इस पोस्ट में हम- डेमाट्रियस एवं मिनेण्डर के विजयों पर टिप्पणी ,एक विजेता एवं इण्डोयुनानी शासक के रूप में डेमेट्रियस तथा मिनेण्डर (मिलिन्द) के साम्राज्य विस्तार एवं उपलब्धियों पर प्रकाश ,भारत पर हिन्द यवन आक्रमण तथा इसके प्रभावों का विवरण ,भारत यवन सत्ता पर संक्षिप्त निबन्ध , मिनांडर कौन था वह किस रूप में प्रसिद्ध हुआ, यवन जाति का इतिहास, हिन्द-यवन कौन थे,मिलिंद पंनो क्या है? पाटलिपुत्र किस राज्य के बाद मिनांडर ने कौन सा धर्म अपनाया? मिलिंदपन्हो पुस्तक के लेखक कौन है? ,मिलिन्द पान्हा क्या है ? के बारें में जानेंगे-
डेमाट्रियस एवं मिनेण्डर के विजयों पर टिप्पणी
डेमेट्रियस -190 ईसा पूर्व के लगभग यूथीडेमस की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र डेमेट्रियस बैक्ट्रिया के यवन साम्राज्य का उत्तराधिकारी बना। वह एक महान् विजेता तथा महत्त्वाकांक्षी शासक था। उसने एक विशाल सेना के साथ हिन्दूकुश की पहाड़ियों को पार कर सिन्ध तथा पंजाब के प्रदेशों की विजय की।
डेमेट्रियस का भारत के साथ सम्बन्ध कुछ साहित्यिक तथा पुरातत्त्वीय प्रमाणों द्वारा भी सूचित होता है। सामान्यतः यह माना जाता है कि भारत पर यवनों का प्रथम आक्रमण पुष्यमित्र शुंग के समय में हुआ था और इस आक्रमण का नेता डेमेटियस ही था। इसका उल्लेख अनेक भारतीय ग्रन्थों -पंतजलि के महाभाष्य, गार्गीसंहिता, मालविकाग्निमित्र आदि में हुआ है। इन पाटलिपुत्र तक बढ़ आये थे। परन्तु वे मध्य प्रदेश में अधिक दिनों तक न ठहर सके और उन्हें शोध ही देश छोड़ना पड़ा। इसके दो कारण थे:
(1) गार्गी-संहिता के अनुसार उनमें आपस में ही घोर युद्ध छिड़ा।
(2) पुष्यमित्र शुंग के भीषण प्रतिरोध में भी यवनों के पैर उखड़ गये। उसके पौत्र वसुमित्र ने एवनों को सिन्धु नदी के दाहिने किनारे पर पराजित कर दिया।
यद्यपि यवन मध्य प्रदेश पर अधिकार नहीं कर सके तथापि ऐसा प्रतीत होता है कि पश्चिमी पंजाब तथा सिन्यु की निचली घाटी पर डेमेट्रियस ने अपना राज्य कायम कर लिया। इन प्रदेशों से उसकी ताम्र मुद्राएँ मिलती हैं। इन पर यूनानी तथा खगोष्ठी लिपियों में लेख उत्कीर्ण है।
बेसनगर से प्राप्त एक मुद्रा पर 'तिमित्र' उत्कीर्ण मिलता है। क्रमदीश्वर के व्याकरण में दत्तमित्री' नामक एक नगर का उल्लेख मिलता है जो सौवीर (निचली सिन्धु घाटी) प्रदेश में स्थित था। सम्भवत: इसकी स्थापना डेमेट्रियस द्वारा की गई थी। ऐसा लगता है कि उसने शाकल पर पुनः अधिकार कर लिया। खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख में 'दिमिति' नामक किसी यवन राजा का उल्लेख मिलता है। काशी प्रसाद जायसवाल ने उसकी पहचान डेमेट्रियस से की है, परन्तु यह संदिग्ध है। इस प्रकार डेमेट्रियस ने आक्सस नदी से सिन्धु नदी तक के प्रदेश पर अपना अधिकार जमा लिया था।
मनाण्डर-
इन्डो-यूनानी शासकों में मेनाण्डर का नाम सर्वाधिक प्रसिद्ध है। क्लासिकल लेखकों ने उसके साथ-साथ एपोलोडोटस का नामोल्लेख किया है। संभवत: वह डेमेट्रियस का छोटा भाई था और उसी के साथ भारतीय युद्धों में भाग लिया था। संभव है उसने डेमेट्रियस के पशचात कुछ समय तक शासन भी किया हो परन्तु उसके राज्य-काल के विषय में हमें अधिक ज्ञात नहीं है
अनेक क्लासिकल लेखकों-स्ट्रेबो, जस्टिन, प्लूटार्क आदि ने मेनाण्डर की गणना महान यवन विजेताओं में की है। उसका एक लेख, शिवकोट (बजौर-घाटी) की धातुगर्भ नामों के ऊपर अंकित प्राप्त हुआ है। इससे सूचित होता है कि बजौर क्षेत्र (पेशावर) इसके अधिकार में था। हाल ही में उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिले में स्थित रेह नामक स्थान से एक अन्य लेख प्राप्त हुआ है। इसे जी०आर० शर्मा ने मेनाण्डर का मानते हुए यह निष्कर्ष निकाला है कि उसने इस भाग को जीता था। किन्तु यह पहचान संदिग्ध है। पेरीप्लस के अनुसार मेनाण्डर के सिक्के भड़ौच में चलते थे। स्ट्रैबो लिखता है कि उसने सिकन्दर से भी अधिक प्रदेश जीते थे तथा हाइफेनिस (व्यास) नदी पारकर इसेमस कालिन्दी अथवा यमुना नदी जिसे प्राचीन साहित्य में इक्षुमती कहा गया है) तक पहुँच गया था मथुरा से उसके तथा उसके पुत्र स्ट्रेटो प्रथम के सिक्के मिले हैं। इस प्रकार मेनाण्डर एक विस्तृत साम्राज्य का शासक बना जो झेलम से मथुरा तक विस्तृत था तथा शाकल (स्यालकोट) उसकी राजधानी थी। मिलिन्दपण्हो में इस नगर का सुन्दर वर्णन मिलता है। तदनुसार 'अनेक,उधान तथा तडांगों से यग सुशोभित था नगर के चारों ओर प्राकार एवं परिखा (खाई) बनवाई थी । नगर के भीतर सुन्दर सड़के स्वच्छ नलियाँ तथा भव्य चौराहे बनाये गये थे । 'कुछ विद्वानों का मत है कि मेनाण्डर ने यूक्रेटाइडीज के वंशजों से भी कुछ प्रदेशों को छीन लिया था क्योंकि काबुल घाटी तथा सिंध क्षेत्र से उसकी मुद्राएँ मिलती है। उसके सिक्कों का विस्तार
गुजरात, काठियावाड़ तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक था। उसके सिक्कों पर 'धर्मचक्र' के चिह्न अंकित हैं जिससे सिद्ध होता है कि वह एक धर्मनिष्ठ बौद्ध था। प्लूटार्क हमें बताता है कि वह एक न्यायप्रिय शासक था तथा अपनी प्रजा में बहुत अधिक लोकप्रिय था। वह अपने विशाल साम्राज्य का शासन राज्यपालों की सहायता से चलाता था। शिवकोट धातुगर्भ मंजूवा लेख में वियकमित्र तथा विजयमित्र नामक उसके राज्यपालों का उल्लेख मिलता है जो स्वात घाटी में शासन करते थे।
बौद्ध जनश्रुति में मेनाण्डर को बौद्ध धर्म का संरक्षक बताया गया है। क्षेमेन्द्रकृत अवदानकल्पलता से पता चलता है कि मेनाण्डर ने अनेक स्तूपों का निर्माण करवाया था। मेनाण्डर का समीकरण मिलिन्द से किया जाता है जिनका उल्लेख नागसेन ने 'मिलिन्दपन्हो' (मिलिन्द-प्रश्न) में किया है। इस ग्रन्थ में महान् बौद्ध भिक्षु नागसेन राजा मिलिन्द के अनेक गूढ दार्शनिक प्रश्नों का उत्तर देते हैं तथा अन्ततोगत्त्वा वह उनके प्रभाव से बौद्ध हो जाता है। यह कहा गया है कि मेनाण्डर अपने पुत्र के पक्ष में सिंहासन त्याग कर न केवल भिक्षु अपितु 'अर्हत्' बन गया। मिलिन्दपण्हो के अनुसार मेनाण्डर का जन्म अलसन्द (काबुल के समीप सिकन्दरिया) द्वीप के 'कालसीग्राम' में हुआ था। प्लूटार्क लिखता है कि उसकी मृत्यु के बाद अनेक नगरों में उसकी धातुओं (भस्मावशेष) के लिए संघर्ष हुए तथा प्रत्येक नगर में उनके ऊपर स्तूपों का निर्माण हुआ। यह विवरण हमें बुद्ध के भस्मावशेषों के विवरण की याद दिलाता है। टार्न का मत है कि बौद्ध मत की ओर उसका झुकाव राजनैतिक कारणों से था क्योंकि उसकी जनसंख्या में बौद्धों का एक बड़ा भाग सम्मिलित था। जी० आर० शर्मा का विचार है कि मेनाण्डर के ही नाम का उल्लेख रामायण में कर्दम, भागवत पुराण में 'पुष्यनिन्द्र', विष्णु पुराण में 'अलिसन्निभ', दिव्यावदान में 'यक्षकृमिश', आर्यमंजूश्रीमूलकल्प में महायक्ष तथा तारानाथ के विवरण में 'मिनार' रूप में हुआ है। इससे उसकी लोकप्रियता सिद्ध होती है।
इस प्रकार मेनाण्डर एक शक्तिशाली एवं न्यायप्रिय शासक था। एक साधारण स्थिति से ऊपर उठकर अपनी योग्यता के बल पर एक विशाल साम्राज्य का स्वामी बन बैठा। मिलिन्दपन्हो से स्पष्ट होता है कि वह उच्चकोटि का विद्वान् तथा विद्या और कला का प्रेमी था। मिलिन्दपाई के अनुसार उसे इतिहास, पुराण, ज्योतिष, न्याय-वैशेषिक, दर्शन, तर्कशास्त्र, साख्य, योग, संगीत, गणित, काव्य आदि विभिन्न विद्याओं का अच्छा ज्ञान था। उसकी राजधानी शाकल तत्कालीन भारत का प्रमुख सांस्कृतिक एवं व्यापारिक स्थल बन गयी थी। मिलिन्दपन्हो से पता चलता है कि यहाँ के बाजारों में बहुमूल्य वस्तुएँ बिक्री के निमित्त सजी रहती थी। नगर के भीतर हजारों की संख्या में भव्य एवं उत्तुंग प्रासाद शोभायमान थे। यहाँ के नागरिकों के पास भारी मात्रा में कार्षापण, स्वर्ण तथा रजत मुद्राएँ विद्यमान थीं। इसकी शोभा को देखने से ऐसा प्रतीत होता था कि 'साक्षात् स्वर्गलोक ही पृथ्वी पर उतर आया है।
जीतनतत्त
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