लसिका तंत्र एवं लसिका
(LYMPHATIC SYSTEM AND LYMPH)
रुधिर के प्लाज्मा में लगभग लसिका (Lymph) एवं लसिका केशिकाएँ (Lymph capillaries) सात ग्राम / प्रति 100 मिली तथा ऊतक द्रव्य में केवल 1.5 ग्राम / प्रति 100 मिली अविसरणशील (nondiffusible) प्रोटीन्स होती हैं। इन प्रोटीन्स के कारण रुधिर में 28 तथा ऊतक द्रव्य में केवल 4 मिमी Hg कोलॉएड परासरणी दाब (colloid osmotic pressure) होता है। इस प्रकार, ऊतकों की रुधिर केशिकाओं में 24 मिमी Hg का वास्तविक या शुद्ध कोलॉएड परासरणी दाब होता है। परासरणी दाब के इस अन्तर के अनुसार, ऊतक द्रव्य से बहुत सा जल परासरण (osmosis) द्वारा रुधिर में चला जाना चाहिये, परन्तु केशिकाओं में उपस्थित रक्तदाब (blood pressure) परासरणी दाब का प्रतिकार करके ऐसा होने नहीं देता। रुधिर केशिका जाल के धमनिका वाले छोर पर रक्तदाब 40 मिमी Hg होता है, परन्तु शिराका वाले छोर तक धीरे-धीरे कम होकर केवल 15 मिमी Hg रह जाता है। इस प्रकार, जाल के प्रारम्भिक, धमनीय (arterial) भाग में, रक्तदाब के परासरणी दाब से अधिक होने के कारण प्लाज्मा का कुछ तरल अंश, इसमें घुले पोषक पदार्थों, O2, हॉरमोन्स, विटामिन्स सहित केशिकाओं की दीवार से छन कर ऊतक द्रव्य में चला जाता है। इससे ऊतक द्रव्य की मात्रा बढ़ जाती है। ऊतक की कोशाएँ ऊतक द्रव्य से इन पदार्थों को ग्रहण करके बदले में CO, एवं उत्सर्जी पदार्थ इसमें मुक्त कर में देती हैं। केशिकाओं के शिराकीय (venous) भागों में रक्तदाब (15 मिमी Hg) परासरणी दाब (24 मिमी Hg) से कम होता है। अतः ऊतक द्रव्य की बढ़ी हुई मात्रा का अधिकांश (90% से 99%) अंश केशिकाओं के इन भागों में वापस आ जाता है। ऊतक द्रव्य की बढ़ी हुई मात्रा के शेष (1%से 10%) अंश को वापस रक्त में पहुँचाने हेतु केशिरुकियों में एक पृथक्, लसिका तंत्र (lymphatic system) पाया जाता है। त्वचा की एपिडर्मिस, बालों, पंजों, नेत्रों की कनीनिका, अधिकांश उपास्थियों, मस्तिष्क, मेरुरज्जु, प्लीहा तथा अस्थिमज्जा के अतिरिक्त, शरीर के अन्य सभी ऊतकों में रुधिर-केशिकाओं के बीच-बीच लसिका केशिकाएँ (lymph capillaries) भी फैली होती हैं। ये अपने स्वतंत्र छोर पर बन्द होती हैं। इनकी गुहा चौड़ी और असममित होती है। इनमें कोई दबाव नहीं
होता। इनकी दीवार भी इतनी महीन होती है कि इसमें से जीवाणु, कोशीय मलवा (cell debris) तथा कोलॉएडलीय पदार्थों के बड़े कण भी आर-पार जा सकते हैं। अतः ऊतक द्रव्य की बढ़ी हुई मात्रा का शेष अश सब इन्हीं में चला जाता है और तब इसी को लसिका (lymph) कहते हैं।
लसिका वाहिनियाँ (Lymph vessels)
मेंढक में लसिका केशिकाएँ बड़े-बड़े असममित आकार के लसिका पात्रों (lymph sinuses) में खुलती हैं, और दो जोड़ी लसिका हृदय (lymph hearts) इन पात्रों में एकत्रित लसिका को सबस्कैपुलर तथा फेमोरल शिराओं में धकेलते हैं। शशक में लसिका पात्र और लसिका हृदय नहीं होते। इसमें लसिका केशिकाएँ मिल-मिल कर लसिका वाहिनियाँ (lymph vessels or lymphatics) बनाती हैं जिनकी रचना महीन शिराओं-जैसी होती है। इनके भीतर हृदय की ओर खुलने वाले इकतरफा अर्ध-चन्द्राकार कपाट भी होते हैं जो संख्या में शिराओं के कपाटों से अधिक होते हैं। बायें अग्रपाद, दोनों पश्चपादों, सिर तथा ग्रीवा के बायें भागों, आहारनाल तथा वक्ष एवं उदरगुहा के अन्य भागों की लसिका वाहिनियाँ, शरीर की देहभित्ति के नीचे स्थित, एक बड़ी बायीं वक्षीय लसिकावाहिनी (left thoracic lymph duct) में खुलती हैं। यह वाहिनी, डायफ्रैम के ठीक पीछे स्थित, सिस्टरना काइलाई (cisterna chyli) नामक एक बड़ी थैली से जुड़ी होती है। फिर आगे बढ़कर यह बायीं सबक्लैवियन शिरा (left subclavian vein) में खुलती है (चित्र 1) । इसी प्रकार, दाहिने हाथ तथा सिर, ग्रीवा एवं वक्ष के दाहिने भागों की लसिका वाहिनियाँ एक बड़ी दाहिनी वक्षीय लसिकावाहिनी (right thoracic lymph duct) में खुलती हैं जो बायीं से छोटी होती है और दाहिनी सबक्लेवियन शिरा (right subclavian vein) में खुलती है। आँत के सूक्ष्मांकुरों (villi) की लसिका केशिकाओं को आक्षीरवाहिनियाँ (lacteals) कहते हैं। इनका लिम्फ आँत से अवशोषित वसाओं के कारण दूधिया रंग का होता है। इसे चाइल (chyle) कहते हैं।
लसिका का बहाव (Flow of lymph)
रक्त के विपरीत, लसिका का बहाव केवल एक ही दिशा में—अंगों से हृदय की ओर-होता है। शिराओं की भाँति, लसिकावाहिनियों में, इसका उल्टा बहाव रोकने हेतु, भीतर कपाट होते हैं। फिर भी इनमें हृदय की ओर लसिका के बहाव को बनाये रखने हेतु दबाव शक्ति की आवश्यकता होती है। चार प्रकार से ऐसा दबाव लसिका पर पड़ता है- (1) स्वयं लसिकावाहिनियों की दीवार में उपस्थित अरेखित पेशियों द्वारा उत्पन्न तरंग-गति के कारण; (2) देहभित्ति एवं आंतरांगों की पेशियों के सिकुड़ने से लसिकावाहिनियों पर पड़ने वाले दबाव के कारण; (3) श्वास-क्रिया में डायक्रम एवं पसलियों की गतियों से तथा (4) लसिका वाहिनियों में समीपस्थ भागों से दूरस्थ भागों की ओर लसिका की मात्रा के धीरे-धीरे बढ़ते जाने का दबाव।
ऊतक द्रव्य (Tissue fluid, or Interstitial or Extracellular fluid— ECF) कशेरुकी शरीर का लगभग आधा भाग तरल होता है । इस तरल का लगभग दो-तिहाई अंश शरीर की कोशाओं में, अर्थात् अन्तःकोशीय (intracellular) होता है। शेष एक-तिहाई अंश कोशाओं के बाहर, अर्थात् बाह्यकोशीय (extracellular) होता है। इसी को ऊतक द्रव्य कहते हैं, क्योंकि यह ऊतकों में प्रत्येक कोशा के चारों ओर होता है। प्लाज्मा रुधिर का ऊतक द्रव्य होता है। जैसा कि उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है, अन्य सभी ऊतकों का ऊतक द्रव्य रुधिर-प्लाज्मा का अंश होता है तथा लसिका अनेक ऊतकों के ऊतक द्रव्य का अंश होती है। इस प्रकार, रुधिर-प्लाज्मा, ऊतक द्रव्य तथा लसिका मिलकर कशेरुकी शरीर का अविच्छिन्न (continuous) तरल अन्तः वातावरण (internal environment) बनाते हैं जो रुधिर परिसंचरण द्वारा निरंतर सारे शरीर में संचारित होता रहता है। इस तरल को क्लॉडी बरनार्ड (Claude Bernard, 1865) ने "mitieu interieur की तथा बेयर्ड हेस्टिंग्स (Baird Hastings) ने "शरीर के भीतर के समुद्र (the sea within the body)" की संज्ञा दी।
लसिका अंग (Lymphoid organs) -
लसिका तंत्र में लसिका केशिकाओं एवं वाहिनियों के अतिरिक्त, वाहिनियों से ही सम्बन्धित, लसिका ऊतक के बने अंग होते हैं। लसिका गाँठे (lymph nodes), लसिका पिण्ड (lymph nodules), प्लीहा या तिल्ली (spleen), थाइमस ग्रन्थि एवं गलांकुर या टॉन्सिल्स ऐसे ही अंग होते हैं। लसिका गाँठें लसिका वाहिनियों पर स्थित इन्हीं के फूले हुए भाग होती हैं। (i) ये लिम्फोसाइट्स का निर्माण करके इन्हें लसिका में मुक्त करती हैं; (ii) लसिका को छानकर साफ करती हैं; (iii) ऐन्टीबॉडीज का संश्लेषण करती हैं तथा (iv) जीवाणुओं एवं हानिकारक पदार्थों का भक्षण करके इन्हें नष्ट करती हैं। लसिका पिण्ड, पेयर के पिण्डों (Payer's patches) या अन्य छोटे पिण्डों के रूप में आंत्रीय श्लेष्मिका में भी पाये जाते हैं। प्लीहा का विवरण नीचे दिया गया है। थाइमस ग्रन्थि अन्तःस्रावी होती है। गलांकुर ग्रसनी की श्लेष्मिका में पाये जाते हैं।
शशक की प्लीहा
(SPLEEN)
शशक में, एक मीसेन्ट्री द्वारा आमाशय के पश्च किनारे से सधी, गहरे लाल रंग की लम्बी, सँकरी एवं चपटी-सी प्लीहा नामक लसिका ग्रन्थि होती है। यह रेटिकुलो-एण्डोथीलियमी (reticulo-endothelial) ऊतक का शरीर में सबसे बड़ा पिण्ड होता है। मेंढक की भाँति, शशक की प्लीहा भी जालमय प्लीहा पल्प (splenic pulp) की बनी होती है जिसमें रुधिरवाहिनियों, रक्तपात्रों (blood sinuses) तथा रक्त केशिकाओं का जाल बिछा रहता है और बीच-बीच में असंख्य प्लीहा कोशाएँ, लाल रुधिराणु एवं लिम्फोसाइट्स होती हैं। प्लीहा कोशाएँ, धमनिकाओं के चारों ओर एकत्र होकर सफेद-से प्लीहा गण्ड (splenic nodules) बनाती हैं जिन्हें श्वेत पल्प (white pulp) कहते हैं (चित्र 2) । प्लीहा का शेष ऊतक, लाल रुधिराणुओं के कारण, इन गण्डों के विपरीत, लाल-सा दिखायी देता है। इसे लाल पल्प (red pulp) कहते हैं। प्लीहा के चारों ओर लचीले तन्तुमय संयोजी ऊतक का आवरण होता है। शशक में, मेंढक की ही भाँति, यह जगह-जगह पर सँकरी पट्टियों या ट्रैबीक्यूली (septa or trabeculae) के रूप में भीतर धँसा होता है। शशक में ये पट्टियाँ अधिक विकसित और स्पष्ट होती हैं। ये पूरे प्लीहा को अधूरे पिण्डकों (lobules) में बाँटती हैं। इस आवरण के बाहर पेरिटोनियम (peritoneum) का बाह्य स्तर (serous coat) होता है।
प्लीहा के कार्य-
(i) प्लीहा की कोशाएँ रक्त के टूटे-टूटे और शिथिल रुधिराणुओं तथा निरर्थक एवं हानिकारक रंगा एवं अन्य पदार्थों का भक्षण करके रक्त की सफाई करती हैं।
(ii) भ्रूणावस्था में प्लीहा में लाल रुधिराणुओं का तथा वयस्क में लिम्फोसाइट्स का सक्रिय निर्माण होता है।
(iii) वयस्क में प्लीहा 'ब्लड बैंक' का कार्य करती है; यह रक्त के तत्कालीन आवश्यकता से अधिक लाल रुधिराणुओं का संग्रह करके रखती है और आवश्यकता पड़ने पर इन्हें रक्त में मुक्त करती है। इसके रक्तपात्रों में भरा बहुत-सा रक्त भी, इसी प्रकार, आवश्यकता पड़ने पर सामान्य रुधिर परिसंचरण के लिए मुक्त किया जा सकता है।
(iv) इसकी लिम्फोसाइट्स कुछ प्रतिरक्षी पदार्थों (antibodies) का संश्लेषण करती हैं।
इन्हें भी देखें-
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