शशक का अध्यावरणी तंत्र
(INTEGUMENTARY SYSTEM)
कशेरुकियों में शरीर पर, तीन प्रमुख स्तरों की बनी, दृढ़ देहभित्ति (body wall) का आवरण होता है।भित्ति के तीन स्तर होते हैं-बाहरी त्वचा या अध्यावरण (skin or inegument), मध्य में मोटा पेशी स्तर तथा भीतरी महीन देहगुहीय आवरण या उदरावरण (coelomic epithelium or peritoneum)। त्वचा और इससे व्युत्पन्न (derived) रचनाएँ मिलकर शरीर का अध्यावरणी तंत्र (integumentary system) बनाती हैं। शरीर की सुरक्षा करने के अतिरिक्त, यह तंत्र कई अन्य महत्त्वपूर्ण कार्य भी करता है। इसीलिए त्वचा को शरीर का सबसे बड़ा, जटिल और महत्त्वपूर्ण अंग मानते हैं। मूलतः स्थलीय वास और वायु में उघड़ी रहने के लिए उपयोजित होने के कारण, सभी कशेरुकियों की त्वचा मूल रचना में समान होती है; बस विभिन्न प्रकार के प्राकृतिक वास के लिए उपयोजित होने के कारण, विभिन्न कशेरुकियों की त्वचा में विभिन्नताएँ होती हैं। तदनुसार, शशक की त्वचा कोमल, परन्तु शुष्क, मोटी एवं रोमयुक्त होती है । अन्तराली (areolar) संयोजी ऊतक के एक अविच्छिन्न स्तर द्वारा यह नीचे स्थित पेशियों से जुड़ी होने के कारण अधिक ढीली-ढाली नहीं होती।
त्वचा की औतिक रचना
(HISTOLOGY OF SKIN)
सभी कशेरुकियों की त्वचा में दो प्रमुख स्तर होते हैं (चित्र 29.1)-
(1) बाहरी अधिचर्म (epidermis)
(2) भीतरी चर्म (dermis)।
(1) अधिचर्म या एपिडर्मिस (Epidermis)
यह भ्रूणीय एक्टोर्डम से बनी स्तृत शल्की एपिथीलियम (startified squamous epithelium) होती है। तदनुसार, इसमें कोशाओं की कई पर्ते होती हैं जो पाँच प्रमुख स्तरों (strata) में विभेदित रहती हैं। भीतर से बाहर की ओर ये स्तर होते हैं-
(क) मैल्पीघी या अंकुरण स्तर,
(क) स्पाइनोसम या शूल स्तर,
(ग) रॅन्युलोसम या कणि स्तर,
(घ) लूसिडम या स्वच्छ स्तर तथा
(ङ) कॉरनियम या किण स्तर।
(क) मैल्पीघी या अंकुरण स्तर
(Statum Malpighi, or germinativum, or cylindricum)
यह चर्म के ठीक बाहर की ओर, स्तम्भी (columnar) कोशाओं की प्रायः इकहरी पर्त के रूप में होता है। इसके और चर्म (dermis) के बीच में एक आधार कला (basement membrane) उपस्थित मानी जाती है, परन्तु शशक में अभी यह सन्देहात्मक है। चर्म की रुधिर-केशिकाओं से पोषक पदार्थ ग्रहण कर-करके अंकुरण स्तर की कोशायें जीवनभर विभाजित होती रहती हैं। इस प्रकार, अंकुरण स्तर से कोशाओं की एक-के-बाद-एक नई पते बन-बनकर शरीर की सतह की ओर खिसकती रहती हैं।
(ख) स्पाइनोसम या शूल स्तर
(Stratum spinosum or "prickle-cell layer")
ज्यों-ज्यों मैल्पीघी स्तर से बनी नयी पर्ते बाहर की ओर खिसकती हैं, इनकी कोशायें बहुतलीय (polyhedral) होती जाती हैं और इनके छोटे-छोटे अंगुलीनुमा प्रवर्ध एक-दूसरी के प्रवर्षों में फँस जाते हैं। मैल्पीघी स्तर के बाहर, ऐसी कोशाओं की 6-7 पर्ते शूल स्तर बनाती हैं। स्पष्ट है कि यह स्तर अधिचर्म को दृढ़ता प्रदान करता है।
(ग) फ्रेन्युलोसम या कणि स्तर
(Stratum granulosum)
शूल स्तर से बाहर की ओर 6-7 पतों की कोशाएँ कुछ चपटी-सी होती हैं। इनमें केन्द्रक कुछ सघन हो जाता है। कोशाद्रव्य में किरैटोहाएलिन (keratohyalin) नाम की एक प्रोटीन के सूक्ष्म कण शनैः-शनैः बढ़ती हुई संख्या में दिखायी देने लगते हैं।
(घ) लूसिडम या स्वच्छ स्तर (Stratum lucidum)- शूल स्तर के बाहर की ओर, काफी चपटी-सी कोशाओं की 2-3 पर्ते होती हैं। इनमें किरैटोहाएलिन के कण पहले कोशाद्रव्य में घुल जाते हैं और फिर ऐलीडिन (eleidin) नाम का एक भिन्न प्रकार का प्रोटिन पदार्थ बना लेते हैं । ऐलीडिन के कारण ये कोशाएँ अर्धपारदर्शक,
चमकीली-सी एवं जलरोधी (water-proof) हो जाती हैं। साथ ही इनका केन्द्रक विघटित होने लगता है । स्पष्ट कि यह स्तर जल एवं अन्य तरल पदार्थों को त्वचा के आर-पार जाने से रोकने वाले एक "अवरोधक स्तर (barrier layer)" का काम करता है।
(ङ) कॉरनियम या किण स्तर
(Stratum corneum)
स्वच्छ स्तर से बाहर की ओर खिसकती हुई पतों की कोशायें और अधिक चपटी होकर शल्काकार (scale-like) होती जाती है। इनका ऐलीडिनयुक्त कोशाद्रव्य सूखकर निजींव हॉर्न (horn) अर्थात् किरैटिन (keratin) में बदल जाता है। ऐसी ही सूखी, कठोर, चपटी एवं केन्द्रक-विहीन मृत कोशाओं की 8-10 पर्ने मोटा कॉरनियम स्तर बनाती है। शरीर की सतह पर से इस स्तर की सबसे बाहरी पर्त समय-समय पर हटती रहती है। इस प्रक्रिया को निमोचन या त्वक-पतन (moulting or ecdysis) कहते हैं। इसमें बाहरी पर्त प्रायः टुकड़े-टुकड़े होकर शरीर से पृथक् होती है, लेकिन कुछ कशेरुकियों (सपों) में यह पूरी केंचुल (slough) के रूप में उतरती है। निर्मोचन से त्वचा की स्वतः सफाई होती रहती है।
उपरोक्त रचना वाली एपिडर्मिस अपेक्षाकृत मोटी, कड़ी एवं रोमविहीन त्वचा में पायी जाती है, जैसे कि हमारी हथेलियों और तलुवों की त्वचा में। रोमयुक्त त्वचा कुछ पतली और कोमल होती है। इसमें एपिडर्मिस के विभिन्न स्तरों में कोशीय पतों की संख्या कम होती है तथा शूल एवं कणि स्तरों का परस्पर विभेदीकरण स्पष्ट नहीं होता। हमारी हथेलियों और तलुवों पर महीन खाँचों (furrows or sulci cutis) एवं उभरी रेखाओं (ridges or cristae cutis) के विभिन्न नमूने (patterns) होते हैं। अँगूठों, अँगुलियों एवं हथेलियों पर उपस्थित इन नमूनों की, छापों के रूप में, निशानियाँ लेकर व्यक्तियों की पहचान की जाती है।
शल्कीभवन या किरैटिनाइजेशन (Cornification or keratinization)
एपिडर्मिस की कोशाओं में हार्न, अर्थात् किरैटिन, के बनने की प्रक्रिया को शल्कीभवन कहते हैं। विविध कशेरुकियों में शल्के, नाखून, सींग, खुर, पर, चोंच, पंजे, रोम आदि रचनाएँ इसी पदार्थ से बनती हैं और ये शरीर का बाह्य कंकाल (exoskeleton) बनाती हैं।
त्वचा का रंग (Colour of integument)
कशेरुकियों में त्वचा का रंग मुख्यतः मिलैनिन (melanin) नामक रंगा पदार्थ (pigment) के कणों की उपस्थिति के कारण होता है। मछलियों, उभचरों एवं सरीसृपों में रंगा के सूक्ष्म कण ( = मिलैनोसोम्स-melanosomes) चर्म (dermis) में स्थित, परन्तु भ्रूणीय एक्टोडर्म से व्युत्पन्न विशेष कोशाओं में होते हैं जिन्हें क्रोमैटोफोर्स (chromatophores) कहते हैं । रंगा का संश्लेषण इन्हीं कोशाओं में होता है। अपने कोशाद्रव्य में रंगा कणों के वितरण को बदलकर ये कोशाएँ त्वचा के रंग को, वातावरण के रंग से मेल खाने के लिए, हल्का-गहरा कर सकती हैं। इस प्रक्रिया को मेटाक्रोसिस (metachrosis) कहते हैं। पक्षियों में रंगा प्रायः परों और पश्चपादों की शल्कों में सीमित होती है। स्तनियों में रंगा कण एपिडर्मिस के अंकुरण स्तर में स्थित कुछ शाखान्वित एक्टोडर्मी कोशाओं में होते हैं जिन्हें मिलैनोसाइट्स (melanocytes) कहते हैं। ये कोशायें भी मिलैनिन का संश्लेषण स्वयं करती हैं, परन्तु इनमें त्वचा के रंग को बदलने की क्षमता नहीं होती। मिलैनोसाइट्स के अतिरिक्त, एपिडर्मिस की अनेक सामान्य एपिथीलियमी कोशाओं में भी मिलैनिन के कण होते हैं। ये कोशाएँ मिलैनिन का संश्लेषण नहीं करतीं, वरन् इसके कणों को मिलैनोसाइट्स से ही प्राप्त करती हैं। इसी प्रकार, डर्मिस की कुछ मीसोडर्मी कोशाओं में भी मिलैनिन कण होते हैं जिन्हें ये मिलैनोसाइट्स का कोशा-भक्षण (phagocytosis) करके प्राप्त करती हैं। इन कोशाओं को इसीलिए मिलैनोफेजेज (melanophages) कहते हैं।
मनुष्यों की विभिन्न प्रजातियों (races) के बीच तथा प्रत्येक प्रजाति में विभिन्न सदस्यों के बीच काफी रंग-भेद होते हैं। कॉरनियम स्तर की कोशाओं तथा अधस्त्वचीय वसा कोशाओं (subcutaneous fat cells) में
उपस्थित कैरोटीन (carotene) रंगा के कारण मानव-त्वचा का मूल रंग पीला या नारंगी होता है । फिर मिल की विभिन्न मात्राएँ त्वचा को हल्का-गहरा भूरा रंग प्रदान करती हैं। फिर डर्मिस की रुधिर-केशिकाओं (biola capillaries) के रुधिर में उपस्थित हीमोग्लोबिन का बैंजनी और ऑक्सीहीमोग्लोबिन का लाल रंग भी त्वचा के रंग को प्रभावित करते हैं। इस प्रकार, मानव-त्वचा का वास्तविक रंग पीले, भूरे, बैंजनी एवं लाल रंगों के विविध है सम्मिश्रणों द्वारा निर्धारित होता है।
मानव की सभी प्रजातियों में मिलैनोसाइट्स की संख्या लगभग समान होती है। अतः रंग-भेद मिलैनिन की मात्रा और इसके रंग पर अधिक निर्भर करता है। इसका संश्लेषण सूर्य-प्रकाश की पराबैजनी किरणों द्वारा प्रभावित एवं पिट्यूटरी अन्थि द्वारा सावित MSH हॉरमोन द्वारा नियंत्रित होता है। इसीलिए, तीव्र सूर्य-प्रकाश वाले अर्थात् भूमध्यरेखीय देशों की मानव प्रजाति-नीग्रो (negroid race) में मिलैनिन अपेक्षाकृत अधिक और गहरे रंग की होती है। अतः त्वचा का रंग गहरा भूरा या काला-सा होता है। घना मिलैनिन तापरोधन (heat insulation) का काम करता अर्थात् तीव्र प्रकाश की अत्यधिक गर्मी को सहने की क्षमता प्रदान करता है। मिलैनोसाइट्स में मिलेनिन का संश्लेषण एक प्रबल आनुवंशिक लक्षण होता है। अतः आनुवंशिकी में इस लक्षण के केवल सुप्त जीन (recessive genes) प्राप्त करने वाले वयक्तियों में मिलैनिन नहीं बनता। इस दशा को रंजकहीनता (albinism) कहते हैं।
(2) चर्म या डर्मिस
(Dermis or Corium)
यह भ्रूणीय मीसोडर्म (mesoderm) से बनती है और एपिडर्मिस से लगभग 2-3 गुणा अधिक मोटी होती है। पूरी मिलन-रेखा पर एपिडर्मिस एवं डर्मिस वलित (folded) होती हैं और एक की कगारें दूसरी में धँसी रहती हैं (चित्र 1) । इसी कारण एपिडर्मिस डर्मिस पर दृढ़तापूर्वक चिपकी रहती है। डर्मिस की कगारों को चर्म अंकुरक (dermal papillae) कहते हैं। इनमें भरी डर्मिस में रुधिर केशिकाओं एवं त्वक् संवेदांगों (cutaneous receptors) की विशेष प्रचुरता होती है। कशेरुकियों में से स्तनियों में ही डर्मिस सबसे अधिक विकसित होती है। यह एक तन्तुमय संयोजी ऊतक (fibrous connective tissue) होती है। इसमें प्रचुर श्वेत कोलैजन एवं कुछ लचीले इलास्टिक तन्तुओं के अतिरिक्त, कुछ संयोजी ऊतक कोशायें, रोमों की जड़ें, अनेक त्वक् प्रन्थियाँ, रुधिर-केशिकायें, अरेखित पेशी तन्तु, त्वक् संवेदांग एवं तंत्रिका तन्तु आदि फैले होते हैं । कुछ तन्तु डर्मिस को दृढ़तापूर्वक त्वचा के नीचे स्थित पेशी स्तर से और कुछ एपिडर्मिस से जोड़े रहते हैं । तन्तुओं की प्रचुरता के कारण डर्मिस लचीली एवं दृढ़ होती है। इसीलिए इससे टैनिंग (tanning) द्वारा चमड़ा (leather) बनाया जाता है। इसमें पहले एपिडर्मिस को गलाकर साफ कर देते हैं। फिर डर्मिस को रसायनों द्वारा अधिक दृढ़ बना देते हैं। इसके विपरीत, टैक्सीडर्मी (taxidermy) में पूरी त्वचा को रसायनों द्वारा परिरक्षित (preserve) किया जाता है। डर्मिस के थोड़े-से भीतरी भाग में तन्तु नहीं होते, लेकिन वसा कोशाओं का जमाव होता है। यह वसा बाहरी धक्कों को सहने (shock absorber) का, आरक्षण खाद्य भण्डारण (food reserve) एवं तापरोधन (heat insulation) का काम करती है। मनुष्य आदि अनेक स्तनियों में इस वसा का अविच्छिन्न वसीय स्तर (panniculus adiposus) होता है। शरीर का सुडौलपन और मनुष्य में पुरुष एवं नारी के सुडौलपन में विभिन्नता इसी स्तर के कारण होती है। व्हेल (whale), सील (seal), हाथी (elephant), आदि कुछ स्तनियों में यह स्तर बहुत मोटा होता है और ब्लबर (blubber) कहलाता है।
रोम या बाल
(Hairs)
त्वचा में एपिडर्मिस से व्युत्पन्न, वास्तविक रोम या बाल केवल स्तनियों में पाये जाते हैं। हथेलियों, तलवों, शिश्नमुण्ड, चूचुकों, भगशिश्न, कर्णपल्लवों की भीतरी सतह, भगओष्ठों आदि कुछ स्थानों के अतिरिक्त, प्रायो पूर्ण शरीर की त्वचा में बाल होते हैं। शरीर के विभिन्न भागों, जाति के विभिन्न सदस्यों तथा स्तनियों की विभिन्न जातियों के बीच बालों की संख्या, लम्बाई, मोटाई एवं रंग में काफी विभिन्नताएँ होती हैं। प्रत्येक बाल या रोम को दो भागों में बाँट सकते हैं-
(1) रोम की जड़ तथा
(2) रोमकाण्ड ।
(1) रोम की जड़ या रोम-मूल
(Hair root)
यह बाल का त्वचा में धैसा हुआ भाग होता है जो एपिडर्मिस के अन्तर्वलन (invagination) से बनी एक तिरछी, नालवत् रोम पुटिका (hair follicle) में बन्द रहता है। पुटिका त्वचा की बाहरी सतह पर एक कीपनुमा गड्ढे से प्रारम्भ होकर डर्मिस में काफी गहराई तक फैली होती है। इसके चारों ओर की डर्मिस अपेक्षाकृत अधिक तन्तुमय होकर पुटिका का बाहरी खोल बनाती है। डर्मिस में स्थित रोम की जड़ का आधार छोर एक रोम कन्द (hair bulb) के रूप में फूला हुआ होता है। कन्द के चारों ओर रोम पुटिका का छोर भाग भी इसी प्रकार फूला होता है और सिरे पर यह फूला भाग रोम की जड़ के छोर की ओर भीतर धैस कर एक प्यालीनुमा गड्ढा बनाये रहता है। गड्ढे में डर्मिस भरी रहती है जिसे रोम अंकुरक (dermal hair papilla) कहते हैं। इस डर्मिस में तथा खोल की डर्मिस में रुधिर केशिकाओं एवं महीन तंत्रिकाओं के संवेदी छोरों की बहुत प्रचुरता होती है। प्रत्येक पुटिका में, एपिडर्मिस के निकट, एक या अधिक तैल प्रन्थियाँ (sebaceous glands) खुलती हैं। रोम पुटिका की दीवार स्वयं दो स्तरों में विभेदित होती है जिन्हें बाहरी और भीतरी मूल खोल (outer and iraner root sheaths) कहते हैं। बाहरी मूल खोल एपिडर्मिस के शूल स्तर (stratum spinosum) के समान होता है। भीतरी मूल खोल स्वयं तीन स्तरों में विभेदित होता है-
(i) रोम मूल के चारों ओर, मृत, शल्की कोशाओं की इकहरी पर्त के रूप में, महीन क्यूटिकल (cuticle);
(ii) क्यूटिकिल के बाहर की ओर, हॉर्नी एवं चपटी, परन्तु सजीव एवं केन्द्रकयुक्त कोशाओं की एक या दो पतों का बना हक्सले का स्तर (Huxley's layer);
(iii) इस स्तर के बाहर घनाकार, केन्द्रकयुक्त कोशाओं की इकहरी पर्त के रूप में हेन्ले का स्तर (Henle's layer)। रोम कन्द रोम अंकुरक पर स्थित बहुतलीय कोशाओं के एक सघन पिण्ड के रूप में होता है। ये कोशायें एपिडर्मिस के मैल्पीधी स्तर से प्युत्पन्न होती हैं। इनके इस पिण्ड को "अंकुरण पिण्ड (germinal matrix)" कहते हैं, क्योंकि रोम अंकुरक की रुधिर केशिकाओं के रुधिर से पोषक पदार्थ ग्रहण कर-करके ये जीवनभर, माइटोसिस (mitosis) द्वारा, विभाजित होती रहती हैं। इन्हीं के विभाजनों के फलस्वरूप बनी संतति कोशाओं से ठोस एवं बेलनाकार रोम का निर्माण और इसकी आजीवन वृद्धि होती है।
(2) रोमकाण्ड
(Hair shaft)
यह बाल का रोम पुटिका से बाहर त्वचा पर निकला हुआ भाग होता है। अंकुरण पिण्ड से बन-बनकर संतति कोशायें ज्यों-ज्यों बाहर की ओर खिसकती हैं, परिधीय भाग में तो ये लम्बी और सँकरी, तर्कुरूपी होती जाती हैं, परन्तु मध्यभाग में बहुतलीय ही बनी रहती हैं। साथ ही, रोम मूल की लगभग आधी लम्बाई तक पहुँचते-पहुँचते सारी कोशाओं में पूर्ण शल्कीभवन (keratinization) हो जाता है। अतः रोम मूल का बाहरी आधा भाग तथा पूर्ण रोमकाण्ड बाल के किरैटिनयुक्त निर्जीव भाग होते हैं। इनमें परस्पर सटी बहुभुजीय कोशाओं की एक मध्य अक्ष (medullary axis) होती है
(चित्र 2), इसके चारों ओर लम्बी एवं चपटी कोशाओं का वल्कलीय भाग अर्थात् बहुस्तरीय कॉर्टेक्स (cortex) होता है और फिर इस पर महीन क्यूटिकिल का आवरण। कॉर्टेक्स की लम्बी-लम्बी कोशायें परस्पर जुड़-जुड़ कर लम्बे तन्तु बना लेती हैं। इनमें मिलैनिन रंगा होती जिसके कारण बाल काले या भूरे होते हैं। मेड्यूला की कोशाओं में रंगा नहीं होती, परन्तु इनमें भीतर तथा इनके बीच-बीच में हवा भरी होती है। इंगा कणिकाओं की कमी होने या इनके समाप्त हो जाने पर कॉर्टेक्स की कोशाओं में भी हवा भर जाती है। क्योंकि यह हवा प्रकाश-किरणों को चारों ओर फैलाती है, बाल सफेद दिखायी देने लगते हैं।
बालों के कार्य
(1) स्तनियों में त्वचा के रोम आवरण को लोमचर्म (pelage) कहते हैं । इससे शरीर की सुरक्षा होती है। प्रायः इसके रंग शत्रुओं से बचने और छिप कर शिकार करने में सहायक होते हैं।
(2) लोमचर्म घना हो तो यह इसके फंसी हुई हवा एक तापरोधी कम्बल (temperature-proof blanket) का काम करती है। यह न तो शरीर की गरमी को बाहर निकलने देता है और न वातावरण के ताप का शरीर पर अधिक प्रभाव होने देता है। इसीलिए, भालू (bear) तथा ठण्डे प्रदेशों के अन्य विविध स्तनियों में लोमचर्म बड़े-बड़े, घने बालों का बना होता है।
(3) रोंगटे खड़े होना-शरीर पर बाल सामान्यतः एक ओर झुके होते हैं। जिस ओर ये झुके होते हैं, उसी ओर डर्मिस में प्रत्येक रोम पुटिका से जुड़ी एक अनैच्छिक उत्थापक या ऐरेक्टर पाइलोरम पेशी (arrectores pilorum; pl., arrector pilln) होती है। पेशी से अनेक तंत्रिका तन्तु लिपटे रहते हैं। अधिक ठण्ड, गरमी या भय आदि संवेदनाओं से उत्तेजित होने पर इन पेशियों में संकुचन से बाल खड़े हो जाते हैं (रोमांच-gooseflesh)। यह प्रतिक्रिया ऐड्रीनलीन (adrenaline) हॉरमोन तथा अनुकम्पी (sympathetic) तंत्रिका तंत्र द्वारा प्रेरित होती है। इससे लोमचर्म का तापरोधी एवं सुरक्षात्मक प्रभाव बढ़ जाता है, शरीर अधिक जलरोधी एवं संवेदनशील हो जाता है तथा शत्रु को शरीर डरावना लगने लगता है।
(4) शशक तथा अनेक अन्य स्तनियों में ऊपरी होंठ पर विशेष प्रकार के लम्बे एवं कड़े संवेदी नासारोम या गलमुच्छे (vibrissae or whiskers) होते हैं। ये स्पर्श-उद्दीपन ग्रहण करते हैं।
(5) आँखों की पलकों की बरौनियों (eyelashes) के रूप में बाल आँखों की सुरक्षा करते हैं।
(6) नाक के बाल धूल आदि के कणों को नासावेश्मों एवं श्वासनली में जाने से रोकते हैं।
(7) अनेक पशुओं की लम्बी पूँछ के सिरे पर लम्बे बालों का एक गुच्छा होता है। इससे शरीर पर बैठने वाली मक्खियों आदि को भगाने का काम लिया जाता है।
(8) सूअरों की पीठ के कड़े शूक (bristles), सेही (procupine) के बड़े-बड़े, नुकीले काँट, शल्की चींटीखोर (scaly ant-eater) की शल्के, गेंडे के सींग आदि बालों से व्यूत्पन्न रचनाएँ होती हैं। ये स्पर्श संवेदनाओं को ग्रहण करने तथा सुरक्षा एवं आक्रमण करने में सहायक होती है।
त्वक् ग्रन्थियाँ
(Cutaneous glands)
शशक तथा अन्य स्तनियों की डर्मिस में, एपिडर्मिस के अन्तवलन (invagination) से बनी, कई विशेष प्रकार की अनेक बहिःस्रावी (exocrine) प्रन्थियाँ होती हैं। ये सब नलिकायुक्त (duct glands) होती हैं और प्रायः शरीर की सतह पर खुलती हैं। ये निम्न प्रकार की होती है-
(1) तैल या सिबेसियस प्रन्थियाँ (Sebaceous glands)
ये प्रायः रोम पुटिकाओं से जुड़ी और इन्हीं की दीवार के मैल्पीपी स्तर के वलन (folding) से बनी अपेक्षाकृत बड़ी-बड़ी, सामान्य या शाखान्वित कोष्ठकीय (simple or branched alveolar) प्रन्थियाँ होती हैं। इनमें सीबम (sebum) नाम का तैल-सदृश पदार्थ बनता है जो एक प्राकृतिक क्रीम (cream) के रूप में बालों और त्वचा को चिकना, जलरोधी, तापरोधी (water-proof and heat-proof) बनाये रखता है और जीवाणुओं आदि के संक्रमण से त्वचा को बचाता है। ये स्वभाव में होलोक्काइन (holocrine) प्रन्थियाँ होती है, अर्थात् सीबम से भर जाने पर अन्धि कोशायें स्वयं मृत होकर सावित पदार्थ में चली जाती है और नई कोशायें इनका स्थान ले लेती हैं। ये अन्थियाँ प्रायः शरीर के सभी भागों की त्वचा में होती हैं, परन्तु बाल वाले भागों में ये रोम पुटिकाओं में तथा बालरहित भागों (होंठों, नधुनों, शिश्नमुण्ड स्तन-पुण्डियों, भगओष्ठों, भगशिश्न, कर्णपल्लवों की भीतरी सतह आदि) में सीधी शरीर सतह पर खुलती है। मनुष्य में ये कपाल, चेहरे, नथुनों, - कर्णपल्लवों, मुख, गुदा आदि की त्वचा में अपेक्षाकृत अधिक, परन्तु हथेलियों एवं तलवों की त्वचा में अनुपस्थित होती है। सूर्य के प्रकाश में सम्भवतः इन अन्धियों में विटामिन 'डी' का संश्लेषण भी होता है।
(2) पसीना या स्वेद प्रन्थियाँ (Sweat or sudoriferous glands)
ये डर्मिस की गहराई में स्थित सामान्य नालाकार (simple tubular) या सामान्य शाखान्वित नालाकार (simple branched tubular) प्रन्थियाँ होती हैं। प्रत्येक स्वेद प्रन्धि एक लम्बी एवं संकरी नाल-स्वरूप रचना होती है जिसका कि त्वचा की गहराई में स्थित समीपस्थ भाग कुण्डलित एवं स्वावी होता है तथा शेष भाग सीधा । सीधा भाग अन्धि की वाहिका का काम करता है और एक महीन छिद्र द्वारा शरीर की सतह पर खुलता है। अन्धिल भाग में नाल की दीवार में भीतर की ओर नावी घनाकार एपिथोलियम, मध्य में महीन आधारकला तथा बाहर पेशी-एपिथीलियम (myocpithelial) कोशाओं का स्तर होता है। बाहरी स्तर सावित पदार्थ के विसर्जन (discharge) में सहायता करता है। वाहिका की दीवार में भीतरी एपिथीलियम एवं आधारकला होती है, परन्तु पेशी-एपिथीलियमी स्तर नहीं होता।
इन प्रन्थियों के स्त्राव को स्वेद (sweat) कहते हैं। स्वेद का प्रायः 95% भाग जल होता है। शेष 5% भाग में क्लोराइड एवं फॉस्फेट लवण, अमोनिया, यूरिक अम्ल तथा यूरिया आदि होते हैं। इस प्रकार, स्वेद तनु मूत्र (diluted urine) के समान होता है। गर्मी में वातावरणीय ताप के बढ़ने या ज्वर, श्रम, व्यायाम आदि अन्य किसी भी कारण से शरीर ताप के बढ़ते ही, अनुकम्पी (sympathetic) तंत्रिका तंत्र और हॉरमोनी नियंत्रण में, बहुत-से स्वेद का स्रावण होने लगता है। इस स्वेद के भाप बनकर उड़ने अर्थात् वाष्पीकरण (evaporation) से शरीर ठण्डा होता है। अतः बढ़ा हुआ ताप सामान्य हो जाता है। हम लोग प्रतिदिन आधा लीटर स्वेद का सामान्य दशाओं में और दो से तीन लीटर स्वेद का ज्वर, व्यायाम आदि असामान्य दशाओं में स्रावण करते हैं। इस प्रकार, स्वेद का नावण उत्सर्जन (excretion) एवं ताप-नियंत्रण (temperature regulation) में सहायक होता है। जलीय एवं शल्कों से ढके स्तनियों के अतिरिक्त, अन्य सभी स्तनियों में स्वेद प्रन्थियाँ होती है। इनकी दो किस्में पायी जाती हैं-एकाइन (eccrine or merocrine) तथा ऐपोक्राइन (apocrine)! एकाइन प्रन्थियों में कोशाओं से स्वेद का विसर्जन सामान्य विसरण (diffusion) द्वारा होता है। ऐसी प्रन्थियाँ सदा सामान्य नालाकार होती हैं। प्राइमेट स्तनियों, विशेष रूप से मनुष्य, में ये सबसे अधिक विकसित होती हैं । कुछ भागों (होंठों के किनारों, कर्णपटह, भगशिश्न, शिश्नमुण्ड आदि) के अतिरिक्त, हमारे शरीर के शेष सभी भागों की त्वचा में ये ग्रन्थियाँ होती हैं। तलवों और हथेलियों की त्वचा में ये सबसे अधिक होती हैं। हमारे शरीर में इनकी कुल संख्या लगभग 25 लाख होती है। ऐपोक्राइन स्वेद ग्रन्थियाँ लगभग सभी स्तनियों में होती हैं। ये भी अधिकांश सामान्य नालाकार, परन्तु कुछ शाखान्वित नालाकार होती है। इनके द्वारा स्लावित स्वेद कुछ गाढ़ा होता है, क्योंकि इसमें अन्य
*पदार्थों के अतिरिक्त, कुछ वसा और रंगा पदार्थ भी होते हैं। यह नावी कोशाओं के शिखर भाग में एकत्रित होता रहता है। फिर प्रत्येक कोशा का यह शिखर भाग शेष भाग से टूट कर साव में जाता रहता है और शेष भाग पुनरुद्भवन (regeneration) द्वारा पूर्ण होता रहता है। हमारे शरीर में ऐसी प्रन्थियाँ काँखों (arm pits), पलकों, चूचुकों एवं गुदा के चारों ओर तथा बाह्य जननांगों की त्वचा में होती हैं। घोड़े, भालू, कुत्ते आदि में ये पूरी हिरन में पूंछ की जड़ के चारों ओर की त्वचा में; चूहों, बिल्ली आदि में केवल पंजों (paws) की त्वचा में तथा भेड़, बकरी आदि पशुओं में केवल तुण्ड की त्वचा में होती हैं। इनसे स्त्रावित स्वेद सम्भवतः बालों के रंगों, विशिष्ट गन्धों और शरीर-ताप को बढ़ने से रोकने के लिए जिम्मेदार होता है, न कि बढ़े ताप को कम करने के लिए।
जिन स्तनियों में एक्राइन स्वेद ग्रन्थियाँ नहीं होतीं, उनमें ताप-नियंत्रण की अन्य विशिष्ट विधियाँ होती हैं। उदाहरणार्थ, कुत्तों के हाँफने (panting) में बहुत-सी लार नावित होती है और जीभ पर से इसके जल के वाष्पीकरण से ताप-नियंत्रण होता है।
(3) स्तन ग्रन्थियाँ (Mammary glands)-
अधरतलीय त्वचा में इन ग्रन्थियों की उपस्थिति भी स्तनियों का एक विशिष्ट लक्षण होता है। ये डर्मिस की गहराई में स्थित होती हैं और केवल मादाओं में स्तन्यकाल (suckling period) में क्रियाशील होती हैं। विभिन्न प्रकार के स्तनियों में इनकी संख्या और वितरण में महत्त्वपूर्ण विभिन्नताएँ होती हैं।
निम्न कोटि के स्तनियों (प्रोटोथीरिया-prototheria) में सामान्य दुग्ध ग्रन्थियों के दो समूह उदर की त्वचा में होते हैं। ये त्वचा पर स्थित दो गड्ढों में गाढे दुग्ध का नावण करती है जिसे शिशु जीभ से चाटते हैं। अन्य स्तनियों में दुग्ध प्रन्थियाँ रचना में जटिल होती है । बन्दरों, कपियों एवं मानव में इनको एक जोड़ी वक्ष भाग में; घोड़ों, गधों, भेड़ों आदि में इनकी एक जोड़ी पश्चपादों के बीच; हाथियों में एक जोड़ी अप्रपादों के बीच; पशुओं, चूहों, गिलहरियों आदि में पश्चपादों के बीच दो जोड़ियाँ तथा बिल्लियों, कुत्तों, सूअरों आदि में इनकी कई जोड़ियाँ पूर्ण उदर पर दो अधर-पावीय भूखलाओं में स्थित होती हैं ।
शशकों में पूर्ण उदर पर इनकी प्रायः चार जोड़ियां होती है। स्तनियों की दुग्ध-प्रन्थियों का गहराई में स्थित साथी भाग अनेक छोटे-छोटे पिण्डकों (lobules) का बना होता है। दुग्ध-अन्थियाँ विशिष्टीकृत ऐपोक्काइन स्वेद प्रन्थियाँ होती हैं। प्रोटोथीरिया के अतिरिक्त, अन्य सभी प्रत्येक पिण्डक स्वयं कई कूपिकाओं (alveoli) का बना होता है। प्रत्येक पिण्डक की कृपिकाओं की महीन वाहिकाएँ मिल कर पिण्डक की सहवाहिनी तथा पिण्डकों की वाहिकाएँ मिलकर एक या कई सह दुग्ध नलिकाएँ (common mammary ducts) बनाती हैं। प्रत्येक प्रन्धि की ये नलिकाएँ पृथक् छिद्रों द्वारा एक चूचुक (nipple) के शिखर पर सीधी बाहर खुलती हैं। गाय, भैस, घोड़ी, गधी आदि में ये नलिकाएँ त्वचा के नीचे स्थित एक वेश्म में खुलती है, जिसे कुण्डिका (cistern) कहते हैं। यह वेश्म फिर एक मोटी द्वितीयक नली (secondary duct) द्वारा एक लम्बे थन (IEat) पर खुलता है। सक्रिय दुग्ध-प्रन्थियाँ संयुक्त नालाकार- कृपिकीय (compound tubulo-alveolar) होती है, क्योंकि इनमें कूपिकाएँ बड़ी एवं लम्बी-सी हो जाती है।
अतः निष्क्रिय अवस्था में ये केवल संयुक्त कूपिकीय (compound alveolar) दिखायी देती हैं। स्वभाव में ऐपोक्राइन होने के कारण दुग्ध-प्रन्थियों में दुग्ध पहले प्रत्येक मावी कोशा के छोर भाग में भरता है। फिर कोशा का यह भाग शेष भाग से पृथक् होकर स्त्राव में चला जाता। है। ये प्रन्थियाँ पीले-से गाढ़े दूध (milk) का स्नावण करती है जिससे नवजात शिशु का पोषण होता है। लगभग सभी स्तनियों के दुग्ध में कैसीन प्रोटीन (casein), .लैक्टोग्लोबुलिन (lactoglobulin). लैक्टोऐल्बुमिन (lactoallbumin), लैक्टोज शर्करा (lactose) एवं कुछ वसा होती है। हाँ, इन पदार्थों की आनुपातिक मात्राएँ विभिन्न प्रकार के स्तनियों में विभिन्न होती हैं। उदाहरणार्थ मानव मादाओं के दुग्ध में लैक्टोज शर्करा की मात्रा सबसे अधिक, परन्तु प्रोटीन्स की मात्रा कम होती है। दुग्ध-गन्थियाँ नर में अवशेषी तथा मादा में सामान्यतः निष्क्रिय रहती हैं। केवल शिशु-जन्म के समय से ये मादा में तब तक सक्रिय रहती है जब तक शिशु दुग्धपान करते रहते हैं। अण्डाशयों (ovaries), ऐड्रीनल प्रन्थियों (adrenal glands) एवं पिट्यूटरी ग्रन्थि (pituitary gland) द्वारा स्नावित हॉरमोन्स स्तन प्रन्थियों की वृद्धि एवं सक्रियता का नियमन करते हैं।
(4) मूलाधार या वक्षण ग्रन्थियाँ (Perinacal or Inguinal glands)
ये गुदा और जननांगों के बीच, मूलाधार की डर्मिस में पायी जाती हैं। उत्पत्ति, रचना और स्वभाव में ये स्तन ग्रन्थियों के समान होती है। इनके द्वारा नावित दूध-सदृश पदार्थ बहुत गन्धयुक्त होता है। अतः इन्हें गन्थ प्रन्थियाँ (scent glands) भी कहते हैं। इनसे सावित पदार्थ के कारण ही शशकों में एक विशेष गधा गन्ध होती है।
(5) माइबोमियन या टार्सल प्रश्चियाँ (Meibomian or tarsal glands)
ये नेत्रों की पलकों के किनारे-किनारे की त्वचा की डर्मिस में होती हैं और इन्हीं किनारों पर खुलती हैं। ये सिबेसियस प्रन्थियों के रूपान्तरण से बनती हैं। इनके द्वारा स्रावित तैल-सदृश पदार्थ पलकों के स्वतंत्र किनारों पर फैला रहता है और अश्रु बिन्दुओं पर एक महीन आवरण बनाता है ताकि अश्रु सीधे गालों पर न टपके, बल्कि नेत्रों के भीतरी कोणों की ओर बढ़कर नेत्रगोलकों के ऊपर इकसार फैले रहें।
(6) जाइस की प्रन्थियाँ (Glands of Zeis)
ये भी पलकों में स्थित रूपान्तरित सिबेसियस ग्रन्थियाँ होती हैं जो बरौनियों (eyelashes) की पुटिकाओं में खुलती हैं। इनके द्वारा स्रावित पदार्थ बरौनियों को चिकना । बनाये रखता है।
(7) सेरूमिनस प्रन्थियाँ (Ceruminous glands)
ये बाह्यकर्ण नाल की त्वचा में रूपान्तरित ऐपोक्राइन स्वेद ग्रन्थियाँ होती हैं जो सिबेसियस प्रन्धियों के साथ-साथ रोम पुटिकाओं में खुलती हैं। इनसे स्त्रावित 'पदार्थ, सिबेसियस ग्रन्थियों के पदार्थ से मिलकर, मोम- महीन पर्त कर्ण-नलिका की दीवार पर जमती रहती है। कानों में घुसने वाले धूल आदि के कण या कीट आदि मोम -सदृश सेसमेन (cerumen) पदार्थ बनाता है जिसकी से चिपक कर रह जाते हैं जिससे कर्णपटह झिल्ली (tympanum) को कोई हानि नहीं होती। डर्मिस में फैले तंत्रिका तन्तु अनेक संवेदी केन्द्र (sensory centres) स्थापित करते हैं। ये केन्द्र सूक्ष्म त्वक् संवेदांगों (cutaneous receptors) का काम करते हैं । विभिन्न त्वक् यन्थियों, ऐरेक्टर पिलाई पेशियों एवं रोम पुटिकाओं के पास इन तन्तुओं के घने जाल होते हैं। डर्मिस की कगारों में भी इनका जाल तथा इनके स्वतंत्र सिरे होते हैं जो स्पर्शेन्द्रियों (tactile organs) का काम करते हैं। ऐसे ही कुछ अन्य संवेदी केन्द्र प्रकाश, पीड़ा, दबाव, ताप आदि के उद्दीपनों को ग्रहण करते हैं। होंठों, चूचुकों, शिश्न, अंगुलियों के छोरों आदि पर ऐसी स्पर्शेन्द्रियाँ बहुत होती हैं।
त्वचा के कार्य
(FUNCTIONS OF SKIN)
- शरीर और बाहरी वातावरण के बीच शरीर पर एक विशिष्टीकृत रचनात्मक एवं क्रियात्मक आवरण के रूप में त्वचा का जन्तु के जीवन में बहुत महत्त्व होता है। इसका कई कार्यों के लिए उपयोजित होना अत्यावश्यक होता है। इसीलिए इसे "हरफनमौला (jack of all trades)" कहा जाता है। इसके निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण । होते हैं-
(1) शरीर की सुरक्षा (Protection of body)—
त्वचा का प्रमुख कार्य शरीर पर एक रक्षात्मक आवरण के रूप में होता है-यह (i) कोमल आन्तरांगों को बाहरी चोट, रगड़, धक्के, दबाव आदि से बचाती है।
(ii) इसी से व्युत्पन्न (derived) पंजे (claws), नाखून, सींग आदि आत्मरक्षा एवं बिल खोदने आदि में सहायक होते हैं।
(iii) हानिकारक कृमियों, जीवाणुओं, फफूंदियों (fungi) के बीजाणुओं (spores) आदि को त्वचा शरीर के भीतर घुसने से रोकती है। (iv) तीव्र प्रकाश-किरणों तथा हानिकारक रसायनों से भी आंतरांगों की रक्षा करती है। (v) आवश्यकता से अधिक जल-हानि को रोकती है।
(2) शरीर ताप का नियंत्रण (Regulation of body temperature)
अकशेरुकी तथा निम्न कोटि के कशेरुकी जन्तु (मछलियाँ, उभयचर एवं सरीसृप) शीत-रुधिर या अनियततापी या असमतापी (cold-blooded or poikilothermal) होते हैं, अर्थात् इनमें शरीर का ताप वातावरणीय ताप के समान रहता है। इसीलिए, अधिक ठण्ड या गर्मी से बचने के लिए, इन्हें सुप्तावस्था का सहारा लेना पड़ता है। इसके विपरीत, (पक्षी एवं स्तनी गरम-रुधिर या नियततापी या समतापी (warm-blooded or homoiothermal) होते हैं, अर्थात् इनमें शरीर का ताप वातावरणीय ताप से प्रभावित न होकर सदैव स्थायी, लगभग 100°F के आस-पास रहता है। उदाहरणार्थ, शशक में शरीर-ताप सदैव 96°F और मनुष्य में 98.6°F (37° C) रहता है। उपापचयी (metabolic) प्रतिक्रियाओं, उच्छ्वसन, मल-मूत्र त्याग, परिश्रम आदि के कारण शरीर में गरमी घटती-बढ़ती रहती है, लेकिन पक्षियों और स्तनियों में ताप-नियंत्रण क्रियाविधि (thermoregulation mechanism) द्वारा ताप की इस घटा-बढ़ी का नियमन करके ताप को एक-सा बनाये रखा जाता है। यह नियमन मस्तिष्क के हाईपोथैलेमस में उपस्थित और ताप से प्रभावित होने वाले एक तापस्थायी केन्द्र (thermostatic centre) के नियंत्रण में होता है। स्तनियों में शरीर द्वारा खोयी गयी गरमी का लगभग 90% भाग त्वचा में होकर निकलता है। अतः त्वचा, मोटर गाड़ी के रेडिएटर (radiator) की भाँति, ताप-नियंत्रण में बहुत महत्त्वपूर्ण होती है। यह तीन प्रकार से ताप-नियंत्रण करती है-
1) शरीर ताप बढ़ने पर, स्वायत्त तंत्रिका तंत्र के नियंत्रण में, त्वचा की धमनिकाएँ फैलकर अधिकाधिक रुधिर को शरीर की सतह के पास ठण्डा होने के लिए लाती है। साथ ही, स्वेद प्रन्थियों से अधिकाधिक पसीना निकलता है और भाप बनकर उड़ता है। इससे त्ववा और इसके साथ-साथ इसकी रुधिरवाहिनियों का रक्त ठण्डा होता है।
(i) ठण्ड में शरीर-ताप को कम होने से रोकने में त्वचा के वसा स्तर, बालों आदि का योगदान होता है।
साथ ही इसके लिए त्वचा को धमनिकाएँ सिकुड़ कर इसमें रुधिर की सप्लाई को काफी कम कर देती हैं। Jai) कुछ निम्न कोटि के स्तनी (प्रोटोधीरिया, छादरे आदि) अधिक ठण्ड से बचने के लिए सुप्तावस्था का सहारा लेते हैं। इस समय इनके शरीर का ताप सामान्य से काफी कम हो जाता है, लेकिन फिर भी यह वातावरण के ताप से दो-चार डिग्री अधिक ही रहता है।
(3) गमन में सहयोग (Co-operation in locomotion)
लचीली होने के कारण त्वचा गमन के समय गमनांगों को गति की स्वतंत्रता देती है, परन्तु साथ ही आंतरांगों के विन्यास और शरीर की आकृति को बिगड़ने से रोकती है।
(4) उपयोगी पदार्थों का स्त्रावण-
विभिन्न त्वक्-प्रन्थियाँ विविध प्रकार के उपयोगी पदार्थो-दूध, तैल, कर्ण-मोम आदि का स्मावण करती है। तैल त्वचा को जलरोधक एवं रोगाणुरोधक (antiseptic) बनाता है।
(5) अवशोषण (Absorption)
सामान्यतः स्तनियों को त्वचा जल, हानिकारक पादों आदि के लिए अपारगम्य (impermeable) होती है, परन्तु यह तैल, मरहम आदि का अवशोषण कर लेती है। इससे भीवरी ऊतकों को लाभ होता है। इसी प्रकार, प्रकाश किरणों का अवशोषण करके त्वचा भीतरी अंगों को लाभ पहुँचाती है।
(6) विटामिन 'डी' का उत्पादन-
त्वचा की सिबेसियस ग्रन्थियों द्वारा स्त्रावित सीबम में कुछ ऐसे पदार्थ (ईस्टर्स-esters, जैसे कि अर्गोस्टरॉल-ergosterol) होते हैं जो सूर्य-प्रकाश की पराबैजनी किरणों के प्रभाव से विटामिन 'डी' में बदल कर त्वचा से प्रसरण द्वारा रक्त में पहुंच जाते हैं।
(7) कंकाल-निर्माण में सहायता-
त्वचा की डर्मिस, विशेषतौर से सिर की त्वचा के संयोजी ऊतक से कलाजात अस्थियाँ (membrane hones) बनती हैं। करोटि की दृढ़ता मुख्यतः इन्हीं के कारण होती है।
(8) खाद्य-संग्रह-
डर्मिस की वसा खाद्य-भण्डार का काम करती है। ।
(9) उत्सर्जन एवं होमिओस्टैसिस (Homcastasis)
सहायता-एपिडर्मिस के कॉर्नियम स्तर के बारम्बार के त्वक्-पतन के फलस्वरूप, किरैटिन के रूप में, कुछ उत्सों प्रोटीन्स का शरीर से निष्कासन होता रहता है। इसके अतिरक्त, कुछ उत्सर्जी पदार्थों (यूरिया, अमोनिया, लवण आदि) का उत्सर्जन तनु मूत्र (diluted urine) के समान पसीने के माध्यम से होता है। ठण्ड में औसतन आधा लीटर और गर्मी में या परिश्रम के समय दो-तीन लीटर पसीना प्रतिदिन हम लोगों के से निकलता है। इस प्रकार, त्वचा, गुदों की भाँति, शरीर के भीतरी वातावरण के उपयुक्त रासायनिक एवं भौतिक संघटन को अखण्ड बनाये रखने, अर्थात् होमिओस्टैसिस, में महत्त्वपूर्ण सहयोग देती है।
(10) उद्दीपन-ग्रहण (Reception of stimuli)
त्वचा की डर्मिस में स्थित तंत्रिका तन्तुओं के छोर स्पर्श, ताप, पीड़ा, रगड़ आदि के उद्दीपनों को ग्रहण करने अर्थात् संवेदी अंगों का काम करते हैं। बाल. विशेषतौर से मुख के ऊपरी होंठ पर स्थित गलमुच्छे (whiskers), स्पशांगों (tactile organs) का काम करते हैं।
(11) लैंगिक आकर्षण में सहयोग-
बालों के रंगों का विन्यास तथा सम्भवतः मूलाधार की त्वचा में उपस्थित पेरीनियल ग्रन्थियों द्वारा स्रावित गंधयुक्त पदार्थ जननकाल में नर एवं मादा के बीच लैंगिक आकर्षण का कारण बनते हैं।
(12) शरीर की आकृति बनाये रखना-
शरीर की आकृति बनाये रखने में त्वचा का महत्त्वपूर्ण सहयोग होता है।
(13) त्वचा की एपिडर्मिस में पुनर्जनन की अत्यधिक क्षमता के कारण चोट पर घाव के भरने में बहुत सहायता मिलती है।
(14) त्वचा की रंगाएँ, विशेषतः मिलैनिन, सूर्य-प्रकाश की परावैजनी किरणों से भीतरी भागों की सुरक्षा करती हैं। इसीलिए, तीन सूर्य-प्रकाश वाले क्षेत्रों के मनुष्यों में मिलैनिन की मात्रा अधिक और त्वचा का रंग गहरा होता है।
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