- मौर्य वंश की उत्पत्ति का वर्णन करते हुए इनके उत्पत्ति से सम्बन्धित साक्ष्यों पर एक विस्तृत टिप्पणी लिखिए।,
- मौर्य कौन थे? उनकी उत्पत्ति एवं मूल स्थान पर एक विवेचनात्मक निबन्ध लिखिए।,
- मौर्य वंश का कार्यकाल क्या था
- मौर्य प्रशासन का वर्णन करें
- मौर्य वंश का गोत्र
- मौर्य साम्राज्य की राजधानी
- मौर्य वंश का अंत किसने किया
- मौर्य वंश के संस्थापक कौन थे
- मौर्य साम्राज्य की सफलता के कारणों का वर्णन करें
- मौर्यवंशी कौन थे?
- मौर्य साम्राज्य में नजराना का क्या अर्थ है?
- मौर्य कौन थे संक्षिप्त में वर्णन कीजिए?
- क्या मौर्य शूद्र है?
मौर्य वंश की उत्पत्ति का वर्णन
इतिहास प्रसिद्ध मौर्य वंश का संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य को माना जाता है। इस वंश और जाति के सन्दर्भ में भारतीय साहित्य और उनके लेखकों ने अलग-अलग मत व्यक्त किया है। कुछ ग्रन्थ उसे शूद्र बताते हैं और कुछ ग्रन्थ उसे क्षत्रिय कुल का बताते हैं। मौर्य वंश के जाति सम्बन्धी इतिहास को जानने के लिए तत्कालीन साक्ष्यों में ब्राह्मण ग्रन्थ विशाखदत्त द्वारा रचित मुद्राराक्षस, विष्णुपुराण, मध्यकालीन टीका, सोमदेव कृत 'कथा सरित्तसागर, क्षेमेन्द्रकृत वृहत्कथा मञ्जरी आदि अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। इन्हीं धर्मग्रन्थों तथा तत्कालीन संस्कृत साहित्यों से इस वंश के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त होती है। बौद्ध तथा जैन ग्रन्थों में भी इनके जाति से सम्बन्धित वर्णन मिलता है।
मौर्य वंश के उत्पत्ति सम्बन्धी साक्ष्य
ब्राह्मण साहित्य -ब्राह्मण साहित्य में सर्वप्रथम पुराणों का उल्लेख किया जाता है। पुराणों में नन्दों को शूद्र वंश का बताया गया है। विष्णु पुराण में कहा गया है कि शैशुनाग वंशी शासक महानंद के पशचात् शूद्र योनि के राजा पृथ्वी पर राज्य करेंगे विष्णु के एक भाष्यकार श्रीधर स्वामी ने चन्द्रगुप्त को नन्दराज की पत्नी 'मुरा' से उत्पन्न बताया है। उनके अनुसार, मुरा की सन्तान होने के कारण ही वह मौर्य कहा गया है। दूसरा प्रमाण विशाखदत्त के 'मुद्राराक्षस' नामक नाटक से लिया गया है। मुद्राराक्षस में चन्द्रगुप्त को नन्दराज का पुत्र माना गया है, किन्तु इसमें जो विवरण मिलता है उससे स्पष्ट हो जाता है कि चन्द्रगुप्त नन्दराज का वैध पुत्र नहीं था क्योंकि नाटक में नन्दवंश की चन्द्रगुप्त का 'पितृक्ल भूत' अर्थात् पितृकुल बताया गया, पद उल्लिखित है। यदि चन्द्रगुप्त नन्दराका का वैध पुत्र होता तो उसके लिए 'पितृकुल' का प्रयोग मिलता। पुनश्च एक स्थान पर लिखा गया है कि नन्दराज का समूल नाश हो गया। यदि चन्द्रगुप्त नन्दराज का वास्तविक पुत्र होता तो उसके बचे रहने का प्रश्न ही नहीं उठता। यदि नाटक नन्दों को उच्च कुल तथा चन्द्रगुप्त को निम्न कुल का बताता है। इस ग्रन्थ में चन्द्रगुप्त को 'वृषल' तथा 'कुलहीन' कहा गया है।
18वीं शताब्दी ईसवी के मुद्राराक्षस के एक 'टीकाकार' दुन्डिराज के अनुसार स्वार्थसिद्धि नामक एक क्षत्रिय राजा की दो पत्नियाँ थीं-सुनन्दा तथा मुरा। सुनन्दा एक क्षत्राणी थी जिसके नी पुत्र हुए जो नवनन्द कहे गये। मुरा शूद्र थी। उसका एक पुत्र हुआ जो मौर्य कहा गया।
सोमदेवकृत 'कथा सरित्सागर' तथा क्षेमेन्द्र की 'वृहत्कथामंजरी'इन दोनों में चन्द्रगुप्त की शूद्र उत्पत्ति के विषय में एक भिन्न विवरण मिलता है। इन ग्रन्थों के अनुसार, नन्दराज की अचानक मृत्यु हो गयी तथा इन्द्रदत्त नामक एक व्यक्ति ने योग के बल पर उसकी आत्मा में प्रवेश कर राजा बन बैठा। उसने नन्दराज की पत्नी से विवाह कर लिया जिससे उसे हिरण्यगुप्त नामक पुत्र उत्पन्न हुआ, किन्तु वास्तविक नन्दराजा को पहले से ही चन्द्रगुप्त नामक एक पुत्र था। योगनन्द अपने तथा अपने मित्र हिरण्यगुप्त के मार्ग में चन्द्रगुप्त को बाधक समझता था जिससे दोनों में वैमनस्य होना स्वाभाविक था। वास्तविक नन्दराज के मंत्री शकटार ने चन्द्रगुप्त का पक्ष लिया। उसने चाणक्य नामक ब्राह्मण को अपनी ओर मिलाकर उसकी सहायता से शकटार और योगनन्द तथा हिरण्यगुप्त का अन्त कर दिया तथा राज्य का वैध उत्तराधिकारी चन्द्रगुप्त ही सिंहासन पर बैठा। इस प्रकार इन ग्रन्थों में चन्द्रगुप्त को नन्दराज का पुत्र मानकर उसकी शूद्र उत्पत्ति का मत व्यक्त किया है।
शूद्र उत्पत्ति के मत की समीक्षा-
यदि हम सावधानीपूर्वक मतों की समीक्षा करें तो ऐसा लगेगा कि वे कल्पना पर अधिक आधारित हैं, ठोस तथ्यों पर कम। पाणिनीय व्याकरणों के नियमों के अनुसार, मौर्य शब्द की उत्पत्ति पुल्लिंग मुरा शब्द से होगी। मुरा शब्द से मौरेय बनेगा, मौर्य नहीं। जहाँ तक वृषल तथा कुलहीन शब्द का प्रश्न है। इसके आधार पर भी हम चन्द्रगुप्त को शूद्र नहीं कह सकते। मनुस्मृति तथा महाभारत में 'वृषल' शब्द का प्रयोग धर्मच्युत व्यक्ति के लिए किया गया है। जो पुरुष धर्म का नाश करता है, उसे वृषल कहते हैं। अत: धर्म का नाश नहीं करना चाहिए। चाणक्य इसे शूद्र अर्थ में कदापि प्रयुक्त नहीं कर सकता। वह चन्द्रगुप्त को प्रेमपूर्वक ही 'वृषल' कहता है।
बौद्ध साहित्य -
ब्राह्मण परम्परा के विपरीत बौद्ध ग्रन्थों का प्रमाण मौर्यों को क्षत्रिय जाति से सम्बन्धित करता है। यहाँ चन्द्रगुप्त 'मोरिय' क्षत्रिय वंश कहा गया है। ये 'मोरिय' कपिलवस्तु के शाक्यों की ही एक शाखा थे। जिस समय कोशल नरेश विड्डभ ने कपिलवस्तु पर आक्रमण किया, शाक्य परिवार के कुछ लोग कोशल नरेश के अत्याचारों से बचने के लिए हिमालय के एक सुरक्षित क्षेत्र में आकर बस गये। बौद्ध ग्रन्थ महावंश टीका के अनुसार- चन्द्रगुप्त मौर्य क्षत्रिय था (मोरियानां शाक्यानां परोन्तानाम् )। इस ग्रन्थ के अनुसार वे शाक्य जाति के थे जो छठी सदी ई० पू० में कोशल नरेश के भीषण नरसंहारी आक्रमण के कारण भाग गये थे तथा नेपाल की तराई में 'मोरिय राजवंश की स्थापना की। मयूर बाहुल्य प्रदेश होने के कारण उनका नाम मयूर नगर पड़ा तथा उनका वंश “मौर्य वंश" कहलाया। अनेक बौद्ध ग्रन्थ बिना किसी सन्देह के चन्द्रगुप्त को क्षत्रिय घोषित करते हैं। महाबोधि वंश उसे राजकुल से सम्बन्धित बताता है जो मोरिय नगर में उत्पन्न हुआ। महावंश में चन्द्रगुप्त 'मोरिय' नामक क्षत्रिय वंश में उत्पन्न कहा गया है। 'महापरिनिब्बानसुत्त' में मौर्यों को पिप्पलिवन का शासक तथा क्षत्रिय वंश का कहा गया है। इसके अनुसार बुद्ध की मृत्यु के बाद मोरियों ने कुशीनारा के मल्लों के पास उनके अवशेषों का अंश प्राप्त करने के लिए राजदूत भेजकर अपने क्षत्रिय होने के आधार पर ही दावा किया था। महापरिनिब्बानसुत्त प्राचीनतम बौद्ध ग्रन्थ है, अतः इसे अपेक्षाकृत अधिक विश्वसनीय माना जा सकता है। दिव्यावदान में अशोक एवं बिन्दुसार को स्पष्टतया क्षत्रिय कहा गया है। उसमें एक स्थान पर बिन्दुसार एक स्त्री से कहता है- "त्वं नायिनी, अहं राजाक्षत्रियो मूर्धाभिषिक्तः। कथां मया साधु, समागमो भविष्यति।"
एक अन्य स्थान पर अशोक अपनी रानी से कहता है। "देवि! अहं क्षत्रियः", "कथं पलाण्डं परिभक्ष्यामि।" इस प्रकार प्राचीन बौद्ध ग्रन्थों से मौर्य क्षत्रिय कुल के प्रमाणित होते हैं जो सही हैं।
जैन साहित्य-
इसमें हेमचन्द्र का 'परिशिष्टपर्वन' सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। इसमें चन्द्रगुप्त को 'मयूर पोषकों के ग्राम के मुखिया के पुत्री का पुत्र बताया गया है। 'आवश्यक सूत्र' के हरिभद्रीया टीका में भी चन्द्रगुप्त को मयूर पोषकों के ग्राम के मुखिया के कुल में उत्पन्न कहा गया है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि जैन ग्रन्थ नन्दों को शूद्र बताकर उनकी निन्दा करते हैं जबकि मौर्यों की शूद्र उत्पत्ति का संकेत तक नहीं करते।
वैश्य कुल से सम्बन्धित-
प्रसिद्ध भारतीय इतिहासकार डॉ० रोमिला थापर मौर्यों को वैश्य कुलोत्पन्न मानती हैं। उनके अनुसार रुद्रदामन के सागर अभिलेख में मौर्य साम्राज्य में चन्द्रगुप्त का बहनोई था। कीलहान महोदय भी इस विचार का उल्लेख करते हैं। डॉ० थापर के अनुसार गुप्त उपाधि वैश्यों द्वारा ही धारण की जाती थी किन्तु यह असंगत है क्योंकि चाणक्य का एक नाम विष्णुगुप्त था जबकि वह ब्राह्मण था उसके अतिरिक्त और भी कई शासक गुप्त न होते हुये नाम के अंत में गुप्त लगाते थे। अत: यह तर्कसंगत नहीं सिद्ध होता।
विदेशी लेखकों का विवरण-
सिकन्दर के उत्तरकालीन यूनानी लेखकों ने चन्द्रगुप्त के सम्बन्ध में जो विवरण दिये हैं वे यहाँ विचारणीय है। यूनानी लेखक उसे एन्ड्रोकोट्स', 'सेन्ड्रोकोट्स' आदि नाम से जानते हैं। प्लूटार्क के विवरण से यह पता चलता है कि जब वह युवा था तभी सिकन्दर से मिला था तथा बाद में कहा करता था कि सिकन्दर ने बड़ी आसानी से सम्पूर्ण देशों को जीत लिया होता क्योंकि नन्द राजा अपने कुल की निम्नता के कारण जनता में अत्यधिक घृणित एवं अप्रिय था। इससे निष्कर्ष निकलता है कि चन्द्रगुप्त यदि स्वयं निम्न कुलोत्पन्न होता तो वह नन्दों को कुल के विषय में ऐसी बातें ही न करता। जस्टिन के अनुसार, चन्द्रगुप्त एक सामान्य कुलोत्पन्न व्यक्ति था।
उपरोक्त विवेचनों के आधार पर चन्द्रगुप्त को क्षत्रिय मानना ही सर्वथा समीचीन प्रतीत होता है, वह मोरिय वंश से सम्बन्धित उच्चकुलीन क्षत्रिय था।
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1 Comments
कतिपय विद्वानों के अनुसार 'मौर्य' शब्द संस्कृत भाषा के पुल्लिंग शब्द 'मुर' से बना है जो महर्षि पाणिनी के कथनानुसार एक गोत्र का नाम था। इसलिये इस व्याख्या के अनुसार वह लोग जो 'मुर' गोत्र के थे 'मौर्य' कहलाये।
ReplyDeleteबौद्ध तथा जैन ग्रन्थों के अनुसार 'मौर्य' शब्द प्राकृत भाषा के 'मोरिय' शब्द का संस्कृत रूपान्तर है। 'मोरिय' एक क्षत्रिय वर्ग का नाम था जो नेपाल की तराई में 'पिप्पलिवन' नामक राज्य में शासन करता था। चूंकि इस प्रदेश में मयूर अर्थात् मोर पक्षियों का बाहुल्य था, इसलिये वहाँ के निवासी तथा उसके वंशज ' मौरिय' अथवा ' मौर्य' कहलाये।
कतिपय बौद्ध ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य मयूर पालकों के एक मुखिया की कन्या का पुत्र था जो क्षत्रिय-वंश का था। सम्भवतः ये क्षत्रिय शत्रुओं द्वारा जन्मभूमि से भगा दिये गये थे और छिप कर मयूर पलकों के रूप में पाटलिपुत्र के निकट जीवन व्यतीत कर रहे थे। जब इस क्षत्रिय-वंश के एक व्यक्ति ने अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया तो अपने मयूर पालक पूर्वजों की स्मृति में अपने नाम के आगे मौर्य शब्द जोड़ दिया।
सांची के पूर्वी द्वारों पर जो चित्रकारी की गई है उस पर मोर पक्षी के चित्र बने हुए हैं। इससे मार्शल ने यह निष्कर्ष निकाला है कि सम्भवतः मोर पक्षी मौर्य-वंश का राज्य चिह्न था और इस राज्य चिह्न के कारण ही इस वंश का नाम मौर्य वंश पड़ा। चूंकि राज-वंशों के चिह्न प्रायः पशु-पक्षी हुआ करते थे इसलिये मार्शल का यह अनुमान निराधार नहीं कहा जा सकता।