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शशक का मूत्रोजनन तंत्र || shashak ka mootrojanan tantr

 


शशक का मूत्रोजनन तंत्र
(URINOGENITAL SYSTEM OF RABBIT)

कशेरुकियों (vertebrates) में उत्सर्जी एवं जनन तंत्रों में, विशेषतः नर थे, परस्पर काफी सम्बन्ध होते है। है। इसीलिए, इन दोनों तंत्रों का अध्ययन प्रायः एक ही सहतंत्र-मूत्रजनन तंत्र (urinogenital system) के अन्तर्गत करते हैं। शशक की अपेक्षा मेंढक में यह सम्बन्ध अधिक होता है। वयस्क शशक में इन तंत्रों के प्रमुख अंगों में तो कोई सम्बन्ध नहीं होता, परन्तु इनकी वाहिनियों में महत्त्वपूर्ण सम्बन्ध होता है।

उत्सर्जी तंत्र

(EXCRETORY SYSTEM)

शरीर में मेटाबोलिज्म के फलस्वरूप CO2 जल, अमोनिया, यूरिया, यूरिक अम्ल रंगाएँ , लवण  आदि। कई ऐसे अपजात या अपशिष्ट (waste) पदार्थ बनते रहते हैं जो शरीर के लिए अनावश्यक ही नहीं ,वरन हानिकारक  भी होते हैं। अतः इन्हें शरीर से बाहर निकाल दिया जाता है। इनमें से CO2 का बहिष्कार मुख्यत: श्वसन क्रिया में  हो जाता है। शेष अपशिष्ट पदार्थ, मुख्यतः प्रोटीनयुक्त पदार्थ, उत्सर्जी (excretory) कहलाते है , क्योकि इनका बहिष्कार विशेष प्रकार के उत्सर्जी अंग करते हैं जो उत्सर्जी तंत्र बनाते हैं। उत्सर्जी अंगो द्वारा अपशिष्ट पदार्थो के  बहिष्कार की क्रिया को उत्सर्जन (excretion) कहते हैं। वृक्क या गुर्दे (kidneys) प्रमुख उत्सर्जी अंग होते  हैं। यकृत, प्लीहा,आँत, त्वचा, फेफड़े आदि कुछ अन्य अंग भी उत्सर्जन में सहायता करते हैं।

शशक के वृक्क या गुर्दे (Kidneys)

स्थिति (Position)- 

मेंढक की भाँति, शशक में भी एक जोड़ी वृक्क कशेरूकदण्ड  के  इधर -उधर  स्थित होते है, किन्तु ये आमने सामने  न होकर, दहिना  वृक्क बायें से लगभग पच्चीस मिमी आगे स्थित होता है । प्रत्येक वृक्क, देहगुहा के बाहर, पृष्ठ पेरिटोनियम के अन्तर्वलन (invagination) से बने एक प्यालीनुमा गड्ढे मे स्थित होता है।  

बाह्य लक्षण (External features)-

 वृक्क गहरे लाल एवं सेम के बीज की आकृति के होते है बायाँ वृक्क कुछ छोटा होता है दोनो शरीर के पाशर्व की उत्तल (concave) तथा मध्य अक्ष की ओर अवतल (concave) होते है। अवतल सतह पर उपस्थित गड्ढे को वृक्कनाभि या हाइलस  (Hilus) कहते हैं। इसी में होकर वृक्क धमनी (renal artery) एवं तंत्रिका (nerve) वृक्क में घुसती और वृक्क शिरा (renal vein),लासिकावाहिनी एवं मूत्रवाहिनी नलिका (ureter) इसमें से निकलती है ।


  चित्र 1 नर शाशक का उत्सर्जी तंत्र (अधरतलीय दृश्य)

मेंढक के विपरीत, शशक में मूत्रवाहिनियाँ, मलाशय (rectum) में नहीं, वरन् सीधी मूत्राशय (urinary bladder) में खुलती हैं। मूत्राशय, बड़ी अण्डाकार थैली के रूप में, उदरगुहा के पिछले भाग मे स्थित होता है। पीछे की ओर यह संकरा होकर मूत्र मार्ग (urethra) बनाता है जो नर में लम्ब, परन्तु मादा में छोटा होता है । जननवाहिनियों से मूत्र मार्ग का घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। वृक्कों में मूत्र (urine) बनता है जिसे मूत्रवाहिनियाँ  मूत्राशय में ले जाती हैं। मूत्राशय में मूत्र एकत्रित होता रहता है। जन्तु, अपनी इच्छानुसार, इसे मूत्रमार्ग द्वारा बाहर निकालता है।


वृक्कों की आन्तरिक रचना (Internal structure)-

प्रत्येक वृक्क के चारों ओर तन्तुमय संयोजी  उतक का महीन वृक्क खोल (renal capsule) होता है। इसे छिलके की भाति सुगमतापूर्वक हटा सकते है। प्रत्येक वृक्क लगभग दो लाख (मनुष्य में लगभग दस से बारह लाखा) महीन एवं कुण्डलित ,वृक्क नलिकाओं या वृक्काणुओं (uriniferous tubules or nephrons) का एक जटिल एवं ठोस पिण्ड होता है।  वृक्क नलिकाएँ संयोजी ऊतक की थोड़ी-सी मात्रा में परस्पर सटी रहती हैं। ये लम्बी, पतली एवं कुण्डलित होती  हैं। मेंढक की भाँति, प्रत्येक वृक्क नलिका एक फूले हुए प्यालीनुमा बौमैन संपुट (Bowman's capsule से प्रारम्भ होती है और दूसरे छोर पर किसी एक संग्रह नलिका (collecting tubule) में खुलती है 



बोमैन सम्पुट के गर्त या गड्ढे में रुधिर-

केशिकाओं का घना जाल या गुच्छा होता है जिसे ग्लोमेरुलस (glomerulus) कहते हैं। सम्पुट एवं ग्लोमेरुलस को मिलाकर उत्सर्जी या मैल्पीधी कॉर्पसल (Renal or  Malpighian corpuscle) कहा जाता है। सम्पुट की दीवार दोहरी होती है, क्योंकि वृक्क नलिका के छोर पर यह ग्लोमेरुलस के कारण ठीक उसी प्रकार भीतर धंस जाने से बनती है जैसे किसी लम्बे गुब्बारे के सिरे को हम अंगुली से दबा दें। सम्पुट की बाहरी एवं भीतरी धंसी दीवार के बीच में इसकी संकरी-सी गुहा होती है। पूरी दीवार इकहरी एपिथीलियम की बनी होती है। बाहरी दीवार में एपिथीलियमी कोशाएँ चपटी, शल्की (squamous) होती  हैं। भीतरी, धैंसी दीवार में विशेष प्रकार की कोशाएँ होती हैं, जिन्हें पोडोसाइट्स (podocytes) कहते हैं। ये भी कुछ चपटी ही होती हैं, लेकिन इनसे अनेक अँगुलीनुमा प्रवर्ध बाहर की ओर निकलकर ग्लोमेरुलस की केशिकाओं (capillaries) से लिपटे रहते हैं (चित्र 1) । केशिकाओं एवं पोडोसाइट्स के प्रवर्धो की दीवारें मिलकर महीन ग्लोमेरुलर कला (glomerular membrane) बनाती है जिसमें होकर परानिस्यंदन (ultrafiltration) होता है।

बोमैन सम्पुट के पीछे वृक्क नलिका का छोटा-सा, सँकरा ग्रीवा (neck) भाग होता है जिसकी दीवार की कोशिकाएँ रोमाभि (ciliated) होती हैं । नलिका के शेष भाग को स्रावी नलिका (secretory tubule) कहते हैं। वह तीन भागों मे विभेदित होती है-

(1) प्रथम कुण्डलित भाग (proximal convoluted part) जो कुछ मोटा, छोटा और सम्पुट से ग्रीवा  द्वारा जुड़ा होता है।

(2) मध्य में हेन्ले का लूप (Henle's loop) जो कुछ लम्बा, पतला और 'U' की भाँति दो भुजाओं -अवरोही तथा आरोही (descending and ascending arms) का बना होता है।

(3) अन्तिम, दूरस्थ कुण्डलित भाग (distal convoluted part) जो प्रथम भाग के समान मोटा, छोटा  एवं इसी के पास स्थित होता है। यह किसी संग्रह नलिका में खुलता है।

शशक के वृक्क की एक क्षैतिज अनुलम्ब काट (horizontal longitudinal section) का अध्ययन करे तो  पता चलता है कि वृक्क नलिकाओं के बोमैन सम्पुट तथा प्रथम एवं अन्तिम कुण्डलित भाग तो इसके परिधीय Pripheral) भाग में, परन्तु हेन्ले के लूप एवं संग्रह नलिकाएँ मध्य भाग में स्थित होती हैं । अतः वृक्क में दो स्पष्ट दिखायी देते हैं-बाहरी वल्कलीय भाग या वल्कुट या कॉरटेक्स (cortex) तथा भीतरी मध्यांश या मजक भाग  (medulla) (चित्र 2 ) । मेड्यूला का मध्य भाग एक स्पष्ट वृक्क अंकुर (renal papilla) के रूप में वृक्कनाभि की ओर उभरा होता है। वल्कलीय भाग के लगभग आधे दर्जन छोटे-छोटे, संकरे उभार मेड्यूला के बाहरी भाग  में धँसे रहते हैं। इन्हें बरटिनी के वृक्क स्तम्भ (renal columns of Bertini) कहते हैं। इनके कारण मेड्यूला का परिधीय भाग पिण्डों में बँटा-सा दिखायी देता है जिन्हें पिरैपिड (pyramids) कहते हैं। मनुष्य तथा अन्य आधिकांश स्तनियों में, शशक की अपेक्षा, बरटिनी के वृक्क स्तम्भ मेड्यूला में बहुत भीतर तक फैंसे और संख्या में कहीं अधिक (मनुष्य में लगभग एक दर्जन) होते हैं (चित्र) । इससे मेड्यूला पूरा ही पृथक् पिरैमिड्स में बँट जाता है  है और प्रत्येक पिरैमिड ही वृक्कनाभि की ओर एक वृक्क-अंकुर के रूप में उभरा दिखायी देता है।

                                            शासक के वृक्क की क्षैतिज अनुलम्ब काट


                                     मनुष्य के वृक्क की क्षैतिज अनुलम्ब काट

संग्रह नलिकाएँ मेड्यूला के पिरैमिड्स में स्थित होती हैं। प्रत्येक संग्रह नलिका में कई वृक्क नलिकाएँ खुलती हैं। शशक में अकेले वृक्क अंकुर में तथा मनुष्य आदि में प्रत्येक पिरेमिड के अंकुर में कई निकटवर्ती संग्रह नलिकाएँ मिल-मिलकर कुछ मोटी प्रमुख संग्रह नलिकाएँ बनाती है जिन्हें बेलिनाई की नलिकाएँ (duce of Bellini) कहते हैं। बेलिनाई की नलिकाएँ ही वृक्क अंकुर या अंकुरों के शिखर पर मूत्रवाहिनी (ureter) में खुलती हैं। मूत्रवाहिनी का प्रारम्भिक भाग चौड़ा, कीपनुमा होता है। इसे पैल्विस (pelvis) कहते है। यह तथा वृक्क से सम्बन्धित रुधिरवाहिनियाँ एक रिक्त कोटर (sinus) में स्थित होती है जो, वृका के भीतर, हाइलस के ही फैल जाने से बनता है। मनुष्य में इस कोटर में पेल्विस कई छोटी-छोटी शाखाओं में बँटा होता है जिन्हें मुख पुटक (major calyces) कहते हैं। प्रत्येक मुख्य पुटक दो या तीन लघु पुटकों (minor calyces) में बँटे होता है। प्रत्येक लघु पुटक एक वृक्क अंकुर को प्याले की भाँति घेरे रहता है। वृक्क नलिकाओं की पूरी दीवार में इकहरी एपिथीलियम और इसके बाहर महीन आधारकला के आवरण होता है। रचना एवं स्वभाव में एपिथीलियमी स्तर नलिका के विविध भागों में विभिन्न प्रकार का होता है प्रथम कुण्डलित नलिका में एपिथीलियमी कोशाएँ स्तम्भी और अंगुली-समान प्रवों द्वारा परस्पर गुथी (interdigitate) होती हैं। सूक्ष्मांकुरों (microvilli) की प्रचुरता के कारण इनके स्वतंत्र छोर ब्रश सदृश् (brush border) होते हैं (चित्र 3)। ये कोशाएँ अवशोषी (absorptive) होती हैं। हेन्ले के लूप की अवरोही भुजा में एपिथीलियम चपटी, शल्की कोशाओं की बनी होने के कारण महीन होती है। इन कोशाओं में सूक्ष्मांकुर बहुत कम होते हैं। हेन्ले के लूप की आरोही भुजा समीपस्थ सँकरे एवं दूरस्थ मोटे खण्डों में विभेदित होती है। सँकरा खण्ड रचना में अवरोही भुजा जैसा होता है। मोटे खण्ड तथा दूरस्थ कुण्डलित नलिका में एपिथीलियम, समीपस्थ कुण्डलित नलिका की भाँति, स्तम्भी एवं परस्पर गुंथी कोशाओं की बनी होती है, परन्तु इन कोशाओं में भी सूक्ष्मांकुर बहुत कम होते हैं। स्तनियों के वृक्कों में, स्थिति, लम्बाई तथा रुधिर-सप्लाई में भिन्न दो स्पष्ट प्रकार की वृक्क नलिकाएँ होती हैं (चित्र 4) वल्कलीय (15 से 35 प्रतिशत) तथा मजकासान्निधय अर्थात् जक्स्टामेड्यूलरी (65 से 85) प्रतिशत) । वल्कलीय वृक्क नलिकाओं (cortical nephrons) के बोमैन सम्पुट वृक्क की सतह के निकट तथा हेन्ले के लूप छोटे होते हैं। जक्स्टामेड्यूलरी वृक्क नलिकाओं (juxtamedullary nephrons) के बोमैन सम्पुट वृक्क के वल्कलीय एवं मजक भागों के संगम क्षेत्र में तथा हेन्ले के लूप लम्बे और मज्जक भाग में गहराई तक फैले होते हैं। इनमें हेन्ले के लूप का दूरस्थ छोर बोमैन सम्युट के मुख पर स्थित  होता है। यहाँ यह विशेष प्रकार की जक्स्टाग्लोमेलर कोशाओं Gurraglomerular cells) के एक पिण्डक के सम्पर्क में रहता है जिसे मैकुला डेन्सा (macula densa) कहते हैं।


वृक्कों की रुधिरवाहिनियाँ-

पृष्ठ महाधमनी (dorsal aorta) से केवल एक वृक्क धमनी (renal artery) प्रत्येक में जाती है और एक ही वृक्क शिरा (renal vein) इससे रक्त को पश्च महाशिरा (posterior vena cava) में वापस लाती है। दोनों रुधिरवाहिनियाँ मूत्रवाहिनी के साथ-साथ हाइलस एवं वृक्क कोटर में से गुजरती हैं। वृक्क धमनी वृक्क के ऊतक में घुसते ही कई प्रमुख शाखाओं में बँटकर कॉरटेक्स में अनेक छोटी-छोटी धमनिकाओं (arterioles) में बँट जाती है। प्रत्येक धमनिका किसी एक ग्लोमेरुलस में जाकर केशिकाओं में बँट जाती है। इसीलिए इसे अभिवाही या ऐफेरेन्ट धमनिका (afferent arteriole) कहते हैं। दूसरी ओर, ग्लोमेरुलस की केशिकाएँ वापस मिलकर एक अपवाही या इफेरेन्ट धमनिक (efferent arteriole) बनाती हैं। वल्कलीय वृक्क नलिकाओं में यह धमनिका सम्पुट से निकलकर फिर (repre केशिकाओं में बँट जाती है जो अपनी वृक्क नलिका के चारों ओर एक परिनलिका केशिका जालक (peritubular capillary network) बनाती हैं। जक्स्टामेड्यूलरी वृक्क नलिकाओं में अपवाही धमनिकाएँ कहते है

अत्यधिक महीन केशिकाओं में बँटती हैं जो इन वृक्क नलिकाओं के हेन्ले के लूपों के समानान्तर फैले फन्दे  (loops) बनाती हैं। इन फन्दों को वासा रेक्टा (vasa recta) कहते हैं। परिनलिका जालकों या वासा रेक्टा  केशिकाएँ परस्पर मिल-मिलकर शिराकाएँ (venules) बनाती हैं। शिराकाएँ मिल-मिलकर छोटी-बड़ी शिराएं बनाती है। अन्त में सभी शिराएँ मिलकर प्रमुख वृक्क शिरा (renal vein) बनाती हैं।

मूत्रवाहिनियाँ (Ureters) ये मोटी एवं पेशीय दीवार की बनी सँकरी नलिकाएँ होती हैं। इनकी दीवार की पेशियाँ क्रमाकुंचक तरंगें (peristalsis) उत्पन्न करती हैं जिनके कारण इन नलिकाओं में मूत्र (urine) आग बहता है। प्रत्येक मूत्रवाहिनी पेल्विस से प्रारम्भ होकर मूत्राशय तक जाती और इसी में खुलती है । मूत्राशय की दीवार में दोनों मूत्रवाहिनियों के छिद्र पास-पास स्थित एवं तिरछे होते हैं । अतः मूत्र मूत्राशय से वापस मूत्रवाहिनियों में नहीं जा सकता । मूत्रवाहिनियों की क्रमांकुचक तरंगें भी इसके उल्टे बहाव (regurgitation) को रोकने में सहायक होती है।

मूत्राशय (Urinary bladder) यह मूत्र-संचय पात्र (urine reservoir) का काम करता है। इसकी दीवार में सबसे भीतर एक भंजमय (folded) श्लेष्मिका (mucosa), बीच में पेशी स्तर तथा सबसे बाहरी पेरिटोनियम की बनी सीरमी कला (serous membrane) होती है। पेशियाँ सब अरेखित होती हैं, लेकिन मूत्राशय से प्रारम्भ होने वाले मूत्रमार्ग (urethra) के छिद्र के चारों ओर एक अवरोधिनी (sphincter) रेखित पेशी होती है।

शशक के अन्य उत्सर्जी अंग

(1) यकृत, प्लीहा एवं आँत-

यकृत कोशाएँ आवश्यकता से अधिक अमीनो अम्लों के नाइट्रोजनीय भाग तथा रुधिर के अमोनिया आदि को यूरिया में बदलकर उत्सर्जन में महत्त्वपूर्ण सहयोग देती हैं। प्लीहा एवं यकृत कोशाएँ, टूटे-फूटे निरर्थक रुधिराणुओं का विखण्डन करती हैं। यकृत कोशाएँ हीमोग्लोबिन का विखण्डन करके पित्त रंगाएं (bile pigments) बनाती हैं जो पित्त के साथ आँत में पहुँचकर मल के साथ बाहर निकल जाती हैं।

(2) त्वचा (Skin)-

त्वचा की स्वेद ग्रन्थियाँ (sweat glands) अपने चारों ओर की रुधिर-केशिकाओं के रक्त से जल, तथा कुछ Co., यूरिया एवं लवण लेकर पसीने या स्वेद (sweat) के रूप में इनका बहिष्कार करती हैं।

(3) फेफड़े (Lungs)-

 शरीर की कोशाओं में कार्बोहाइड्रेट्स के जारण से बनी CO, भी उत्सर्जी पदार्थ होती है, लेकिन इसका उत्सर्जन मुख्यतः फेफड़ों में ही श्वास क्रिया में होता है।


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