कोशिका द्रव्यी वंशागति क्या है? उचित उदाहरणों द्वारा समझाइये।, कोशिका द्रव्यी वंशागति किसे कहते हैं? पैरामीशियम में कप्पा-कणों की वंशागति के आधार पर इसकी विवेचना कीजिये।,कोशिका वंशागति का विस्तार से वर्णन कीजिये।,कोशिका द्रव्यक वंशागति संतति जीव को कैसे प्रभावित करती है? लिम्निया का उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिये।,मिराबिलिस जलापा में क्लोरोप्लास्ट की वंशागति कैसे निर्धारित होती है?,लिम्निया में शैल क्वालिंग कैसे निर्धारित होती है?,लिम्निया पेटिया में कवच का घुमाव कैसे निर्धारित होता है?,पैरामीशियम में कोशिका द्रव्यात्मक आनुवंशिकता पर टिप्पणी कीजिये।,लैंगिक प्रजनन के बाद एक संवेदी पैरामीशियम मारक विभेद में परिवर्तित हो जाता है। इसमें कौन-सी प्रक्रिया कार्य करती है? इन सब प्रश्नों पर चर्चा करें गे
कोशिका द्रव्यी वंशागति क्या है?
कोशिका द्रव्यी या नान-क्रोमोसोमल वंशागति
प्लाज्मी जीन की मदद से कोशिका द्रव्यो वंशागति केन्द्रकी वंशागति को प्रभावित करती है। यह दो प्रकार की होती है-
मृत्यु
1. मातृक प्रभाव या केन्द्रक जीन्स के संचित उत्पादों के प्रभाव द्वारा -
लैंगिक जनन में जाइगोट को शुक्राणु से केवल केन्द्रक मिलता है किन्तु अण्डाणु से केन्द्रक के साथ-साथ ऊप्लाज्म भी पहुँच जाता है। अण्ड जनन के समय अण्डे के केन्द्रक के जीन के नियन्त्रण में MRNA, राइबोसोम तथा कुछ एन्जाइम का संश्लेषण होता है। यह सभी निष्क्रिय अवस्था में अण्डे के कोशिका में संचित रहते हैं। अण्डों का प्रारम्भिक विदलन तथा भ्रूण का प्रारम्भिक वर्धन इन्हीं संचित एन्जाइम्स व अन्य पदार्थों द्वारा नियन्त्रित होता है क्योंकि विदलन अवस्था में mRNA का अनुलेखन नहीं होता है। अतः कोशिका द्रव्य में इन्फोर्मोसोम्स के रूप में संचित mRNA विदलन के समय प्रोटीन संश्लेषण को नियंत्रित करता है। विदलन के समय स्पिन्डिल बनने का नियन्त्रण भी इन्हीं एन्जाइम्स के द्वारा पूर्ण होता है। इसलिये कुछ लक्षण पूर्णतयः मातृक प्रभावित होते हैं।
जलीय घोंघे (लिमनिया) में मातृक जीन द्वारा सैल क्याइलिंग के नियन्त्रण का वर्णन स्टुर्ट वेन्ट ने 1923 में किया था। यह क्वाइलिंग दो प्रकार के होती है।
(1) दाहिनी ओर कुण्डलित खोल - DD प्रभावी,
(2) बायीं ओर कुण्डलित खोल - dd अप्रभावी।
उदाहरण 1. जब दक्षिणोन्मुख खोल वाली मादा (DD) घोंघों व वार्मावर्त खोल वाले नर (dd)
घोघों में संकरण किया जाता है तो F1 पीढ़ी के सभी घोंघों में खोल दक्षिणोन्मुख पाया गया। यद्यपि
इनकी जीनोटाइप 1DD: 2 Dd : 1dd होती है इसका अर्थ है dd जीनोटाइप वाले घोघों में भी दक्षिणोन्मुख खोल बना यद्यपि उनमें प्रभावी जीन D नहीं है।
उदाहरण 2. वामावर्त मादा में dd व दक्षिणोन्मुख नर DD में व्युत्क्रम संकरण कराया जाता है तो F1 पीढ़ी में जीनोटाइप Dd के अनुसार सभी संतति घोंघों में मातृक प्रभाव के वामावर्त खोल बनता है
है इनमें F, पीढ़ी में 1DD: 2Dd : 1dd जीनोटाइप बनते हैं जिसके अनुसार इनमें तीन दक्षिणोन्मुख वामावर्त खोल बनने चाहिये थे किन्तु सभी F1 संतति में दक्षिणोन्मुख बनते हैं। खोल के कुण्डलन के.वंशागति माता के जीन से प्रभावित होती है, अपनी जीन से नहीं।
2. एफेस्टिया मॉथ में आनुवंशिकता पर मातृक प्रभाव -
आटे के एफेस्टिया मॉथ में जीन-A प्रभावी है तथा इसकी उपस्थिति से लार्वा व वयस्क दोनों में त्वचा का रंग गहरा होता है और आँखों का रंग भी गहरा होता है। इसके अप्रभावी युग्म विकल्पी की उपस्थिति में त्वचा में रंजक नहीं बनता तथा वयस्क की आँखें लाल रंग की होती हैं। अप्रभावी मादा aa तथा असमयुग्मजी नर Aa के संकरण से F, पीढ़ी में 50% लार्वा की त्वचा में रंजक होता है तथा 50% लार्वा की त्वचा में रंजक नही पाया जाता है। किन्तु विपरीत संकरण में नर तथा मादा के संकरण से F, पीढ़ी से सभी लार्वा की त्वचा रंजक युक्त होती है। लेकिन वयस्क में 50% में लाल नेत्र होते हैं और शेष 50% में आँखें गहरे रंग की होती है
3. स्वायत कोशिका द्रव्यी अंगक या अंगक वंशागति (Autonomous Cytoplasmic
Organelle or Organelle Inheritance) -
कोशिका अंगक जैसे माइटोकॉन्ड्रिया क्लोरोप्लास्ट या काईनेटोप्लास्ट में DNA होता है। इनका DNA केन्द्रक के DNA से स्वतः ही द्विगुणन करता है और अंगक विशेष के अन्दर प्रोटीन संश्लेषण का नियंत्रण करता है। अतः जीवों में इन अंगकों से सम्बन्धित लक्षण उनकी जीनोटाइप से नियन्त्रित नहीं हो पाते हैं। अपितु इन अंगकों के जीन से प्रभावित होते हैं क्योकि जाइगोट में ये अंगक मादा के अण्डाणु से आते हैं। अतः संतति में मातृक प्रभाव प्रदर्शित होता है।
उदाहरण 1.
पैरामीशियम में कोशिका द्रव्यात्मक : कप्पा कणों की वंशागति - T. Sonneborn नामक वैज्ञानिक ने पैरामीशियम, ऑरेलिया कुछ विशेष प्रजातियों में दो प्रभेदों की खोज की -
(i) मारक विभेद - इस विभेद के पैरामीशिया जिस माध्यम में रहते हैं उसमें पैरामीसिन नामक एक विषैला स्त्रावित होता है जिसे उस माध्यम में रहने वाले दूसरे जीव या विभेद के पैरामीशिया की मृत्यु हो जाती है । इसी कारण इस विभेद को मारक विभेद कहते हैं।
(i) सुग्राही विभेद - जिन विभेदों के पैरामिशिया की पैरामीसिन के कारण मृत्यु हो जाती है उन्हें संग्राही कहते हैं। मारक विभेद के पैरामीशियम के कोशिका द्रव्य में कप्पा कण होते हैं, ये विशेष प्रकार के बैक्टीरिया हैं। वायरस के समान इनमें द्विगुणन करने की क्षमता होती है तथा इनका द्विगुणन पैरामीशियम के केन्द्रक के विभाजन से सम्बन्धित नहीं होता है।
4. ड्रोसोफिला में CO, सुग्राहिता की वंशागति -
ड्रोसोफिला के कुछ प्रभेद CO2 के लिये सुग्राही होते हैं और CO2 की सांद्रता में थोड़ा-सा परिवर्तन होने पर गतिशील हो जाते हैं। 60, की अधिक सांद्रता में ये बेहोश होकर मर जाते हैं। सामान्यतया सुग्राही प्रभेदों में व्युत्क्रम संकरण के फलस्वरूप परिणाम अलग-अलग होते हैं। जब सुग्राही प्रभेद की मादा व सामान्य नर में संकरण कराया जाता है तो F1 पीढ़ी के सभी ड्रोसोफिला सुग्राही होते हैं लेकिन इनमें से केवल मादा ड्रोसोफिला ही इस सुग्राही लक्षण को अपनी संतति में पहुंचा सकती है, नर पहुँचाने में असमर्थ होता है। जब सुग्राही प्रभेद की ड्रोसोफिला के गुणसूत्रों को एक-एक करके सामान्य स्टेन द्वारा विस्थापित कर दिया जाता है तो उनका सुग्राही लक्षण नष्ट हो जाता है। इससे प्रतीत होता है कि ड्रोसोफिला में Co, के प्रति संग्राहिता का लक्षण गुणसूत्रों द्वारा वंशागति नहीं होता है वरन केन्द्रक के बाहर किसी पदार्थ अथवा कोशिका द्रव्य द्वारा वंशागति होता है।
5. मिराबिलिस पौधों में लवक वंशागति -
लवक पौधों की कोशिकाओं में पाये जाने वाले स्व-जनन की क्षमता रखने वाली रचनायें हैं। ये केन्द्रक के अन्दर पाये जाने वाले विशेष जीन्स के सहयोग के कार्य करते हैं। आय लवक बीजाण्ड के कोशिका द्रव्य में उपस्थित होते हैं मिराबिलिस जलापा में सामान्य हरी पत्तियों पर सफेद या पीले रंग के धब्बे होते हैं। इस प्रकार इन पौधों में तीन प्रकार की पत्तियाँ पायी जाती हैं-
(i) पूरी हरी पत्ती,
(ii) पूरी सफेद पत्ती,
(iii) धब्बेदार पत्तियाँ।
कोशिका द्रव्यी वंशागति किसे कहते हैं? पैरामीशियम में कप्पा-कणों की वंशागति के आधार पर इसकी विवेचना कीजिये।
कोशिकाद्रव्यी वंशागति (Cytoplasmic Inheritance) -
वंशागति के क्रोमोसोम सिद्धान्त (Chromosomal Theory of Inheritance) के अनुसार जीन प्रायः क्रोमोसोम पर स्थित होते हैं। यह सिद्धान्त मूल रूप से प्रयोगशाला में सिद्ध हो चुका है। कारण कि एक ही जीव से प्राप्त नर तथा मादा युग्मकों से क्रोमोसोम की संख्या बराबर होती है। इसलिये उनके व्युत्क्रम संकरण जैसे
+AX OBX AO होंगे और इनका परिणाम भी समान होता है। लिंग सहलग्न लक्षणों (Sex linked characters) के लिये भी व्युत्क्रम संकरणों में होने वाली असमानतायें, लिंग क्रोमोसोम के पारगमन (Transmission) के आधार पर आसानी से समझी जा सकती है। कारण कि सूत्री विभाजन तथा अर्थसूत्री विभाजन दोनों में ही क्रोमोसोम बँटे हुए होते हैं। अतः क्रोमोसोम और जीनों के बीच अन्तर करना कठिन नहीं है। कोशिका विभाजन के समय कोशिकाद्रव का विभाजन इस प्रकार परिष्कृत ढंग से नहीं होता है। एक युग्मनज में साधारण तौर पर नर युग्मक की अपेक्षा मादा युग्मक से साइटोप्लाज्म की मात्रा अधिक होती है। अतः जो लक्षण कोशिका के नियन्त्रण में होते हैं, वे व्युत्क्रम संकरणों में उनके द्वारा उत्पन्न भिन्नतायें प्रकट करते हैं। इस दशा में लक्षण प्रारूप मातृक प्रकार का होता है।
कोशिका द्रव्य में भी आनुवंशिक तत्व पाये जाते हैं। ज्ञात है कि क्रोमोसोम में DNA ही एक मात्र ऐसा आनुवांशिक पदार्थ है जिसे आनुवांशिक सूचनाओं का संग्रहालय (Store House) कहा जाता है
प्रमाण प्रस्तुत करती है कि कोशिका द्रव्य में भी आनुवांशिक सूचनायें निहित रहती है, जो लक्षण अंगक में पाये जाते हैं। उनका कोशिकाद्रव्यी नियन्त्रण या तो पूरी तरह स्वतन्त्र हो सकता है या कभी-कभी ये लक्षण क्रोमोसोम पर स्थित कुछ जीनों द्वारा आंशिक रूप से नियन्त्रित हो सकती है। कोशिकादमी नियन्त्रण वाले लक्षण की वंशागति के व्यवहार में इस विविधता को प्रदर्शित करने के लिये कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं।
1. पैरामीशियम में कप्पा कण (Kappa particles in Paramecium) -
पैरामीशियम के कुछ मारक विभेदों (Killer strains) में कप्पा (Kappa) के कण पाये जाते हैं, जो पैरामिसिन नामक पदार्थ की उत्पत्ति के लिये उत्तरदायी होते हैं। पैरामिसिन नामक पदार्थ कपा के अभाव वाले सम्वेदी विभेद के लिये घातक होते हैं। कप्पा कणों की उत्पत्ति एक प्रभावी युग्मविकल्पी जीन 'K' पर निर्भर होती है। इस प्रकार KK या Kk जीन प्रारूप वाले जीवमारक विभेद (Killer strains) और साधारण kk जीन प्रारूप सम्वेदी विभेद कहलाते हैं।
प्रभावी युग्मविकल्पी 'K' के अभाव में कप्पा कणों की संख्या नहीं बढ़ सकती है। यदि कप्पा कणों की संख्या कम हो जाये तो प्रभावी युग्मविकल्पी 'K' कप्पा कणों का नवनिर्माण नहीं कर सकता है जिससे इस प्रकार के सम्वेदी विभेद भी प्राप्त हो जाते हैं जिनका जीन प्रारूप KK अथवा KK होता है। इन जीन प्रारूपों में कप्पा कण 'K' की उपस्थिति के कारण स्वयं पुनः विकसित नहीं हो सकते हैं। दूसरी तरफ जीन प्रारूप kk वाला वास्तविक स्थिति प्राप्त नहीं कर सकता है। कारण है कि यदि इस मारक विभेद में कप्पा कण उपस्थित भी होते हैं तो वे एक प्रभावी युग्मविकल्पी के अभाव के कारण समात हो जाते हैं।
यदि KK या Kk जीन प्रारूप वाले पैरामीशियम के क्लोनों को अलैंगिक (Asexual) रूप से इतनी तेजी से गुणित होने दिया जाये कि कप्पा कणों का विभाजन कोशिका विभाजन की गति से न हो सके तो कप्पा कण कुछ समय बाद समाप्त हो जाते हैं। इसके फलस्वरूप प्रभावी जीन प्रारूप (KK. KK) वाले इस प्रकार के सम्वेदी विभेद प्राप्त होंगे जिनमें कप्पा कणों का अभाव होता है।
इस प्रकार यदि मारक (KK) और सम्वेदी (KK) विभेदों में संयुग्मन (Conjugation) कराया जाता है तो सभी पूर्वसंयुग्मी (Exconjugants) अर्थात् संयुग्मन के बाद अलग होने वाली कोशिकायें एक ही प्रकार के जीन प्रारूप (KK) वाली होती हैं। इस पूर्वसंयुग्मियों के लक्षण प्रारूप संयुग्मन की अवधि पर निर्भर होते हैं। यदि एक कन्जुगेशन इतने समय के लिये होता है कि कोशिकाद्रव का विनिमय न हो पाये तो विषमयुग्मजी (Kk) पूर्व संयुग्मी केवल पैतृक लक्षण प्रारूपों के ही होते हैं।
इस प्रकार संयुग्मन के पश्चात् मारक वैसे ही मारक अर्थात् संवेदी मारक ही बने रहते हैं। इसके अतिरिक्त यदि संयुग्मन अधिक देर तक होता है तो संवेदी विभेद में भी कप्पा के कण आ जाते हैं और वे मारक बन जाते हैं जिससे सभी पूर्व संयुग्मी मारक होते हैं और उन सभी का जीन प्रारूप KK होता है।
कोशिका द्रव्यो वंशागति से सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
उत्परिवर्तन किसे कहते हैं? इसका जैव विकास के सम्बन्ध का वर्णन कीजिये ।
ह्यूगो डी बीज (Hugo de Vries) ने उत्परिवर्तन (Mutation) शब्द का प्रयोग उन लक्षण प्ररूपी परिवर्तनों के लिये किया था, जो वंशागत थे। इसलिये वंशागत और पर्यावरणी परिवर्तनों के बीच विभेद का श्रेय भी डी ब्रीज को ही प्राप्त है। परन्तु आजकल उत्परिवर्तन शब्द का प्रयोग अपेक्षाकृत अधिक संकीर्ण अर्थ में केवल उन परिवर्तनों के लिये किया जाता है, जिनके कारण आण्विक स्तर पर जीन की रासायनिक संरचना एवं परिवर्तन हुआ हो। इन्हें सामान्यतः जीन उत्परिवर्तन या बिन्दु उत्परिवर्तन (Point mutation) कहते हैं। कभी-कभी व्यवहार में जीन उत्परिवर्तन और गुणसूत्रों में पाये जाने वाले संरचनात्मक परिवर्तनों के बीच विभेदन कठिन हो जाता है, क्योंकि कुछ संरचनात्मक परिवर्तनों के लक्षण प्ररूपी प्रभाव जीन उत्परिवर्तनों के समान भी हो सकते हैं। छोटी-छोटी हीनतायें, कोशिका प्रेक्षणों द्वारा, सामान्यतः पहचानी नहीं जा सकती। यद्यपि ड्रोसोफिला के विशाल लारवा ग्रन्थि गुणसूत्रों में छोटी-छोटी हीनतायें भी ज्ञात की जा सकती हैं, तथापि अन्य जीवों में हीनता का एकमात्र परीक्षण यही है कि इसका लक्षण प्ररूप पुनः वन्य लक्षण प्ररूप में प्रत्यावर्त (revert) नहीं हो सकता है, जबकि जीन उत्परिवर्तनों से उत्क्रम उत्परिवर्तनों (Reverse mutation) का प्राप्त करना सम्भव है। इस प्रकार जीन उत्परिवर्तनों और गुणसूत्रीय विपथनों (Chromosomal aberrations) के बीच लक्षण प्ररूपी विशेष अन्तर नहीं होता है। यदि गुणसूत्रों का सूक्ष्मदर्शी द्वारा अध्ययन न किया जाये तो कुछ विशेष दशाओं में निश्चित रूप से यह ज्ञात नहीं किया जा सकता कि कोई विशेष लक्षण प्ररूपी लक्षण बिन्दु उत्परिवर्तनों के कारण है अथवा संरचनात्मक परिवर्तन के कारण। ओइनोथेरा लैमार्किआना (Denothera Lamarckiane) में डी बीज द्वारा वर्णन किये गये कितने ही उत्परिवर्तनों के अध्ययन के बाद यह पाया गया कि वास्तव में यह गुणसूत्रों में पाये जाने वाले कुछ विशेष संख्यात्मक था संरचनात्मक परिवर्तनों के कारण ही थे। उदाहरण के लिये ओ. लैमार्किआना में 'गाइगस उत्परिवर्तन' (Gigas mutation) के विषय में बाद में यह ज्ञात हुआ कि यह केवल बहुगुणिता के कारण ही था।
जीन उत्परिवर्तनों का सबसे पहला उदाहरण 1791 में मिला था, जब सेठ राइट (Seth Wright) ने अपनी भेड़ों के झुण्ड में से एक छोटी टाँगों वाले मेमने को पाया था। उस छोटी टाँग वाले मेमने को देखकर राइट (Wright) ने सोचा था कि क्या अच्छा होता यदि झुण्ड की सभी भेड़ें छोटी टाँगों वाली होती जिससे वे पत्थर की नीची बाड़ को लाँघ कर पास वाले खेतों की फसल को हानि न पहुँचा सकती। आगे आने वाली उत्तरोत्तर पीढ़ियों में यह लक्षण वंशागत था, जिससे एक ऐसी प्रजाति विकसित हुई, जिसमें सभी भेड़ें छोटी टाँग वाली थीं। यह लक्षण एक अप्रभावी उत्परिवर्तन (Recessive Mutation) का परिणाम था और इससे प्राप्त छोटी टाँग वाली भेड़ समयुग्मजी अप्रभावी (Recessive homo zygote) थी। यह उत्परिवर्तन किसी एक विशेष कोशिका में एक बार उत्पन्न हो जाने पर उस जनक कोशिका से सभी अवरोही कोशिकाओं (Descendent cells) में पहुँच जाता है। इस बिन्दु उत्परिवर्तन की खोज उस समय हुई थी जबकि आनुवंशिकी का जन्म भी नहीं हुआ था। छोटी टाँगों वाली भेड़ो की यह नस्ल ऐन्कोन (Ancon) नस्ल के नाम से जानी जाती है।
रोड्स परीक्षण का वर्णन कीजिये।
Rhodes Experiment (1983) - अन्तरजातीय मैथुन (Cross) के व्युत्क्रमण (Reciprocal) संक्रमण में अनुवांशिकी लक्षणों पर कोशिका द्रव्य के प्रभाव को समझा गया। कुछ दृष्टान्तों में संकर (Hybrid) एक दिशा के अधिक शक्तिवर्धक /शक्तिशाली एवं पूर्ण उर्वरा (Fertile) दिखाई देता है तथा दूसरी मिशा में यह कमजोर एवं बन्थ्य (Sterik) दिखाई देता है। डॉ. इस्लाम एवं सहयोगियों (Dr. Islam and Co-workers) ने पौधे कोरकोरस की जातियों में व्युत्क्रमण (Reciprocal) अन्तर देखे।
मक्का एवं अन्य फसलों में नर बन्धता (Male Sterility) को देखा, जिसकी आनुवांशिकता, कोशिका द्रव्य के नियंत्रण में होती है लेकिन नर बन्धता (Male sterility) के कुछ उदाहरण को भी देखा और यह पाया कि इनकी अनुवांशिकता, अण्डाणु कोशिका (Egg cells) के कोशिका द्रव्य के स्वभाव पर आधारित होती है। यदि नर बन्थ्यता के कारक कोशिक द्रव्य नर-बन्थ्यता (Cytoplasmic male sterility) मक्का में संकर बीज (Hybrid seed) के उत्पादन में लाभदायक होती है।
रोड्स का प्रयोग - सन् 1983 में रोड्स ने मक्का में प्रथम कोशिका द्रव्यी (Cytoplasmic) नर बन्धता (Sterility) का विश्लेषण किया और दर्शाया कि नर बन्थता में मादा पैतृक (Female parent) का योगदान होता है। इसके लिये वैज्ञानिक ने नर बन्ध्य पौधा का अत्यधिक उर्वरा मादा (Fertile Female) श्रेणी वाले पौधों से मैथुन (Cross) कराया। निरीक्षण करने पर पाया कि आने वाली पीढ़ियों (Progeny) में सभी सन्ततियों में नर बन्ध्य (Sterik) है क्योंकि इनका कोशिका द्रव्य मुख्य रूप से नर बन्ध्य मादा जनक (Female parent) के अण्डों से प्राप्त होता है।
मक्का में तीन नर बन्थ्य स्रोत (C.M.S.) ज्ञात है, जिनको T.C. एवं s कहते हैं। सामान्य नर उर्वरा (Fertile) कोशिका द्रव्य को N-कोशिका द्रव्य कहते हैं। तीनों C.M.S. कोशिका द्रव्य में से प्रत्येक पदार्थों की मातृक अनुवांशिकता को दर्शाते हैं और तब भी जब सभी गुणसूत्रों नर उर्वरा स्रोतों की पृष्ठीय संकरण (Back Crosses) द्वारा प्रतिस्थापित किया। कोशिका द्रव्यी अनाजों/मक्का के संकर बीज के व्यापारिक दृष्टि से उत्पादन में लाभदायक होती है।
ड्रोसोफिला में co2 की संवेदनशीलता कैसे निर्धारित होती है।
उत्तर- ड्रोसोफिला के कुछ प्रभेद CO2 के लिये सुग्राही होते हैं और co, की सांद्रता में थोड़ा-सा परिवर्तन होने पर गतिशील हो जाते हैं। Co, की अधिक सांद्रता में ये बेहोश होकर मर जाते हैं। सामान्यतया सुग्राही प्रभेदों में व्युत्क्रम संकरण के फलस्वरूप परिणाम अलग-अलग होते हैं। जब सुग्राही प्रभेद की मादा व सामान्य नर में संकरण कराया जाता है तो F, पीढ़ी के सभी ड्रोसोफिला सुग्राही होते हैं लेकिन इनमें से केवल मादा ड्रोसोफिला ही इस सुग्राही लक्षण को अपनी संतति में पहुंचा सकती है। नर पहुँचाने में असमर्थ होता है। जब सुग्राही प्रभेद की ड्रोसोफिला के गुणसूत्रों को एक-एक करके सामान्य स्टेन गुणसूत्रों द्वारा विस्थापित कर दिया जाता है तो उनका सुग्राही लक्षण नष्ट होजाता है। इससे प्रतीत होता है कि ड्रोसोफिला में CO2 के प्रति सुग्राहिता का लक्षण गुणसूत्रों द्वारा वंशागति नहीं होता है वरन् केन्द्रक के बाहर किसी पदार्थ अथवा कोशिका द्रव्य द्वारा वंशागति होता है।
चुहियों में छाती के ट्यूमर की वंशागति पर एक लेख लिखिये।
उत्तर- चुहियों में छाती के ट्यूमर की वंशागति पर मातृक प्रभाव देखने को मिलता है। इसकी उत्पत्ति जीन्स पर निर्भर करती है। बिटनर ने देखा कि चुहियों की एक प्रजाति के सभी नर व मादा चुहियों में छाती के ट्यूमर के प्रति सुग्राहिता पायी जाती है। इस प्रजाति की मादा का सामान्य प्रजाति की नर चुहिया के साथ संकरण कराने पर लगभग 90% संतति को सुग्राही पाया गया तथा उनमें छाती का ट्यूमर बना। जब इस सुग्राही प्रजाति की नर चुहियों का सामान्य मादा चुहियों के साथ संकरण कराया गया तोF, पीढ़ी की सभी चुहियों को सामान्य पाया गया। इससे सिद्ध होता है छाती के ट्यूमर उत्पन्न करने वाली रचनायें कोशिका द्रव्य में पायी जाती हैं। आधनिक खोजों से पता चला है कि ट्यूमर वायरस के कारण उत्पन्न होता है तथा मादा चुहियों के दूध द्वारा बच्चों में पहुँचता है। यूकैरियॉन - इस प्रकार की कोशा में केन्द्रक, केन्द्रक कला के द्वारा कोशाद्रव से अलग होता है। इसमें कई गुणसूत्र डी. एन. ए. और प्रोटेन्स के साथ होते हैं इनमें माइटोसिस के द्वारा केन्द्रक विभाजन
यूकैरियॉन तथा प्रोकैरियॉन को परिभाषित कीजिये।
यूकैरियॉन- इस प्रकार की कोशा मे केन्द्रक कला के द्वारा कोशाद्रव से अलग होता है। इममें कई गुणसूत्र डी एन .और प्रोटेन्स के साथ होते है इनमें माइटोसिस के द्वारा केन्द्रक विभाजन होता है। इनमें कई कोशिकांग होते हैं। माइटोकड्रिया श्वसन व क्लोरोप्लास्ट फोटोसिन्थेसिस में सहायक होता है। यूकैरियोटिक कोशा बैक्टीरिया व नीली हरी शैवाल को छोड़कर सभी जीवों की इकाई संरचना है।
प्रोकैरियॉन - ये एक प्रारम्भिक कोशा होती है जिसमें आनुवंशिक पदार्थ एक साधारण धागे के समान (डी. एन. ए.) होते हैं और ये केन्द्रक कला द्वारा कोशाद्रव से अलग नहीं होते हैं। बैक्टीरिया व नीली हरी शैवाल में इस प्रकार की कोशा पाई जाती है। इसमें न्यूक्लियर इन्वेलप व अन्य बड़े कोशिकांग अनुपस्थित होते हैं।
प्लाज्मा जीन क्या है?
उत्तर- केन्द्रक के बाहर कोशिका द्रव्य या कोशिकांगों में पाये जाने वाले जीन्स या आनुवांशिक कारकों को प्लाज्मा जीन कहते हैं। इनको वाह्य केन्द्रकी या नॉन-मेन्डेलियन भी कहते हैं। इन जीन्स की वंशागति पर माता के आनुवांशिक लक्षण का प्रभाव होता है। अतः यह मेण्डल के आनुवांशिकता के नियमों का पालन नहीं करते। कोशिका द्रव्य या कोशिकांगों में पाये जाने वाले स्वतः जनन वाले आनुवांशिक पदार्थ को प्लाज्मा कहते हैं।
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