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shakon ke raajaneetik itihaas ka sankshipt parichay

इस पोस्ट में हम -जूनागढ़ लेख के आधार पर शक महाक्षत्रप रुद्रदामन के जीवनवृत्त तथा उपलब्धियों पर प्रकाश ,शकों के राजनीतिक इतिहास का संक्षिप्त परिचय देते हुए रुद्रदामन प्रथम के चरित्र एवं उपलब्धियों का मूल्यांकन  महाक्षत्रप रुद्रदामन प्रथम की उपलब्धियों का वर्णन , रुद्रदामन इतिहास में क्यों प्रसिद्ध है? जूनागढ़ शिलालेख से कौन सा शक संबंधित है? जूनागढ़ अभिलेख में किसका वर्णन है? आदि के बारे में जानेगें

शकों का इतिहास

शक कौन थे ? शक एक खानाबदोश एवं बर्बर जाति थी, इनका मूल निवास स्थान सीर नदी के तट पर था। दूसरी शताब्दी ई०पू० में मुइश जाति ने शकों पर आक्रमण कर दिया। अन्त में विवश होकर इन्हें मूल निवास स्थान छोड़ना पड़ा। शकों के विविध कबीले अनेक दिशाओं से आगे बढ़े। इन्हीं शकों की एक शाखा ने बैक्ट्रिया के यवन राज्य हिलिओक्सीज को पराजित कर सिन्ध मार्ग से होते हुए भारत में प्रविष्ट हुई। क्रमशः तक्षशिला, मथुरा, महाराष्ट्र, उज्जैन आदि स्थानों पर शकों की अनेक शाखाओं ने अपना राज्य स्थापित किया।

रुद्रदामन

शक महाक्षत्रप -रुद्रदामन-शक जाति का सबसे योग्य शासक महाक्षत्रप रुद्रदामन ही था। यह चष्टन का पौत्र तथा जयदामन का पुत्र था। गिरनार पर्वत के पास सुदर्शन झील के तट पर एक चट्टान पर उत्कीर्ण प्रशस्ति से रुद्रदामन के विषय में पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है। इसमें उत्कीर्ण लेख संस्कृत गद्य में लिखे हुए हैं। सुदर्शन झील का निर्माण मौर्यकाल में हुआ था, परन्तु उसका जीर्णोद्धार रुद्रदामन ने करवाया था। जिस प्रशस्ति पर अशोक के चौदह शिलालेख उत्कीर्ण हैं उसी पर रूद्रदामन का भी लेख हमें मिलता है। इस प्रशस्ति के कुछ अंश के संस्कृत भाषा का रूपान्तर हिन्दी में इस प्रकार है-

यह राजा महाक्षत्रप सुग्रहति नामी स्वामी चष्टन के पौत्र महाक्षत्रप रुद्रदामन के बारहवें वर्ष में.... समुचित, राजलक्ष्मी धारण के गुण के कारण सब वर्गों के द्वारा रक्षण के लिए स्वामी रूप में वरण किये हुये युद्ध के अतिरिक्त मृत्यु के अन्तिम समय तक कभी किसी पुरुष का वध न करने की प्रतिज्ञा को सत्य कर दिखाने वाले.... अपने आप महाक्षत्रप नाम प्राप्त करने वाले, राज्य कन्याओं के स्वयंवरों में अनेक मालाएँ पाने वाले.... ही कोष से विपुल धन लगाकर थोड़े ही में पहले से तीन गुना लम्बाई चौड़ाई से युक्त सेतु का निर्माण कर, सब ओर पहले से सुदर्शनतर कर दिया। आन्ध्र अभिलेख की तिथि 52 शक संवत् अर्थात् 130 ई०पू० है। इस समय रुद्रदामन चष्टन के साथ सिंहासनासीन था। परन्तु कुछ विद्वानों का मत है कि रुद्रदामन 140 ई० के बाद सिंहासनासीन हुआ क्योंकि 140 ई० के लगभग लिखे गये अपने भूगोल में टालमी ने उज्जैन के राजा चष्टन का ही उल्लेख किया है। परन्तु यहाँ पर ध्यान रखना चाहिए कि टालमी ने भूगोल लिखा है इतिहास नहीं। कदाचित दोनों शासकों में से उसने वयोवृद्ध शासक चष्टन का ही नाम लिखना अधिक उपयुक्त समझा हो। जूनागढ़ अभिलेख रुद्रदामन की प्रशस्ति है। इसकी तिथि 72 शक सम्वत अर्थात् 150 ई० है। इससे प्रकट होता है कि रुद्रदामन ने कम से कम 150 ई० तक अवश्य राज्य किया।

रुद्रदामन युद्ध-विद्या में निपुण था- 

“परबल लाघव सौष्ठव क्रियेण'। वह वीर और कुशल शासक होने के साथ एक सुशिक्षित व्यक्ति भी था। वह अपने शब्द (व्याकरण), अर्थ (राजनीति), गन्धर्व (संगीत) और न्याय (तर्कशास्त्र) आदि के ज्ञान के लिए प्रसिद्ध था-'शब्दार्थ गान्धर्व न्यायाधनां विद्यानां महतीनां मारण-धारण-विज्ञान प्रयोग वासविपुलकीर्तिना।' इसके अतिरिक्त वह गद्य-पद्य काव्यों में भी प्रवीण था। वह विजेता अवश्य था, परन्तु निरर्थक हत्या करना उसे रुचिकर न था। उसने युद्ध के अतिरिक्त अन्यत्र हत्या न करने की प्रतिज्ञा की थी। वह भली-भांति जानता था कि राज्य की समृद्धि और सुरक्षा के लिए राजकोष की सम्पन्नता आवश्यक है। इसी से उसका कोष कनक (सोना), रजत (चाँदी), वज्र (हीरा) आदि से भरा रहता था-?यथावत्प्राप्ततैर्बलिशुल्क भागः कनक रजतवज्रवैदूर्य रत्नोपचयविष्यन्दमानकोशेन। परन्तु कोष भरने के लिए उसने कभी भी प्रजा पर धर्म-विरुद्ध और अन्यायपूर्ण कर विष्टि (बेगार) और प्रणय (स्वेच्छा दान) आदि न लादे थे। वह न्यायप्रिय नरेश था- 'यथार्थ हस्तोच्छ चार्जितोक्रितधर्मानुरागेण।' रुद्रदामन के शासनकाल में टूट पलाशिनी और सुवर्णसिकता आदि नदियों में बाढ़ आ जाने के कारण सुदर्शन झील का बाँध गया था। अधिक व्यय की आशंका से उसके मन्त्रिमंडल ने पुल के मरम्मत की अनुमति न दी। अत: उसने अपने व्यक्तिगत धन से अपने अमात्य सुविशाख के निरीक्षण में पुन: उसकी मरम्मत करवा कर अपनी लोक-कल्याणपरता का परिचय दिया था और उसे तिगुना सुदृढ़ करा दिया था। जूनागढ़ अभिलेख का कथन है कि इस मरम्मत में जितना धन व्यय हुआ था उसे रुद्रदामन ने अपने कोष से ही किया था। इस कार्य के लिए उसने प्रजा पर अतिरिक्त कर न लगाया था।

रुद्रदामन का चरित्र-

अभिलेखों के आधार पर रुद्रदामन के अन्दर एक कुशल सेनापति और वीर तथा साहसी गुण विद्यमान थे। वह युद्ध विद्या में पारंगत था। जूनागढ़ अभिलेख में उसे स्वयमविगतः महासमय नाम्ना रुद्रदामना (महासमय की उपाधि स्वयं प्राप्त थी कहा गया है। अभिलेख के अनुसार वह वीर होने के साथ साथ सुशिक्षित भी था। वह शब्द (व्याकरण) अर्थ (राजनीति) गन्धर्व (संगीत) और न्याय (तर्कशास्त्र) आदि के ज्ञान के लिए अपने समय में प्रसिद्ध था। इसके अतिरिक्त वह गद्य, पद्य काव्यों में भी प्रवीण था। उसने युद्ध के अतिरिक्त अन्यत्र पर हत्या न करने की प्रतीज्ञा की थी।

वह राज्य के कुशल संचालन के लिए धन के महत्त्व को समझता था। इसी कारण उसका राजकोष कनक, रजत, हीरा और चैदूर्थ मणियों से भरा रहता था। लेकिन कोष की सम्पन्नता के लिए रुद्रदामन ने कभी प्रजा पर धर्मविरुद्ध और अन्यायपूर्ण कर नहीं लगाया था। रुद्रदामन के शासन काल में पलाविनी और सुवर्ण सिकता नदियों में बाढ़ आ जाने के कारण सुदर्शन झील का बाँध टूट गया था। इस झील का निर्माण सर्वप्रथम चन्द्रगुप्त मौर्य ने कराया था। प्राकृत कारणों से क्षतिग्रस्त होने के कारण अशोक ने इसकी मरम्मत कराया था। पुनः रुद्रदामन के समय में यह झील क्षतिग्रस्त हो गयी थी जिसकी मरम्मत सुविशाख के निरीक्षण में कराकर उसने अपनी लोक कल्याण का परिचय दिया था। जूनागढ़ अभिलेख के अनुसार इस झील की मरम्मत में जो भी धन खर्च हुआ था सारा धन रुद्रदामन ने राजकोष से ही दिया था। जूनागढ़ अभिलेख के रुद्रदामन को भ्रष्ठराज प्रतिष्ठायक कहा गया है। इससे अनुमान किया जाता है कि उसने कुछ पराजित राजाओं को उनका राज्य वापस लौटा दिया था।

रुद्रदामन उपलब्धियाँ-

आन्धौ अभिलेख से प्रकट होता है कि चष्टन और रुद्रदामन सम्मिलित रूप से कच्छ-प्रदेश पर राज्य कर रहे थे। जूनागढ़ अभिलेख से निम्नलिखित प्रदेश रुद्रदामन के राज्य के अन्तर्गत सिद्ध होते हैं- 

(1) पूर्व और अपर आकार तथा अवन्ती (पूर्वी और पश्चिमी मालवा)

(2) अनूपनीवत् (मान्धाता प्रदेश) 

(3) आनर्त (द्वारिका का चतुर्दिक प्रदेश) 

(4) सुराष्ट्र (जूनागढ़ का चतुर्दिक प्रदेश)

(5) श्वभ्र (साबरमती नदी का तटवर्ती प्रदेश)

(6) मरूर (मारवाड़ा)

(7) कच्छ

(8) सिन्धु सौवीर (सिन्धु नदी का डेल्टा)

(9) कुकुर (सरकार के अनुसार उत्तरी काठियावाड़ में)

(10) अपरान्त (उत्तरी कोकण)

 (11) निषाद् (सरस्वती और पश्चिमी विन्ध्य का प्रदेश)

 (12) और कुछ अन्य प्रदेश)।

इन प्रदेशों में सुराष्ट्र, कुकुर, अपरान्त, अनूप और अकरावन्ती के प्रदेश गौतमीपुत्र शातकर्णी के अधीन था, अतः स्पष्ट है कि रुद्रदामन ने उन्हें गौतमीपुत्र के किसी उत्तराधिकारी से जीता था। जूनागढ़ अभिलेख का कथन है कि रूद्रदामन ने दक्षिणापथ के राजा शातकर्णी को दो बार पराजित किया, परन्तु सम्बन्ध की निकटता के नाते उसका नाश नहीं किया- 'सातकर्णेद्विरपि निर्व्याजमविजित्यावजित्य संबन्धा विदूरतया अनुत्साद जात्प्राप्तयशसा।' सिन्धु-सौवीर पर रुद्रदामन का अधिकार था। सुई बिहार अभिलेख से स्पष्ट होता है कि दक्षिणी और मध्य सिन्धु घाटी पर कनिष्क का अधिकार था। इससे अनुमान होता है कि रुद्रदामन ने कनिष्क के किसी उत्तराधिकारी से यह प्रदेश जीता था। इसके अतिरिक्त रुद्रदामन को यौधेयों से भी युद्ध करना पड़ा था। ऐसा प्रतीत होता है कि रुद्रदामन ने अपने विशाल साम्राज्य को अनेक प्रान्तों में विभक्त कर रखा था

और प्रत्येक प्रदेश में अपने अमात्य नियुक्त कर रखे थे। टालमी के कथनानुसार रुद्रदामन के पितामह चष्टन के राज्य की राजधानी उज्जैन थी। कदाचित रुद्रदामन की भी यही राजधानी थी। जूनागढ़ अभिलेख में रुद्रदामन को- 'भ्रष्ट राज्यप्रविष्ठापक' कहा गया है इससे अनुमान किया जा सकता है कि उसने अपने द्वारा अथवा गौतमीपुत्र शातकर्णी द्वारा कुछ पराजित राजाओं के राज्य वापस कर दिये थे।

रुद्रदामन के उत्तराधिकारी के बारे में उपयुक्त वर्णित उसके बहुसंख्यक सिक्कों तथा कतिपय अभिलेखों से जानकारी हासिल होती है।


रुद्रदामन के उत्तराधिकारी-

रुद्रदामन के बाद उनके पुत्र दामोजदश्री महाक्षत्रप हुआ। तत्पश्चात् उसके पुत्र दीवदामन तथा भाई रुद्रसिंह प्रथम गद्दी के लिए संघर्ष हुआ। लगभग 178 ई० में जीवदामन महाक्षत्रप बना और 181 ई० में रुद्रसिंह प्रथम महाक्षत्रप हुआ। इस बीच उथल-पुथल मचती रही और 191 ई० के लगभग रुद्रसिंह प्रथम पुन: महाक्षत्रप बना तथा लगभग 196 ई० तक स्वयं शासन करता रहा, लेकिन ये महाक्षत्रप रुद्रदामन की कीर्ति को स्थिर नहीं रख सके। रुद्रदामन के बाद उसके अन्य उत्तराधिकारी दुर्बल सिद्ध हुए जो अपने राज्य को अक्षुण्ण नहीं रख सके। तीसरी शताब्दी के पूर्वार्द्ध में अमीरों ने उनकी भक्ति को बहुत कुछ क्षीण कर दिया। फिर भी शक क्षत्रप गुप्तकाल तक किसी न किसी रूप में राज्य करते रहे, हालांकि उनके राज्य का बहुत-सा भाग नागो और मालवा के हाथों में जाता रहा। चौथी शताब्दी ई० के अन्त में गुप्त सम्राट् चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य ने मालवा और कठियावाड़ को जीत लिया। और शकों की सत्ता समाप्त कर दी।

उपरोक्त आधार पर यह विदित होता है कि रुद्रदामन एक महान् विजेता था। उसके जूनागढ़ (गिरनार) लेख से विदित होता है कि दक्षिणापथ के स्वामी शातकर्णी को दो बार पराजित किया, परन्तु संबंध की निकटता के कारण राजा का उच्छेद नहीं किया। ऐसा प्रतीत होता है कि यह शातकर्णी सम्भवत: वासिष्ठी पुत्र पुलमावी था जो रुद्रदामन का दामाद था। स्पष्टीकरण कान्हेरी गुहा से भी होता है। कान्हेरी गुहा की एक खण्डित लेख में कहा गया है कि वासिष्ठी पुत्र श्री शातकर्णी की देवी कार्दमक राजाओं के वंश में उत्पन महाक्षत्रप रुद्र.... की पुत्री थी। दुर्भाग्यवश रुद्र के आगे के शब्द खण्डित हैं। इतिहासकारों ने इसे रुद्रदामन ही माना है।


इन्हें भी देखें-


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1 Comments

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