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खरगोश : आवास, स्वभाव एवं बाह्य लक्षण
(RABBIT : HABITAT, HABITS AND EXTERNAL FEATURES)
(1) त्वचा पर बाल (hair),
(2) शिशु-पोषण के लिए दुग्ध का स्रावण करने वाली प्रन्थियाँ (mammary glands),
(3) सिर पर स्थित कर्ण-पल्लव (ear pinnae) तथा
(4) केन्द्रकरहित लाल रुधिराणु (red blood corpuscles)|
इस वर्ग का ज्ञान प्राप्त करने के लिए खरगोश या शशक (rabbit) का अध्ययन करते हैं, क्योंकि यह सभी जगह मिलता है, उपयुक्त माप का होता है, इसे प्रयोगशाला (laboratory) में पाला जा सकता है तथा इसकी रचना एवं कार्यिकी मूलतः वैसी ही होती है जैसी अन्य स्तनियों की।
विभिन्न जातियाँ एवं विवरण
शशकों की संसार में अनेक जातियाँ हैं। अधिकांश जातियाँ सीमित भू-भागों में ही रहती है। ऑरिक्टोलैगस (Oryctolagus) एवं लीपस (Lepus) श्रेणियों की जातियाँ सबसे अधिक पायी जाती हैं। ऑरिक्टोलैगस क्यूनीकुलस (O. cuniculus) नामक जाति यूरोप, अफ्रिका तथा आस्ट्रेलिया में मिलती है। इसी को सामान्य खरगोश (rabbit) कहते हैं। हमारे देश में लीपस श्रेणी की जातियाँ अधिक मिलती हैं। इन्हें खरहा कहते हैं। भूरा-सा उत्तर भारतीय खरहा-लीपस रूफीकॉडिटस (Lepus ruficaudatus) यूरोपीय खरहे-ली० यूरोपियस (L. europaeus) जैसा होता है। भारत में काला-सा मैदानी खरहा-ली. माइग्निकोलिस (L. nigricollis) तथा मटमैला-सा मरुस्थलीय खरहा--ली० डाऐनस (L. dayanus)- भी काफी मिलता है। कैप्रोलैगस हिस्पिडस (Caprolagus hispidus) हिमालय की तराई एवं नेपाल में मिलता है। इसके बाल छोटे एवं कड़े होते हैं।
शशक का वर्गीकरण
(Classification of Rabbit)
जन्तु-जगत; शाखा यूमेटाजोआ; प्रभाग बाइलैटरिया;खण्ड यूसीलोमैटा
प्राकृतिक आवास; स्वभाव एवं जीवन रीतियाँ (Habitat and Habits)
शशक जंगली जन्तु होता है; यह मानव बस्तियों से दूर, खेतों एवं जंगलों में रहता है। खरहा (Lepus) झाड़ियों एवं घास-फूस में छिछला गड्ढा बनाकर रहता है, अर्थात् एकान्तवासी (solitary) होता है। इसके विपरीत, खरगोश (Oryctolagus) झाड़ियों के निकट भूमि में बिल बनाकर परिवार सहित रहता है और यूथचारी (gregarious) होता है, अर्थात् झुण्डों में रहता है; एक ही क्षेत्र में कई परिवार पास-पास बिल बनाकर रहते हैं। बिल गहरी एवं शाखान्वित चक्करदार सुरंग (burrow) के रूप में होता है। इसे शशक-बाड़ा या भूलभुलैया (warren) कहते हैं। यह भूमि पर कई द्वारों से खुलता है। शशक, अन्य स्तनियों की भांति, समतापी अर्थात् गरम रूधिर वाला (warm-blooded, homoiothermal or endothermal) जन्तु होता है। इसके शरीर का स्थायी ताप सभी ऋतुओं में लगभग 96°F (35.5°C) रहता है।
गमन (Locomotion) शशक प्रायः चलता नहीं, वरन् लम्बी-लम्बी छलांग भरकर, लगभग 32 से 40 किलोमीटर प्रति घंटे की दर से, तेज दौड़ता है। यह दौड़ सीधी न होकर टेढ़ी-मेढ़ी होती है। इसमें भूमि पर शशक के पैरों के पूरे निशान नहीं बनते । अतः शत्रु आसानी से इसका पीछा नहीं कर पाते। भागते-भागते यह अचानक रुक सकता है। अतः किसी झाड़ी के पास पहुँच कर यह इस प्रकार अचानक ओझल हो जाता है कि पलभर के लिए ऐसा लगता है जैसे स्वयं झाड़ी ने हिल कर इसे छिपा लिया हो। पोषण (Nutrition) शशक शाकाहारी होता है। अतः इसके लिए खुले मैदानों का वास ही उपयुक्त होता है जहाँ कि खेतों, बाग-बगीचों आदि में इसे पत्तियाँ, फल आदि सुगमतापूर्वक मिल जाते हैं; इन्हें यह कुतर-कुतर कर खाता है। स्पष्ट है कि यह हमारी फसलों को हानि पहुँचाता है। भोजन के लिए यह संध्या के समय (सांध्यचर-crepuscular) या रात्रि के समय (रात्रिचर-nocturnal) निकलता है। इससे हमें कुछ लाभ भी होते हैं; इसके रोमों तथा खाल से टोपियाँ, दस्तानें आदि बनाये जाते हैं और मांसाहारी लोग भोजन के लिए इसका शिकार करते हैं।
शत्रु तथा इनसे बचाव (Enemies and defence)
शशक सरल स्वभाव का निस्सहाय-सा जन्तु होता है। अतः अनेक मांसाहारी जंगली जन्तु (भेड़िये, लोमड़ी, बिजू, बिल्ली, बाज, उल्लू आदि) इसके शत्रु होते हैं। शत्रुओं से बचने के लिए यह कई उपाय करता है-
(i) इसका बिल गहरा, शाखान्वित और भूल-भुलैया की भाँति चक्करदार होता है। धरती पर इसके कई द्वार होते हैं और ये इतने छोटे होते हैं कि शत्रु भीतर घुस नहीं पाते । यदि कोई छोटे कद का शत्रु भीतर घुस जाता है तो शशक अपने बच्चों सहित अन्य द्वारों से भाग निकलते हैं।
(ii) दिन के समय यह बिल में छिपा रहता है। भोजन के लिए सूर्यास्त या इसके बाद निकलता है।
(iii) बिलों से बाहर, एक बस्ती के शशक प्रायः एक साथ झुण्ड बनाकर चरते रहते हैं। इससे शत्रु के आगमन का ज्ञान सामूहिक एवं सरल हो जाता है
(iv) इनकी दृष्टि एवं श्रवण-शक्ति तीव्र होती है। झुण्ड के किसी सदस्य को शत्रु के आने का पता चलते ही यह पिछली टाँगों को भूमि पर बार-बार पटकर, या पूँछ के सफेद अधरतल को बार-बार दिखाकर, या छेदक दन्तों द्वारा ध्वनि उत्पन्न करके सभी सदस्यों को सचेत कर देता है और झुण्ड भागकर शत्रु की दृष्टि से ओझल हो जाता है।
(v) कभी-कभी शशक शत्रु से बचने के लिए जलाशयों में कूद पड़ते हैं और श्वसन के लिए केवल नथुनों को बाहर निकाले हुए घण्टों जल में छिपे रहते हैं। शत्रुओं से बचने की इतनी क्षमता के कारण शशकों में विनाशिता (mortality) की दर कम होती है।
प्रसवन स्वभाव तथा उत्पादन क्षमता (Breeding habit and fertility)
शशक की औसत आयु आठ वर्ष की होती है। छः महीने का शशक वयस्क होकर जनन (reproduction) करने लगता है। मादा जरायुजी (viviparous) होती है। एक वर्ष में यह 4-5 बार और एक बार में आठ तक बच्चे दे सकती है। बच्चे बिल के सबसे गहरे भाग में रखे जाते हैं। खरहे के बच्चों में प्रारम्भ से ही रोम तथा क्रियाशील नेत्र एवं कर्ण होते हैं, परन्तु खरगोश के नवजात बच्चों में नेत्र एवं कान बन्द होते हैं और त्वचा रोमविहीन । कई दिनों तक माता का दूध पीकर ये बड़े होते हैं, नेत्र एवं कान खुल जाते हैं तथा त्वचा पर बाल निकल आते हैं। फिर ये माता के साथ बिल से बाहर निकलने लगते हैं। माता कई सप्ताह तक इन्हें वातावरण का तथा शत्रुओं से बचने के उपायों का ज्ञान कराती है। इस प्रकार, शशकों में उत्पादन दर (fertility) अधिक तथा विनाशिता की दर कम होने के कारण, औसत आयु कम होने पर भी प्रकृति में इनकी संख्या कम नहीं होती।
बाह्य लक्षण
(EXTERNAL FEATURES)
आकृति, माप एवं रंग
शशक का चौपायों जैसा शरीर 30 से 70 सेमी तक लम्बा होता है। ऊपर अर्थात् पृष्ठतल की ओर यह भूरा, काला, लाल या मटमैला-सा तथा अधरतल की ओर हल्का, सफेद-सा होता है। खरहे में कानों के सिरे काले होते हैं। त्वचा पर कोमल, घने एवं महीन रोमों का फर (fur) होता है (चित्र 28.1) । पूँछ के अधरतल पर, इसकी जड़ के निकट, भूरे बालों के बीच में, सफेद बालों का एक विशेष गुच्छा होता है जिसे अपने साथियों को बार-बार दिखाकर शशक शत्रु के आगमन की सूचना प्रसारित करता है।
शरीर के भाग एवं बाह्य रचना
शशक के शरीर में चार प्रमुख भाग या क्षेत्र होते हैं-सिर, ग्रीवा, धड़ एवं पूँछ।
(1) सिर (Head)
यह अपेक्षाकृत बड़ा, अण्डाकार-सा, पीछे गोल-सा, लेकिन आगे प्रोथ, थूथुन या तुण्ड (snout) के रूप में निकला होता है। खरहे में तुण्ड चौड़ी, परन्तु खरगोश में बिल खोदने के लिए, पतली एवं नुकीली-सी होती है। सिर पर निम्नलिखित रचनाएँ होती हैं-
(i) मुखद्वार (Mouth)
सिर के छोर पर, अधरतल की ओर, मोटे एवं कोमल होंठों से घिरा, अनुप्रस्थ चीर-जैसा मुखद्वार होता है। ऊपरी होंठ बीच में नथुनों तक कटा होता है (चित्र 1) । अतः इसे हेयर लिप (hare lip) कहते हैं। इसके कारण ऊपरी जबड़े के सामने वाले छेदक दन्त (incisors) बाहर दिखायी देते हैं। इस प्रकार कटा होंठ पत्तियों आदि को कुतर-कुतर कर खाने की प्रक्रिया को सुगम बनाता है। इसी होंठ पर स्पर्श-ज्ञान (tactile sense) के लिए कई लम्बे एवं कड़े संवेदी रोम होते हैं। इन्हें गलमुच्छे, नासारोम या वाइब्रिस्सी (vibrissae) कहते हैं।
मुख एवं होंठ दिखाने हेतु शरीर के अग्र भाग का अधर दृश्य
(ii) नासिका (Nose)
ऊपरी होंठ की चीर के ठीक ऊपर, थूथन के छोर पर नासिका (nose) के दो तिरछे बाह्य नासाद्वार या नथुने (external nares or nostrils) होते हैं जो नासिका में उपस्थित पृथक नासावेश्मों (nasal chambers) में खुलते हैं।
(iii) नेत्र (Eyes)
नासिका के पीछे, सिर के पावों में, एक-एक बड़ा उभरा नेत्र (eye) होता है। प्रत्येक नेत्र पर ऊपरी एवं निचली, रोमयुक्त एवं चल (movable) पलकें (eyelids) होती हैं । नेत्र के भीतरी कोण पर, निचली पलक से लगी हुई तथा उपास्थि की महीन प्लेट द्वारा सधी, एक रोमविहीन एवं अपारदर्शी झिल्ली-जैसी तीसरी पलक होती है। इसे निमीलक छद (nictitating membrane) कहते हैं। यह निचली पलक के नीचे सिकुड़ी रहती है, परन्तु समय-समय पर, यह पूरे नेत्र पर फैलकर, नेत्र की सफाई करती रहती है। नेत्रों की पार्श्व स्थिति के कारण शशक, गर्दन घुमाये बिना भी, पीछे कुछ दूर तक देखकर शत्रु से सजग रह सकता है।
(iv) कर्णपल्लव (Ear pinnae)
नेत्रों के पीछे, सिर के शिखर पर, दो बड़े-बड़े लचीले एवं गतिशील कर्णपल्लव (ear pinnae) होते हैं। इन्हें शशक इच्छानुसार चारों ओर घुमा सकता है। इनका आगे की ओर मुखान्वित अधरतल चिकना, परन्तु पीछे की ओर मुखान्वित पृष्ठतल रोमयुक्त होता है। प्रत्येक कर्णपल्लव का आधार भाग कीपनुमा होता है। कीप की गुहा को कर्ण शष्कुली या ऑरिकिल (auricle) कहते हैं। यह कर्ण की बाह्य कर्णगुहा (external auditory meatus) से जुड़ी होती है। कर्णपल्लव विभिन्न दिशाओं से ध्वनि तरंगों को एकत्रित करके कर्णों में भेजते हैं तथा इनसे शशक को ध्वनि की दिशा का भी ज्ञान होता है।
(2) ग्रीवा (Neck)–
सिर के ठीक पीछे गर्दन होती है। यह बिल खोदने, बिल में घुसने-निकलने तथा छलाँग मारकर दौड़ने के लिए उपयोजित होने के कारण छोटी होती है। यद्यपि चारों ओर देखने एवं सुनने के लिए छोटी ग्रीवा के कारण, सिर को अधिक घुमाया नहीं जा सकता, परन्तु नेत्रों की पार्श्व स्थिति तथा कर्णपल्लवों की लम्बाई और लचीलेपन से इस कमी की काफी पूर्ति हो जाती है।
(3) धड़ (Trunk)
इसमें दो भाग होते हैं- -(क) आगे उरोस्थि (sternum) एवं पसलियों (ribs) वाला दृढ़ वक्ष भाग (thorax) तथा (ख) पीछे अधिक चौड़ा एवं कोमल उदर भाग (abdomen)। उदर भाग के अधरतल पर 4-5 जोड़ी घुण्डीनुमा चूचुक (nipples) होते हैं। मादा में ये अधिक विकसित और स्तनों (breasts) पर स्थित होते हैं। इनसे बच्चे माँ का दूध पीते हैं। उदर पश्च छोर पर, पूँछ की जड़ के नीचे, मध्य में गुदा (anus) होती है। गुदा से अधरतल की ओर एक छोटा-सा रोमविहीन, चिकना तथा कुछ दवा-सा मूलाधार या वक्षण क्षेत्र (perinaeum or inguinal space) होता है। इसकी त्वचा में स्थित वक्षण अन्थियों (inguinal glands) से एक गंधयुक्त पदार्थ स्रावित होता है जिससे शशक में विशिष्ट गंध आती है।
मादा में मूलाधार के ठीक आगे लम्बा, दरारनुमा मूत्रोजनन छिद्र या योनिछिद्र (vulva) होता है। इसके किनारे मोटे एवं मांसल होते है और अगले कोण पर भगशिश्न या क्लाइटोरिस (clitoris) नाम का एक छोटा-सा मांसल प्रवर्ध होता है। नर में मूलाधार के ठीक आगे रोमविहीन त्वचा की दो अण्डाकार थैलियाँ अर्थात् वृषण कोष (scrotal sacs) होते हैं और इनके बीच में आगे निकला दण्डनुमा शिश्न (penis)। शिश्न पर ढीली त्वचा का सुरक्षात्मक आवरण होता है। इसके छोर पर नर का मूत्रोजनन छिद्र होता है। सूत्रोजनन छिद्रों से सम्बन्धित सहायक या अतिरिक्त लिंगेन्द्रियों (accessory sex organs) द्वारा नर एवं मादा की लैंगिक द्विरूपता (sexual dimorphism) प्रदर्शित होती है।
पाद (Limbs)-
धड़ से जुड़े दो जोड़ी पाद होते हैं। अग्रपाद (forelimbs) छोटे एवं दृढ़ होते हैं। प्रत्येक अग्रपाद में तीन भाग होते हैं-कंधे से जुड़ी बाहु या पंगड (upper arm or brachium), मध्य में प्रबाहु (forearm or antibrachium) तथा सिरे पर हस्त (hand or manus)। हस्त में भी तीन भाग होते हैं-समीपस्थ कलाई (wrist or carpus), बीच में हथेली (palm or metacarpus) तथा फिर इससे जुड़ी पाँच अँगुलियाँ (fingers)। अँगुलियों के सिरों पर हॉर्नी पंजे (horny claws) होते हैं। पश्चपाद (hindlimbs) लम्बे होते हैं। इनमें भी तीन-तीन भाग होते हैं-धड़ से जुड़ी उरु या जाँघ (thigh), बीच में जंघा या पाथा (shank or crus) तथा सिरे पर पैर (foot or pes)। प्रत्येक पैर में भी तीन भाग होते हैं-समीपस्थ टखना (ankle or tarsus), बीच में तलुवा (sole or metatarsus) तथा फिर चार पंजेयुक्त अंगुलियाँ। हथेलियों एवं तलुओं पर भी छोटे-छोटे रोम होते हैं।
लम्बे पश्चपाद पहले "Z" की आकृति में सिकुड़ते हैं और फिर खुल कर फैलते हैं। फैलने में इनके चपटे तलुवे झटके के साथ भूमि पर दबाव डाल कर उछाल भरने के लिए आवश्यक बल उत्पन्न करते हैं । छलाँग मारकर वापस भूमि पर गिरने में छोटी अगली टाँगें शरीर के पूर्ण भार के धक्के को सहती हैं। धीरे-धीरे चलने में शशक की हथेलियाँ और तलुवे पूरे भूमि के सम्पर्क में आते हैं। ऐसे गमन को पादतलचारी गमन (plantigrade locomotion) कहते हैं। शशक में ऐसा गमन बहुत कम होता है। उछल-उछल कर तीव्र गमन में पादों की केवल अंगुलियाँ ही भूमि के सम्पर्क में आती हैं। ऐसे गमन को उपपादतलचारी (subplantigrade) कहते हैं। शशक में ये दोनों प्रकार के गमन हमारी ही तरह होते हैं। अगली टाँगे बिल खोदने का भी काम करती हैं।
(4) पूँछ (Tail) धड़ के पश्च छोर पर, पृष्ठतल की ओर, गुदा के ठीक ऊपर, घने बालों के फर से ढकी, शशक की छोटी-सी पूँछ होती है। यह चारों ओर घुमायी जा सकती है। इसके निचले तल पर, प्रायः भूरे बालों के बीच, सफेद बालों का एक गुच्छा होता है। खतरे के समय शशक बार-बार पूँछ उठाकर और इसी गुच्छे को दिखाकर साथियों को खतरे की सूचना देता है।
खरगोश एवं खरहे के तुलनात्मक लक्षणों की तालिका
शशक में अनुकूलन (Adaptation)
प्रत्येक जन्तु के प्रमुख बाह्य लक्षण इसके आवास एवं स्वभाव के अनुसार उपयोजित अर्थात् अनुकूलित (adapted) होते हैं। तदनुसार शशक में भी खुले, जंगली मैदानों में, बिलों या गड्ढों में, शाकाहारी जीवन के लिए निम्नलिखित अनुकूलन लक्षण होते हैं-
(1) सिर का अगला, तुण्डनुमा भाग बिल खोदने और इसमें घुसने में सहायक होता है।
(2) मिट्टी खोदने एवं बिल बनाने के लिए पाद पंजेदार और अप्रपाद छोटे होते हैं।
(3) छोटे अग्रपाद एवं लम्बे पश्चपाद छलाँगें मारकर तेज भागने के लिए उपयोजित होते हैं।
(4) शरीर का रंग घास-फूस एवं झाड़ियों में छिपने के लिए उपयोजित होता है।
(5) गर्दन छोटी होने से बिल बनाने एवं दौड़ने में सुविधा होती है
(6) बड़े, उभरे हुए तथा पाश्वों में स्थित नेत्रों से, सिर को अधिक घुमाये बिना ही, चारों ओर देखा जा सकता है।
(7) दृष्टि, घ्राण एवं श्रवण की विकसित क्षमताएँ शत्रु से बचने में सहायक होती हैं।
(8) शाकाहारी भोजन होने से खुले, जंगली मैदानों में पोषण की कठिनाई नहीं होती।
(9) प्रसवन दर अधिक तथा बच्चों की देखभाल से विनाशिता की दर कम होती है।
(10) तेज दौड़ने की क्षमता शत्रु से बचने में सहायक होती है।
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