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बिम्बिसार से लेकर महापद्मनंद तक मगध का उत्कर्ष
महात्मा बुद्ध के समय में चार प्रसिद्ध राजतन्त्रात्मक राज्य थे-वत्स, अवन्ति, मगध एवं कोशल । इन सभी राज्यों में मगध को छोड़कर और अन्य साम्राज्यवादिता की दौड़ में मगध से पीछे रह गये और मगध ने इन सबको आत्मसात् कर लिया। मगध देश का विवेचन निम्न प्रकार है-
पुराण के अनुसार निम्न राज्य थे और उनका राज्यकाल निम्नवत् था-
(1) शिशुनाग 40 वर्ष तक
(2) काकवर्ण 26 वर्ष तक
(3) क्षातृधर्मन 36 वर्ष तक
(4) क्षातृक 24 वर्ष तक
(5) बिम्बिसार 280 वर्ष तक
(6) अजातशत्रु 27 वर्ष तक
(7) दर्शक 24 वर्ष तक
(8) उदायिन 33 वर्ष तक
(9) नन्दिवर्धन 40 वर्ष तक
(10) महानन्दिन 43 वर्ष तक
महापद्मनंद और उसके आठ पुत्रों ने 100 वर्ष तक राज्य किया।
बौद्ध साहित्य के अनुसार
हर्यक वंश (514-412 ई० पू०)
1. बिम्बिसार 52 वर्ष तक,
2. अजातशत्रु 32 वर्ष तक,
3. उदायिन तथा उसके उत्तराधिकारी 48 वर्ष।
शिशुनाग वंश (412-344 ई० पू०)
4. शिशुनाग 18 वर्ष,
5. काकवर्ण 28 वर्ष,
6. काकवर्ण के 10 पुत्र 22 वर्ष।
नन्द वंश (344-323 ई० पू०)
7. उग्रसेन महापद्म 22 वर्ष
8. उग्रसेन के आठ पुत्र 3 वर्ष
हर्यक वंश (514-412 ई० पू०)
पुराणों का कथन है कि मगध बृहद्रथ वंश के पश्चात् शिशुनाग वंश का आविर्भाव हुआ। जैन और बौद्ध साहित्य के अनुसार बृहद्रथ वंश के बाद हर्यक वंश का आविर्भाव हुआ। इस वंश का संस्थापक बिम्बिसार था। दोनों का सम्बन्ध नागवंश से था। आधुनिकतम विद्वान् विभिन्न साक्ष्यों के आधार पर स्वीकार करते हैं कि बिम्बिसार शिशुनाग से पूर्व हुआ था और वह हर्यक वंश का ही उत्तराधिकारी था।
बिम्बिसार-
543 ई० पूर्व में विम्बिसार ने मगध में हर्यक राजवंश की स्थापना की थी। डा० भण्डारकर का कथन है कि बिम्बिसार प्रारम्भ में केवल सेनापति था और 15 वर्ष की आयु में वज्जियों को पराजित करके एक स्वतन्त्र एवं नवीन राज्य की स्थापना की, परन्तु यह स्वीकार नहीं किया जा सकता है, क्योंकि वह बहुत अल्पायु का था। पुराणों के कथन हैं कि इसके पूर्व चार अन्य राजा राज्य कर चुके थे। यदि वह सेनापति होता तो राज्य कैसे कर रहा था।
नाहर का कथन है, 'सम्भवतः जिस प्रकार सेनानी पुष्यमित्र शुंग ने मौर्य वंश के अन्तिम शासक बृहद्रथ का, जिसका वह सेनापति था, वध करके राज्य अपने हाथ में ले लिया। उसी प्रकार सम्भव है कि बिम्बिसार ने भी सेनापति के पद पर रहकर ही राज्य को अपने अधीन किसी प्रकार बना लिया हो, किन्तु स्वयं महावंश का यह कथन है कि बिम्बिसार 15 वर्ष की आयु में सिंहासनारूढ़ हुआ। यह कथन उपर्युक्त अनुमान को मानने में बाधा उपस्थित करता है, क्योंकि इतनी अल्पायु में कोई वंशानुगत राजा ही हो सकता है। नवीन राजवंश का संस्थापक नहीं हो सकता।
बिम्बिसार का परिवार–
महावग्गानुसार विम्बिसार की 500 रानियाँ थीं, परन्तु यह अतिश्योक्ति प्रतीत होती है। उसने कौशल के राजा प्रसेनजित की बहन कौशल देवी से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किया परन्तु इस विवाह से केवल मैत्री भावना ही उत्पन्न न हुई। वरन् दहेज के साथ काशी ग्राम भी प्राप्त हुआ। उसने अपना दूसरा विवाह वैशाली के लिच्छवि नरेश चेटक की पुत्री के साथ किया और इस प्रकार लिच्छवि नरेश के साथ भी उसका मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित हुआ। तीसरा विवाह मद्र देश की राजकुमारी छेलना के साथ हुआ। बौद्ध साहित्य के अनुसार उसके अनेक पुत्रों के नाम मिलते हैं, जैसे-अजातशत्रु कुबिक, हल्ल, बिहल्ल, नन्दिसेन आदि।
साम्राज्य विस्तार
बिम्बिसार जैसे ही राजा बना सर्वप्रथम अंग राज्य को अपने राज्य में मिला लिया। दूरदर्शिता पूर्ण विवाह में उसे काशी भी प्राप्त हो गया। उस समय मगध की राजधानी गिरिव्रज थी। महाबग्ग का कथन है कि उस समय विम्बिसार के अधीन मगध राज्य में 80,000 ग्राम थे। बुद्धचरित से उसके राज्य-विस्तार का भी ज्ञान प्राप्त होता है। इसके अनुसार इसका राज्य 300 योजन दूर तक विस्तृत था।
शासन-
बिम्बिसार न केवल एक विजेता ही था प्रत्युत् योग्य शासक भी था। उसने अपने सम्पूर्ण शासन को सुचारु रूप से चलाने के लिए अनेक उच्च पदाधिकारियों की नियुक्ति की थी।
उपराजा-
यह सम्भवतः बिम्बिसार का बड़ा पुत्र दर्शक था।
माण्डलिक-
इसमें राज परिवार या सामन्त वैश के लोग रहते थे। ये लोग राजा की आज्ञानुसार ही कार्य किया करते थे।
सेनापति-
सैन्य शासन के संचालन के लिए सेनापति की भी नियुक्ति होती थी। सैनापति बहुत ही योग्य तथा विश्वसनीय व्यक्ति होता था।
सेनापति-महापात्र-
यह सेनापति के अधीन रहकर ही कार्य करता था।
ग्राम भोजक-
गाँव के मुखिया को ग्राम भोजक कहते थे। यह कर वसूल करने का काम करता था
व्यावहारिक महापात्र-
यह प्रमुख न्यायाधीश होता था। बिम्बिसार का शासन बहुत कठोर था जेलखाने के अतिरिक्त जिला काटना, पसलियाँ तोड़ना, मृत्युदण्ड आदि सजाएँ दी जाती थीं। दया का कोई भी स्थान न था। शासन के कार्य में यदि कोई पदाधिकारी अनुचित राय देता था तो उसे निकाल दिया जाता था।
विम्बिसार का धर्म, कला और उसकी मृत्यु-
जैनियों के अनुसार, यह महावीर स्वामी का भक्त था, परन्तु बौद्ध ग्रन्थों से प्रकट होता है कि वह अपने राजगृह में भगवान् बुद्ध से मिला और वह बौद्ध मतावलम्बी हो गया। उसको विद्या एवं कला से बहुत प्रेम था। तक्षशिला शिक्षा का प्रमुख केन्द्र था। वास्तुकला का वह प्रेमी था। उसने अपने गृह राज्य में कई भवनों का निर्माण कराया था। उसने 32 वर्ष तक राज्य किया, परन्तु पुराणों ने 28 वर्ष ही माना है। ऐसा लगता है कि सिंहासन प्राप्ति के लिए उसके पुत्र दर्शक और अजातशत्रु में संघर्ष चल रहा था। अन्त में अजातशत्रु ने अपने पिता बिम्बिसार की हत्या कर दी और दर्शक को उपराजा के पद से पदच्युत कर दिया तथा स्वयं सिंहासनारूढ़ हो गया।
अजातशत्रु-
यह लगभग 490 ई० पू० में गद्दी पर बैठा। पिता की हत्या का परिणाम यह हुआ कि कौशल राज्य कुद्ध होकर काशी प्रान्त फिर से ले लेने को तत्पर हो गया। अजातशत्रु इसके लिए तैयार न था। युद्ध हुआ तथा अजातशत्रु बन्दी बना लिया गया।
बन्दीगृह में प्रसेनजित की पुत्री वाजिरा से इसका प्रेम-सम्बन्ध स्थापित हो गया। अन्त में उसका विवाह हो गया और काशी प्रान्त अजातशत्रु के ही पास रह गया।
अजातशत्रु ने पाटलिपुत्र के पास एक दुर्ग बनवाया और वज्जिसंघ को 9 वर्षों तक युद्ध करने के बाद जीतकर अपना राज्य हिमालय की तलहटी तक बढ़ा लिया। अपने पिता के समान ही वह धर्मसहिष्णु राजा था। पहले वह जैन मतावलम्बी था। बाद में वह बौद्ध मतानुयायी हो गया। दुर्भाग्यवश वह अपने पुत्र उदायी के षड्यन्त्र से मार डाला गया।
उदायी और उसके उत्तराधिकारी उदायी ने पाटलिपुत्र को संगठित ढंग से बसाया था। उसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी। यहीं से उसका व्यापार दूर-दूर तक होता था। उसके तीन पुत्र थे, अनुरुद्ध, मुण्ड और नागदासक। तीनों ने थोड़े-थोड़े से समय तक राज्य किया।
दिन प्रतिदिन नये-नये षड्यन्त्र और हत्याएँ होने लगीं। जनता पिता के हत्यारे राजा से घृणा करने लगी, जिसके कारण नागवंश की दूसरी शाखा ने मगध पर अपना राज्य स्थापित किया। यह वंश शिशुनाग वंश था।
शिशुनाग वंश (412-344 ई० पू०)
शिशुनाग बहुत ही शक्तिशाली राजा था। उसने अवन्ति पर आक्रमण किया और उसे अपने राज्य में मिला लिया। अपनी राजधानी उसने पाटलिपुत्र से बदलकर राजगृह कर दी। उसने कौशल पर भी अधिकार कर लिया। 18 वर्ष तक उसने राज्य किया, उसके बाद काकवर्ण राजा हुआ। उसने फिर अपनी राजधानी पाटलिपुत्र बना ली, उसके दस पुत्र थे—उग्रसेन, कोरण्डवर्ण, मंगुर, सर्वज्ञा, जालिक, उभक, संजय, कोरव्य, नन्दिवर्धन और पंचलक। नन्दिवर्धन व्यभिचारी था। उसकी शूद्रा पत्नी से उत्पन्न महापद्मनंद ने शिशुनाग वंश को नष्ट करके, नन्द वंश की स्थापना की।
'नंदवंश (344-323 ई० पू०)
महाबोधि वंश के अनुसार नन्द हुए। इसमें उग्रसेन प्रथम को शासक और उग्रसेन को ही पुराणों ने महापानंद के नाम से पुकारा है।
महापरानंद-
पुराणों के अनुसार, नन्दिवर्धन की बड़ी रानी से महापद्यनंद का जन्म हुआ। वह अत्यन्त बलवान किन्तु बड़ा लोभी तथा क्षत्रियों का नाशक था। उसने इक्ष्वाकु वेशियों, पांचालों, कोरव्यकों, हैहयों, कालकों, एकलिगो, शूरसेन, मिथिलों आदि राजाओं को जीतकर परशुराम के समान एकछत्र शासन किया। हिमालय और विन्ध्य के बीच उसका सर्वमान्य राज्य हुआ।
इस प्रकार वह एक विशाल राज्य का स्वामी था। वह एक कुशल सेनापति था। योग्यता और वीरता के साथ वह अत्यधिक लोभी था। उसने नये-नये कर लगा दिये जो कभी जनता पर न लगे थे। जनता उसकी इस नीति से बहुत दु:खी थी।
महापद्मनंद के उत्तराधिकारी और नन्द वंश का पतन
उसके पुत्र का नाम धनानन्द था। पद्मनन्द के पास अतुल धनराशि थी। कहते हैं उसके पास 990करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ थीं। महापद्मनंद एक शूद्र रखैल से उत्पन्न हुआ था, इसीलिए उसे हेय दृष्टि से देखा जाता था। नन्दों ने अपने प्राचीन वैदिक धर्म को त्यागकर जैन धर्म स्वीकार किया था। पतित होने और निम्न कुल में उत्पन्न होने के कारण वह ब्राहाणों की मान-मर्यादा के प्रति भी हमेशा उदासीन रहता था। उसकी उग्र आर्थिक नीति के परिणामस्वरूप प्रजा भी बहुत दुःखी थी। इसी समय नन्द वंश का शत्रु चाणक्य और सम्राट बनने का स्वप्न को देखने वाले चन्द्रगुप्त दोनों ने मिलकर नन्द साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया और नन्द वंश का सर्वनाश हो गया।
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