नन्द वंश
महापद्मनन्द लगभग 375 ई० पूर्व में मगध के राजसिंहासन पर आसीन हुआ। इसके सन्दर्भ में अनेक किंवदन्तियाँ है जिनसे सत्य यही प्रतीत होता है वह अन्तिम हर्यक वंशी राजा महानन्द की दासी से उत्पन्न पुत्र था। अनुश्रुति के अनुसार वह एक नाई का लड़का था किन्तु एक रानी उस पर आसक्त हो गई अतः उसने सम्राट का वध करके राज्य का संरक्षण अपने हाथ में ले लिया और धीरे-धीरे सब राजकुमारों की हत्या करके स्वयं सम्राट बन गया। किन्तु विशाख दत्त के नाटक 'मुद्राराक्षस' के अनुसार नन्द राजा क्षत्रिय वंशी थे। टीकाकर विष्णु गुप्त ने प्रथम नन्द राजा की रानी सुनन्दा का पुत्र माना है। इस प्रकार नन्दों की जाति विवादास्पद है। किन्तु जैन, बौद्ध पुराण तथा यूनानी स्रोत इसको निम्न जाति का ही मानते हैं। नन्दों को उत्पत्ति पर टिप्पणी डॉ० नाहर ने लिखा है-“यदि महापद्मनन्द शूद्र था तो यह भारतीय इतिहास की महत्त्वपूर्ण घटनाओं में एक विशिष्ट घटना है कि सर्वप्रथम क्षत्रियों की राजनीतिक सत्ता को तिरस्कृत करके धर्म के ब्राह्मणों की अवहेलना करके शूद्रों ने राज्य स्थापित किया।"
पुराणों के अनुसार नन्द-वंश का संस्थापक महापद्मनन्द था, जो शूद्र महिला का पुत्र था, किन्तु बौद्ध ग्रन्थों में वर्णन मिलता है कि नन्द-वंश की स्थापना उग्रसेन ने की थी। यह मत भी प्रचलित है कि संम्भवतः महापद्मनन्द और उग्रसेन दोनों नामों का सम्बन्ध एक ही व्यक्ति से था। महापद्मनन्द बड़ा प्रतापी राजा था। उसके जीवनकाल में मगध राज्य का पर्याप्त विस्तार हुआ था। उसने क्षत्रियों का व्यापक स्तर पर विनाश किया और 'एकाराट' नामक उपाधि धारण की थी। उसने अपने जिन समकालीन राज्यों और शासकों पर विजय प्राप्त की थी उनमें से इक्ष्वाकु, कुरु, पांचाल, काशी, सूरसेन, मिथिला, कलिंग, अश्मक,हैहय आदि प्रमुख थे। जैन ग्रन्थों और हाथीगुम्फा अभिलेखों से भी महापद्मनन्द की उपर्युक्त विजयों की पुष्टि होती है। उत्तरी भारत के अतिरिक्त दक्षिणी राज्यों पर भी नन्द-वंश का अधिकार हो गया था। गोदावरी नदी के तट पर स्थित 'नवनन्ददेहरा' नामक नगर से यह ज्ञात होता है कि नन्दों की सत्ता दक्षिण में भी स्थापित थी। इस प्रकार नन्द-वंश ने भारत के एक विशाल भू-भाग पर अपना अधिकार जमा लिया था।
वस्तुतः महापद्मनन्द एक महान् विजेता और शक्तिशाली शासक था। उसे हम भारत का प्रथम महान् ऐतिहासिक सम्राट कह सकते हैं। इसकी महानता और उपलब्धियों के विषय में प्रसिद्ध विद्वान डॉ राधा कुमुद मुकर्जी ने लिखा है ।
"इस प्रकार महापद्यानन्द उत्तरी भारत का प्रथम महान् ऐतिहासिक सम्राट था। नीच कुल में उत्पन्न व्यक्ति द्वारा राजनीति के सर्वोच्च पद पर आसीन होने की घटना ने क्षत्रियों की राजनीतिक सर्वोच्चता की पुरानी परम्परा का अन्त कर दिया। समाज में प्रचलित पुराने रुढ़िवादी विचारों का महत्व समाप्त होने लगा। बौद्ध और जैन धर्म के सिद्धान्तों की व्यावहारिकता का प्रभाव समाज में स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगा था।"
महापद्मनन्द के उत्तराधिकारी
महापानन्द ने सम्भवतः 28 वर्ष शासन किया था। उसके शासनकाल तथा उसके उत्तराधिकारियों के शासनकाल के सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। पुराणों से संकेत मिलता है कि महापद्मनन्द के उत्तराधिकारियों ने बारह वर्ष तक शासन किया था। बौद्ध ग्रन्थों में उल्लेखहै कि नन्द-वंश का अन्तिम शासक धननन्द था और वह सिकन्दर महान् का समकालीन था। 'महाबोधवंश' में नन्द-वंश के शासकों के नाम निम्नवत दिये गये हैं-
1. उग्रसेन
2. पाण्डुक
3. पाण्डुगत
4. भूतपाल
5. राष्ट्रपाल
6. गोविशंकर
7.दशाशिघक
8. कैरवत
9. धननन्द
नन्द-वंश का अन्तिम शासक धननन्द एक धनवान और लालची शासक था। 'कथासरित्सागर' में उल्लेख है कि घननन्द के पास 990 करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ थी । महावंश मे लिखा है-सबसे छोटे भ्राता को धनलिप्सा के कारण धननन्द कहा जाता था। उसने अस्सी कोटि धन गंगा की में तलहटी में एकत्र किया था।"
किन्तु अत्यधिक सैन्य और विशाल सम्राज्य का स्वामी होने के बावजूद नन्द-वंश के शासक निम्न कुल की उत्पत्ति के कारण अधिक लोकप्रियता प्राप्त नहीं कर सके। अन्तिम शासक धननन्द अत्यधिक धनलिप्सा के कारण जनता में घृणा का पात्र बन गया। अवसर का लाभ उठाकर चन्द्रगुप्त मौर्य ने धननन्द का वध कर दिया और मगध पर अपना अधिकार कर लिया।
नन्द वंश के पतन के कारण
नन्दों का शासन प्रारम्भ से ही जनता को अप्रिय था, अत: स्वाभाविक था यह वंश लगभग सात शताब्दियों में ही पतन के किनारे में आ गया। महापद्मनन्द जिसने नंद-वंश की स्थापना की थी और मगध के एक विशाल साम्राज्य में परिणित किया, अपने अधर्म स्वभाव तथा नीच कुल के कारण अपनी जनता में कभी प्रिय न हो सका। चन्द्रगुप्त मौर्य ने जिस नन्द-वंश का अन्त कर मौर्य वंश की स्थापना की, विदेशी आक्रमणकारी सिकन्दर महान् को महापद्मनन्द के बारे में लिखा था-"नन्दु शासक अपने अधर्म स्वभाव और नीच कुल के कारण अपनी जनता में कितना अधिक अप्रिय हैं आप के लिए उस पर विजय प्राप्त करना बहुत ही सुगम होगा।"
पोरस ने उसके बारे में टिप्पणी की थी-"गंगा प्रदेश का नन्द वंशीय शासक अत्यन्त घटिया चरित्र वाला व्यक्ति था। उसका प्रजा में कोई सम्मान नहीं है क्योंकि उसे नाई का पुत्र समझा जाता है। महापद्मनन्द ने अपने विशाल सैन्य बल और कुशल सेनापतित्त्व के कारण नन्द वंश की कीर्ति पताका फहराने में सफलता प्राप्त की लेकिन इस सफलता के महत्त्व की कोई 'नीव' नहीं थी। महापद्मनन्द ब्राह्मणों और क्षत्रियों को द्वेश करता था और ये दोनों ही शक्तिशाल जातियाँ नन्द वंश की समाप्ति के लिए आतुर रही।"
इसके अलावा नन्द वंश के पतन के लिए अग्रलिखित महत्त्वपूर्ण कारण उत्तरदायी थे-
(i) नन्दों की उत्पत्ति निम्न कुल से हुई थी। इस वंश के संस्थापक का जन्म शूद्र महिला के गर्भ से हुआ था। इस कारण लोग इस वंश को घृणा की दृष्टि से देखते थे।
(ii) नन्द-वंश के शसकों ने क्षत्रियों का विनाश किया था। इस कारण क्षत्रिय व ब्राह्मण उनसे असंतुष्ट हो गये और आवश्यकता के समय उन्होंने नन्दों का समर्थन और सहयोग नहीं किया।
(iii) धननन्द ने चाणक्य को अपमानित किया था। चाणक्य उस समय महान् राजनीतिज्ञ था। उसने अपने अपमान का बदला लेने के उद्देश्य से नन्द-वंश को समूल नष्ट करने का संकल्प लिया था। उसके इस संकल्प ने नन्द-वंश के विनाश और पतन को अवश्यम्भावी बना दिया। यद्यपि नन्द-वंश का पतन हो गया, तथापि नन्द वंश के शसकों के महत्त्व को इंकार नहीं किया जा सकता। उन्होंने भारत में राजनीतिक एकता स्थापित करने का प्रयास किया था। इसके अतिरिक्त उसके शासनकाल में शूद्रों की स्थिति में उल्लेखनीय सुधार हुआ था। क्योंकि भारतीय इतिहास में प्रथम बार शूद्रों के राज्य की स्थापना हुई थी।
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