इस पोस्ट में हम-कनिष्क प्रथम की उपलब्धियों का निरूपण ,कुषाण नरेश कनिष्क प्रथम की तिथि सम्बन्धी विभिन्न मतों का आलोचनात्मक |वर्णन ,एक विजेता के रूप में कनिष्क प्रथम की सामाजिक उपलब्धियों पर प्रकाश के बारे में जानेगें
कनिष्क प्रथम की उपलब्धियों का निरूपण
कुषाण वंश के इतिहास में कनिष्क का नाम सर्वाधिक श्रद्धा एवं सम्मान के साथ लिया जाता है।वह इस वंश का सर्वाधिक प्रतिभा सम्पन्न एंव सर्वश्रेष्ट शासक था। कुषाण वंशी शासकों के क्रम में उसका नाम तीसरे शासक के रुप में आता है। इस के पूर्व कुजुल कैडफिल तथा विम कैडाफिसेस ने इस वंश के शासक के रूप में शासन किया था। विम कैडफिसेस और कनिष्क में क्या सम्बन्ध था। इस विषय में अत्यन्त मतभेद है। यदि हम कनिष्क प्रथम के व्यक्तित्व की बात करें तो उसमें चन्द्रगुप्त मौर्य की सैनिक योग्यता और अशोक के धर्म सहिष्णुता का समान मिश्रण था। कुषाण वंशी महान् शासक कनिष्क ने लगभग 45 वर्षों तक शासन किया। उसने एक विशाल साम्राज्य पर शासन किया। उसके ही कारण कुषाण वंश का नाम भारत के सांस्कृतिक एवं राजनीतिक इतिहास में अत्यन्त श्रद्धा एवं आदर के साथ लिया जाता है।
कनिष्क प्रथम की राज्यारोहण की तिथि
आज से लगभग बासठ वर्ष पूर्व प्रो० ई० जे० रैप्सन ने 'कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ इण्डिया' में मत व्यक्त किया था कि कुषाण युग का तिथिक्रम समय भारतीय इतिहास की जटिलतम समस्याओं में एक है और आज तक इस समस्या का समाधान सम्भव नहीं हो सका है, अर्थात् इसे सन्देह से परे नहीं रखा जा सका है। दुर्भाग्य से कुषाणों के तिथिक्रम के सम्बन्ध में रैप्सन का कथन वर्तमान नवीनतम शोधों के परिप्रेक्ष्य में भी यथावत मापदण्ड माना जा सकता है। प्राचीन भारत का यह प्रथम एवं अन्तिम शासक है, जिसके शासनकाल के निर्धारण में चार-पाँच सौ वर्ष का अन्तर है। कनिष्क के राज्यारोहण के सम्बन्ध में चार धारणाएँ प्रचलित हैं। एक मान्यता के अनुसार कनिष्क ने प्रथम शताब्दी ई० पू० के मध्य राज्य ग्रहण किया था। दूसरे मत के अनुसार कनिष्क का आविर्भाव द्वितीय शती ई० पू० में हुआ था। तीसरे मत के अनुसार कनिष्क का शासन काल तृतीय शताब्दी ई० पू० में माना जाता है। चौथे एवं अपेक्षाकृत मान्य मतानुसार कनिष्क का राज्यकाल प्रथम शती ई० स्थिर किया गया है।
प्रथम शती ई० पू० सम्बन्धी मत—
फ्लीट, कनिंघम, डाऊसन, मैके, कैनेडी, लुईस तथा सिल्वां लेवा जैसे पुराविदों ने कनिष्क को प्रथम शती ई० पू० के मध्य में रखते हुए इसका राज्यारोहण 58 ई० पू० में स्वीकार किया किन्तु उपलब्ध साक्ष्यों की मीमांसा. करने इन विद्वानों का मत स्थिर नहीं प्रतीत होता। मार्शल, थामस, स्मिथ, रैप्सन, राय चौधरी, सुधाकर चट्टोपाध्याय, जे० एस० नेगी, डी० सी० सरकार आदि विद्वान् इससे सहमत नहीं हैं।
द्वितीय शती ई० सम्बन्धी मत—
फ्लीट, कनिंघम, डाउसन, फैके, कैनेडी आदि विद्वानों के मतों पर असहमति प्रकट करने के उपरान्त स्मिथ, मार्शल, थामस, स्टेनकोनो आदि विद्वान कनिष्क का आविर्भाव द्वितीय शताब्दी में मानते हुए उसका राज्यारोहण 120-125 ई० में स्वीकार करते हैं। बी० एन० पुरी, के० सी० ओझा आदि कनिष्क राज्य ग्रहण की तिथि 144 ई० मानते हैं। कनिष्क का राज्यारोहण द्वितीय शती ई० के मध्य में मानने का अर्थ यह होगा कि वह वाशिष्ठी पुत्र पुलुमावी तथा शिवश्री सातकर्णि का समकालीन था। इन दोनों शासकों का शकों से संघर्ष हुआ था। यदि कनिष्क इनका समकालीन होता तो निश्चित ही उसका भी इनसे किसी भी प्रकार संघर्ष हुआ होता। तृतीय शती ई० सम्बन्धी मत डॉ० आर० सी० मजूमदार तथा आर० जी० भण्डारकर कनिष्क को तृतीय शताब्दी ई० में रखते हुए इसका राज्यारोहण क्रमश: 248 तथा 278 ई० में स्वीकार करते हैं। प्रो० जेहुब्रील ने मजूमदार के मत का कई तर्कों से निराकरण प्रस्तुत किया है। आपके अनुसार कुषाण वंश के अन्तिम शासक वासुदेव का शासन काल कनिष्क के 100 वर्ष बाद समाप्त हुआ था।
प्रथम शती ई० सम्बन्धी मत
अधिकांश विद्वान् यथा फर्गुनस, ओल्ड्रेन वर्ग, थासम, रैपरन, बनर्जी, एन० एन० घोष, सी० राय चौधरी, सुधाकर चट्टोपाध्याय, डी०सी० सरकार,आर० के० मुखर्जी, जे० एस० नेगी आदि कनिष्क को प्रथम शती ई० में मानते हुए इसका राज्यारोहण 78 ई० में स्वीकार करते हैं। इन विद्वानों की मान्यता है कि कनिष्क ने 79 ई० में शक सम्वत् की स्थापना की थी। पश्चिमी भारत के शक क्षत्रप इस सम्वत् का प्रयोग चतुर्थ शती ई० तक करते रहे। इसलिए शक सम्वत् नाम दिया गया। रैप्सन के अनुसार मार्शल द्वारा तक्षशिला से उपलब्ध प्रमाणों के परिप्रेक्ष्य में कनिष्क का शासनकाल प्रथम शती ई० में निर्धारित किया जा सकता है। अभिलेखिक साक्ष्यों एवं चीनी वृत्तान्तों के तुलनात्मक अध्ययन से निश्चित् हो जाता है कि कनिष्क ने 78 ई० में शक सम्वत् की स्थापना की थी।
कनिष्क की सिंहासनारोहण की तिथि
(1) फ्लीट, कनिंघम, डोसन व फ्रैंक के अनुसार 58 ई० पू०।
(2) रेप्सन, फर्ग्युसन, ओल्डनबर्ग, आर० डी० बनर्जी व राय चौधरी के अनुसार-78 ई० पू०।
(3) सर जान मार्शल, स्मिथ के व स्टेनकोनो के अनुसार = 120, 125 अथवा 144 ई०।
(4) आर० सी० मजूमदार के अनुसार = 248 ई०। सर्वमान्य तिथि = 78 ई० है।
कनिष्क प्रथम की उपलब्धियाँ
कनिष्क कुषाण वंश का तीसरा शासक था। यह अपने वंश का सबसे प्रसिद्ध और महान् शासक था। यह अशोक के बाद और समुद्रगुप्त के पूर्व भारतीय इतिहास का सर्वाधिक लोकप्रिय और विख्यात नरेश हुआ। भारतीय धर्म और संस्कृति ग्रहण करने के कारण उसकी गणना इतिहास में भारतीय सम्राटों के साथ अग्रिम पंक्ति में होती है। बौद्ध साहित्य में उसके प्रति अनेकानेक प्रशंसात्मक अभिव्यक्तियाँ हैं, जो उसकी धार्मिक अभिरुचि और जनप्रियता को दर्शाती हैं।
कनिष्क के प्रारम्भिक जीवन के बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं मिलती है। किन्तु सम्राट बनने के बाद वह बौद्ध धर्मानुयायी हो गया और उसका यश उसके बौद्ध धर्म के संरक्षक होने के कारण कहीं अधिक है। किन्तु अन्य धर्मों के प्रति भी वह उदार था। उसके सिक्कों पर सभी धर्मों के देवताओं के चित्र अंकित हैं।
कनिष्क एक वीर योद्धा तथा महान् विजेता था। उसने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की। राजसिंहासन पर आसीन होते ही कनिष्क ने अपनी साम्राज्यवादी भावना को कार्यरूप में परिणित किया। कनिष्क ने अपना राज्य पूर्व की ओर विशेष रूप से विकसित किया। उसकी प्रमुख विजयें इस प्रकार हैं-
1. मगध विजय-
कनिष्क ने सर्वप्रथम मगध पर आक्रमण किया तथा विजय प्राप्त की मगध नरेश ने हरजाने के रूप में अश्वघोष नामक प्रसिद्ध विद्वान् उसे दे दिया, जिसे वह अपने साथ ले आया।
2. कश्मीर विजय-
मगध के बाद कनिष्क ने कश्मीर पर विजय प्राप्त की तथा वहाँ कनिष्कपुर नामक नगर की स्थापना की।
3. उज्जैन के शक-क्षत्रपों पर विजय-
कनिष्क ने उज्जैन के शक क्षत्रपों से भी युद्ध किया। उसने राजा चष्टा को पराजित किया। इस प्रकार वह कुषाणों के अधीन हो गया।
4. पार्थियन्स पर पार्थिया के राजा ने आक्रमण किया, किन्तु वह बुरी तरह परास्त हुआ।
5. चीन पर विजय-
कनिष्क ने चीन पर विजय प्राप्त की। यद्यपि प्रथम अभियान में कनिष्क पराजित हुआ था, किन्तु दूसरी बार उसे विजय प्राप्त हुई। इस विजय के परिणामस्वरूप काश्गर, खेतान तथा यारकन्द के प्रदेश उसे प्राप्त हो गये।
इस प्रकार कनिष्क ने एक विशाल साम्राज्य स्थापित किया। उसका साम्राज्य उत्तर में बुखारा से लेकर दक्षिण में उज्जैन तथा पूर्व में मथुरा से लेकर पश्चिम में हिलमन्द नदी तक विस्तृत था।
कनिष्क धर्मसहिष्णु था। उसके सिक्कों पर पार्थियन यूनानी व भारतीय देवी-देवताओं की आकृतियाँ हैं। कुछ सिक्कों पर यूनानी ढंग से खड़े और कुछ पर भारतीय ढंग से बैठे बुद्ध की आकृतियाँ हैं। इन सिक्कों से स्पष्ट है कि उसके राज्य में सभी धर्मों को मानने वाले लोग रहते थे
कनिष्क अनेक विद्वानों का आश्रयदाता था। पार्श्व, ने महाविभाषसूत्र की रचना की थी। वसुमित्र और अश्वघोष बौद्ध दार्शनिक थे। अश्वघोष ने इसी समय बुद्ध चरित, सारिपुत्र प्रकरण और सौन्दर-नन्दकाव्य आदि ग्रान्थों की रचना की। प्रसिद्ध विद्वान् नागार्जुन महायान सम्प्रदाय का प्रधान प्रतिपादक था, जिसने प्रज्ञापारमितासूत्र नामक ग्रन्थ में सापेक्ष्यवाद पर विचार किया। विख्यात बौद्ध दार्शनिक वसुमित्र कनिष्क के दरबार का प्रमुख सदस्य था, जिसके सभापतित्व में बौद्ध-धर्म की चौथी संगीति सम्पन्न हुई थी। पार्श्व और संघरक्ष कनिष्क के समय के अन्य विद्वान् थे। प्रसिद्ध चिकित्सा शास्त्री चरक कनिष्क का राजवैद्य था जिसने चरक संहिता लिखी थी। कनिष्क ने अशोक की ही भाँति बौद्ध-धर्म के प्रचार- प्रसार हेतु जगह-जगह तथा विदेशों में प्रचारक भेजे।
साराशत: कनिष्क प्रथम ने अपना विजय अभियान पूर्वी भारत से प्रारम्भ किया। इस क्रम में उसने सर्वप्रथम उसने पाटलिपुत्र के राज्य को परास्त किया। कनिष्क ने चीन पर विजय की भी योजना बनाई थी। इस क्रम में वह सर्वप्रथम चीनी सेनापति पानचाऊ से पराजित हो गया था, लेकिन पानचाऊ के देहावसान के बाद, जब उसका पुत्र पानयांग सेनापति बना तो कनिष्क ने दुबारा आक्रमण किया तथा पानयांग को पराजित किया। चीनी कब्जेवाले क्षेत्र काशनगर, खेतान तथा यारकन्द के प्रदेश को अपने राज्य में शामिल कर लिया। पश्चिमोत्तर भारत में स्थिति गान्धार, कश्मीर आदि प्रदेश पर उसने अपनी विजय पताका लहराई। कनिष्क इतिहास में अपनी विजयों की अपेक्षा बौद्ध धर्म को संरक्षण देने के कारण अधिक याद किया जाता है। उसके शासन काल में ही कुण्डल वन में चतुर्थ बौद्ध संगीति का आयोजन हुआ था। कला के क्षेत्र में भी उसका उल्लेखनीय योगदान है। इस क्षेत्र में उसने गान्धार नामक नूतन शैली को जन्म दिया। इस महान् कुषाण शासक का अन्तिम दिवस अत्यन्त दुःखद रहा उसे अपने सैनिकों द्वारा मार डाला गया। कनिष्क ने कुल 23 वर्षों तक (78-101 ई०) तक शासन किया।
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