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एक जीन एक एन्जाइम सिध्दान्त का वर्णन || ek jeen ek enjaim sidhdaant ka varnan

इस पोस्ट में हम- एक जीन एक एन्जाइम सिद्धान्त का वर्णन कीजिये।,प्रभावी जीन की आप कैसे पहचान करेंगे?,जीन थिरेपी से आप क्या समझते हैं?,बहुविकल्पी जीनों के लक्षणों को लिखिये।, जीन अभियांत्रिकी से आप क्या समझते हैं? ,जीनोम को परिभाषित कीजिये।,. एक्स्ट्रा न्यूक्लीयर जीन से आप क्या समझते हैं?,'गृह व्यवस्थापक जीन' या 'रचनात्मक जीन' के बारे में बताइये।,जीन सम्बद्धता से आप क्या समझते हैं?



एक जीन एक एन्जाइम सिद्धान्त

(One Gene One Enzyme Theory)

प्रसिद्ध वैज्ञानिक बीडल एवं टॉटम (Beedle & Tautum, 1941) ने अपने प्रयोग द्वारा प्रतिपादित किया कि एन्जाइमों (जो कि प्रोटीन) होते हैं, के संश्लेषण के लिये सूचनायें जीन निहित होती हैं। इनके सिद्धान्त के अनुसार जन्तुओं के शरीर में एक जीन एक एन्जाइम का संश्लेषण करके उसके द्वारा जन्तुओं की विभिन्न क्रियाओं या लक्षणों को नियंत्रित करते हैं। इन वैज्ञानिकों ने न्यूरोस्पोरा (Neurospora) नामक कवक पर जीन से वृद्धि बायोटिन (Biotin) नामक प्रोटीन, शर्करा, सरल यौगिक तथा अमोनिया के संवर्धन में होती है। इस कवक के कोशिका द्रव्य में 20 प्रकार के अमीनो अम्ल पाये जाते हैं। ये अम्ल प्रायः स्वतन्त्र अवस्था में पाये जाते हैं अथवा प्रोटीन, प्यूरीन्स, पिरीडीन्स DNA तथा RNA के रूप में उपस्थित होते हैं। ये सभी पदार्थ संवर्द्धन माध्यम में उपस्थित नहीं होते हैं। अतः स्पष्ट हो जाता है कि इनका संश्लेषण, न्यूरोस्पोरा द्वारा ही होता है। यदि न्यूरोस्पोरा कवक के एस्कोस्पोर्स को उत्परिवर्तन द्वारा उपचारित करके संवर्द्धन माध्यम में उगाया जाता है, तो उनमें वृद्धि नहीं होती है, क्योंकि माध्यम में आर्जिनीन पदार्थ नहीं होता है। जब इन एस्कोस्पोर्स को आर्जीनीन युक्त माध्यम में रखा जाता है तो यह वृद्धि करने लगते हैं। अतः स्पष्ट हो जाता है कि एस्कोस्पोर्स में कुछ ऐसे जीन्स होते हैं कि जिनमें उत्परिवर्तन के फलस्वरूप आर्जिनीन संश्लेषण करने की क्षमता खो जाती है। इस क्रिया में 7 एन्जाइम्स भाग लेते हैं और एक अलग जीन द्वारा प्रत्येक एन्जाइम का संश्लेषण होता है। अतः एक जीन एक एन्जाइम सिद्धान्त हो जाता है।




न्यूरोस्पोरा 'S' पदार्थ का आर्जिनीन नामक अमीनो अम्ल में जैव संश्लेषण (S1, S2,S3 व  S4

= पदार्थ, E= एन्जाइम, G = जीन)


जीन की अन्योन्य से सम्बंधित प्रश्न और उत्तर 


प्रश्न 1. प्रभावी जीन की आप कैसे पहचान करेंगे?

प्रभावी जीन

जन्तुओं के गुणों को जोड़ों में बाँटा जा सकता है और प्रत्येक जोड़ी के दोनों गुण इस प्रकार के सम्बन्धित होते हैं कि अगर दोनों गुण एक साथ ही जन्तु में उपस्थित हों तो उसमें से एक ही जन्तु में दृष्टिगत होता है। यह गुण प्रभावी गुण कहलाता है तथा दूसरा गुण जो अपना प्रभाव प्रदर्शित नहीं कर सका अप्रभावी गुण कहलाता है।

पुष्पों का सफेद व लालरंग एक जोड़ी विपरीत गुण है जो युग्मक कोशिकाओं के कोशिका द्रव्य में किसी न किसी रूप में अवश्य पाये जाते हैं। मेण्डल ने ऐसी रचनाओं को फैक्टर या यूनिट का नाम दिया। इसके अनुसार प्रत्येक गुण के लिये एक-एक यूनिट होता है जो आनुवंशिक गुणों को माता-पिता से सन्तान में ले जाया जाता है। यदि लाल रंग को R से इंगित किया जाये और सफेद रंग को । से, तो युग्मज में RR, Rr या 7 में से कोई से भी दो यूनिट एक साथ आ सकते हैं। इसमें बीच वाला संकर है जिसमें लाल व सफेद दोनों रंगों के Unit एक साथ उपस्थित हैं, किन्तु इसमें केवल लाल फूल ही आते हैं। इसका कारण यह है कि लाल रंग सफेद रंग को दबा लेता है। अतः R निमित्त (लाल रंग) : निमित्त (सफेद रंग) को दबा लेता है या R प्रभावी है तथा । अप्रभावी है।

प्रश्न 2. जीन थिरेपी से आप क्या समझते हैं? 

जीन उपचार या जीन थिरेपी

सामान्य, कार्यात्मक, स्वस्थ जीन को उस कोशिका में प्रवेश कराने की विधि जिसमें सम्बन्धित जीन के दोषी युग्मविकल्पी (Allele) होते हैं जिससे कि आनुवांशिकी विसंगति को ठीक किया जा सके या उपार्जित विसंगति का सुधार किया जा सके, जीन थिरेपी जीन उपचार कहलाती है।

या

वह विधि जिसके द्वारा दोषी जीन का प्रतिस्थापन एक सामान्य, स्वस्थ एवं कार्यात्मक जीन द्वारा किया जाता है जीन उपचार कहलाती है।

जीन उपचार या थिरेपी के लिये निम्नलिखित दशायें आवश्यक होती हैं

1. वह जीन जो आनुवांशिक विसंगतियाँ (Genetic disorder) उत्पन्न करते हैं, उस उत्पाद के लिये आवश्यक हो जो कि निर्माण की अन्तस्थ अवस्था में कार्यात्मक है।

2. रोब का रोग निदान (Etiology) विज्ञान केवल एक ऊतक (Tissue) तक ही सीमित हो जिससे कि उसको आसानी से बदला जा सके।

3. रोग के निदानिक लक्षणों (Clinic symptoms) के परिणाम एवं अप्रभावी जीन (Recessive give) युग्म के द्वारा प्रदर्शित हो जैसे कि हंसियाकार कोशिका रक्त क्षीणता (Sickle cell anaemia) इस दशा में वह लक्ष्य कोशिका (Target cell) केवल युग्मविकल्पी को आवश्यक रूप में बदल सके।

4. अनुवांशिकी रोग इस प्रकार के होने चाहिये जिससे कि लक्ष्य कोशिका के DNA को बदलकर रोग का निदान या सुधार (Amelioration) आणविक स्तर (Molecular-level) पर किया जा सके।

5. सामान्य युग्मविकल्पी (Allele) एवं असामान्य युग्मविकल्पी (Abnormal Allele) के बीच अन्तर कम से कम होना चाहिये अर्थात् असामान्य क्षार क्रम (Base sequence) जिसको सामान्य क्षार क्रम से बदलने की आवश्यकता है, छोटे से छोटा होना चाहिये। जैसे कि हंसियाकार कोशिका रक्तक्षीणता जीन में केवल एक क्षार युग्म (Base pair) को ही बदला जा सकता है जिससे कि वह सामान्य हो जाये।

जीन उपचार या जीन थिरेपी के प्रयोग (Application) के अन्तर्गत अनुवांशिकी, आणविक जैविकी एवं जैव प्रौद्योगिकी (Biotechnology) के निम्नलिखित मूलभूत परिवर्धन/विकास सम्बन्धित होते हैं

(i) उस जीन की पहचान जोकि अनुवांशिक विसंगति के विकास/परिवर्धन में मुख्य भूमिका अदा करता है।

(ii) स्वास्थ्य एवं रोगों में उस उत्पाद की भूमिका में निर्धारण ।

(iii) जीन का पृथक्करण/विलयन (Isolation) एवं क्लोन बनाना (Cloning)।

(iv) जीन उपचार की समीपता के लिये विकास।


 प्रश्न 3. बहुविकल्पी जीनों के लक्षणों को लिखिये।

एलील्स के उस समूह, जिसमें दो से अधिक एलील हों, के प्रत्येक समूह को मल्टीपल एलील कहते हैं। उदाहरण खरगोश।

जंगली खरगोशों में वर्णहीन या सफेद खरगोश बहुत कम मिलते हैं। जब होमोजाइगस वर्णयुक्त (C+C+) खरगोशों को होमोजाइगस वर्णहीन (CC) खरगोशों के साथ संकरित कराया गया तब F1 पीढ़ी में सभी रंगीन खरगोश हुए। F, पीढ़ी में रंगीन और सफेद का अनुपात 3 : 1 था। इस अनुपात से पता लगता है कि खरगोश के रंग में एक ही एलील कार्य करता है, अर्थात् जंगली जीन C+ तथा वर्णहीन जीन C, जिस पर C+ प्रभावी है।


प्रश्न 4. जीन अभियांत्रिकी से आप क्या समझते हैं?


जीनी अभियान्त्रिकी (Genetic Engineering)

नवीन जीन्स का जैव-रासायनिक स्तर पर कृत्रिम संश्लेषण कर जीव के जीनोटाइप में इच्छानुसार परिवर्तन करना ही जीनी अभियान्त्रिकी (Genetic Engineering) कहलाती है। जीनी अभियान्त्रण का सुजननिकी में बहुत महत्व है। इसके प्रयोग से मानव नस्ल एवं उसके आर्थिक महत्व से पशुओं में उनको नस्ल सुधारने एवं पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलने वाले रोगों को दूर करने का लाभ प्राप्त होगा। कृत्रिम जीन संश्लेषण द्वारा जीवों में आवश्यक लाभकारी उत्परिवर्तन कर स्वस्थ एवं उच्च नस्ल की सन्ताने प्राप्त की जा सकती हैं। जीनी अभियान्त्रिकी की विधि रिकाम्बिनेन्ट DNA के उत्पादन विधि पर आधारित होती है। जीनी अभियान्त्रिकी के द्वारा अब कृषि, चिकित्सा, जैविक अभियान्त्रिकी आदि से सहायक होकर ऊर्जा की कमी को दूर कर सकते हैं।

जीनी अभियान्त्रिकी आजकल अत्याधिक प्रयोग की जा रही है जैसे कि DNA का कृत्रिम संश्लेषण, जीनी स्थानान्तरण (मानव अयोजित जीव), जीन क्लोनिंग (Gene Cloning), जीनोमिक एवं DNA लाइब्रेरीज (Genomic and DNA Libraries), निवाही संकरण (Colony Hybridization), फिंगर प्रिंटिंग, मान-चित्रण, चिकित्सा क्षेत्र में उपयोग, वृद्धि हार्मोन का उत्पादन, वेक्सीन का उत्पादन, औद्योगिक क्षेत्र में उपयोग।


प्रश्न 5. लीम्निया से शैल क्राइलिंग कैसे निर्धारित होती है?


उत्तर- Maternal Effect on Limnea Shell Coiling- घोंघे (Snails) जोकि संघ मोलस्का (Phylum - Mollusca) एवं वर्ग गैस्ट्रोपोडा (Class : Gastropoda) का प्राणी है, कवच/खोल चक्रिय रूप से कुण्डलित (Coiled) होता है। अधिकांश घोंघों में कवच /खोल (Shell) दक्षिणावर्त (Dextral - clockwise) होता है यदि कवच के शीर्ष से देखा जाये। कुछ अन्य घोधों (snail) में कवच का कुण्डलन (Coiling) वामावर्त होता है। दोनों प्रकार के कुण्डलन में दो विभिन्न प्रकार के आनुवांशिक नियन्त्रित विदलन (Cleavage) के द्वारा उत्पन्न होते हैं, एक दक्षिणावर्त विदलन (Dextral - cleavage) एवं वामावर्त विदलन (Sinistral - cleavage) होता है।

गैस्ट्रोपोडस की कुछ जातियाँ जिनमें सभी प्राणी वामावर्त होते हैं लेकिन प्रमुख रूप से उस जाति से सम्बन्धित होती है जिसमें वामावर्त प्राणी (Sinistral animals) सामान्य दक्षिणावर्त प्राणियों की जनसंख्या में उत्परिवर्तक (Mutant) के रूप में पाया जाता है।


धोधों के कवच के कुण्डलीकरण में मातृ प्रभाव (Maternal efect) पाया जाता है। स्नेल लिम्निया में दो प्रकार का कुण्डलीकरण मिलता है - दक्षिणावर्त (Dextral) तथा वामावर्त (Sinistral) दक्षिणावर्त कुण्डलीकरण का जीन प्रभावी 'D' होता है तो वामावर्त जीन 'd' पर अप्रभावी होता है।

बायकाट (Boycott), डिवर (Diver) एवं गार्सटन्म के प्रयोगों तथा स्टुअर्टवेन्ट (Sturtvent) के स्पष्टीकरण से ज्ञात होता है कि कुण्डलीकरण की दशा लिम्निया स्नेल/घोधैं के स्वयं जीन के द्वारा नियंत्रित न होकर माता के जीन द्वारा निर्धारित होता है।

यदि दक्षिणावर्त मादा एवं वामावर्त नर के बीच संकरण कराया जाये तो F, पीढ़ी में सभी घोषों में दक्षिणावर्त कवच विकसित होता है, जबकि उनमें से कुछ में वामावर्त (Sinistral) कुण्डलीकरण के अप्रभावी जीन (dd) होने के कारण कवच वामावर्त होना चाहिये था।

इसी प्रकार वामावर्त मादा (Sinistral female) एवं दक्षिणावर्त नर (Male) में व्युत्क्रम संकरण कराने पर F, सन्तति में उनकी जीनी संरचना के अनुसार दक्षिणावर्त होना चाहिये, लेकिन सभी घोंघे वामावर्त बनते हैं जबकि घोघों में जीन DD या Dd होती है और F, पीढ़ी की समस्त स्नेलों में दक्षिणावर्त खोल बनता है।

किन्तु उपर्युक्त स्थितियाँ केवल एक पीढ़ी में ही दिखायी देती है। F3 पीढ़ी आते-आते एक Dd वामावर्त मादा, जिसकी माता dd थी, दक्षिणावर्त घोंघे भी बनायेगी, क्योंकि उनमें प्रभावी जीन D उपस्थित होगी।

कुछ घोंघों में दक्षिणावर्त, कुण्डलीकरण के जीन होने पर भी माता के वामावर्त कुण्डलीकरण के समान खोल (Shell) का स्वरूप होता है लेकिन वामावर्त कुण्डलीकरण के लिये समयुग्मजी (Homozygous) घोंघों में से कुछ मादा घोंघों के खोल के समान दक्षिणावर्त कुण्डलीकरण होता है।

उपर्युक्त उदाहरण से यह निष्कर्ष निकलता है कि सन्तति जीन (Oddspring) अपनी जीनी संरचना (Genotype) के विपरीत अपनी माता की जीनी संरचना के प्रभाव को दर्शाते हैं। माता द्वारा उत्पत्र अण्डों के कोशिका द्रव्य (Cytoplasm) में स्थित जीन्स द्वारा निर्धारण होता है। अतः अण्डों के कोशिका द्रव्य के माध्यम से माता की जीनी संरचना सन्तति में खोल के कुण्डलीकरण की दिशा को निर्धारित किया जाता है।

उपर्युक्त प्रकरण में यह पाया गया कि विदलन का प्रकार वामावर्त या दक्षिणावर्त अण्डे के संगठन पर निर्भर करता है। यह ऊसाइट केन्द्रक (Oocyte nucleus) के परिपक्व विभाजन के पूर्व स्थापित हो जाता है। अतः विदलन का प्रकार (Type of cleavage) मातृक पैतृक (Maternal Parent) के जीनों टाइप के प्रभाव में रहता है। जब यह संगठन स्थापित हो जाता है शुक्राणु (Sperms) अण्डाणु में प्रवेश कर जाता है। अन्त में कवच के कुण्डलन की दिशा जाइगोट के प्रथम विदलन के समसूत्रण स्पिन्डल्स (Miotic Spindles) के अभिविन्यास (Orientation) पर निर्भर होती है। यदि तर्कु (Spindle) अण्डाणु कोशिका की मध्य रेखा के बाँयी ओर उत्पन्न होता है तब वामावर्त प्रतिमान विकसित होता है। इसके विपरीत यदि समसूत्रण त' अण्डाणु कोशिका की मध्य रेखा के दाँयी ओर उत्पन्न होता है तब दक्षिणावर्त प्रतिमान विकसित होता है। तओ का अभिविन्यास (Orientation) ऊप्लाज्म (Ooplasm) के संगठन द्वारा नियंत्रित होता है।


प्रश्न 6.. एक्स्ट्रा न्यूक्लीयर जीन से आप क्या समझते हैं?

यूकैरियोटिक कोशा में सभी जीन्स क्रोमोसोम पर उपस्थित नहीं होते हैं। कुछ कोशिकांग माइटोकांड्रिया और लवक में उपस्थित होते हैं। केन्द्रक के बाहर डी. एन. ए. की उपस्थिति इन कोशिकांग पर सिद्ध करती है कि जैविक सूचनायें कोशाद्रव्य में भी उपस्थित होते हैं।


प्रश्न 7. जीनोम को परिभाषित कीजिये।

किसी भी जाति में गुणसूत्रों की संख्या सदैव एक रहती है इसलिये यह जन्तुओं के ऐतिहासिक एवं वर्गीकरण में मुख्य भूमिका निभाते हैं । अण्डाणु एवं शुक्रणु में गुणसूत्रों की संख्या कम या अगुणित (Haploid) होती है। अगुणित (Haploid) सेट के गुणसूत्रों को जिनोम कहते हैं।


प्रश्न 8. 'गृह व्यवस्थापक जीन' या 'रचनात्मक जीन' के बारे में बताइये।


डी. एन. ए. का खास क्रमवार से प्रोटीनों का विशेष जीन्स पर प्रभाव पड़ता है। ये विशेष जीन कुछ विशेष कोशिकाओं या विशेष संवेदनाओं की तरफ अपना प्रभाव दिखाते हैं। ये ही जीन प्रबन्धन करते हैं। इनको प्रबन्धन करने की विशेष क्षमता गृहव्यवस्थापक जीन या रचनात्मक में होती है


प्रश्न 10. जीन सम्बद्धता से आप क्या समझते हैं?

जीन्स आनुवंशिक लक्षणों की इकाई है जो गुणसूत्रों में स्थित होते हैं और आनुवंशिक लक्षणों की एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में ले जाते हैं। ठीक इसी प्रकार कई लक्षणों के वंशानुगत होने के लिये अनेक जीन्स स्थित होते हैं। किसी गुणसूत्र में जीन्स की संख्या अधिक होती है अर्थात् प्रत्येक गुणसूत्र में एक से अधिक जीन्स पाये जाते हैं। विभिन्न लक्षणों के लिये जीन्स या तो समान गुणसूत्रों में स्थित होते हैं अथवा विभिन्न गुणसूत्रों में पाये जाते हैं। जब विभिन्न गुणसूत्रों में जीन्स स्थित होते हैं तो उसका नियंत्रण सीधे ही हो जाता है तथा अगली पीढ़ी में सम्पूर्ण गुण या उसका कोई हिस्सा प्रकट होता है जो मेण्डल के स्वतंत्र अपव्यूहन के नियम का पूर्ण रूप से पालन करता है लेकिन वह जीन्स जो समजात गुणसूत्रों में स्थित होते हैं वह एक-दूसरे से सीधे प्रकार से संयुग्मित होते हैं तथा इन लक्षणों की सीधे ही वंशानुगति हो जाती है। इस प्रकार समान गुणसूत्रों में जीन्स का स्थानान्तरण लिंकेज (Linkage) कहलाता है। इस प्रकार टी. एच. मॉर्गन (T. H. Morgan) के अनुसार, "लिंकेज की प्रक्रिया में समजात गुणसूत्रों में स्थित जीन्स वंशानुगति के समय साथ-साथ रहते हैं।"

"The tendency of two genes of the same chromosomes to remain together in the process of inheritance."


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