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शशक के हृदय की कार्यिकी || shashak ke hrday kee kaaryikee



 शशक के हृदय की कार्यिकी
(WORKING OR PHYSIOLOGY OF HEART)

इसे पिछले पोस्ट में हम लोगो ने शशक का परिसंचरण तंत्र मे शशक का रुधिर परिसंचरण तंत्र के बारे में जाना था आज हम लोग उसी के आगे शशक के ह्रद् य की कार्यिकी के बारे मे जानेगें।

विलियम हार्वे (William Harvey, 1628) ने खोज की कि रुधिर पूरे शरीर में एक ही परिपथ में संचरित होता है: हृदय इसे कुछ वितरणवाहिनियों अर्थात् धमनियों (distributing vessels or arteries) में पम्प करता रहता है जो इसका पूर्ण शरीर में वितरण कर देती हैं; फिर संग्रहवाहिनियाँ अर्थात् शिराएँ (collecting vessels or veins) पूर्ण शरीर से इसे वापस हृदय में लाती हैं। इस प्रकार, रुधिर की लगभग एक निश्चित मात्रा (मनुष्य में 5 लिटर) निश्चित परिपथ में पूर्ण शरीर में निरन्तर संचरित होती रहती है। समस्त रुधिरवाहिनियों में रुधिर के बहाव का वेग हदय के थोड़े-थोड़े समयान्तरों पर संकुचन द्वारा ही उत्पन्न होता है। इस प्रकार, हृदय रुधिर परिसंचरण का "केन्द्रीय पम्पिंग स्टेशन (central pumping station)” होता है।



 शशक के हृदय का स्पंदन (Heartbeat)


पम्पिंग केन्द्र के रूप में हृदय जीवनभर, बिना थके, नियमित समयान्तरों पर, अपनी पेशियों द्वारा संकुचित होकर, रक्त को विभिन्न धमनियों में धकेलता अर्थात् पम्प करता रहता है। इसके इस नियमित एवं क्रमिक (rhythmic) संकुचन को इसकी धड़कन या स्पंदन (beating of the heart) कहते हैं। प्रत्येक स्पंदन की दो प्रावस्थाएँ होती हैं-प्राकुञ्चन या सिस्टोल (systole) तथा प्रसारण या डायस्टोल (diastole)। प्रकुञ्चन में हदय का आयतन घट जाने से इसका रक्त तीव्र वेग के साथ धमनियों (arteries) में पम्प हो जाता है। इसके विपरीत, प्रसारण में, हृदय का आयतन वापस सामान्य हो जाने के कारण शिराओं (veins) का रक्त इसमें आ जाता है । यद्यपि प्रत्येक स्पंदन में पूरा हृदय सिकुड़ता है, लेकिन एक साथ नहीं; इसके विभिन्न भागों का स्पंदन एक नियमित क्रम में, एक-दूसरे के बाद होता है। इसीलिए, इसमें रक्त का प्रवाह एक ही दिशा में होता रहता है और प्रत्येक स्पंदन को हृदयी चक्र (cardiac cycle) कहते हैं।


 

 शशक के हृदयी चक्र (Cardiac cycle)

एक स्पंदन की समाप्ति से लेकर अगले स्पंदन की समाप्ति तक एक हृदयी चक्र होता है। विभिन्न स्तनियों में इसका समय, हृदय की स्पंदन दर के अनुसार, इसी के उल्टे अनुपात में होता है। यदि स्पंदन दर 75 प्रति मिनट है तो हृदयी चक्र का समय 60/75=0.8 सेकण्ड होगा जिसमें अलिन्द की संकुचन एवं शिथिलन (प्रसारण) प्रावस्थाओं का समय क्रमशः 0.1 तथा 0.7 सेकण्ड और निलयों का क्रमशः 0.3 तथा 0.5 सेकण्ड होगा। मनुष्य में सामान्यतः हृदय 75 बार प्रति मिनट स्पंदन करके लगभग 5 लीटर रक्त पम्प करता है। इस प्रकार, 50 वर्ष के औसत जीवनकाल में हमारा हृदय लगभग दो अरब बार स्पंदन करके लगभग 13 करोड़ लीटर (1 लाख 30 हजार टन) रक्त पम्प करता है। व्यायाम या परिश्रम के समय स्पंदन दर काफी बढ़ जाती है। सामान्यतः प्रति मिनट हृदय द्वारा पम्प किये गये रुधिर (cardiac output) का 10% अंश स्वयं हत्पेशियों में, 15% मस्तिष्क में, 25% पाचन तंत्र के अंगों में, 20% वृक्कों में तथा 30% अन्य अंगों में जाता है।

प्रत्येक हदयी चक्र के प्रारम्भ में सबसे पहले दायें और तुरन्त बाद बायें अलिन्द में संकुचन (contraction) होता है। इसके फलस्वरूप, अलिन्दों से रक्त नियलों में पम्प हो जाता है। मनुष्य में यह रक्त निलयों में भरने वाले, रक्त की कुल मात्रा का लगभग 30% ही होता है। शेष 70% रक्त अलिन्दों से निलयों में पहले ही, निलयों के डायस्टोल के प्रारम्भ में भर चुका होता है। डायस्टोल में इसके बाद भी, अलिन्द-निलय कपाटों के खुले रहने के कारण, जो थोड़ा-बहुत रक्त महाशिराओं से अलिन्दों में आता है वह सीधा निलयों में रिसता रहता है। इस प्रावस्था को डायस्टैसिस (diastasis) कहते हैं।

दायें एवं बायें निलयों का आकुञ्चन एक साथ और अलिन्दों के आकुञ्चन से अधिक तीव्र होता है। इसमें पहले त्रिवलनी (tricuspid) एवं द्विवलनी (bicuspid) कपाट, एक हल्की “लब (lubb)" की ध्वनि उत्पन्न करते हुए बन्द हो जाते हैं। फिर रक्त के दबाव के कारण धमनी चापों के अर्धचन्द्राकार कपाट खुल जाते हैं और निलयों का रक्त धमनी चापों में पम्प हो जाता है। आकुञ्चन के समाप्त होते ही फिर अर्धचन्द्राकार कपाट एक अधिक तीव्र "डप (dup)" की ध्वनि के साथ बन्द हो जाते हैं। शीघ्र ही इस बीच अलिन्दों में भर जाने वाले रक्त के दबाव से अलिन्द-निलय कपाट खुल जाते हैं और निलयों के 70% भराव के साथ इनका डायस्टोल प्रारम्भ हो आता है। "लब" एवं "डप" की हृदयी ध्वनियों को स्टेथोस्कोप (stethoscope) नामक यंत्र से सुनकर डॉक्टर हद-स्पंदन की जाँच करते हैं।


 शशक के हृदयी परिपथ (Heart circuit)-

रुधिर परिसंचरण तंत्र का केन्द्रीय अंग होने के नाते, हृदय शरीर में, सेचारण हेतु श्वसनांगों से "शुद्ध' रक्त भी प्राप्त करता है और श्वसनांगों में शुद्धिकरण के लिए भेजने हेतु पूरे शरीर से "अशुद्ध" रक्त भी। इस प्रकार, आदर्श रूप से, एक बार अंगों से लौट आने पर रक्त को वापस अंगों में जाने से पहले हदय में से दो बार गुजरना होता है—पहले अशुद्ध रक्त के तथा फिर शुद्ध रक्त के रूप में। ऐसा तभी सम्भव होता है जब हृदय में अशुद्ध एवं शुद्ध रक्त को पूर्णरूपेण पृथक् रखने की व्यवस्था हो । कशेरुकियों में इस व्यवस्था का क्रमिक उद्विकास हुआ है—मछलियों में ऐसी व्यवस्था नहीं होती; नालाकार हृदय में एक ओर से अशुद्ध रक्त आता है तथा दूसरी ओर से निकल कर शुद्धिकरण के लिए जल-क्लोमों (gills) में जाता है। इसे ह्रदय का इकहरा परिपथ (single heart circuit) कहते हैं। जल-क्लोमों से शुद्ध रक्त सीधे शरीर के विभिन्न भागों में चला जाता है। मेंढक तथा अन्य उभयचरों एवं अधिकांश सरीसृपों में अलिन्द का दायें-बायें भागों में पूर्ण विभाजन हो जाता है ताकि दायाँ अलिन्द अशुद्ध रक्त को तथा बायाँ शुद्ध रक्त को प्राप्त करके पृथक् रख सके,
परन्तु निलय का विभाजन न होने के कारण इसमें शुद्ध एवं अशुद्ध रक्त का कुछ मिश्रण हो जाता है। कुछ सरीसृपों (मगरमच्छों एवं घड़ियालों) तथा सारे पक्षियों एवं स्तनियों में निलय का भी पूर्ण विभाजन हो जाने से हृदय के दायें-बायें भाग बिल्कुल पृथक् रक्त-मार्गों का काम करने लगते हैं-दायाँ भाग पूर्ण शरीर से अशुद्ध रक्त एकत्रित करके इसे फेफड़ों में भेजता है तथा बायाँ भाग फेफड़ों से शुद्ध रक्त पाकर इसे पूर्ण शरीर में पम्प करता है। दूसरे शब्दों में दायाँ भाग पल्मोनरी हृदय (pulmonary heart) के तथा बायाँ सिस्टेमिक हृदय (systemic heart) के रूप में काम करते हैं। इसी को हृदय का दोहरा परिपथ कहते हैं।

 शशक के हृदय का विशिष्ट संवहनी ऊतक (Specialized conducting tissue)-

हदय के स्पंदन का सूत्रपात और इसका नियंत्रण वैज्ञानिक समस्याएँ बनी रही हैं। हालर (Haller) के प्रथम मत के अनुसार, जब हदय के किसी कक्ष में रक्त भरकर इसकी दीवार को छूने लगता है तभी इसमें संकुचन होता है। यह मत निराधार है, क्योंकि रिक्त हृदय में भी नियमित स्पंदन होता है । इसके बाद, स्पंदन का सूत्रपात तंत्रिकीय संवेदनाओं के कारण माना गया, अर्थात् इसे एक तंत्रिजनक (neurogenic) क्रिया माना गया। यह मत भी गलत सिद्ध हुआ, क्योंकि हृदय से सम्बन्धित तंत्रिकाओं को काट देने पर भी स्पंदन होता है।

आधुनिक वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि स्पंदन का सूत्रपात हृदय की दीवार की पेशियों में ही होता है, अर्थात् यह एक हत्पेशी (myogenic) क्रिया है। स्पंदन के सूत्रपात और पूरे हृदय में स्पंदन की प्रेरणा के प्रसारण हेतु हृदय की दीवार के पेशी स्तर में स्थित कुछ विशेष प्रकार के हत्पेशी तन्तुओं जाल फैला होता है जिसे शिरा-निलय तंत्र (sinu-auricular system) कहते हैं। इन विशिष्ट तन्तुओं में, आकुञ्चन की क्षमता के स्थान पर स्वतंत्र रूप से लयबद्ध (rhythmic) प्रेरणाएँ, उत्पन्न करके इनके संवहन की क्षमता विकसित हो जाती है। इसीलिए, कार्यिकी के संदर्भ में हृदय को शरीर का एक स्वायत्त (autonomous) अंग माना जाता है।


शशक तथा अन्य स्तनियों में उपरोक्त विशिष्ट हृत्पेशियों के संवहनी तंत्र में दो छोटी धुण्डि (atrio-ventriculartert या A-V node)। इन घुण्डियों के तन्तुओं को गुन्ठीय तन्तु (nodal fibres) कहते हैं। S.A घुण्डी अर्धचन्द्राकार-सी तथा दायें अलिन्द की दीवार में दायीं अग्रमहाशिरा के द्वार के निकट स्थित 1 A-V घुण्डी कुछ छोटी एवं पतली तथा आन्तरअलिन्द कपाट के आधार भाग में दाएँ अलिन्द की ओर स्थित होती है। हदय के प्रत्येक स्पंदन का प्रारम्भ S-A घुण्डी के तन्तुओं में संकुचन की स्वतः उत्पन्न प्रेरणा से होताहै। ये तन्तु दाहिने अलिन्द के सामान्य हत्पेशी तन्तुओं से जुड़े होते हैं और संकुचन की प्रेरणा को इनमें पहुँचाते हैं। दाहिने अलिन्द से संकुचन की प्रेरणा तुरन्त बायें अलिन्द में फैल जाती है। 

विशिष्ट संवहनी तंत्र के कुछ तन्तु S-A घुण्डी को सीधे A-Vघुण्डी से जोड़कर संकुचन प्रेरणा-संवहन का आन्तरघुण्डीय पथ (internodal pathway) स्थापित करते हैं। A-V घुण्डी से ये प्रेरणाएँ निलयों की दीवार में जाती हैं, परन्तु क्षणभर रुक कर, ताकि निलयों के संकुचन से पहले अलिन्दों का सारा रक्त इनमें जा सके। A-V अण्टी से निलयों की दीवार में जाने वाले संवहनी तन्तुओं को परकिन्जे के तन्तु (Purkinje fibres) कहते हैं।




 A-V घुण्डी से इन तन्तुओं का एक सघन गुच्छा-ऐट्रिओ-वेन्ट्रीकुलर गुच्छा (atrio-ventricult
bundle) या हिस का गुच्छा (bundle of His) निकल कर आन्तर-निलय पट्ट के शिखर पर दो गुच्छों (दाये एवं बायें) में बँट जाता है। दो गुच्छों के तन्तु, बारम्बार विभाजित हो-होकर, संकुचन-प्रेरणा को अपनी-अपनी ओर के निलय की सम्पूर्ण दीवार में प्रसारित करते हैं। सम्पूर्ण विशिष्ट संवहनी तंत्र में संकुचन एवं शिथिलन के प्रेरणाओं के विद्युती प्रसारण की जाँच डॉक्टर इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम (electrocardiogram) नामक उपकरण द्वारा करते हैं।

क्योंकि हृदय के प्रत्येक स्पंदन का सूत्रपात S-A घुण्डी से होता है, इस घुण्डी को हृदय का "स्पंदन केन्द्र या गति-निर्धारक (contraction centre or pacemaker)" कहते हैं। हृदय में भीतर स्थित कपाट इसमें रक्त के बहाव की निर्धारित दिशा बनाये रखते हैं; इसे विपरीत दिशा में नहीं बहने देते। तंत्रिकीय नियंत्रण (nervous control) यद्यपि हृदयी चक्रों का सामान्य स्थायी दर से सूत्रपात S-A घुण्डी से ही होता है, लेकिन स्पंदन दर, शरीर की आवश्यकतानुसार, स्वायत्त (autonomic) तंत्रिकीय नियंत्रण द्वारा, घटाई-बढ़ाई जा सकती है। स्पंदन दर को घटाने की प्रेरणा को हृदय में ले जाने वाले तन्तु परानुकम्पी (parasympathetic) और वेगस क्रैनियल तंत्रिकाओं में होते हैं। दायीं वेगस के तन्तु मुख्यतः S-A घुण्डी को तथा बायों के मुख्यतः A-V घुण्डी को प्रभावित करके स्पंदन दर घटाते हैं। घुण्डियों को इस प्रकार प्रभावित करने हेतु इन तंत्रिका तन्तुओं के हृदयी छोरों पर ऐसेटिल्कोलीन (acetylcholine) नामक पदार्थ का स्रावण होता है। स्पंदन दर को बढ़ाने वाले तंत्रिका-तन्तु अनुकम्पी (sympathetic) और स्पाइनल तंत्रिकाओं में होते हैं। ये S-A तथा A-Vधुण्डियों के बजाय हृदय की दीवार में फैले होते हैं और नोरएड्रीनेलीन (noradrenaline) नामक पदार्थ का स्रावण करके स्पंदन दर को प्रभावित करते हैं।


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