शशक का श्वसन तन्त्र एवं ध्वन्योत्पादक अंग
(RESPIRATORY SYSTEM AND SOUND PRODUCING ORGANS)
शशक का श्वसन तन्त्र
जन्तु एवं श्वसन
जीव-शरीर की कोशाओं में ऊर्जा उत्पादन के लिए ग्लूकोज एवं अन्य पदार्थों का निरन्तर रासायनिक जारण या ऑक्सीकरण (combustion or oxidation) होता है। जारण में O, गैस का व्यय होता है तथा CO2 गैस बनती है। जन्तु, पोषक पदार्थों की भाँति, O2 को भी वातावरण से ग्रहण करता है और बदले में CO2 को वातावरण में मुक्त करता है। इसी को जन्तु का गैसीय विनियम (gaseous exchange) कहते हैं। प्रोटोजोआ (Protozoa) एवं निम्न कोटि के मेटाजोआ (Metazoa) में गैसीय विनिमय शरीर की प्रत्येक कोशा वातावरण (जेल) से सीधे ही कर लेती है। विकसित मेटाजोआ में, शरीर का माप बढ़ने के साथ-साथ, अधिकांश शरीर-कोशाओं का वातावरण से सीधा सम्पर्क नहीं रहता। अतः शरीर में गैसीय विनियम के लिए विशिष्ट अंगों का विकास होता है। इन्हें श्वसनांग (respiratory organs) कहते हैं। वातावरण से गैसीय विनिमय इन्हीं अंगों में होता है। विशिष्ट श्वसनांगों के विकास के साथ-साथ एक ऐसे परिवहन (transport) तंत्र का भी विकास होता है जो श्वसनांगों से O2 को सारी कोशाओं तक पहुँचाता है और बदले में कोशाओं से CO, को श्वसनांगों तक । यह परिवहन तंत्र रुधिर परिसंचरण तंत्र (blood vascular system) होता है। इस प्रकार, विकसित मेटाजोआ में गैसीय विनिमय एक बार श्वसनांगों में रुधिर एवं वातावरण के बीच तथा फिर पूरे शरीर में रुधिर एवं कोशाओं के बीच होता है। श्वसनांगों के निम्नलिखित विशिष्ट लक्षण होते हैं-
(क) वातावरण की हवा या जल से सम्पर्क,
(ख) गैसीय विनिमय तल का बृहद क्षेत्रफल,
(ग) विनिमय तल के निकट महीन रुधिर-केशिकाओं का घना जाल, तथा
(घ) विनिमय तल का महीन एवं नम होना।
श्वसनांग मिलकर शरीर का श्वसन तंत्र (respiratory system) बनाते हैं।
जलीय (aquatic) कशेरुकियों में प्रायः क्लोम(gills) तथा स्थलीय (terrestrial) में फेफड़े (lungs) प्रमुख श्वसनांग होते हैं। मेंढक भेकशिशु (tadpole) प्रावस्था में क्लोमों द्वारा तथा वयस्क प्रावस्था में फेफड़ों द्वारा श्वसन करता है, लेकिन उभयचारी (amphibious) होने के कारण, वयस्क मेंढक की त्वचा एवं मुख-ग्रासन गुहिका भी श्वसन के लिए उपयोजित (adapted) होती हैं। सुप्तावस्था (hibernation) के समय यह केवल त्वचा से श्वसन करता है। शशक स्थलीय जन्तु होता है। अतः इसमें श्वसन केवल फेफड़ों द्वारा होता है, और श्वसन तंत्र रचना एवं कार्यिकी में कहीं अधिक जटिल होता है। फेफड़े वक्ष भाग की प्ल्यूरल गुहाओं में, हृदय एवं मिडियास्टिनम (mediastinum) के पाश्र्वों में स्थित, दो बड़े अंग होते हैं। ये एक ही लम्बी श्वासनाल या ट्रैकिया (trachea) से जुड़े होते हैं। श्वासनाल, ग्रासनली के साथ-साथ, जन्तु की ग्रीवा में होती हुई कण्ठ के कण्ठद्वार (glottis) से मुखग्रासन गुहिका के ग्रसनी भाग में खुलती है। स्पष्ट है कि ग्रीवा के कारण ही शशक में, मेंढक के विपरीत, लम्बी श्वासनली होती है। कण्ठद्वार के पीछे, श्वासनाल के अग्र भाग से जुड़ा, एक छोटा-सा कण्ठ या स्वर यंत्र या लैरिंक्स (larynx) होता है जो ध्वन्योत्पादन (sound production) का काम करता है।
शशक के श्वसनांग
(RESPIRATORY ORGANS)
शशक के श्वसनांगों में नासिका, नासामार्ग, ग्रसनी, कण्ठ, श्वासनली तथा फेफड़े होते हैं।
(1) नासिका एवं नासामार्ग (Nose and nasal passages)
शशक की थूथन के छोर पर स्थित, हमारी तरह की नासिका (nose) होती है। इसमें दो तिरछे बाह्य नासाछिद्र (external nostrils or nares) होते हैं। ये ऊपरी होंठ की चीर (“hare-lip” cleft) के कारण मुख से जुड़े दिखायी देते हैं। नासिका में ये दो पृथक् (दायाँ एवं बायाँ) नासा-वेश्मों (nasal chambers) में खुलते हैं। मेंढक में नासावेश्म बहुत छोटे होते हैं और अन्तःनासाछिद्रों (internal nostrils or nares) द्वारा मुख-ग्रासन गुहिका के अगले भाग में खुलते हैं। इसके विपरीत, शशक में, द्वितीयक तालु (secondary palate) के विकास के कारण, मुख-गुहिका से पृथक्, दो लम्बे नासामार्ग (nasal passages, or respiratory channels, or fossae) बन जाते हैं (चित्र 33.1)। अतः अन्तःनासाछिद्र अर्थात् कोएनी (choanae) मुख-ग्रासन गुहिका में काफी भीतर, कण्ठद्वार (glottis) के पास ही, ग्रसनी (pharynx) के नासा-ग्रसनी (naso-pharyngeal) भाग में खुलते हैं। पृथक् नासामार्ग बन जाने से ही स्तनी जन्तु मुखगुहा में भोजन रहते हुए भी साँस ले सकते हैं। इसीलिए स्तनियों में भोजन को चबाने की क्षमता विकसित हुई।
चित्रक 1 शशक के सिर की सैजिटल काट का रेखाचित्र
नासामार्गों को परस्पर पृथक् करने हेतु इनके बीच में एक लम्बी, खड़ी उपास्थि की पट्टी अर्थात् नासा पढ (nasal septum) होता है। प्रत्येक नासामार्ग तीन भागों में विभेदित होता है जो बाहर से भीतर की ओर होते है-
1) प्रघाण या प्रकोष्ठ,
(2) घ्राण भाग
(3) श्वसन भाग।
(1) प्रघाण या प्रकोष्ठ (Vestibule) –
यह बाह्य नासाछिद्र के ठीक पीछे का छोटा-सा चौड़ा भाग होता है। यह भ्रूणीय एक्टोडर्म (ectoderm) से बनी सामान्य त्वचा द्वारा घिरा होता है। इसीलिए, इसमें बाल (hairs) तथा सिबेसियस (sebaceous) एवं स्वेद (sweat) ग्रन्थियाँ होती हैं। इसके बाल, गलमुच्छों की भाँति, कड़े एवं संवेदी नासाबाल (vibrissae) होते हैं।
(2) एवं (3) घ्राण एवं श्वसन भाग (Olfactory and Respiratory regions) प्रकोष्ठ के पीछे, प्रत्येक नासामार्ग के शेष प्रमुख भाग की पृष्ठ दीवार से नैजल (nasal), अधर दीवार से मैक्सिलरी (maxillary) तथा पार्श्व दीवारों से एथमॉएड (ethmoid) नामक हड्डियों के बल खाये हुए-से घुमावदार उभार, टेढ़ी-मेढ़ी प्लेटों (folds) के रूप में, वेश्म की गुहा में उभरे रहते हैं। इस प्लेटों को शुक्तिकाएँ या टरबाइनल अस्थियाँ (conchae or turbinal bones) कहते हैं। प्रकोष्ठ के पीछे पूरे नासामार्ग पर महीन श्लेष्मी कला (mucous membrane) का आवरण होता है। नैसोटरबाइनल हड्डियों पर की श्लेष्मी कला रोमाभविहीन (nonciliated) तथा संवेदी (गन्ध-ग्राही) एपिथीलियम होती है। इसे घ्राण एपिथीलियम या श्नीडेरियन कला (olfactory epithelium or Schneiderian membrane) कहते हैं। जुकाम के समय इसमें वाइरस के संक्रमण से सूजन आ जाती है और श्लेष्म का स्रावण बहुत अधिक मात्रा में होने लगता है। इसका वर्णन आगे संवेदांगों के अध्याय में दिया गया है। मैक्सिलोटरबाइनल्स एवं एथमोटरबाइनल्स के ऊपर की श्लेष्मी कला की एपिथीलियम, नासाग्रसनी (nasopharynx) की एपिथीलियम की भाँति, रोमाभि स्यूडोस्तृत स्तम्भी (ciliated pseudostratified columnar) होती है। इसे श्वसन एपिथीलियम (respiratory epithelium) कहते हैं। इसमें श्लेष्म का स्रावण करने वाली अनेक चषक कोशाएँ (goblet cells) होती हैं। एपिथीलियम के नीचे बहुकोशीय श्लेष्मी तथा सीरमी (mucous and serous) ग्रन्थियाँ भी होती हैं और महीन रुधिर-केशिकाओं का घना जाल फैला रहता है।
नासामार्गों की ऐसी जटिल रचना से शशक को कई लाभ होते हैं—
(1) टरबाइनल अस्थियाँ नासामार्गों को चक्करदार बनाकर इनके भीतरी क्षेत्रफल को अत्यधिक बढ़ा देती हैं। इन लम्बे मार्गों से होकर गुजरते समय बाहरी हवा का ताप शरीर-ताप के बराबर हो जाता है। इस ताप-नियंत्रण में श्वसन भाग की श्लेष्मिका के घने रुधिर-केशिका जाल तथा श्लेष्मी एवं सीरमी ग्रन्थियों द्वारा स्रावित पदार्थों का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है।
(2) श्लेष्म के कारण नासामार्ग नम एवं लसदार बने रहते हैं। अतः बाहरी हवा फेफड़ों तक पहुँचने से पहले ही नम हो जाती है।
(3) हवा के साथ आये हानिकारक जीवाणु, बीजाणु (spores), वाइरस तथा धूल एवं हानिकारक पदार्थों के कण आदि श्लेष्म में चिपककर प्रकोष्ठ के बालों में फँसे रह जाते हैं।
(4) श्नीडेरियन कला घ्राण-ज्ञान का काम करती है। श्वसन भाग के दूषित श्लेष्म को रोमाभ (cilia) पीछे ग्रसनी की ओर खिसकाते रहते हैं जहाँ से यह आहारनाल में पहुँच कर पचता रहता है या मुख-गुहिका में कफ के रूप में आ जाता है।
(2) वायुनाल (Windpipe)
नासामार्गों से हवा अन्तःनासाछिद्रों, ग्रसनी के नासा-ग्रसनीय भाग (nasopharynx) एवं कंठद्वार (glöttis) में होती हुई वायुनाल (windpipe) के जरिये फेफड़ों में पहुँचती है। वायुनाल मेंढक में एक छोटे कंठ-श्वास वेश्म (laryngo-tracheal chamber) के ही रूप में होती है। शशक तथा अन्य स्तनियों में, गर्दन (neck) के कारण, फेफड़े काफी पीछे, वक्षगुहा में स्थित होते हैं। अतः वायुनाल लम्बी होकर एक स्पष्ट वेश्मनुमा कंठ या लैरिंक्स (larynx) तथा एक लम्बी श्वासनाल या ट्रैकिया (trachea) में विभेदित हो जाती है। ग्रसनी (pharynx) का वर्णन, पहले ही, मुख-ग्रासन गुहिका के वर्णन के साथ, दिया जा चुका है। कंठ का विवरण इसी अध्याय में आगे दिया गया है।
(3) श्वासनाल (Trachea)
यह कंठ से जुड़ी, महीन दीवार की, अर्धपारदर्शक-सी लम्बी नलिका होती है जो ग्रासनली के अधरतल से चिपकी, ग्रीवा में होती हुई, वक्षगुहा (thoracic cavity) में पहुँचकर, दायें-बायें दो छोटी शाखाओं में बँट जाती है। इन शाखाओं को श्वसनियाँ या ब्रॉन्काई (bronchi) कहते हैं। ये अपनी-अपनी ओर के फेफड़े में घुस जाती हैं। श्वासनाल एवं ब्रॉन्काई की दीवार पतली, अर्धपारदर्शक एवं तीन स्तरों की बनी होती है—भीतरी श्लेष्मिका
चित्र 2 ट्रैकिया की अनुप्रस्थ काट का एक परिवर्धित भाग
(mucosa), मध्य में अधः श्लेष्पिका (submucosa) एवं सबसे बाहर बाह्य खोल (external coat) (चित्र 2)। श्लेष्मिका में सबसे भीतर श्लेष्मी कला होती है। यह गुहा के चारों ओर एक स्यूडोस्तृत रोमाभि एपिथीलियम (pseudostratified ciliated epithelium) के रूप में होती है। इसमें आधार कला (basal membrane) पर सधी स्तम्भी (columnar) और चषक कोशाएँ (goblet cells) होती हैं। आधार कला स्वयं इलास्टिक तन्तुओं के बने एक आधार पटल (lamina propria) पर सधी होती है। अधःश्लेष्पिका (submucosa) मोटी और स्वयं दो स्तरों में बँटी होती है—आधार पटल से लगा सघन तन्तुकीय संयोजी ऊतक का स्तर तथा बाहर की ओर का मोटा, परन्तु ढीले संयोजी ऊतक का स्तर। बाहरी स्तर में बहुकोशीय श्लेष्म ग्रन्थियाँ एवं अरेखित पेशी तन्तु भी होते हैं। बाह्य खोल भी तन्तुकीय संयोजी ऊतक का स्तर होता है। इसमें अरेखित पेशी तन्तु काफी होते हैं। श्वासनाल तथा श्वसनियों की दीवार में, अधःश्लेष्मिका और बाह्य खोल के बीच, तन्तुमय संयोजी ऊतक तथा अरेखित पेशी-तन्तुओं द्वारा परस्पर जुड़े और थोड़ी-थोड़ी दूर पर स्थित, हायलाइन (hyaline) उपास्थि के अनेक उपास्थीय छल्ले (cartilaginous rings) होते हैं। प्रत्येक छल्ले पर, बाहर की ओर, इसकी पर्युपास्थि (perichondrium) का आवरण होता है। ये छल्ले श्वासनाल के पृष्ठ भाग की ओर, जहाँ कि यह ग्रासनली की दीवार से लगी रहती है, अधूरे होते हैं। अतः ये 'C' की आकृति के होते हैं। ये श्वासनाल एवं श्वसनियों को पिचकने से रोकते हैं ताकि इनमें हवा स्वतंत्रतापूर्वक आ-जा सके। कुछ लचीले होने के कारण, ये इन नलियों को थोड़ा-बहुत फैलने की क्षमता भी प्रदान करते हैं।
श्लेष्मी एपिथीलियम की चषक कोशाओं तथा अधःश्लेष्मिका की श्लेष्म ग्रन्थियों द्वारा स्रावित श्लेष्म नलियों की दीवार के भीतरी स्तर को नम एवं लसदार बनाता है। यह हवा के साथ आये उन महीन धूल के कणों एवं हानिकारक जीवाणुओं को, जो नासिका के बालों एवं श्लेष्म में फँसने से बच जाते हैं, अपने में फँसाकर फेफड़ों तक पहुँचने से रोकता है। रोमाभ (cilia) इस प्रकार दूषित श्लेष्म को ग्रसनी की ओर बढ़ाते रहते हैं।
फेफड़े (Lungs)
दो फेफड़े प्रमुख श्वसनांग होते हैं। ये शरीर के वक्ष भाग में, हृदय एवं मिडियास्टिनम के इधर-उधर, अपनी-अपनी ओर की प्लूरल गुहाओं (pleural cavities) से घिरे, गुलाबी-से, कोमल एवं अत्यधिक लचीले अंग होते हैं। मेंढक के फेफड़ों की भाँति खोखले, थैलीनुमा न होकर ये सघन एवं स्पंजी होते हैं। प्रत्येक प्लूरल गुहा के चारों ओर प्लूरल कला (pleural membrane) का महीन आवरण होता है, लेकिन देहभित्ति से लगे आवरण (पैराएटल प्लूरा) और फेफड़ों से लगे आवरण (विसरल प्लूरा) के बीच कोई वास्तविक गुहा नहीं होती। दोनों आवरण श्लेष्म जैसी लसिका द्वारा परस्पर चिपके रहते हैं। इस प्रकार, प्लूरल गुहा, वास्तव में, स्पष्ट गुहा न होकर, एक सम्भावित गुहा (potential cavity) ही होती है। इसके फलस्वरूप, श्वास-क्रिया की गतियों के दौरान, दोनों प्लूरा एक-दूसरे पर फिसलते हैं, परस्पर पृथक् नहीं हो पाते। यदि इनके बीच कहीं पर थोड़ा-सा भी तरल एकत्रित हो जाये तो श्वास-क्रिया कठिन हो जाती है। इसे प्लूरिसी (pleurisy) का रोग कहते हैं। तरल को निकाल देना ही इस रोग का उपचार होता है।
चित्र 3 शशक के फेफड़े (अधर दृश्य)
तिरछी खाँचों द्वारा दाहिना फेफड़ा चार तथा बायाँ दो असमान पिण्डों में बँटे-से होते हैं (चित्र 33.3) । दाहिने फेफड़े के पिण्डों को आगे से पीछे की ओर क्रमशः अग्र ऐजाइगॉस (anterior arygos), दाहिना अग्र (right anterior), दाहिना पश्च (right posterior) एवं पश्च ऐजाइगॉस (posterior azygos), कहते हैं। बायें फेफड़े के पिण्डों को वाम अग्र (left anterior) तथा वाम पश्च (left posterior) पिण्ड कहते हैं।
फेफड़ों की रचना-
प्लूरल कला के फेफड़ों पर ढके भाग (विसरल प्लूरा) को फुफ्फुसावरण (pulmonary pleura) कहते हैं। इसमें बाहरी सतह पर, चपटी कोशाओं के एकाकी स्तर के रूप में पेरिटोनियम (peritoneum) मिलती-जुलती पारदर्शक मीसोथीलियम (mesothelium) होती है तथा इसके नीचे लचीले तन्तुमय संयोजी ऊतक का ढीला-सा स्तर। इस संयोजी ऊतक की महीन पट्टियाँ फेफड़ों में भीतर फैलकर इनके प्रत्येक पिण्ड को अनेक छोटे-छोटे बहुभुजीय पिण्डकों (lobules) में बाँटती हैं। प्रत्येक पिण्डक फिर हजारों-लाखों गोल-से सूक्ष्म वायु कोष्ठकों (alveoli) में बँटा होता है (चित्र 4)
चित्र 4 शशक में शवसनीय वृक्ष का एक छोर भाग
श्वसनीय वृक्ष (Bronchial tree)—अपनी ओर के फेफड़े में घुसते ही चित्र 4 शशक में श्वसनीय वृक्ष का एक छोर भाग प्रत्येक ब्रॉन्कस, पिण्डों की संख्या के अनुसार, पिण्डीय श्वसनियों (lobar or secondary bronchi) में बँटता है। अतः दायाँ ब्रॉन्कस चार एवं बायाँ दो पिण्डीय श्वसनियों में बँटता है। अपने-अपने पिण्ड में प्रत्येक पिण्डीय श्वसनी कुछ खण्डीय श्वसनियों (segmental or tertiary bronchi) में बँटती है। फिर द्विभागी शाखान्वयन (dichotomous branching) द्वारा प्रत्येक खण्डीय श्वसनी अनेक बार अन्तः फुफ्फुसीय श्वसनियों (intrapulmonary bronchi) में बँटती है। ये श्वसनियाँ छोटी एवं महीन होती हैं, परन्तु इनमें
चित्र 5 फेफड़े की अनुप्रस्थ काट का एक परिवर्धित भाग; सूक्ष्मदर्शी के
(A)निम्न पावर तथा (B) उच्च पावर आवर्धन में
(A) निम्न पावर तथा (B) उच्च पावर आवर्धन में उपास्थीय छल्ले होते हैं। अब ये छल्लेविहीन शाखाओं में बँटती हैं जिन्हें श्वसनिकाएँ (bronchioles) कहते हैं। प्रत्येक श्वसनिका भी अनेक बार विभाजित होती है और अन्तिम शाखाओं को पिण्डकीय श्वसनिकाएँ (lobular bronchioles) कहते हैं, क्योंकि ऐसी प्रत्येक शाखा किसी एक पिण्डक (lobule) में जाती है। यहाँ यह कुछ (मनुष्य में छः) छोर श्वसनिकाओं (terminal bronchioles) में बँटती है। प्रत्येक छोर श्वसनिका भी कई श्वसन श्वसनिकाओं (respiratory bronchioles) में बँटती है। प्रत्येक श्वसन श्वसनिका दो से ग्यारह, महीन दीवार की, कूपिका नलिकाओं (alveolar ducts) में बँटती है। फिर प्रत्येक कूपिका नलिका कुछ महीन एवं छोटी नलिकाओं में बँटती है जिन्हें अलिन्द (atria) कहते हैं। प्रत्येक अलिन्द अपने छोर पर एक फूले हुए वायुकोष (air or alveolar sac) में खुलता है। प्रत्येक वायु कोष में फिर दो या अधिक छोटे-छोटे थैलीनुमा वायुकोष्ठक (acini or alveoli or air saccules) खुलते हैं।
वायु कोष्ठकों की दीवार में महीन शल्की एपिथीलियम (squamous epithelium) का भीतरी तथा महीन संयोजी ऊतक का बाहरी स्तर होता है (चित्र 5) । संयोजी ऊतक में अनेक महीन रुधिर केशिकाओं का घना जाल बिछा रहता है और कुछ फाइब्रोब्लास्ट कोशाएँ, मैक्रोफेजेज, लसिका केशिकाएँ तथा इलास्टिन एवं रेटिकुलिन तन्तु होते हैं। निकटवर्ती कोष्ठकों की दीवारें परस्पर समेकित होती हैं। इनकी शल्की एपिथीलियम भी प्रायः संयोजी ऊतक की रुधिर-केशिकाओं की दीवारों के सम्पर्क में रहती है। इस प्रकार, यहाँ साँस द्वारा कोष्ठकों में भरी बाहरी हवा तथा रक्त के बीच बहुत ही महीन झिल्ली होती है। कोष्ठकों की दीवार का रक्त-केशिका जाल एक ओर फुफ्फुसीय धमनियों (pulmonary arteries) की तथा दूसरी ओर फुफ्फुसीय शिराओं (pulmonary veins) की शाखाओं से सम्बन्धित होते हैं
नोट-इस पोस्ट में हम केवल शशक का श्वसन के बारे में जाना है।और इसके अगले पोस्ट में हम शशक के ध्वन्योत्पादक अंग के बारे में जानेगें
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