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शशक का परिसंचरण तंत्र || shashak ka parisancharan tantr



शशक का परिसंचरण तंत्र
(CIRCULATORY SYSTEM)


मोटर की टंकी में पेट्रोल भरने से कोई लाभ नहीं यदि पेट्रोल को टंकी से इंजन में ले जाने वाली पाइप लाइन (pipe-line) न हो। इसी प्रकार, जन्तु-शरीर में भी, आहारनाल में भोजन को पचाने एवं श्वसनांगों में वातावरण की वायु से 0, ग्रहण करने मात्र से कोई लाभ नहीं जब तक कि पचे हुए पोषक पदार्थों एवं O, को इन अगों से शरीर की सभी कोशिकाओं में पहुँचाने की व्यवस्था न हो। अतः जन्तु-शरीर में एक विस्तृत पाइप-लाइन का तंत्र होता है। इसे परिसंचरण तंत्र कहते हैं। शरीर एवं वातावरण के बीच तथा शरीर के विभिन्न ऊतकों के बीच पदार्थों का निरन्तर रासायनिक आदान-प्रदान इसी तंत्र के माध्यम से होता है। इस प्रकार, पाचन तंत्र से पचे हुए पोषक पदार्थों, श्वसनांगों से O, तथा अन्तःस्रावी ग्रन्थियों से हॉरमोन्स को शरीर कोशाओं में वितरित करने तथा कोशाओं से CO, को श्वसनांगों में और अमोनिया, यूरिया आदि उत्सर्जी पदार्थों को उत्सर्जन अंगों में पहुँचाने का काम परिसंचरण तंत्र ही करता है। इसके अतिरिक्त, यह तंत्र ऊतकों में कोशाओं के चारों ओर के तरल वातावरण की रासायनिक एवं भौतिक दशाओं को सुनिश्चित स्तर पर स्थायी बनाये रखने का काम भी करता है। इस प्रक्रिया को होम्योस्टैसिस (homeostasis) कहते हैं। इन सब कार्यों के लिए परिसंचरण तंत्र में दो प्रकार के तरल होते हैं-रक्त (blood) एवं लसिका (lymph)। ये दोनों तरल, एक-दूसरे से पृथक्, अनेक छोटी-छोटी वाहिनियों द्वारा, शरीर के सूक्ष्मातिसूक्ष्म भागों में पहुँचते हैं । अतः इस तंत्र को दो भागों में बाँटा जाता है-

(1) रुधिर परिसंचरण तंत्र (Blood Circulatory of Vascular System) तथा
(2) लसिका तंत्र (Lymphatic System)।


शशक का रुधिर परिसंचरण तंत्र 

रक्त को इसके पाइप-लाइन तंत्र अर्थात् रुधिरवाहिनियों (blood vessels) में पम्प करने का काम स्पंदनशील (contractile) हृदय (heart) करता है। अतः अध्ययन की सुविधा के लिए रुधिर परिसंचरण तंत्र को तीन भागों में बाँटते हैं-
(1) हृदय, 
(2) रुधिरवाहिनियाँ तथा 
(3) रुधिर 


शशक का हृदय (Heart)


हृदय की स्थिति (Position of heart)

 यह गुलाबी रंग का शंक्वाकार (conical), खोखला एवं मांसल अंग होता है जो शरीर के वक्ष भाग के मध्यावकाश (mediastinal space) में, फेफड़ों के बीच, अधरतल की ओर स्थित होता है। रुधिर परिसंचरण तंत्र का यही केन्द्रीय अंग होता है, अर्थात् रुधिरवाहिनियाँ इसी से रुधिर को पूरे शरीर में ले जाती हैं और इसी में वापस लाती हैं। जैसे अन्य आन्तरांग उदरगुहा से तथा फेफड़े प्लूरल गुहाओं से घिरे होते हैं, वैसे ही हृदय हृदयावरणी गुहा (pericardial cavity) से घिरा होता है। यह गुहा देहगुहा का ही एक भाग होती है जो विकासकाल में इसके शेष भाग से पृथक् हो जाती है। अतः, प्लूरल कला एवं उदरावरण (peritoneum) की ही भाँति, हृदयावरणी गुहा के चारों ओर भी सीलोमिक एपिथीलियम (coelomic epithelium) का झिल्लीनुमा पारदर्शक आवरण होता है। इस आवरण का हृदय से सटा भीतरी भाग एपिकार्डियम (epicardium) तथा बाहरी भाग हृदयावरण (pericardium) कहलाता है। हृदयावरण के ऊपर तन्तुमय ऊतक का एक अतिरिक्त महीन स्तर होता है। हृदयावरणी गुहा, पेरिटोनियल गुहाओं की भाँति, एक "सम्भावित अन्तराल (potential space)” के ही रूप में होती है, अर्थात् इसमें केवल एक लसदार एवं पारदर्शक पेरिकार्डियल तरल (pericardial fluid) का इतना ही महीन स्तर होता है जो एपिकार्डियम एवं पेरिकार्डियम को केवल परस्पर चिपकाये रखता है। यह गुहा-

(1) हृदय को नम बनाये रखती है,
(2) बाहरी धक्कों एवं चोटों से इसकी सुरक्षा करती है,
(3) इसे स्पंदन में होने वाले घर्षण के दुष्प्रभाव से बचाती है, तथा
(4) स्पंदन में इसे फैलने की सुविधा देती है, परन्तु आवश्यकता से अधिक फैलने से रोकती है।

 हृदय की बाह्य रचना (External morphology)—

शंक्वाकार हृदय का चौड़ा भाग आगे और कुछ दाहिनी एवं पृष्ठतल की ओर झुका होता है। पिछला, नुकीला भाग कुछ बायीं एवं अधरतल की ओर झुका होता है।
अगले चौड़े भाग को अलिन्द (auricle or atrium) तथा पिछले शंक्वाकार भाग को निलय (ventricle) कहते हैं। इनके बीच की विभाजन रेखा, एक हृद्-खाँच (coronary sulcus) के रूप में, स्पष्ट दिखायी देती है। कुछ सरीसृपों तथा सारे पक्षियों और स्तनियों में अलिन्द एवं नियल, दोनों ही पूर्णरूपेण दाएँ-बाएँ कक्षों में बँटे होते हैं। अतः शशक का हृदय चार-कक्षीय (four-chambered) होता है।

 हृद्-खाँच काफी आगे होती है। अतः निलय अलिन्द से काफी बड़ा होता है। यह अधिक मांसल एवं हल्के रंग का भी होता है। इसका विभाजन करने वाली अन्तरानिलय पट्टी (inter-ventricular septum) तिरछी होती है। अतः दाहिना निलय (right ventricle) बायें से छोटा होता है और हृदय की नोंक तक नहीं पहुँचता (चित्र 1 )। निलय के अधरतल पर, पिछले भाग की दाहिनी ओर से लेकर इसके अग्र किनारे के मध्य तक फैली एक गहरी अनुलम्ब अन्तरानिलयी खाँच (inter-ventricular sulcus) इसके विभाजन की सूचक होती है। बायाँ निलय दाहिने से बड़ा ही नहीं, वरन् अधिक पेशीय भी होता है, क्योंकि यही रुधिर को उन वाहिनियों में पम्प करता है जो इसे पूरे शरीर में ले जाती हैं। दाहिना निलय केवल फेफड़ों में ले जाने वाली वाहिनियों में अपना रुधिर पम्प करता है।

जब अलिन्द संकुचित होते हैं, इनसे एक-एक सँकरे एवं चपटे-से पिण्ड पीछे की ओर बढ़कर निलयों के अग्र भाग पर फैल जाते हैं। इन पिण्डों को अलिन्दीय उपांग (auricular appendages) कहते हैं।
मेंढक के विपरीत, शशक में शिरापात्र (sinus venosus) तथा धमनीकाण्ड (conus arteriosus) नहीं होते। शिरापात्र भ्रूण में बनता तो है, लेकिन बाद में यह दाएँ अलिन्द की दीवार का ही अंश बन जाता है। अतः अग्र एवं पश्च महाशिराओं (precavals and postcaval) द्वारा शरीर के विभिन्न भागों से एकत्रित अशुद्ध



चित्र 1 शशक के हृदय का अधर दृश्य

रक्त सीधे अलिन्द में आता है। पल्मोनरी शिराओं (pulmonary veins) द्वारा फेफड़ों से लाया गया शुद्ध रक्त, मेंढक की ही भाँति, सीधे बायें अलिन्द में आता है। धमनीकाण्ड के अभाव तथा निलय के विभाजन के कारण, शशक में पल्मोनरी एवं कैरोटिको-सिस्टेमिक चापें (pulmonary and carotico-systemic arches) क्रमशः दाहिने एवं बायें निलय से अलग-अलग निकलती हैं।

हृदय की आन्तरिक रचना (Internal structure)


हृदय की आन्तरिक रचना का अध्ययन इसकी क्षैतिज अनुलम्ब काटों (horizontal longitudinal sections) (चित्र 2) की सहायता से किया जाता है। इसकी दीवार मुख्यतः हृद्-पेशियों (cardiac muscles) की बनी होती है जो इसका मध्यस्तर बनाती हैं। ये पेशियाँ शाखान्वित और रेखित, परन्तु अनैच्छिक होती हैं। ये बिना थके, जीवनभर संकुचन करती रहती हैं। इस स्तर को पेशीहृदस्तर या मायोकार्डियम (myocardium) कहते हैं। इसकी भीतरी सतह पर, भ्रूण की एण्डोडर्म से बना, महीन अन्तःहदुस्तर (endocardium) तथा बाहरी सतह पर, बाह्यद्स्तर या एपिकार्डियल कला (epicardial membrane) होती है। अलिन्द की दीवार निलय की दीवार से पतली होती है। अलिन्द को दाहिने एवं बायें अलिन्दों में बाँटने वाली अन्तरा-अलिन्द पट्टी (interatrial septum) के पश्च भाग में,







चित्र 2 शशक के हृदय की क्षैतिज अनुलम्ब काट (अधर दृश्य)

दाहिनी ओर, फोसा ओवैलिस (fossa ovalis) नामक, , छोटा-सा अण्डाकार गड्ढा होता है। भ्रूणावस्था में इसी स्थान पर फोरामेन ओवैलिस (foramen ovalis) नामक छिद्र होता है। अलिन्द की दीवार का भीतरी स्तर अधिकांश भाग में सपाट होता है, लेकिन कुछ भाग में, विशेषतौर से अलिन्दीय उपांगों में, इससे अनेक पेशीय पट्टियाँ गुहा में उभरी रहती हैं जिन्हें कंघाकार पेशियाँ (musculi pectinati) कहते हैं। दाहिने अलिन्द में पृथक् छिद्रों द्वारा, तीन मोटी महाशिराएँ खुलती हैं-पश्च महाशिरा (posterior vena cava or postcaval vein) तथा दायीं एवं बायीं अग्र महाशिराएँ (anterior venae cavae or precaval veins) । दायीं अग्र महाशिरा का छिद्र इस अलिन्द के अग्र भाग में, बायीं का पश्च भाग में बायीं ओर तथा पश्च महाशिरा का पृष्ठ दीवार में होता है। एक झिल्लीनुमा भंज, जिसे यूस्टेकी कपाट (eustachian valve) कहते हैं, पश्च महाशिरा के छिद्र से लेकर फोसा ओवैलिस तक फैला रहता है। बायीं अग्र महाशिरा के छिद्र के पास ही स्वयं हृदय की दीवार से अशुद्ध रक्त को अलिन्द में लाने वाले हृद अर्थात् कोरोनरी साइनस (coronary sinus) का छिद्र होता है।

इस छिद्र पर भी बायीं अग्र महाशिरा के छिद्र तक फैला कोरोनरी या थिबेसियन कपाट (coronary or.
Thebesian valve) होता है। बाएँ अलिन्द में फेफड़ों से शुद्ध रक्त लाने वाली फुफ्फुसीय शिराएँ (pulmonary veins) खुलती हैं। ये दोनों साथ-ही-साथ इस अलिन्द की पृष्ठ दीवार में होकर इसमें खुलती हैं। मनुष्य, बिल्ली आदि कुछ स्तनियों में केवल एक ही अग्र महाशिरा होती है।


 निलय (ventricle) की दीवार अलिन्द की दीवार से बहुत मोटी और मांसल होती है। बायें निलय की दीवार दाहिने की दीवार से मोटी होती है। दाहिने की गुहा कुछ बड़ी एवं अर्धचन्द्राकार-सी तथा बायें की गोल-सी होती है। दोनों निलयों को परस्पर पृथक् करने वाली तिरछी अनुलम्ब पट्टी को अन्तरा-निलय पट्टी (inter-vetricular septum) कहते हैं। एक-एक बड़े अलिन्द-निलय छिद्रों (atrio-ventricular apertures) द्वारा अलिन्द अपनी-अपनी ओर के निलयों में खुलते हैं। प्रत्येक अलिन्द-निलय छिद्र का नियंत्रण करने हेतु इस पर एक झिल्लीनुमा कपाट होता है। 

दाहिना अलिन्द-निलय कपाट तीन चपटे एवं त्रिकोणाकार-से पल्लों (flaps) का बना होता है। अतः इसे त्रिवलनी या ट्राइकस्पिड कपाट (tricuspid valve) कहते हैं। बायाँ अलिन्द-निलय कपाट केवल दो, अधिक बड़े, मोटे एवं मजबूत पल्लों का बना होता है। इसे द्विवलनी या बाइकस्पिड कपाट (bicuspid valve) या मिट्रल कपाट (mitral valve) कहते हैं। इन कपाटों के पल्ले झिल्लीनुमा कंडराओं (tendons) या हृद्रज्जुओं (chordae tendinae) द्वारा निलय की भीतरी दीवार पर स्थित मोटे पेशी-स्तम्भों (columnae carnae or papillary muscles) से जुड़े रहते हैं । ये कपाट रक्त को केवल अलिन्दों से निलयों में जाने का मार्ग देते हैं, विपरीत दिशा में जाने का नहीं। दाहिने निलय के अग्र भाग के बायें कोण से पल्मोनरी चाप (pulmonary arch or aorta) तथा बायें निलय के अग्र भाग के दाहिने कोण से कैरोटिको-सिस्टेमिक चाप (carotico-systemic or ascending arch or aorta) निकलती है। दोनों चापों के गोल-से द्वारों पर तीन-तीन छोटे जेबनुमा अर्धचन्द्राकार कपाट (semilunar valves) होते हैं जो रक्त
को निलयों से चापों में ही जाने का मार्ग देते हैं, चापों से वापस निलयों में आने का नहीं। 

दाहिने निलय से निकल कर पल्मोनरी चाप बायीं ओर घूम जाती है और कैरोटिको-सिस्टेमिक चाप के अधरतल की ओर से होती हुई घूमकर, फेफड़ों में जाने वाली दो पल्मोनरी धमनियों (pulmonary arteries) में बँट जाती है। कैरोटिको-सिस्टेमिक चाप बायें निलय से निकल कर पल्मोनरी चाप के पृष्ठतल की ओर से होती हुई घूमकर धमनियों में बँट जाती है। जहाँ दोनों चापें एक-दूसरी को क्रॉस (cross) करती हैं, ये लिगामेन्टम आरटीरोओसम (ligamentum arteriosum) नामक ठोस, धागेनुमा स्नायु (ligament) द्वारा परस्पर जुड़ी रहती हैं। भ्रूणावस्था में इस स्नायु के स्थान पर डक्टस आरटीरिओसस या बोटैलाई (ductus arteriosus or Botalli) नामक महीन धमनी होती है जिसके द्वारा चापों के बीच रक्त का आवागमन होता है।

 हृदय की दीवार के कुछ भागों में सघन तन्तुमय संयोजी ऊतक के छल्ले होते हैं। ये दीवार को सहारा देते हैं, कक्षों को.आवश्यकता से अधिक फूलने से रोकते हैं और अनेक हृद्-पेशियों को जुड़ने का स्थान देते हैं। अतः इन्हें "हृदय के कंकाल' के समान माना जाता है। कुछ स्तनियों में इन छल्लों में उपास्थीय या अस्थीय ऊतक की उपस्थिति बतायी गयी है।


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