- चन्द्रगुप्त मौर्य के जीवन चरित्र एवं उपलब्धियों का उल्लेख करते हुए । उसके साम्राज्य विस्तार का वर्णन
- "चन्द्रगुप्त मौर्य एक महान् विजेता एवं कुशल साम्राज्य निर्माता था।" इस कथन के आलोक में उसके विजयों का मूल्यांकन
- "चन्द्रगुप्त मौर्य एक महान् विजेता था।" विवेचना
चन्द्रगुप्त मौर्य एक महान् विजेता था।
चन्द्रगुप्त मौर्य की गणना भारतीय इतिहास के महानतम् सम्राटों में की जाती है। उसकी महत्ता इस बात से बढ़ जाती है कि उसके पीछे कोई राजकीय परम्परा नहीं थी। उसकी रगों में किसी शासक के रक्त का संचार नहीं हो रहा था। वह अपने योग्यता एवं महत्त्वाकांक्षा के बल पर यूनानी दासता से भारत को मुक्त कराया। तत्त्कालीन नन्द वंश का विनास कर यूनानी सेनापति सेल्यूकस द्वारा उसकी अधीनता स्वीकार करना निःसन्देह उसकी असाधारण सैन्य क्षमता का परिणाम था। वह प्राचीन भारतीय इतिहास का प्रथम शासक है जिसने विशाल भारत पर अपना साम्राज्य स्थापित किया तथा जिसका शासन ब्रिटिश साम्राज्य से भी विशाल था।
इतिहास में बहुत से शासक अपने कार्यों के कारण जाने जाते हैं। इनमें कोई अपनी विजयों के लिए कोई प्रशासन के लिए तो कोई धार्मिक सहिष्णुता एवं प्रजा कल्याण हेतु जाना जाता है। इतिहास में ऐसे शासक बहुत कम मिलते हैं जो एक ही साथ महान् विजेता, योग्य संगठनकर्ता तथा कुशल प्रशासक रहा हो। ये सम्पूर्ण विशेषताएँ एक साथ चन्द्रगुप्त मौर्य में ही दृष्टिगत होती है। अत: चन्द्रगुप्त मौर्य भारत के महानतम् सम्राटों में एक था।
चन्द्रगुप्त मौर्य का प्रारम्भिक जीवन
चन्द्रगुप्त का राजनीतिक जीवन प्रारम्भ होते ही दो समस्याएँ उसके समक्ष उभरीं-
(1) विदेशी सत्ता से पश्चिमोत्तर भारत की मुक्ति तथा,
(2) मगध विजय करके नन्दवंश का मूलोच्छेदन। पहली समस्या उसके देशप्रेम की परिचायक थी और दूसरी उसके राजनीतिक गुरु चाणक्य की इच्छा, जो उसे गुरु दक्षिणा के रूप में चुकानी थी।
डॉ० राय चौधरी के अनुसार-अपने इन्हीं दो लक्ष्यों की पूर्ति में लगने के साथ ही चन्द्रगुप्त ने अपने साम्राज्य का विस्तार किया। चन्द्रगुप्त ने अनेक युद्धों के द्वारा अपने साम्राज्य को बढ़ाया और अपने आपको वास्तविक साम्राज्य निर्माता के रूप में इतिहास में दर्ज कराया।
इस विषय पर विद्वान् एक मत नहीं हैं कि उसने पहले मगध पर आक्रमण किया या पंजाब में विदेशी शक्तियों से टक्कर ली। डॉ. स्मिथ तथा रायचौधरी के अनुसार पहले उसने पश्चिमोत्तर भारत को दासता से मुक्ति दिलाई। यूनानी लेखकों ने भी इस मत का समर्थन किया है। 'महावंश टीका' के अनुसार यह मत गलत प्रमाणित होता है। 'महावंश टीका' के अनुसार चन्द्रगुप्त और चाणक्य ने चोर, लुटेरों तथा वीर जातियों की सेना बनाकर ग्रामों तथा नगरों में लूटमार मचाना प्रारम्भ कर दिया। फलस्वरूप जनता उसके विरुद्ध हो गयी तथा चन्द्रगुप्त के हाथ असफलता लगी। चन्द्रगुप्त को अपने प्रथम प्रयास में असफलता मिली, जिसके बाद उसने पश्चिमोत्तर भारत के किनारे से अपना अभियान प्रारम्भ किया।
मुद्राराक्षस में कहा गया है कि चाणक्य अपनी बुद्धि तथा चातुर्य द्वारा शक, यवन, किरात, कम्बोज, वाहलीक आदि को वश में करके भारी सेना ले आया। चन्द्रगुप्त तथा प्रवर्तक को इन विशाल सेनाओं ने प्रलय के समुद्र की भांति कुसुमपुर को घेर लिया। इस कथन से स्पष्ट होता है कि मगध पर आक्रमण करने के पूर्व चन्द्रगुप्त विशाल सेना एकत्र कर चुका था तथा इस सेना में केवल भारतीय ही नहीं अपितु विदेशी सैनिक भी थे। यह विशेषता इस बात की परिचायक है कि मगध अभियान से पहले वह सीमान्त प्रदेशों का स्वामी बन चुका था।
जस्टिन तथा प्लूटार्क के अनुसार, चन्द्रगुप्त सिकन्दर से मिला तथा उसे नन्द राजा के ऊपर आक्रमण करने को उकसाया। परन्तु सिकन्दर इससे सहमत नहीं हुआ, जस्टिन ने चन्द्रगुप्त को डाकुओं के झुण्ड का राजा बताया है। यदि इस कथन पर विश्वास किया जाये तो हम कह सकते हैं कि अभी चन्द्रगुप्त मगध का स्वामी नहीं बन पाया था। यदि वह मगध विजय के बाद पंजाब आया तो उसकी सेना में नियमित सैनिक नहीं होते।
पश्चिमोत्तर भारत से विदेशी सत्ता का उन्मूलन
चाणक्य के अनुसार, सेना में भर्ती 5 वर्गों से की जानी चाहिए-दस्यु, म्लेच्छ, चोरों के दल अन्य जातियों तथा आयुध जीवी। इन पाँचों वर्गों के सैनिक पश्चिमी-उत्तरी भारत में उपलब्ध थे। चन्द्रगुप्त ने दूरदर्शिता दिखायी तथा परिस्थिति का पूरा लाभ उठाया। चन्द्रगुप्त ने अपनी योजनानुसार यूनानी शत्रुओं का सफाया करना शुरू कर दिया। निकानोर तथा फिलिप की हत्या से विजय प्राप्ति सरल हो गयी। यूनानी शत्रुओं तथा चन्द्रगुप्त के सीधे संघर्ष का वर्णन तो नहीं मिलता परन्तु इस बात का प्रमाण स्पष्ट है कि 322 ई० के पूर्व के लगभग झेलम के प्रदेश पर चन्द्रगुप्त का अधिकार हो गया तथा 321 ई० पूर्व तक सिन्धु नदी तक का पश्चिमी भारत चन्द्रगुप्त के अधिनायकत्त्व में स्वाधीनता प्राप्त कर चुका था।
मगध विजय
अब चन्द्रगुप्त के सामने मगध विजय का प्रश्न आया, उसने पश्चिमोत्तर भारत पर अधिकार करके मगध साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र की ओर कूच किया। मार्ग में पड़ने वाले अनेक राज्यों तथा जनपदों को विजित करते हुए उसने पाटलिपुत्र पर घेरा डाल दिया। परिशिष्टपर्वन के अनुसार, नन्द राजा घनानन्द द्वारा आत्मसमर्पण किये जाने पर ही पाटलिपुत्र का घेरा उठाया गया। नन्दराजा को अपनी दो रानियों तथा एक पुत्री के साथ पाटलिपुत्र छोड़ने की अनुमति दे दी गयी। यह भी कहा गया कि चन्द्रगुप्त नन्दराजा की पुत्री से प्रेम करता था तथा कालान्तर में वह उसकी रानी बनी। महावंश टीका के अनुसार इस युद्ध में सैल्युकस की पराजय नन्द राजा का वध कर दिया गया।
सैल्युकस की पराजय
जिस समय भारत में चन्द्रगुप्त अपने साम्राज्य का विस्तार कर रहा था, उसी समय के आस-पास सिकन्दर की मृत्यु हो जाने के कारण उसके सेनापतियों में परस्पर युद्ध छिड़ गया। इस युद्ध में सैल्युकस ने अपने प्रमुख प्रतिद्वन्द्वी एण्टीगोनस को परास्त करके एशिया के यूनानी साम्राज्य पर अधिकार कर लिया तथा भारत विजय के लिए कूच किया।
सैल्युकस तथा चन्द्रगुप्त के बीच युद्ध होने का कोई प्रमाण नहीं है। दोनों के बीच सन्धि हुई तथा चन्द्रगुप्त ने सैल्युकस को 500 हाथी भेंट किये। टार्न महोदय के अनुसार काबुल, गन्धार तथा सिन्धु नदी के मध्यवर्ती प्रदेशों में स्थिति पेरोपबिसे डाई, आरक्रोशिया, विस्तृत हो गयी। अनेक उल्लेखों से पता चलता है कि सैल्युकस ने अपनी पुत्री का विवाह चन्द्रगुप्त के साथ कर दिया। प्राप्त साक्ष्यों के अनुसार इस युद्ध तथा संधि कि लिपि 305 ई. के आस पास मानी जाती है।
पश्चिमी भारत की विजय
मगध साम्राज्य तथा सैल्युकस से सन्धि में प्राप्त देशों में अपनी स्थिति सुदृढ़ बनाने के बाद चन्द्रगुप्त ने सम्पूर्ण भारत को विजय करने की योजना बनायी। इस बात के निश्चित प्रमाण मौजूद हैं कि पश्चिमी भारत भी उसके साम्राज्य का अंग था। रुद्रदामन के जूनागढ़ मामले के अनुसार सौराष्ट्र प्रान्त में पुष्पगुप्त के गवर्नर के रूप में नियुक्त हुआ था। बम्बई के थाणा जिले के सोपारा नामक स्थान से प्राप्त अशोक के शिलालेखों से भी चन्द्रगुप्त के पश्चिमी भारत पर अधिकार की पुष्टि होती है।
दक्षिण भारत की विजय
जैन ग्रन्थों में चन्द्रगुप्त तथा दक्षिण भारत में सम्बन्ध स्थापित किया गया है। श्री नागट्टम के निकट काबेरी से प्राप्त शिलालेखों तथा छठी शताब्दी के एक लघु शिलालेख में चन्द्रगुप्त तथा भद्रबाहु मुनि के सम्बन्धों का उल्लेख है। इनके अनुसार चन्द्रगुप्त ने भद्रबाहु का शिष्यत्त्व ग्रहण करके, दक्षिण भारत में प्राण-त्याग किया। इन समस्त उल्लेखों से सिद्ध होता है कि चन्द्रगुप्त दक्षिण भारत गया था। उसके इस दक्षिण गमन से इस बात को स्वीकार किया जाना चाहिए कि दक्षिण भारत के प्रदेशों पर उसका अधिकार अवश्य रहा होगा।
अशोक के 13वें शिलालेख के अनुसार-अशोक ने केवल कलिंग पर आक्रमण किया था तथा इससे पूर्व कलिंग को छोड़कर शेष दक्षिण भारत पर मौर्यों का अधिकार था।
चन्द्रगुप्त-साम्राज्य विस्तार
विभिन्न विद्वानों ने चन्द्रगुप्त को निर्विवाद रूप से एक महान् साम्राज्य का निर्माता स्वीकार किया है- जस्टिन, चन्द्रगुप्त को सम्पूर्ण भारत का सम्राट मानता है। महावंश टीका के अनुसार वह सकल जम्बुद्वीप का शासक था। मुद्राराक्षस के अनुसार उसका साम्राज्य चतुः समुद्रपर्यन्त
डॉ० विन्सेन्ट स्मिथ ने चन्द्रगुप्त मौर्य के साम्राज्य विस्तार का वर्णन करते हुए लिखा है-
"दो हजार वर्ष से भी अधिक हुए भारत के प्रथम सम्राट ने इस प्रकार उस वैज्ञानिक सीमा को पार किया, जिसके लिए उसके अंग्रेज उत्तराधिकारी आहे भरते रहे और जिसको मुगल सम्राटों ने भी पूर्णरूप से प्राप्त नहीं किया।"
इस प्रकार चन्द्रगुप्त का साम्राज्य सम्पूर्ण भारत में फैला हुआ था। प्लूटार्क ने लिखा है कि उसने छः लाख की सेना लेकर सम्पूर्ण भारत को रौंद डाला और उस पर अपना अधिकार कर लिया। जस्टिन के विवरण से पता चलता है कि सम्पूर्ण में था। मगध साम्राज्य की जो परम्परा बिम्बिसार के काल में प्रारम्भ हुई थी। चन्द्रगुप्त के समय में वह पराकाष्ठा पर पहुँच गई थी। उसका विशाल साम्राज्य उत्तर-पश्चिम में ईरान की सीमा से लेकर दक्षिण में वर्तमान उत्तर कर्नाटक तक विस्तृत था। पूर्व में मगध से लेकर पश्चिम में सौराष्ट्र तथा सोपा तक का सम्पूर्ण प्रदेश उसके साम्राज्य के अधीन था। इतिहासकार विन्सेण्ट स्मिथ के अनुसार, हिन्दुकुश पर्वत भारत की वैधानिक सीमा थी।
यूनानी लेखक इसे पैरोपेनिसस अथवा 'इण्डियन काकेशस' कहते थे। यहाँ चन्द्रगुप्त और सेल्युकस के साम्राज्यों की सीमा थी। चन्द्रगुप्त मौर्य ने सेल्युकस को हराकर भारत की उस वैधानिक सीमा पर अधिकार कर लिया था जिसे प्राप्त करने के लिये कालान्तर में मुगल तथा अंग्रेज शासक व्यर्थ प्रयत्न करते रहे। पाटलिपुत्र इस विशाल साम्राज्य की राजधानी थी।
मूल्यांकन-उपरोक्त विवेचन यह प्रमाणित करते हैं कि चन्द्रगुप्त एक महान् विजेता, साम्राज्य निर्माता, कुशल प्रशासक एवं प्रजावत्सल सम्राट था। एक सामान्य कुल में उत्पन्न होते हुये भी अपनी योग्यता एवं प्रतिभा के बल पर वह एक सार्वभौम सम्राट के पद पर पहुँच गया उसने देश में पहली बार सुसंगठित शासन व्यवस्था की स्थापना की और यह व्यवस्था इतनी उच्चकोटि की रही कि आगे आने वाले पीढ़ियों के लिये आदर्शस्वरूप बनी रही। चन्द्रगुप्त ने अपने व्यक्तित्त्व एवं आचरण से कौटिल्य के प्रजाहित के राज्यादर्शों को कार्यरूप में परिणत कर दिया यदि जैन परम्परा में विश्वास किया जाये तो कहा जा सकता है कि वस्तुतः चन्द्रगुप्त एक राजर्षि था जिसने अपने उत्तरकालीन जीवन में राज्य के सुख-वैभव का त्यागकर तप करते हुये स्वेच्छा से मृत्यु का वरण किया।
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