913 में ई. ई. कैरोथर्स (EE. Carothers) ने भी प्रस्तुत किया। उन्होंने एक विशेष टिड्डे का उपयोग किया जिसमें तीन गुणसूत्र युग्मों में विद्यमान समजात गुणसूत्रों को आकारिकी के आधार पर (Morphologically) पहचाना जा सकता था। जिन जन्तुओं में क्रोमोसोमीय लिंग निर्धारण होता है, उनमें नर तथा मादा जन्तुओं के एक जोड़ा क्रोमोसोम में अन्तर पाया जाता है। जो क्रोमोसोम नर एवं मादा जन्तुओं (अथवा पोथो) में भिन्न संख्या या भिन्न आकारिकी में पाये जाते हैं, उन्हें लिंग क्रोमोसोम (Sex Chromosome) कहते है। साधारणतया, ये क्रोमोसोम लिंग निर्धारण में भाग लेते हैं। लिंग क्रोमोसोम दो प्रकार के होते हैं - x तथा y
बेटसन और पुनेट की परिकल्पना
डब्ल्यू. बेटसन (W.Bateson) एवं आर. सी. पुन्नेट (R.C.Punnett) द्वारा किये गये प्रयोगों के अनुसार जब दोनों प्रभावी युग्मविकल्पी उपस्थित होते हैं, तो बाल्नट लक्षण प्ररूप प्रकट होता है और जब दोनों अप्रभावी युग्मविकल्पी समयुग्मजी होते हैं, तो सिंगल कलगी (Single Comb) प्रकट होती है। एक 'रोज' कलगी एवं 'पी' कलगी वाले लक्षण-प्ररूप उस समय प्रकट होते हैं जब केवल एक प्रभावी युग्मविकल्पी (समयुग्मजी अवस्था में अथवा विषमयुग्मजी अवस्था में) उपस्थित हो। यदि 'पी' (rrPP) एवं रोज (RRpp) के बीच अथवा वाल्नट (RRPP) एवं संगल (rrPP) के बीच संकरण किया जाता है, तो दोनों ही दशाओं में F, संतति दोनों जीनों के लिये विषमयुग्मजी (PrPp) होगी और वाल्लट प्ररूप को प्रगट करेगी। इस प्रकार प्राप्त F, संतति के जीवों में परस्पर संकरण करने पर 9:3:3:1 के अनुपात में चार लक्षण प्ररूप प्राप्त होंगे।
बहुजीनी वंशागति
बहुजीनी वंशागति (Polygenic ingeritance) -
बहुजीनी वंशागति का सम्बन्ध मात्रात्मक लक्षणों की वंशागति से होता है कारण का प्रत्येक लक्षण एक से अधिक अविकल्पी जीन्स (Nonallelic genes or polygenes) के युग्मकों द्वारा नियंत्रित होते हैं। इसका प्रत्येक लक्षण प्रारूप के अन्तराक्रमण की एक सीमा को प्रदर्शित करता है। यह वंशागति में अभिव्यक्ति की सीमा प्रभावी जीन्स की संख्या पर निर्भर होती है। उसके F2 पीढ़ी में मध्यम जीनोटाइप या फीनोटाइप के संतति जीवों की संख्या अधिकतम होती है।
वर्णहीनता
यह रोग मिलैनिन वर्णक के आभाव के कारण होता है और इस रोग से ग्रसित मनुष्य हाइड्रॉक्सी फिनाइल एलनिन को मिलैनिन में बदलने में असमर्थ होता है इसी को वर्णहीनता कहते हैं।
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