- शुंग वंश के राजनीतिक इतिहास एवं उके उत्पत्ति का संक्षिप्त वर्णन करते हुए पुष्यमित्र शुंग के विजय-अभियान एवं साम्राज्य पर एक समीक्षात्मक निबन्ध लिखिए।
- शुंग वंश के राजनीतिक उत्कर्ष ( उपलब्धियों) का संक्षिप्त वर्णन करते हुए पुष्यमित्र शुंग के विजयाभियान एवं साम्राज्य विस्तार पर एक समीक्षात्मक निबन्ध लिखिए।
- एक सफल विजेता और उच्च कोटि के शासक के रूप में पुष्यमित्र शुंग के जीवन चरित, उपलब्धियों, साम्राज्य विस्तार एवं धार्मिक नीति का मूल्यांकन कीजिए।
- शुंग वंश के राजनीतिक उपलब्धियों के अन्तर्गत पुष्यमित्र शुंग तथा उसके उत्तराधिकारियों के शासनकाल पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
शुंग वंश का इतिहास एवं उत्पत्ति
स्रोत-शुंग वंश के इतिहास पर प्रकाश डालने के महत्त्वपूर्ण स्रोत के रूप में पुराण, वाणभट्ट द्वारा रचित 'हर्ष चरित' महाकवि कालिदास द्वारा विरचित 'मालविकाग्निमित्र तथा पतंजलि का 'महाभाष्य' उल्लेखनीय है। बौद्ध ग्रन्थ 'दिव्यावदान' और तिब्बती इतिहासकार तारानाथ पुश्यमित्र शुंग की धार्मिक नीति का उल्लेख करते हैं। अयोध्या का अभिलेख एवं शुंग वंशी शासक द्वारा चलायी गयी मुद्रायें इस वंश के इतिहास जानने के अन्य स्रोत हैं।
उत्पत्ति-शुंगों की उत्पत्ति के सन्दर्भ में अनेक धारणायें प्रचलित हैं। बौद्ध ग्रन्थ 'दिव्यावदान के अनुसार शुंग मौर्य वंशी थे। कुछ विद्वानों के अनुसार, शुंग इरानी थे, क्योंकि उनके नामों में 'मित्र' शब्द जुड़ा है। पाणिनि के अनुसार शुंग भारद्वाज गोत्रीय ब्राह्मण थे। 'मालविकाग्निमित्र' में अग्निमित्र को बैम्बिक वंश का कहा गया है। बौधायन सूत्र के अनुसार बैम्बिक कश्यप गोत्रीय ब्राह्मण थे। इस प्रकार शुंग ब्राह्मण प्रतीत होते हैं, जिन्हें अपने देश की रक्षा हेतु शस्त्र उठाना पड़ा था।
पुष्यमित्र शुंग का विजय-अभियान और साम्राज्य विस्तार
(1) मगध साम्राज्य का संगठन-
अन्तिम मौर्य सम्राट बृहद्रथ की हत्या करके सेनापति पुष्यमित्र शुंग मगध के सिंहासन पर आसीन हुआ। उसने सर्वप्रथम मगध राज्य को संगठित किया और अपनी सत्ता को सुदृढ़ किया। मगध के अधिकार से सीमान्त प्रदेश निकल गये थे। सुदूर प्रदेशों पर उसका प्रभावशाली नियन्त्रण समाप्त हो गया था। अशोक के निर्बल उत्तराधिकारियों के शासनकाल में कोशल, वत्स, अवन्ति आदि प्रदेशों पर शासन-व्यवस्था शिथिल तथा व्यवस्था स्थापित करना उसकी सबसे बड़ी समस्या थी। अतएव उसने विदिशा को अपने विशृंखलित हो गयी थी। इन प्रदेशों पर अपनी सत्ता स्थापित करना तथा इनमें शान्ति और साम्राज्य की द्वितीय राजधानी बनाया और अपने पुत्र अग्निमित्र को विदिशा का प्रान्तपति नियुक्त किया। अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के पश्चात् उसने साम्राज्य-विस्तार की ओर ध्यान दिया। देश की विकट राजनीतिक अवस्था के कारण वह सीमान्त प्रदेश पर अधिकार नहीं कर सका। यवन आक्रमणकारियों से वह पश्चिमोत्तर प्रदेश पंजाब तथा सिन्ध को मुक्त नहीं कर सका फिर भी वह मगध की सत्ता को अक्षुण्ण रखने में सफल हुआ।
(2) विदर्भ पर आक्रमण-
सर्वप्रथम उसने दक्षिण में विदर्भ राज्य पर अपना आधिपत्य स्थापित किया। कालिदास के नाटक 'मालविकाग्निमित्र' में विदर्भ के साथ उसके संघर्ष का उल्लेख मिलता है। दक्षिण में विदर्भ का राज्य विदिशा के काफी समीप स्थित था। उसका शासक यज्ञसेन था। ऐसा प्रतीत होता है कि यज्ञसेन को मौर्य सम्राट ने विदर्भ का शासक नियुक्त किया था। सम्भवत: मगध में व्याप्त अराजकता का फायदा उठाकर यज्ञसेन ने विदर्भ को एक स्वतन्त्र राज्य घोषित कर दिया। उसने शुंगों की अधीनता अस्वीकार कर दी। अतएव शुंगों और यज्ञसेन के बीच संघर्ष स्वाभाविक था। यज्ञसेन के सम्बन्धी माधवसेन को राजकुमार अग्निमित्र ने अपनी ओर मिला लिया था। अत: यज्ञसेन के सीमा रक्षकों ने माधवसेन को बन्दी बना लिया। इससे अग्निमित्र बहुत ही कुपित हुआ और उसने अपने सेनापति वीरसेन को अविलम्ब विदर्भ पर आक्रमण करने का आदेश दिया। यज्ञसेन पराजित हुआ और उसने माधवसेन को बंदीगृह से मुक्त कर दिया। विदर्भ राज्य यज्ञसेन और माधवसेन के बीच विभाजित कर दिया गया। वरदा नदी दोनों राज्यों की सीमा निर्धारित कर दी गयी। दोनों राज्यों के शासकों ने शुंगों की अधीनता स्वीकार कर ली।
(3) यवन आक्रमण-
पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना भारत पर यवनों का आक्रमण था। पतंजलि के 'महाभाष्य', 'गार्गी-संहिता' और 'मालविकाग्निमित्र' में यवन-आक्रमण का उल्लेख मिलता है। तिब्बती इतिहासकार तारानाथ के अनुसार पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल में विदेशी यवनों का आक्रमण हुआ था। अशोक के निर्बल उत्तराधिकारियों ने सीमान्त प्रदेशों की सुरक्षा की उपेक्षा की। परिणामस्वरूप बैक्ट्रिया के यवन भारत में घुस आये और उन्होंने पश्चिमोत्तर भारत और पंजाब में अपने राज्य की स्थापना की। पुष्यमित्र के शासनकाल में यवन काफी शक्तिशाली हो गये थे। पश्चिमोत्तर भारत और पंजाब को केन्द्र बनाकर यवन आक्रमणकारी उत्तर भारत के आन्तरिक भागों पर आक्रमण करने लगे थे।
पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल में यवनों का आक्रमण हुआ। यवन आक्रमणकारी काफी शक्तिशाली थे और वे मगध तक बढ़ आये थे। यवन आक्रमणकारियों का नेता कौन था? इस सम्बन्ध में भारतीय एवं यूनानी विवरणों में इसका उल्लेख नहीं मिलता है। रैप्सन, स्मिथ आदि विद्वानों के अनुसार यवन आक्रमणकारियों का नेता डेमेट्रियस था। श्री एन० एन० घोष का मत है कि भारतवर्ष में दो यवन आक्रमण हुए। एक का नेता डेमेट्रियस और दूसरे का मीनेण्डर था। परन्तु यूनानी विवरणों और मुद्रा-साक्ष्य से प्रतीत होता है कि डेमेट्रियस का राज्य व्यास नदी तक ही सीमित था।
पतंजलि और गार्गी संहिता के विवरणों से स्पष्ट होता है कि यवन आक्रमणकारियों ने समस्त उत्तरी भारत को रौंद डाला था और पाटलिपुत्र तक पहुँच गये थे। परन्तु पुष्यमित्र शुंग ने यवनों को पराजित किया और उन्हें पीछे खदेड़ दिया।
(4) कलिंग नरेश खारवेल का आक्रमण-
वी० ए० स्मिथ का मत है कि कलिंग नरेश खारवेल ने पुष्यमित्र शुंग पर दो बार आक्रमण किया।
स्मिथ के अनुसार, खारवेल ने 165 ई० पू० और 161 ई० पू० पुष्यमित्र शुंग पर आक्रमण किया। दूसरे युद्ध में उसने पुष्यमित्र शुंग को पराजित कर दिया और उसकी राजधानी पर आधिपत्य स्थापित कर लिया। सम्भवतः खारवेल मगध में अधिक दिनों तक नहीं रहा।
साम्राज्य विस्तार-
पुष्यमित्र शुंग का शासनकाल छत्तीस वर्षों (187-151 ई० पू०) तक रहा। पुराणों के अनुसार उसने 36 वर्षों तक राज्य किया, परन्तु थेरवली के लेखक मेरुतुंग के अनुसार उसने 30 वर्ष तक शासन किया। पुराणों, हर्षचरित, मालविकाग्निमित्र' और अयोध्या अभिलेख में उसके लिए 'सेनापति' की उपाधि का प्रयोग किया गया है। वह अंतिम मौर्य नरेश बृहद्रथ का सेनापति था। प्रतीत होता है कि मगध के सिंहासन पर आरूढ़ होने के पश्चात् भी उसने 'सेनापति' के विरुद को ही धारण किया। दक्षिण में उसका राज्य नर्मदा नदी तक विस्तृत था। निःसन्देह बिहार और उत्तर प्रदेश पर उसका आधिपत्य था। बंगाल भी उसके राज्य में सम्मिलित था। बुन्देलखण्ड पर भी उसका अधिकार था परन्तु पश्चिमोत्तर सीमान्त प्रदेश और पंजाब उसके राज्य में सम्मिलित नहीं थे। उसके साम्राज्य की दो राजधानियाँ थीं
(1) पाटलिपुत्र और (2) विदिशा
अश्वमेध यज्ञ-अयोध्या के शिलालेख से स्पष्ट होता है कि पुष्यमित्र शुंग ने दो अश्वमेध यज्ञ किये थे। पतंजलि के 'महाभाष्य और कालिदास के नाटक 'मालविकाग्निमित्र' में भी उसके द्वारा किये गये अश्वमेध यज्ञों के अनुष्ठान का वर्णन मिलता है। ‘महाभाष्य' के रचयिता पतंजलि स्वयं एक यज्ञ में पुरोहित थे। पुष्यमित्र शुंग ब्राह्मण धर्म का प्रबल समर्थक था। अपनी शक्ति को सुदृढ़ करने के पश्चात् उसके लिए अश्वमेध यज्ञ करना स्वाभाविक था। अपने वंश-गौरव और शक्ति की अभिवृद्धि को प्रदर्शित करने के लिए उसने अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया।
पुष्यमित्र शुंग की धार्मिक नीति-
ब्राह्मण होते हुए भी पुष्यमित्र शुंग ने शस्त्र और दण्ड ग्रहण किया। अशोक के निर्बल उत्तराधिकारियों के शासनकाल में राष्ट्र की सुरक्षा और संस्कृति के लिए भयानक खतरा उत्पन्न हो गया था। ब्राह्मणों ने अशोक की अहिंसामूलक नीति का सदैव विरोध किया। विरोधियों का नेता सेनापति पुष्यमित्र शुंग था, जो अंतिम मौर्य नरेश बृहद्रथ का सेनापति था। उसने दुर्बल मौर्य नरेश की हत्या करके मगध का सिंहासन हस्तगत कर लिया था। सिंहासन पर बैठने के पश्चात् उसने ब्राह्मण और वर्णाश्रम धर्म का पुनरुद्धार किया। उसके शासनकाल में प्रतिक्रियावादी ब्राह्मणों का बहुत अधिक प्रभाव था।
बौद्ध ग्रन्थ 'दिव्यावदान' और तिब्बती इतिहासकार के अनुसार बौद्ध धर्म के प्रति उसका दृष्टिकोण उदार नहीं था। दिव्यावदान के अनुसार, अपने ब्राह्मण पुरोहित के परामर्श पर चलते हुए उसने अनेक स्तूपों को तोड़ा, विहारों को जलाया और भिक्षुओं की हत्या की। शाकल में उसने घोषित किया कि "जो भी मुझे एक श्रमण का सिर भेंट करेगा, उसे मैं सौ दीनार दूँगा।" श्री एम० एन० घोष का विचार है कि वह बौद्ध विरोधी था और उसने बौद्ध धर्मावलम्बियों के साथ घोर अत्याचार किया परन्तु रायचौधरी का मत है, “किन्तु शुंगों के राज्य में बनाये गये भरहुत के बौद्ध अवशेषों से ऐसा प्रतीत नहीं होता है कि पुष्यमित्र और उसके वंशज प्रतिक्रियावादी ब्राह्मणवाद के नेता रहे होंगे।" इसी प्रकार का विचार डॉ० आर० एस० त्रिपाठी ने अभिव्यक्त किया है, "निश्चित रूप में पुष्यमित्र ब्राह्मण धर्म का एक प्रचण्ड समर्थक था किन्तु शुंगकालीन भरहुत से प्राप्त बौद्ध स्तूप और जंगला इत्यादि साहित्य में प्राप्त प्रमाण पुष्यमित्र के साम्प्रदायिक विद्वेष की पुष्टि नहीं करते।" अशोक और उसके उत्तराधिकारियों ने बौद्ध धर्म को राजाश्रय प्रदान किया परन्तु पुष्यमित्र शुंग बौद्ध धर्म के संरक्षण के विरुद्ध था। राज्य-संरक्षण के अभाव में बौद्ध धर्म, बौद्ध अनुयायियों और बौद्ध धर्माचार्यों की स्थिति में परिवर्तन आया होगा। अतएव उनका पुष्यमित्र शुंग से असन्तुष्ट होना स्वाभाविक है। इसी असन्तोष की अभिव्यक्ति दिव्यावदान और तारानाथ के विवरणों में स्पष्ट झलकती है।
पुष्यमित्र शुंग का मूल्यांकन
पुष्यमित्र शुंग एक शक्तिशाली एवं सुयोग्य शासक था। वह एक वीर सेनानायक था। मौर्य सम्राट बृहद्रथ ने उसे विशाल मौर्य सेना का प्रमुख सेनापति नियुक्त किया था। जब मौर्य शासकों की दुर्बल नीति के कारण देश में विघटनात्मक प्रवृत्ति प्रबल हो उठी और विदेशी आक्रमणों के कारण मगध साम्राज्य का अस्तित्व खतरे में पड़ गया तब उसने साम्राज्य की बागडोर स्वयं सँभाली परन्तु उसके लिए मगध का सिंहासन काँटे का ताज सिद्ध हुआ। आजीवन वह विघटनकारी शक्तियों और विदेशी आक्रमणकारियों से जूझता रहा। उसने मगध साम्राज्य को सुरक्षित एवं सुव्यवस्थित रखा। विदर्भ राज्य को अपने साम्राज्य में न मिलाकर उसने कूटनीतिज्ञता का परिचय दिया। पश्चिमोत्तर सीमा पर उठे खतरे का सफलतापूर्वक सामना करने के लिए आवश्यक था कि वह अपना अधिक-से-अधिक ध्यान इस ओर केन्द्रित करे। उसने वैदिक परम्पराओं तथा ब्राह्मण धर्म एवं संस्कृति को पुनर्जीवित किया परन्तु दूसरे धर्मावलम्बियों के प्रति वह असहिष्णु नहीं था। वह साहित्य और कला का महान् आश्रयदाता था। पतंजलि पुष्यमित्र शुंग के राजपुरोहित थे। मनु उसके समकालीन थे। महाभारत का परिवर्धन भी उसके शासनकाल में हुआ।
पुष्यमित्र के उत्तराधिकारी
शुंग-वंश में कुल दस राजा हुए। पुष्यमित्र के बाद अग्निमित्र राजगद्दी पर बैठा। उसने कुल आठ वर्ष तक राज्य किया। उसके बाद वसुज्येष्ठ था सुज्येष्ठ ने सात वर्ष और फिर वसुमित्र ने दस वर्ष राज्य किया। ये दोनों अग्निमित्र के पुत्र थे।
वसुमित्र को पुराणों और बाणभट्ट के हर्षचरित में सुमित्र नाम से भी लिखा गया है। युवावस्था में यह अत्यन्त वीर व साहसी था। पुष्यमित्र ने अश्वमेध यज्ञ करते हुए वसुमित्र को ही एक सेना लेकर यज्ञीय अश्व के साथ भेजा था, और उसी ने सिन्धु नदी के तट पर यवनों को परास्त किया था। पर राजसिंहासन पर आरुढ़ हो जाने के बाद वसुमित्र (सुमित्र) भोग विलास में व्यस्त हो गया था, जिसका परिणाम यह हुआ कि शुंग साम्राज्य की शक्ति क्षीण होने लगी और अनेक प्रदेश उसकी अधीनता से मुक्त होकर स्वतन्त्र हो गये।
सुमित्र (वसुमित्र) की हत्या के साथ ही शुंग साम्राज्य खण्ड-खण्ड होना आरम्भ हो गया और मगध के पश्चिम के सब प्रदेश उसकी अधीनता से स्वतन्त्र हो गये। यही समय था जब कि पाञ्चाल, कौशाम्बी और मधुरा में विभिन्न वीरों ने अपने अपने स्वतन्त्र राज्य स्थापित किये। ये राज्य या तो इन प्रदेशों के शासकों ने स्थापित किये थे और या शुंग राजकुल के ही व्यक्तयों ने। इन राजाओं की स्वतन्त्र सत्ता का परिचय हमें उन सिक्कों से प्राप्त होता है, जो पाञ्चाल, कौशल आदि के क्षेत्र में बड़ी संख्या में उपलब्ध हुए हैं। वसुमित्र के पश्चात् शुंग वंश का शासन केवल मगध और मध्य भारत के कतिपय प्रदेशों तक ही सीमित रह गया था।
पुराणों में वसुमित्र के बाद क्रमशः आन्ध्रक (आक) पुलिदक, घोष, वज्रमित्र, भागभद्र (भागवत्) और देवभूति-इन राजाओं के नाम दिये गये हैं। इनमें आन्ध्रक का शासन काल 2 वर्ष, पुलिदक का 3 वर्ष और घोष का 3 वर्ष लिखा गया है। सम्भवतः ये तीनों राजा शुंग वंश के नहीं थे। सुमित्र की हत्या के कारण मगध में जो अव्यवस्था उत्पन्न हो गई थी, उससे लाभ उठाकर पहले आन्ध्रों ने पाटलिपुत्र पर आक्रमण किया, फिर पुलिन्दों ने और फिर घोष ने जो कि पाञ्चाल देश का राजा था, और जिसके अनेक सिक्के भी अहिच्छत्र व अन्य स्थानों से मिले हैं। 8 वर्ष तक इनके आक्रमणों के कारण मगध में अव्यवस्था रही, और बाद में वज्रमित्र पाटलिपुत्र में पुनः शुंग वंश की सत्ता को स्थापित करने में समर्थ हुआ।
वज्रमित्र के बाद भागभद्र राजा बना। उस समय उत्तर-पश्चिमी भारत में अनेक यवन राज्य स्थापित हो चुके थे। इनमें से एक तक्षशिला का यवन राज्य था, जहाँ अब एंटिआल्किडस राज्य करता था। उसने शुंग राजा भागभद्र के पास विदिशा में एक राजदूत भेजा था, जिसका नाम हेरिउदोर (हेलियोडोरस) था। इस दूत ने वहाँ भगवान् वासुदेव का गरुडध्वज बनवाया था। इस स्तम्भ पर प्राकृत भाषा में एक लेख खुदा हुआ है, जो निम्न प्रकार है- देवों के देव वासुदेव का यह गरुड़ध्वज, महाराज अंतलिकित के यहाँ से राजा कासीपुत भागभद्र त्राता के, जो अपने राज्य के चौदहवें वर्ष में वर्तमान है, पास आये हुए तक्षशिला के निवासी दिये के पुत्र योनदूत भागवत हेरिउदोर ने यहाँ बनवाया।
भागभद्र ने कुल 32 वर्ष राज्य किया। उसके बाद देवभूति राजा बना। यह बड़ा विलासी था। इसके समय में मगध में फिर राज्य क्रान्ति हुई। उससे अमात्य वासुदेव कण्व ने उसके विरुद्ध षडयन्त्र किया और देवभूति को कत्ल कर स्वयं मगध के राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया। शुंग वंश का प्रारम्भ इसी प्रकार के षडयंत्र द्वारा हुआ था। उसका अन्त भी इसी प्रकार हुआ।
पुष्यमित्र के उत्तराधिकारी मगध-साम्राज्य को अक्षुण्ण बना रखने में समर्थ नहीं रहे। पुष्यमित्र के समय में मागध-साम्राज्य की पश्चिमी सीमा सिन्ध नदी तक थी। पर उसके बाद शीघ्र ही यवनों के आक्रमण फिर आरम्भ हो गये। उत्तर-पश्चिमी भारत में अनेक नए यवन- राज्यों की स्थापना हुई, और उस समय की राजनीतिक उथल-पुथल से लाभ उठाकर पंजाब के प्राचीन गणराज्यों ने भी फिर सिर उठा लिया। कोशल, कौशाम्बी और मथुरा में भी स्वतन्त्र राज्यों की स्थापना हो गई। परिणाम यह हुआ कि इन शुंग-सम्राटों के शासन काल में मगध साम्राज्य की पश्चिीमी सीमा कोशल के पूर्व तक ही रह गई। उसके पश्चिम में कोशल और मथुरा के स्वतन्त्र राज्य थे, और उनसे आगे यौधेय, मालव आदि गणों के स्वतन्त्र जनपद थे और उनके और अधिक पश्चिम में यवन-राज।
पुराणों के अनुसार शुंगों ने कुल 112 वर्ष तक राज्य किया। 185 ई० पू० से शुरू करके 63 ई० पू० तक उनका शासन-काल रहा।
इन्हें भी देखें-
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