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प्राचीन भारत पर पारसीक आक्रमण और भारतीय इतिहास पर इसके प्रभावों का वर्णन || Praacheen bhaarat par paaraseek aakraman aur bhaarateey itihaas par isake prabhaavon ka varnan

 इस पोस्ट में हम प्राचीन भारत पर पारसीक आक्रमण और भारतीय इतिहास पर इसके प्रभावों का वर्णन  के बारे में जाने गें


भारत पर पारसीक आक्रमण एवं उसके प्रभावों की विवेचना 

जिस समय मगध के नेतृत्त्व में पूर्वी भारत में राजनीतिक एकीकरण का दौर चल रहा था, लगभग उसी समय परिश्चमोत्तर भारत में राजनीतिक अस्थिरता और विकेन्द्रीकरण का दौर था। उस समय कोई शक्तिशाली राजनीतिक शक्ति नहीं थी। अनेक छोटे-बड़े राज्य थे और देश में एकतान्त्रिक शक्ति का अभाव था। फलतः इस राजनीतिक अराजकता और दुर्बलता ने 'विदेशी आक्रमणकारियों को अपनी ओर आकृष्ट किया, जिसे भारत पर विदेशियों के दो जबरदस्त आक्रमण हुए। इनमें प्रथम इरानी या हखामनी आक्रमण था और दूसरा यूनानी आक्रमण जो सिकन्दर के नेतृत्त्व में हुआ था। ईरानी आक्रमण के सन्दर्भ में भारतीय साहित्य में उल्लेख नहीं मिलता। फिर भी ईरानी आक्रमण के बारे में हेरोडोट्स, स्ट्रैबों और एरियन के उल्लेखों के अतिरिक्त हाखामनी शिलालेखों से भी ज्ञात होता है। मध्य एशिया से प्राप्त बहिस्तान एवं नक्श- ए-रुस्तम अभिलेखों में भी ईरानी विजय-अभियान का उल्लेख मिलता है।

भारत में ईरानी आक्रमण का स्वरूप:-

साइरस के अभियान-साइरस या कुरुष (558- 530 ई. पू.) ईरानी का एक शक्तिशाली शासक था। हखामनी-वंश की स्थापना का श्रेय उसे ही दिया जाता है। उसने अपनी स्थिति सुदृढ़ कर भारत-विजय की योजना बनाई। मकरान के रास्ते उसने भारत में प्रवेश करने का प्रयास किया, परन्तु इस अभियान में उसे सफलता नहीं मिली उसे निराश होकर वापस लौटना पड़ा। ग्रीक इतिहासकार मेगास्थनीज और निर्याकष की धारणा है कि साइरस को भारत-अभियान में सफलता नहीं मिली, परन्तु लैटिन (रोमन) इतिहासकार प्लिनी का अभिमत है कि साइरस को काबुलघाटी के कुछ सफलता प्राप्त हुई साइरस ने कपिशा के विख्यात नगर को नष्ट कर दिया। एरियन भी भारत पर साइरस के अधिकार की पुष्टि करता है। उसके अनुसार भारत की अश्वक और अष्टक जातियाँ हखामनी-साम्राज्य की प्रजा थीं और साइरस को टैक्स देती थीं। स्ट्रैबो तो यहाँ तक कहता है कि पंजाब के क्षुद्रक ईरानी साम्राज्य में भाड़े के सिपाहियों के रूप में काम करते थे। इन विरोधी विवरणों को देखते हुए यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यद्यपि साइरस को भारत-विजय में सफलता नहीं मिली, तथापि उसने बैक्ट्रिया, सीस्तान और मकरान को जीतकर कपिशा पर अधिकार कर लिया। उसने हिन्दुकुश- पर्वतमाला तक के प्रदेश पर अधिकार कर लिया। उसे काबुलघाटी में सफलता मिली, लेकिन सिंधु नदी के पश्चिम वह नहीं बढ़ सका। साइरस के सैनिक अभियानों के परिणामस्वरूप हखामनी-साम्राज्य की पूर्वी सीमा भारत की पश्चिमी सीमा से मिल गई। अब भारत-विजय का मार्ग सुगम हो गया। 

दारा (डेरियस प्रथम)-

दारा डेरियस प्रथम ईरान के हखामनी वंश का राजा था। उसके शासनकाल के तीन अभिलेकों बेहिस्तून, पार्सिपोलिस और नक्श-ए-रुस्तम से भारत-पारसीक सम्बन्धों के विषय में महत्त्वपूर्ण सूचना मिलती है। उसका भारत के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध था। हखामनी साम्राज्य का विस्तार करते हुए उसने कम्बोज, पश्चिमी गन्धार और सिन्ध को भी जीत लिया। उसने अपने राज्य को 23 प्रान्तों में विभक्त किया, जिनके शासकों को क्षत्रप कहा जाता है। कम्बोज, गान्धार और सिन्ध इन दोनों प्रान्तों में शामिल थे और इनमें डेरियस को बहुत धन प्राप्त होता था। ‘सप्त सिन्धु' प्रदेश जो सम्भवतः आधुनिक पंजाब के पास स्थित था, उसके साम्राज्य में सम्मिलित था। उसके समय में हिन्दुकुश का क्षेत्र भी हखामनी साम्राज्य में शामिल हो गया। हेरोडोटस से अनुसार भारत दारा के साम्राज्य का 20 वाँ प्रान्त था। दारा ने 517 ईसा पूर्व में अपने नौसेनाध्यक्ष स्काईलैक्स की अध्यक्षता में एक जहाजी बेड़ा सिन्धु नदी के मार्ग का पता लगाने के लिए भेजा, इस बेड़ा ने भारत के कुछ भागों पर अधिकार कर लिया। उसने सिन्धु नदी की निचली घाटी पर आक्रमण कर लिया। हेरोडोटस के अनुसार दारा के साम्राज्य के सम्पूर्ण सिन्धु घाटी का प्रदेश सम्मिलित हो गया तथा पूर्व की ओर उसका विस्तार राजपुताना के रेगिस्तान तक था। सम्भवतः इसमें पंजाब का एक बड़ा भाग भी सम्मिलिति था। उसकी विजयों ने समस्त सिन्धु घाटी को एकता के सूत्र में बाँधकर भारत का सम्पर्क पाश्चात्य जगत् से जोड़ दिया।

क्षहर्याश (क्षयार्ष)-

डेरियस प्रथम के उत्तराधिकारी क्षहर्याश (486-465 ई० पू०) ने भारतीय प्रान्तों पर अपना प्रभाव बनाए रखा। उसकी सेना में भारतीय सैनिकों को बड़ी संख्या में नियुक्त किया गया। इस सेना ने यूनान के साथ हुए युद्ध में (ईरान और यूनान) भाग लिया। हेरोडट्स गन्धार के इन सिपाहियों की वेश-भूषा का भी उल्लेख करता है। वे सिपाही तीर- कमान और छोटे भालों से सुसज्जित थे। उनके तीरों के अग्र भाग पर लोहा लगा रहता था। वे सूती वस्त्र पहनते थे। यद्यपि क्षहर्याश के सैनिक अभियानों का विवरण नहीं मिलता, तथापि कहा जाता है कि इस राजा ने भारत में अनेक मंदिरों को तोड़ डाला, भारतीय देवताओं की पूजा बंद करवा दी तथा उसके बदले अहुरमज्दा ( जो ईरान का प्रधान देवता था) और प्रकृति की पूजा (ऋतम) करने का आदेश दिया।

भारत में ईरानी सत्ता का अंत (पतन)-क्षहर्याश के पश्चात् भारत में ईरानियों का प्रभुत्त्व धीरे-धीरे समाप्त होने लगा। तथापि चौथी शताब्दी ई. पू. तक भारत पर ईरान का प्रभाव बना रहा। टेरियस (405-358 ई. पू.) का कहना है कि ईरान के बादशाह (अर्टाजरक्सीज, जो अहर्याश का उत्तराधिकारी था और जिसके दरबार में टेसियस रहता था।)को भारत में बहुमूल्य तोहफे मिलते थे। डेरियस तृतीय के समय तक (335-330 ई. पू.) भारतीय भू-भाग पर ईरान की प्रभुता और उसके भारतीय साम्राज्य को नष्ट कर दिया। भारतीय इतिहास पर ईरानी आक्रमण का प्रभाव-अनेक विद्वानों की धारणा है कि ईरानी आक्रमण का भारतीय इतिहास और संस्कृति पर कोई स्थायी प्रभाव नहीं पड़ा। भारतीय इतिहास की धारा अपनी निश्चित गति से चलती रही। ईरानियों का प्रभाव पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत से तत्काल ही समाप्त हो गया, परन्तु ऐसी धारणा उचित नहीं है। यद्यपि राजीतिक दृष्टिकोण से ईरानी प्रभाव के परिणाम स्थायी नहीं निकले, तथापि सांस्कृतिक तौर पर ईरानी प्रभुत्त्व का भारत पर निश्चय ही प्रभाव पड़ा। अपने 200 वर्षों के प्रभुत्त्व के दौरान ईरानी और भारतीय एक-दूसरे के नजदीक आए। फलतः भारतीय संस्कृति को ईरानियों ने प्रभावित किया। 

राजनीतिक प्रभाव-

ईरानी विजय या आक्रमण का भारतीय इतिहास पर कोई स्थायी प्रभाव नहीं पड़ा। ईरानी सीमान्त प्रदेश में आगे नहीं बढ़ सके। सीमांत-क्षेत्र में भी उनकी विजय का स्थायी प्रभाव नहीं पड़ा शीघ्र ही उनकी सत्ता नष्ट हो गई, परन्तु परोक्ष रूप से ईरानी आक्रमण ने भारतीय इतिहास को प्रभावित किया। ईरानी आक्रमण ने सीमांत-प्रदेश की राजनीतिक स्थिति का खोखलापन विदेशियों पर जाहिर कर दिया। वे इस बात को अच्छी तरह समझ गए कि इस क्षेत्र में कोई भी ऐसी संगठित शक्ति नहीं है, जो विदेशियों को रोक सके। फलतः भारत- विजय की अभिलाषा उनमें बलवती हो गई। ईरानी आक्रमण से प्रेरणालेकर ही यूनानी विजेता सिकन्दर महान् ने भारत-विजय की योजना बनाई। उसने अपने आक्रमण के लिए ईरानियों द्वारा अपनाया गया मार्ग ही अपनाया। इस प्रकार, ईरानी आक्रमण ने परोक्ष रूप में सिकन्दर की भारत-विजय का मार्ग प्रशस्त कर दिया।

प्रशासनिक प्रभाव-

ईरानी आक्रमण के फलस्वरूप कुछ ईरानी प्रशासनिक तत्त्व भारतीय प्रसासन में भी प्रविष्ट कर गए। भारतीय शासकों ने हखामनी-सम्राटों की अनेक प्रथाओं को अपना लिया। मौर्यकाल में ईरानी प्रभाव परिलक्षित होता है। मेगास्थनीज के विवरण (इण्डिका) से इन प्रथाओं की पुष्टि होती है। चंद्रगुप्त मौर्य ने ईरानी राजाओं की ही तरह बाल धोने का उत्सव मनाना आरंभ किया, स्त्री-अंगरक्षकों को नियुक्त किया एवं सुरक्षा के उद्देश्य से एकांत स्थान में रहना आरंभ किया। इसी प्रकार, ईरानी व्यवस्था के अनुरूप ही साम्राज्य को विभिन्न प्रांतों (क्षत्रपों) में विभक्त कर उनका शासन 'क्षत्रपों' या प्रांतीय गवर्नरों को सौंप दिया गया। यह प्रथा बाद के शक-कुषाण शासकों के समय में और अधिक विकसित हुई। ईरानी अधिकारियों को भारत में प्रशासनिक पद भी सौंपे गए। ईरानी तुषस्प चंद्रगुप्त मौर्य के समय में काठियावाड़ का प्रांतपति नियुक्त किया गया। अशोक की राजाज्ञाओं की प्रस्तावना और उनमें प्रयुक्त शब्दों ('दिपी', 'निपिष्ट' इत्यादि) के व्यवहार में ईरानी प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।

सांस्कृतिक प्रभाव-

भारतीय संस्कृति के ईरानी सम्बन्धों से लाभान्वित हुई। इसका सबसे स्पष्ट प्रभाव लिपि पर पड़ा अनेक इतिहासकारों का विचार है कि ईरानी प्रभुत्त्व के दौरान भारत के उस क्षेत्रों में अरामाइक-लिपि का प्रचार हुआ, जो हखामनी-साम्राज्य के अंतर्गत थे। इसी लिपि के आधार पर खरोष्ठी-लिपि का विकास हुआ, जो अरबी की तरह दाएँ से बाएँ की तरफ लिखी जाती थी। यह लिपि भारत में तीसरी शताब्दी ई.पू. से ईसा की तीसरी शताब्दी तक प्रचलित रही। भारतीयों ने ईरानियों से ही पवित्र अग्नि जलाने की प्रथा भी अपनाई। ईरानी संपर्क के कारण अनेक भारतीय ईरान गए। उन्हें सैनिकों के रूप में हखामनी सेना में स्थान मिला। भाड़े के सिपाही के रूप में वे ईरान की ओर से यूनानियों से लड़े भी।

 आर्थिक प्रभाव-

ईरान और भारत के सम्बन्धों ने दोनों देशों में व्यापारिक संबंध भी बढ़ाए। भारतीय व्यापारी अपना माल लेकर हखामनी साम्राज्य के विभिन्न भागों में जाने लगे। इससे परस्पर व्यापार की प्रगति हुई। व्यापारियों के साथ ही अनेक भारतीय दार्शनिक एवं चिंतक भी ईरान गए। इन लोगों ने ईरानियों के माध्यम से यूनानियों से भी संपर्क स्थापित किया। ईरानियों ने भारत में चाँदी के सिक्के का प्रचलन भी आरंभ किया। कुछ विद्वानों का विचार है कि भारत में सिक्कों का प्रचलन ईरानियों के आगमन के साथ ही हुआ, परन्तु ऐसी धारणा भ्रामक है।

भौगोलिक खोजों को प्रोत्साहन-

ईरान आक्रमण के परिणामस्वरूप भौगोलिक खोजों को प्रोत्साहन मिला। दारा (डेरियस) प्रथम जिस समय भारत-विजय की योजना बना रहा था उसी समय उसने स्काईलेक्स नामक नाविक को सिंधु नदी के जलमार्ग का पता लगाने को भेजा था। स्लाईलेक्स की भौगोलिक खोज ने ईरान और भारत के बीच संपर्क सुगम बना दिया। ईरान द्वारा भारतीय यूनान के संपर्क में भी आए। यह भी कहा जाता है कि ईरान के रास्ते कुछ भारतीय दार्शनिक यूनान पहुँचे और वहाँ सुकरात से भेंट की।

भारतीय कला पर प्रभाव-

ईरानी संपर्क ने भारतीय कला को भी प्रभावित किया। मौर्यकालीन काल पर ईरानी काल का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। विभिन्न विद्वानों का अभिमत है कि अशोक ने शिलालेख खुदवाने की प्रेरणा ईरान से ही प्राप्त की। पत्थर को चिकना करने की कला भी भारतीयों ने ईरान से ही सीखी। मौर्यकालीन मूर्तिकला पर भी ईरानी प्रभाव देखा जा सकता है। अशोक-स्तम्भों के शीर्ष पर पाई जाने वाली घण्टानुमा आकृतियाँ भी ईरान से ही अनुकृत की गई। यह भी कहा जाता है कि पाटलिपुत्र में स्थित चंद्रगुप्त मौर्य का राजप्रसाद पर्सीपोलिस के राजमहल के ढाँचे पर ही तैयार किया गया था। ईरानी आक्रमण ने, इस प्रकार भारतीय इतिहास और संस्कृति को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित किया।

निष्कर्षतः 

भारत पर परसीक आक्रमण का प्रभाव राजनीतिक क्षेत्र की अपेक्षा सांस्कृतिक क्षेत्र पर अधिक पड़ा। राजनीतिक क्षेत्र में इसका प्रभाव यह रहा की भारतीय राजाओं अथवा शासकों ने पश्चिमोत्तर भारत में संगठित होकर पारसी साम्राज्य को देखकर भारत में ऐसा ही साम्राज्य स्थापित करने की प्रेरणा प्राप्त हुई। स्काइलेक्स द्वारा खोजे गए समुद्री रास्ते के माध्यम से भारतीय व्यापारी ईरान गये तथा इन व्यापारियों के माध्यम से भारतीय वस्तुएँ मिस्र तथा यूनान आदि देशों तक पहुँची। उसी प्रकार इरानी चिन्तक एवं व्यापारी भी भारत आये तथा भारत की समृद्धता ज्ञान, विज्ञान की जानकारी विश्व के अन्य देशों को उपलब्ध करायी। इरानियों को प्रेरणा स्रोत मानकर सिकन्दर ने भारत पर अपना आक्रमण किया। मौर्य साम्राटों ने इरान की आचार-विचार (सभ्यता एवं संस्कृति) को आत्मसात् कर इरानियों के प्रभाव को स्वीकार किया। इरानी सम्पर्क के कारण भारतीय पश्चिमोत्तर भाग में अरमेइक नामक नूतन लिपि का विकास हुआ। जिससे बाद में खरोष्ठी लिपि का विकास हुआ। अतः भारत के सांस्कृतिक जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी इरानी प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है।


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