इसे पिछेल पोस्ट में हमनें शशक का श्वसन तन्त्र के बार में जाना था और अब हम शशक का स्वर-यंत्र तथा ध्वन्योत्पादन के बारे में जानेगें
स्वर-यंत्र तथा ध्वन्योत्पादन
(LARYNX AND SOUND PRODUCTION)
(1) थाइरॉइड (Thyroid) यह सबसे आगे स्थित, लैरिक्स की सबसे बड़ी एवं चौड़ी छल्लेनुमा हायलाइन उपास्थि की प्लेट होती है। यह लैरिक्स की दीवार के केवल अधर एवं पाव भागों का कंकाल बनाती है। (चित्र 1)। इसके अयपृष्ठ (antero- dorsal) कोणों से एक-एक प्रवर्ध निकल कर हाइऔइड (hyoid) के पश्च भूगों (posterior cornu) पर सधे रहते हैं। इन प्रवर्धो के अतिरिक्त, थाइरॉइड के अग्र-अघर छोर से घाँटीढापन (epiglottis) की पतली एवं लचीली तन्तुमय उपास्थि आगे प्रसनी में बढ़ी रहती है। यह कण्ठद्वार (glottis) को भोजन निगलते समय बन्द करने का काम करती है। मनुष्य में थाइरॉइड का ही अधर भाग फूलकर टेंटुआ या कण्ठमणि (Adam's apple or pomum Adami) बनाता है।
चित्र 1 स्वर-यंत्र के A. पाश्र्व एवं B. पृष्ठ दृश्य
(2) क्रिकॉइड (Cricoid)
यह थाइरॉइड के पीछे स्थित छोटी, परन्तु मोटी एवं मजबूत हायलाइन उपास्थि होती है। यह पूरे छल्ले के आकार की होती है, परन्तु इसका पृष्ठ भाग कुछ चौड़ा तथा अघर भाग सँकरा होता है।
(3) ऐरिटीनॉइड्स (Arytenoids)—
ये क्रिकॉइड के अग्रपृष्ठ किनारे से लगी दो छोटी हायलाइन उपास्थियाँ होती हैं। प्रत्येक ऐरिटीनॉइड के स्वतंत्र सिरे पर लचीली तन्तुमय उपास्थि की एक छोटी घुण्डी होती है जिसे सैन्टोरिनि की उपास्थि (cartilage of Santorini) कहते हैं। कण्ठद्वार से क्रिकॉइड उपास्थि के पश्च किनारे तक फैली लैरिंक्स की गुहा को कण्ठ कोष (laryngeal chamber) कहते हैं। इस पर श्लेष्पिका का आवरण होता है। इसमें, मेंढक की भाँति, लचीले वाक् या स्वर-तन्तु (vocal cords) होते हैं, परन्तु इनकी एक नहीं, वरन् दो जोड़ियाँ होती हैं और ये पेशीय न होकर महीन झिल्ली के बने होते हैं। इनकी पहली जोड़ी ऐरिटीनॉएड उपास्थियों के अगले सिरों से तथा दूसरी इन्हीं के पिछले सिरों से थाइरॉइड उपास्थि तक फैली होती हैं। प्रथम जोड़ी के तन्तु मिथ्या स्वर तन्तु (false vocal cords) तथा दूसरी के यथार्थ स्वर-तन्तु (true vocal cords) कहलाते हैं। दोनों जोड़ी स्वर-तन्तु कण्ठ-कोष की श्लेष्मिका के ही भंज (folds) होते हैं जिनमें भीतर इलास्टिन तंतु उसे रहते हैं। मिथ्या स्वर-तन्तु मोटे एवं गुलाबी से तथा यथार्थ तन्तु महीन एवं सफेद-से होते हैं। दोनों जोड़ी स्वर-तन्तु इस प्रकार स्थित होते हैं कि इनके बीच एक पतली-सी दरार रह जाती है। यह दरार ही घाँटीद्वार या कण्ठद्वार (glottis) होती है। फेफड़ों से बाहर निकलते समय जब हवा यथार्थ तन्तुओं के बीच से निकलती है तो इनमें कम्पन होता है। इसी से ध्वनि उत्पन्न होती है। वैसे शशक अधिकतर चुप ही रहता है। मिथ्या स्वर-तन्तु ध्वन्योत्पादन में भाग नहीं लेते। ध्वनि को तीव्र या मन्द करने के लिए स्वर-तन्तु फैलकर या सिकुड़कर घाँटीद्वार को छोटा या बड़ा करने की क्षमता रखते हैं। स्वर-तन्तुओं का फैलना या सिकुड़ना उपास्थीय प्लेटों से लगी पेशियों की क्रिया पर निर्भर करता है।
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