पुराणों में कला विषयक सामग्री
'विष्णुधर्मोत्तर पुराण' के 'चित्रसूत्र' में 'चित्रकला' को कलाओं में सर्वोच्च स्थान दिया गया है। 'कलानां प्रवरं चित्रम्।' इसके अतिरिक्त शिल्प तथा कला विषयक सामग्री का भण्डार पुराणों में उपलब्ध है, जैसे-अग्नि, हरिवंश, स्कन्द और पदम् आदि, जिसका उल्लेख आगे दिया गया है-
विष्णुधर्मोत्तर पुराण : यह ग्रन्थ छठी शताब्दी में लिखा गया था। विष्णुधर्मोत्तर पुराण का चित्रसूत्र भारतीय चित्रकला की प्रौढ़ परम्परा को दर्शित करने वाला, एकमात्र ग्रन्थ है। इस चित्रसूत्र का सर्वप्रथम अनुवाद 'डॉ. स्टेला क्रेमरिश' और बाद में 'डॉ. आनन्द कुमारस्वामी' ने अंग्रेजी में अनुवाद किया। विष्णुधर्मोत्तर पुराण के तीसरे खण्ड के 35वें अध्याय से लेकर 43वें अध्याय पर्यन्त 'चित्रसूत्र' नामक एक प्रकरण है। चित्रसूत्र के आरम्भिक श्लोकों को पढ़कर यह ज्ञात होता है कि चित्रांकन के संबंध में इससे भी पहले ही से विचार होने लगा था और मुनिवर्ग के मनीषी लोग इस क्षेत्र में क्रियात्मक रूप से भाग लेने लगे थे। इस ग्रन्थ में एक कथा का उल्लेख है कि पुराकाल में उर्वशी की सृष्टि करते हुए नारायण मुनि ने लोगों की हित-कामना में चित्रसूत्र की रचना की थी। महामुनि ने निकट आई हुई सुर-सुन्दरियों को छलने के लिए अति सुगन्धित आम्र फल का रस लेकर पृथ्वी पर एक रूपवती स्त्री का श्रेष्ठ चित्र बनाया। चित्र में अंकित उस अत्यन्त रूपसी स्त्री को देखकर वे सभी सुर-सुन्दरियाँ लज्जित हो गईं। इस चित्र से ही नारायण ने विश्वकर्मा को चित्रकला सिखाई और सृष्टि का चित्र चित्रित किया। इस प्रकार चित्रकला के लक्षणों से युक्त उस चित्रकृति को महामुनि ने विश्वकर्मा को समर्पित कर दिया। इसी से 'चित्रसूत्र का श्रीगणेश' माना जाता है।
सम्पूर्ण चित्रसूत्र नौ अध्यायों में विभक्त है, जिनमें चित्र का आयाममानवर्णन, प्रमाणवर्णन, सामान्यमानवर्णन, प्रतिमालक्षणवर्णन, क्षयवृद्धि, रंगव्यतिकार, वर्तना, रूपनिर्माण और श्रृंगारादि भावकथन आदि के विषय में पर्याप्त चर्चा की गई है। इस ग्रंथ में कहा गया है कि जिस कृति में आत्मीयता, वेदना (छन्द) और अनिर्वचनीय रसमयता है, वही चित्र कहा जा सकता है।
'चित्रलक्षण' में 'नौ रस' माने गये हैं- श्रृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत और शान्त। इनका प्रयोग किस रूप में होना चाहिए, का भी निर्देश दिया गया है। इस ग्रन्थ में 'चार प्रकार के चित्र' बनाये गये हैं- सत्य, वैणिक, नागर तथा मिश्र।
विष्णुधर्मोत्तर पुराण में 'पाँच प्रकार के मुख्य रंग' बताये गये हैं- श्वेत, पीत, लाल, कृष्ण और नीला। इन पाँच रंगों के संयोग से अन्य सैकड़ों रंग बनाने की बात कही गई है। इसी प्रकार भिन्न प्रमाण विधियाँ तथा नाप-जोख की रीतियाँ बताई गई हैं। प्राचीन आचार्यों ने 'पाँच प्रकार के मनुष्य' बताये हैं- हंस, भद्र, मालव्य, रूचक और शशक। अन्य प्रकार की 'पाँच आकृतियों' का वर्णन है। यथा नर, क्रूर, असुर, बाल और कुमार, तथा बच्चों की आकृतियों इत्यादि का भी वर्णन है। साथ ही उनके माप और लक्षण भी बताये गये हैं। स्त्रियों के बालों, नेत्रों तथा अंग-भंगिमाओं के अनेक प्रकार बताये गये हैं। आकृतिचित्रण, प्रकृतिचित्रण, व्यक्तिचित्रण और लघुचित्र आदि चित्रों के भी भेद बताये गये हैं।
मत्स्यपुराण (500 ई) : इसके लगभग आठ अध्यायों में शिल्प तथा कला की चर्चा की गई है।
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