चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रशासन का वर्णन कीजिए।,मौर्य शासन के अन्तर्गत चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन प्रणाली (व्यवस्था) के,विशिष्ट तत्त्वों (प्रमुख विशेषताओं) का वर्णन कीजिए।,मौर्य शासन प्रणाली के विशिष्ट तत्त्वों के अन्तर्गत मौर्य युगीन प्रशासन, समाज,एवं आर्थिक दशा पर एक समीक्षात्मक निबन्ध लिखिए।,
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चन्द्रगुप्त मौर्य का शासन प्रबन्ध (मौर्य प्रशासन)
मौर्य वंश का संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य एक कुशल योद्धा, सेना नायक तथा महान् विजेता ही नहीं वरन् उच्च कोटि का सफल प्रशासक भी था। उसने अपने विस्तृत साम्राज्य को एक सुव्यवस्थित शासन से दृढ़ किया। इस कार्य में उसे अपने गुरु, मित्र और प्रधानमंत्री चाणक्य से सहायता मिली। उसने कौटिल्य (चाणक्य) की सहायता समयानुकूल शासन व्यवस्था का निर्माण किया यद्यपि यह शासन प्रणाली पूर्ववर्ती मगध सम्राटों द्वारा विकसित शासन तन्त्र पा आधारित थी, किन्तु उसे और अधिक विकसित और सुदृढ़ करने का श्रेय चन्द्रगुप्त और कौटिल्य को जाता है। मौर्य प्रशासन अर्थात् चन्द्रगुप्त के प्रशासन की जानकारी के मूलता: दो स्रोत हैं- प्रथम कौटिल्य का 'अर्थशास्त्र' और द्वितीय स्रोत मेगस्थनीज की ‘इण्डिका'। इन दोनों स्रोतों के आधार पर हम मौर्य प्रशासन अर्थात् चन्द्रगुप्त के शासन व्यवस्था का वर्णन कर सकते हैं जो निम्नवत् है-
(1) केन्द्रीय शासन-मौर्य साम्राज्य हिन्दुकुश से लेकर पूर्व में बंगाल तक और उत्तर में काश्मीर से लेकर मैसूर तक विस्तृत था। इस विशाल साम्राज्य पर नियन्त्रण रखने के लिए एक अतिकेन्द्रीय शासन-प्रणाली का विकास किया गया, ताकि विकेन्द्रीकरण और विघटन की शक्तियों को रोका जा सके। इस शासन-प्रणाली के शीर्ष बिन्दु पर राजा था, जो समस्त शक्तियों का स्रोत था।
(1) सम्राट-राज्य का प्रमुख राजा या सम्राट होता था। राजपद वंशानुगत था। कौटिल्य राजा की योग्यता पर विशेष बल देता है। उसके अनुसार, “वह ऊँचे कुल का हो, उसमें दैवी बुद्धि और दैवी शक्ति हो।" राजा के अधिकार असीमित थे। राज्य की समस्त शक्ति-कार्यपालिका, न्यायपालिका एवं व्यवस्थापिका सम्राट में निहित थी। वह कानून का स्रोत था। वह प्रमुख सेनापति एवं प्रमुख न्यायाधीश था। राज्य के उच्च कर्मचारियों-मन्त्रियों, पुरोहित, सेनापति, न्यायाधीशों आदि की नियुक्ति वह स्वयं करता था वह मन्त्रि-परिषद् की बैठक बुलाता था और नीति-निर्धारण करता था राज्य के समस्त आय-व्यय का परीक्षण करता था। युद्ध के समय वह सेना का नेतृत्त्व करता था। सन्धि-विग्रह करना उसका विशेषाधिकार था। जनता को न्याय प्रदान करना राजा का परम कर्त्तव्य था। मेगस्थनीज ने लिखा है, "राजा दिन भर न्यायालय में बैठा रहता था और राज्य-कार्य को सम्पन्न करने के लिए सुख त्याग देता था" कौटिल्य ने उसे 'धर्म-प्रवर्तक' कहा है वह 'शासन' या 'अध्यादेश जारी करता था
(2) मन्त्री-राजा को सहायता देने के लिए मन्त्री हुआ करते थे। कौटिल्य के अनुसार राजा सचिवों की नियुक्ति करता था और उनकी सहायता से शासन चलाता था, क्योंकि अकेला पहिया चल नहीं सकता। मन्त्रियों या सचिवों की नियुक्ति अमात्य वर्ग के उच्च पदाधिकारियों में से कठोर परीक्षा के बाद होती था। इन्हें 48,000 पण वार्षिक वेतन प्राप्त होता था। राजा को परामर्श देने के अतिरिक्त राजा के आदेशों को कार्यान्वित करना मन्त्रियों का प्रमुख कार्य था।
(3) मन्त्रि-परिषद्-राजा को सलाह देने के लिए एक मन्त्रि-परिषद् होती थी। कौटिल्य एक वृहद् मन्त्रि-परिषद् को शासन-संचालन हेतु श्रेयस्कर मानता है। मन्त्रि-परिषद् के सदस्यों को 12,000 पण वार्षिक वेतन मिलता था। इसकी मन्त्रणा और निर्णय गुप्त रखे जाते थे। निर्णय बहुमत से होता था। मन्त्रि-परिषद् का अधिवेशन विशिष्ट परिस्थितियों में ही बुलाया जाता था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में हमें 18 विभागों का ज्ञान होता है।
इन विभागों के अध्यक्षों को अमात्य एवं विभागाध्यक्षों को तीर्थ कहा जाता था। यह अठारह प्रधान अधिकारी निम्नांकित थे-
(1) मंत्री
(2) पुरोहित (राजा के परामर्शदाता)
(3) सेनापति (सेना का संगठक एवं संचालक)
(4) युवराज (राजा को प्रशासन में सहायक)
(5) दौवारिक (द्वारों का रक्षक)
(6) अन्तर्विशक (अन्तःपुर का अध्यक्ष)
(7) प्रशास्त्रीय (कारागार का अध्यक्ष)
(8) समाहर्ता (कर संग्रहकर्ता)
(9) सन्निधाता (राजकीय कोष तथा आय-व्यय अधिकारी)
(10) प्रदेष्टा (नैतिक अपराधों का मुख्य न्यायाधीश)
(11) नायक (नगर का प्रमुख पुलिस अधिकारी)
(12) पौर (राजधानी का प्रशासक या कोतवाल)
(13) व्यावहारिक (मुख्य न्यायाधीश)
(14) कर्मान्तिक (कारखाना अधिकारी)
(15) मन्त्रि-परिषदाध्यक्ष
(16) दण्डपाल (पुलिस का प्रधान)
(17) दुर्गपाल (किले का रक्षक)
(18) अन्तपाल (सीमा रक्षक)।
स्पष्ट होता है कि न्याय सम्बन्धी और प्रशासनिक कार्यों के सम्पादन हेतु उच्च कर्मचारियों का एक वर्ग होता था, जिसे 'अमात्य' कहते थे। ये दीवानी और फौजदारी न्यायालयों में नियुक्त किए जाते थे। ये गृह-मन्त्री, वित्त-मन्त्री एवं विभिन्न विभागों के अध्यक्ष पद पर भी नियुक्त किए जाते थे। एरियन लिखता है कि, “इन्हीं से शासकों, प्रान्तीय गवर्नरों तथा इसके सहायकों, कोषाध्यक्षों, सेनानायकों, नौ-सेनाध्यक्षों, व्यय-नियन्त्रकों और कृषि-अधीक्षकों को चुना जाता था।"
अध्यक्ष राज्य के दूसरी श्रेणी के पदाधिकारी थे। स्ट्रैबो इन्हें 'मजिस्ट्रेट' कहता है। वह लिखता है, “इन मजिस्ट्रेटों में कुछ के नियन्त्रण में बाजार, कुछ के नगर और अन्य के सेना का प्रबन्ध रहता है।" स्ट्रैबों के “मजिस्ट्रेट' और कौटिल्य के अध्यक्ष एक ही पदाधिकारी थे। कौटिल्य अनेक अध्यक्षों का उल्लेख करता है, जैसे-कोषाध्यक्ष, लवणाध्यक्ष, आयुधाध्यक्ष इत्यादि।
(2) प्रान्तीय शासन-सम्पूर्ण साम्राज्य अनेक प्रान्तों में विभक्त था। चन्द्रगुप्त के समय कितने प्रान्त थे, यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता है। परन्तु अशोक के अभिलेखों में छ: प्रान्तों का उल्लेख मिलता है-
(i) गृह राज्य-इसमें मगध और आस-पास के प्रदेश सम्मिलित थे और इसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी।
(ii) उत्तरापथ-सीमान्त प्रदेश, पंजाब, सिन्ध इत्यादि प्रदेशों को मिलाकर उत्तरापथ नामक प्रान्त बनाया गया था, जिसकी राजधानी तक्षशिला थी।
(iii) दक्षिणापथ-इसकी राजधानी सुवर्णगिरि थी।
(iv) अवन्ति-इसकी राजधानी उज्जैयिनी थी।
(v) सौराष्ट्र-इसकी राजधानी गिरनार थी।
(vi) कलिंग-इसकी राजधानी तोसाली थी।
मगध और आस-पास के प्रदेशों पर सम्राट स्वयं शासन करता था। महत्त्वपूर्ण प्रान्तों पर शासन के लिए राजकुमारों को नियुक्त किया जाता था। रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेखों से पता चलता है कि चन्द्रगुप्त के शासनकाल में सौराष्ट्र का प्रान्तपति पुष्यगुप्त था और अशोक के राज्यकाल में तुषास्प सौराष्ट्र का शासक था। कुमारों को प्रशासन में सहायता देने के लिए महामात्र नियुक्त किए जाते थे। अशोक के अभिलेखों में अनेक प्रान्तीय अधिकारियों का उल्लेख मिलता है, उदाहरणार्थ-युक्त, राजुक, प्रादेशिक पुरुष इत्यादि।
(3) नगर प्रशासन-मेगस्थनीज पाटलिपुत्र के नगर-प्रशासन का उल्लेख करता है। पाटलिपुत्र के प्रशासन के लिए 30 सदस्यों की एक परिषद् थी। परिषद् पाँच-पाँच सदस्यों की छः समितियों में विभक्त थी। प्रत्येक समिति नगर-प्रशासन के एक मुख्य अंग का निरीक्षण करती थी।
(i) शिल्पकारों और कारीगरों की देखभाल करना, उनका पारिश्रमिक निर्धारित करना तथा निर्मित वस्तुओं की प्रामाणिकता निर्धारित करना पहली समिति का प्रमुख कार्य था।
(ii) दूसरी समिति विदेशियों की गतिविधियों तथा उनकी आवश्यकताओं पर ध्यान रखती थी।
(iii) तीसरी समिति जन्म-मृत्यु का लेखा-जोखा रखती थी।
(iv) चौथी समिति सामान्य व्यापार और वाणिज्य को नियन्त्रित करती थी तथा नाप-तौल के बाँटों का निरीक्षण करती थी।
(v) पाँचवीं समिति वस्तुओं की शुद्धता का ध्यान रखती थी तथा निर्मित वस्तुओं का निरीक्षण करती थी।
(vi) छठवीं समिति कर वसूलती थी।
(4) स्थानीय प्रशासन-'ग्राम' प्रशासन की निम्नतम इकाई थी। ग्राम का प्रमुख 'ग्रामिक कहलाता था। ग्राम में नियुक्त शासकीय पदाधिकारी 'ग्राम-भोजक' होता था। पाँच या दस ग्राम में का प्रशासक 'गोप' कहलाता था। गोप के ऊपर 'स्थानिक' नामक अधिकारी होता था। प्रान्त अनेक 'जनपदों में विभक्त था। स्थानीय प्रशासन में जनता को पर्याप्त स्वतन्त्रता प्राप्त थी। 'प्रदेष्टा' और 'समाहर्ता' जनपद के प्रमुख अधिकारी थे।
(5) सैनिक प्रशासन-विशाल साम्राज्य की आन्तरिक और बाह्य शत्रुओं से सुरक्षा के लिए मौर्य शासकों ने एक शक्तिाशाली स्थायी सेना का संगठन किया था। मेगस्थनीज के अनुसार, चन्द्रगुप्त की सेना में छः लाख पैदल सैनिक, तीस हजार घुड़सवार और नौ हजार हाथी थे। इस विशाल सेना के प्रबन्ध के लिए 30 सदस्यों की एक परिषद् थी। यह परिषद् पाँच- पाँच सदस्यों की छः समितियों में विभाजित थी। प्रत्येक समिति सेना के पृथक्-पृथक् अंगों का प्रबन्ध करती थी। यह समितियाँ इस प्रकार थीं-
1. नौसेना,
2. पदाति-सेना,
3. अश्व-सेना,
4.रथ-सेना,
5. गज-सेना और
6. यातायात और युद्ध-सामग्री इत्यादि का प्रबन्ध करती थी। मेगस्थनीज के अनुसार सैनिकों को नगद वेतन मिलता था।
(6) न्याय-व्यवस्था-सम्राट सर्वोच्च न्यायाधीश था। उसका निर्णय अन्तिम होता था। ग्राम पंचायतें सबसे छोटी न्यायालय थीं, जो गाँवों के मुकदमों का निर्णय करती थीं। कौटिल्य के अनुसार न्यायालय दो प्रकार के थे-(1) धर्मस्थीय न्यायालय-मनुष्यों के पारस्परिक मुकदमों का निर्णय करते थे और (2) कंटक-शोधन न्यायालय-राज्य और व्यक्ति के मुकदमों का फैसला करते थे। इनके अतिरिक्त संग्रहण, द्रोणमुख और जनपद में पृथक् न्यायालय होते थे।
नगरों में व्यावहारिक महामात्र और जनपदों में राजुक न्यायाधीश का कार्य करते थे। मौर्यकालीन दण्ड-विधान अत्यन्त कठोर था। छोटे-छोटे अपराधों के लिए अंग-विच्छेद का प्राविधान था। मेगस्थनीज और कौटिल्य दोनों ने दण्ड की कठोरता का वर्णन किया है। अपराध स्वीकार कराने के लिए अमानुषिक साधनों का प्रयोग किया जाता था।
(7) गुप्तचर-कौटिल्य की शासन-व्यवस्था में गुप्तचरों का विशिष्ट महत्व था। मुद्राराक्षस मौर्य शासकों के विरुद्ध अनेक षड्यन्त्रों का उल्लेख करता है। कौटिल्य के अनुसार गुप्तचर दो प्रकार के थे
(1) संस्था-जो स्थायी रूप से एक ही स्थान पर रहते थे और (2) संचारा-जो एक स्थान से दूसरे स्थान को भ्रमण करते थे। ऐरियन इन गुप्तचरों को ओवरसियर और स्ट्रैबो इन्सपेक्टर कहता है। कौटिल्य के अनुसार स्त्रियों और गणिकाली का भी गुप्तचरी के लिए उपयोग होता था। गुप्तचरों की तुलना सम्राट के आँख और कान सेकी गयी है।
(8) आय-व्यय के स्रोत-भूमि-कर आय का प्रमुख स्रोत था। साधारणतः भूमि-कर उपज का 1/6भाग होता था। भूमि दो प्रकार की थी-(1) राज्य की भूमि और (2) कृषकों की भूमि। राज्य की भूमि से प्राप्त आय को 'सीता' और कृषकों की भूमि से प्राप्त राजस्व को 'भाग' कहते थे। कौटिल्य राज्य के आय के अनेक स्रोतों का उल्लेख करता है, जैसे-आयात-निर्यात कर, बिक्री-कर, नगरों से प्राप्त आय, जुर्माना और राजकीय व्यापार से प्राप्त धन इत्यादि। राजा और राज-परिवार, सेना, नौकरशाही, लोक कल्याणकारी कार्य इत्यादि व्यय के प्रमुख स्रोत थे। राज्य की ओर से यातायात के साधनों एवं सिंचाई की समुचित व्यवस्था होती थी।
इस प्रकार मौर्यकालीन प्रशासनिक तन्त्र अत्यधिक व्यवस्थित और संगठित था। स्मिथ के शब्दों में, “मौर्य साम्राज्य की व्यवस्था में हर विभाग का विस्तृत उपबन्ध था और विभागों के क्रमानुसार पदाधिकारी थे।"
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