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REPRODUCTIVE SYSTEM OF MALE RABBIT IN HINDI

 


जनन तंत्र
(REPRODUCTIVE SYSTEM)

मेढक की भांति, शशक भी एकलिंगी (unisexual) होता है, अर्थात् नर एवं मादा शशक पृथक् होते हैं, लेकिन शशक में निषेचन (fertilization) तथा भ्रूणीय परिवर्धन (embryonic development) जल में नहीं, वरन् मादा के गर्भाशय में होता है। अतः सन्तान शिशु (young) के रूप में जन्म लेती है। दूसरे शब्दों में, मेढक अण्डज या ओवीपैरस (oviparous) होता है तथा शशक जरायुज या विविपैरस (viviparous)  अन्य कशेरुकियों की भाँति, शशक में भी एक जोड़ी प्रमुख जननांग होते हैं जिन्हें जनद (gonads) कहते है। नर शशक के जनद वृषण (testes) तथा मादा के अण्डाशय (ovaries) कहलाते हैं। इनमें जनन कोशाएँ (reproductive cells or gametes) बनती हैं। नर एवं मादा जनन कोशाओं को क्रमशः शुक्राणु (sperm) हैं तथा अण्डाणु (ova) कहते हैं। इन्हें जनदों से ले जाने वाली नलिकाओं को जनन-वाहिनियाँ (genital ducts) कहते हैं। जनद तथा जनन-वाहिनियाँ, मैथनांग, गर्भाशय आदि सहायक जननांग (accessory reproductive organs) मिलकर जन्तु का जनन तंत्र बनाते हैं।

नर शशक के जननांग

शशक की भ्रूणावस्था में, भ्रूणीय वृक्कों (मीसोनेफ्रोज—mesonephros) के पास, पृष्ठ पेरिटोनियम से व्युत्पन्न, दो वृषण ठीक वैसे ही स्थित होते हैं जैसे कि वयस्क मेंढक में। बाद में, अधिकांश स्तनियों में, उदरगुहा की दीवार पीछे की ओर बढ़कर दो छोटी थैलियाँ बना लेती है और वृषण, कुछ हॉरमोन्स के प्रभाव से, भ्रूणीय वृक्कों के साथ-साथ खिसककर, इन्हीं थैलियों में आ जाते हैं। इन थैलियों को वृषण कोष (scrotal sacs) कहते है (चित्र 1) । उदरगुहा तथा वृषण कोषों के बीच के मार्गों को वंक्षण या इंग्वीनल नाल (inguinal canals) कहते हैं ।


ये पहले चौड़े होते हैं, परन्तु बाद में, अधस्त्वचीय ऊतक के वलन के कारण, ये सैकरें, नालवत्  
हो जाते हैं । वृषणों का इस प्रकार उदरगुहा से बाहर, वृषण कोषों में स्थित होना अनेक स्तनियों में इसलिए आवश्यक होता है कि, शरीर-ताप अधिक होने के कारण, शुक्राणुओं का परिपक्वन उदरगुहा में नहीं हो सकता।

वृषण तथा इनसे सम्बन्धित रचनाएँ (Testes and associated structures) -

शशक में प्रत्येक वृषण लगभग 15 से 20 मिमी लम्बी और 10 मिमी मोटी, गुलाबी-सी अण्डाकार रचना होती है। इससे एक लम्बी, सँकरी एवं चपटी-सी संरचना चिपकी होती है जिसे एपिडिडाइमिस (epididymis) कहते हैं। एपिडिडाइपिस वास्तव में कई मीटर (नर शशक में लगभग 3 और पुरुष में 6 मीटर) लम्बी एवं अत्यधिक कुण्डलित नलिका होती है जो धूणीय मीसोनेफ्रोस की बुल्फियन नलिका (Wolffian duct) के रूपान्तरण से बनती है।




 एपिडिडाइसिस वृषण के अग्र, पश्च एवं भीतरी तलों को ढके रहता है। इसके अगले फूले भाग को सिर या कैपट एपिडिडाइपिस (head or caput epididymis) तथा पिछले फूले भाग को पुच्छ या कॉडा एपिडिडाइमिस (tail or cauda epididymis) कहते है (चित्र 2)। एपिडिडाइमिस का रोष, प्रमुख भाग इन दोनों भागों के बीच वृषण के पृष्ठतल पर फैला और सँकरा होता है। इसे एपिडिडाइमिस काय  (body of epididymis) या कॉर्पस एपिडिडाइमिस (corpus epididymis) कहते हैं। कॉडा एपिडिडाइमिस कुछ छोटा होता है। यह लचीले तन्तुओं के एक गुच्छे द्वारा वृषण कोष की पश्च दीवार से जुड़ा रहता है। इस गुच्छे को गुबरनैकुलम (gubernaculum) कहते हैं। ऐसे ही लम्बे, लचीले तन्तु कैपट एपिडिडाइमिस को इम्दीनल नाल में से होकर उदरगुहा की पृष्ट देहभिति से जोड़ते हैं। इन्हीं तन्तुओं के साथ वृषण से सम्बन्धित धमनी, शिरा तथा तंत्रिका (nerve) इंग्वीनल नाल में से होकर गुजरती हैं। ये सब अन्तराल (areolar) संयोजी ऊतक द्वारा परस्पर जुड़कर एक छड़ी-समान गुच्छा बनाये रहती है जिसे वृषण दण्ड (spermatic cord) कहते हैं।


काँडा एपिडिडाइमिस के छोर से वुल्फियन नलिका कुछ मोटी-सी एवं सीधी शुक्रवाहिनी (vas deferens) के रूप में आगे बढ़कर इंग्वीनल नाल में होती हुई उदरगुहा में पहुँचती है। यहाँ, यह मूत्राशय के पृष्ठतल पर, अपनी और की मूत्रवाहिनी के चारों ओर एक फन्दा बनाती हुई, पीछे की ओर मूत्रमार्ग (urethra) के आधार भाग में खुल जाती है। यहीं पर, मूत्रमार्ग में एक छोटा-सा, थैलीनुमा शुक्राशय (seminal vesicle) या यूटेरस मैस्कुलाइनस ( uterus masculinus) भी खुलता है (चित्र 2) यह भ्रूणीय मुलरियन नलिका (Mullerian duct) से व्युत्पन्न रचना होती है। इसमें शुक्राणुओं का संचय नहीं होता, वरन यह एक प्रन्थिल रचना होती है जो एक गाढ़े एंव चिपचिये क्षारीय द्रव का स्त्रावण करती है। यह द्रव्य शुक्राणुओं के साथ वीर्य (semen) बनाता है ।

मूत्रमार्ग (urethra) लम्बा होता है। इसका आधार भाग चौड़ा, वेश्मनुमा होता है। इसे प्रोस्टैटिक यूट्रीकल या वैजाइना मैस्कुलाइनस (prostatic utricle or vagina masculinus) कहते हैं। इसे मादा की योनि (vagina) के समजात मानते हैं। शेष मूत्रमार्ग पतली नलिका-स्वरूप होता है। यह एक स्पंजी मैथुन अंग (copulatory organ) अर्थात् शिश्न (penis) में होता हुआ इसके शिखर पर स्थित मूत्रोजनन छिद्र (urinogenital aperture = urethral orifice or meatus) द्वारा बाहर खुलता है। शिश्न महीन उदरभित्ति से ढका लम्बा-सा अंगुलीनुमा अंग होता है



नर शशक के जननागों का पाशर्व दृश्य

 जो वृषण कोषों के बीच में उदर से लटका रहता है। इसका शिखर भाग कुछ फूला हुआ एवं चिकना होता है। इसे शिश्न मुण्ड या ग्लांस पीनिस (glans penis) कहते हैं। शिश्नमुण्ड की आधार रेखा पर त्वचा वलित होकर एक टोपी-सी बना लेती है जिसे शिश्नान या प्रिप्यूस (prepuce) कहते हैं। सामान्यतः शिश्न शिथिल एवं सिकुड़ा हुआ रहता है जिससे शिश्नाग्र मुण्ड पर ढका रहता है। ऐसी अवस्था में, जन्तु की इच्छानुसार, मूत्रोजनन छिद्र से केवल मूत्र निकलता है। इसके विपरीत,मैथुन (copulation) की इच्छा से उत्तेजित शशक में शिश्न बड़ा एवं कड़ा हो जाता है तथा बहुधा प्रिप्यूस मुण्ड पर से हटकर इसके आधार पर सिकुड़ जाता है जिससे मुण्ड नग्न हो जाता है। शिश्न इस प्रकार बड़ा होकर मादा की योनि में गहराई तक पहुँच जाता है ताकि मैथुन के फलस्वरूप मूत्रोजनन छिद्र से निकले वीर्य के शुक्राणु सुगमतापूर्वक मादा के गर्भाशय में पहुँच सकें।

सहायक जनन अन्थियाँ (Accessory genital glands)-ऐसी चार प्रकार की ग्रन्थियाँ नर सहायक जननांगों से सम्बन्धित या इनके निकट स्थित होती हैं-

(1) प्रोस्टेट ग्रन्थि, 

(2) काउपर की ग्रन्थियाँ,

(3) पेरिनीयल ग्रन्थियाँ, तथा 

(4) रेक्टल ग्रन्थियाँ।

(1) पुरःस्थ या प्रोस्टेट ग्रन्थि (Prostate gland)

 यह मूत्रमार्ग (urethra) के आधार भाग के चारों ओर स्थित एक बड़ी एवं सघन ग्रन्थि होती है। यह कई ग्रन्थिल पिण्डों की बनी होती है। प्रत्येक पिण्ड की अपनी एक पृथक् छोटी नलिका होती है जो मूत्रमार्ग में खुलती है। यह ग्रन्थि एक सफेद-से हल्के अम्लीय (कुछ के अनुसार हल्के क्षारीय) द्रव्य का लावण करती है। यह द्रव्य वैजाइना मैस्कुलाइनस द्वारा स्त्रावित पदार्थ तथा शुक्राणुओं से मिलकर वीर्य (semen) बनाता है। सम्भोग की क्रिया पूर्ण होने पर नर के सूत्रोजनन छिद्र से वीर्य ही मादा की योनि में मुक्त होता है। यह गाढ़ा एवं चिपचिपा होता है। इसमें उपस्थित स्रावित पदार्थ शुक्राणुओं को सक्रिय बनाते हैं ताकि शुक्राणु मादा की योनि से गर्भाशय और फिर अण्डवाहिनियों में जा सकें । वीर्य में कुछ एन्जाइम, फ्रक्टोज तथा कुछ प्रोटीन्स भी होती हैं।

पुरुषों में 45 से 50 वर्ष की आयु के बाद प्रोस्टेट ग्रन्थि क्षीण होकर छोटी होने लगती है या फूलकर अत्यधिक बड़ी । बड़ी हो जाने पर यह मूत्र के मार्ग को अवरुद्ध कर देती है और तब इसे ऑपरेशन द्वारा हटा देते हैं।


(2) बल्बोयूरीथ्रल या काउपर की ग्रन्थियाँ (Bulbo-urethral or Cowper's gland)

 प्रोस्टेट ग्रन्थियों के पीछे, मूत्रमार्ग के दायें-बायें एक-एक छोटी, अण्डाकार-सी अन्थियाँ होती हैं और इसी में खुलती हैं। ये एक गाढ़े, पारदर्शी एवं चिपचिपे क्षारीय द्रव्य का स्त्रावण करती हैं । मैथुन-उत्तेजना के समय इस द्रव्य को एक बूंद निकलकर मूत्रमार्ग को क्षारीय एवं चिकना बनाती है ताकि शुक्राणुओं के मार्ग में मूत्र त्याग की अम्लीयाता समाप्त हो जाये और मार्ग चिकना भी हो जाये। मादा की योनि को चिकना बनाकर यह द्रव्य सम्भोग को भी सुरम बनाता है।

(3) पेरिनीयल ग्रन्थियाँ (Perineal glands) काउपर की ग्रन्थियों के कुछ पीछे, मलाशय के निकर एक जोड़ी गहरे रंग की पेरिनीयल ग्रन्थियाँ होती हैं।

(4) रेक्टल ग्रन्थियाँ (Rectal glands)

 ये भी पेरिनीयल ग्रन्थियों के निकट एक जोड़ी पीले रंग की ग्रन्थियाँ होती हैं। पेरिनीयल एवं रेक्टल ग्रन्थियाँ तेज गन्ध वाले द्रव्यों का स्रावण करती हैं जो मादा शशकों में मैथुनेच्छा जागृत करने में सहायता करते हैं।


नर जननांगों की औतिक रचना-

शशक का प्रत्येक वृषण एक पेशीयुक्त, लचीले वृषण खोल (testicular capsule) में बन्द होता है । वृषण के अग्र भाग में इस खोल का बाहरी स्तर उदरगुहा की पेरिटोनियम (peritoneum) के वलन से बना यौनिक स्तर (tunica vaginalis) होता है और इसके नीचे तन्तुमय संयोजी ऊतक का ऐलब्यूजीनिया स्तर (tunica albuginea) जो पूर्ण वृषण पर होता है। वृषण के आधार भाग में एक स्थान पर ऐलब्यूजीनिया स्तर भीतर फँसकर एक अधूरा-सा खड़ा पट्ट बनाता है जिसे वृषण मिडियास्तिनम (mediastinum testis) कहते हैं (चित्र 37.8)। यह पट्ट वृषण को एक चौड़े अधर एवं सैकरे पृष्ठ भागों में बाँटता है। इससे अनेक अधूरी-सी अरीय अनुप्रस्थ (radial transverse) वृषण पट्टियाँ (septula testis) वृषण की सतह तक फैलकर ऐलब्यूजीनिया स्तर से जुड़ी होती हैं। इनके कारण वृषण का अधर भाग कई लोटे-छोटे शंक्वाकार या त्रिकोणाकार-से पिण्डकों (lobules) में बँट जाता है। ऐलब्यूजीनिया स्तर की भीतरी सतह, मिडियास्टिनम तथा वृषण पट्टियों पर एक महीन संवाहक स्तर (tunica vasculosa) फैला होता है जिसमें रुधिर-केशिकाओं की प्रचुरता होती है।


वृषण के प्रत्येक पिण्डक में प्रायः एक से तीन, कभी-कभी अधिक, महीन एवं अत्यधिक कुण्डलित शुक्रजनन नलिकाएँ (seminiferous tubules) सतह के पास से प्रारम्भ होकर मिडियास्टिनम तक फैली होती है। ये एक  ढीले-से संयोजी ऊतक में निलम्बित रहती हैं। इस ऊतक में रुधिर केशिकाएँ, तंत्रिका तन्तु तथा अनेक बड़ी-सी अन्तराल कोशाओं (interstitial cells) के छोटे-छोटे समूह होते हैं (चित्र 3) । इन कोशाओं में एक पीली रंगा के कण भरे होते हैं। इन्हें अन्तराल कोशाएँ या लेडिग की कोशाएँ (interstitial cells or cells of Leydig) कहते हैं। ये नर हॉरमोन्स (male hormones) का स्रावण करती हैं जो नर की सहायक जनन अस्थियों (accessory reproductive glands) एवं द्वितीयक लैंगिक लक्षणों (secondary sexual characters) के विकास को प्रेरित करते हैं। प्रत्येक शुक्रजनन नलिका के चारों ओर लचीले संयोजी ऊतक की बनी आधार कला (basement membrane) होती है जिसे ट्यूनिका प्रोप्रिया (tunica propria) कहते - है। इसी कला पर नलिका की उत्पादक या जननिक एपिथीलियम (germinal epithelium) सधी होती है। इसमें सामान्यतः दो प्रकार की कोशाएँ होती हैं-शुक्राणु (sperms) बनाने वाली शुक्रजन कोशाएँ या स्वरमैटोगोनिया (spermatogonia) तथा इन्हें सहारा देने वाली अवलम्बन (supporting) कोशाएँ।

सक्रिय वृषण में, शुक्राणुओं के निर्माण हेतु, स्परमैटोगोनिया के विभाजन एवं परिपक्वन (शुक्रजनन- spermatogenesis) के फलस्वरूप, शुक्रजनक कोशाओं के कई स्तर बन जाते हैं। शशक में शुक्रजनन केवल जनकाल में होता है। इसके दौरान स्परमैटोगोनिया से शुक्र कोशाएँ (spermatocytes), इनसे पूर्वशुक्राणु (spermatids) तथा इनसे फिर शुक्राणु बनते हैं। अवलम्बन कोशाएँ संख्या में बहुत कम, परन्तु बड़ी-बड़ी और स्तम्भी होती हैं। इन्हें सरटोली की कोशाएँ (cells of Sertoli or subtentacular cells) कहते हैं। इनका स्वतंत्र तल कटा हुआ-सा होता है। कटावों में विकासशील शुक्राणु कोशाएँ धैसी रहती हैं।



वृषण की अनुप्रस्थ काट का परिवर्धित भाग

वृषण की सतह के पास से, भीतर मिडियास्टिनम की ओर, शुक्रजनन नलिकाएँ कम कुण्डलित होती जाती है और अन्त में सीधी होकर मिडियास्टिनम के पार वृषण के पृष्ठ भाग में पहुँचती हैं। यहाँ ये एक-दूसरी से जुृड़-जुड़कर छोटी-छोटी महीन नलिकाओं का एक घना जाल-सा बना लेती हैं जिसे वृषण जालक (rete testis) कहते हैं। वृषण के अग्र भाग में इस जालक से 12 से 20 तक अपवाहक नलिकाएँ (efferent ductules or vasn efferentia) निकलती हैं और वृषण खोल को बेधती हुई बाहर निकलकर कैपट एपिडिडाइमिस में स्थित वुल्फियन नलिका में खुल जाती हैं

 अपवाहक नलिकाओं की दीवार में भीतर रोमाभि स्तम्भी कोशाओं की इकहरी एपिथीलियम का तथा बाहर वर्तुल (arcular) पेशियों का महीन स्तर होता है। एपिडिडाइमिस में वुल्फियन नलिका के कुण्डल एक संयोजी ऊतक में निलम्बित रहते हैं । वुल्फियन नलिका की दीवार में पेशी स्तर मोटा और एपिथीलियम स्तृत हो जाती है। स्तृत एपिथीलियम के भीतरी स्तर की कोशाओं के स्वतंत्र तलों पर लम्बे सूक्ष्मांकुर (microvilli) होते हैं। शुक्रवाहिनी की दीवार बहुत मोटी एवं गुहा सँकरी होती है। इसके पेशी स्तर में अनुलम्ब पेशी तन्तु भी होते हैं। एपिथीलियम की कोशाएँ अधिकांश रोमाभविहीन होती हैं । कुछ कोशाएँ स्रावी (secretory) होती हैं। ये एक ऐसे द्रव का सत्रावण करती हैं जो इस नलिका में शुक्राणुओं के मार्ग को चिकना करके सुगम बनाता है।


शिश्न की रचना-

अपनी पतली त्वचा के नीचे शिश्न (penis) एक तन्तुमय एवं पेशीय संयोजी ऊतक में निलम्बित तीन स्पंजी अनुलम्ब डोरियों (cords) का बना होता है। डोरियों में से दो शिश्न के पृष्ठवर्ती भाग में आमने-सामने तथा तीसरी अधरवर्ती भाग में मूत्र मार्ग के चारों ओर होती है (चित्र 3) । पृष्ठवर्ती डोरियों को कॉरपोरा कैवरनोसा (corpora cavernosa) तथा अधरवर्ती डोरी को कॉरपस स्पंजिओसम (corpus spongiosum) कहते हैं। संयोजी ऊतक प्रत्येक डोरी के चारों ओर एक दृढ़ खोल (ट्यूनिका ऐलब्यूजीनिया) तथा कॉरपस कैवरनोसा के बीच एक शिश्न पट्टी (septum penis) बनाता है। कॉरपोरा कैवरनोसा का खोल कुछ मोटा होता है। 



प्रत्येक कॉरपस के खोल से अनेक पट्टीनुमा उभार या ट्रैबीकुली (trabeculae) निकलकर कॉरपस की पूर्ण मोटाई में इधर-उधर फैले रहते हैं। इनके कारण प्रत्येक कॉरपस अनेक छोटे-छोटे रिक्त स्थानों या कोटरों में बँटकर स्पंजी हो जाता है। शिश्न के शिखर पर कॉरपस स्पंजिओसम कॉरपोरा कैवरनोसा से कुछ आगे तक फैल कर शिश्नमुण्ड बनाता है। सामान्य अवस्था में इन डोरियों के कोटर खाली रहते हैं तथा पेशियाँ सिकुड़ी रहती हैं। अतः शिश्न छोटा एवं शिथिल रहता है। मैथुन उत्तेजना होने पर शिश्न धमनी (penial artery) का बहुत-सा रक्त इन कोटरों में भर जाता है और पेशियाँ शिथिल पड़ जाती हैं। इससे शिश्न फूलकर बड़ा एवं कड़ा हो जाता है। इस प्रकार, शिश्न का खड़ा होना (erection) रुधिर परिसंचरण पर निर्भर करता है।


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