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शशक के मस्तिष्क की भीतरी रचना ||shashak ke mastishk kee bheetaree rachana



 
मस्तिष्क की भीतरी रचना (Internal structure)

इसका अध्ययन मस्तिष्क की सैजिटल काटों ( sagittal sections) की सहायता से किया जाता है (चित्र ) । पूर्ण मस्तिष्क में, इसकी गुहा के चारों ओर, दो प्रमुख स्तरों की बनी दीवार होती है - धूसर द्रव्य (gray matter) तथा श्वेत द्रव्य (white matter)। धूसर द्रव्य में मुख्यतः तंत्रिका कोशाओं (nerve cells or neurons) के कोशाकाय अर्थात् साइटॉन्स (cytons) और नॉनमेड्यूलेटेड तंत्रिका तन्तु (nonmedullated nerve fibres) होते हैं। श्वेत द्रव्य में मुख्यतः मेड्यूलेटेड तंत्रिका तन्तु (medullated nerve fibres) ही होते हैं।



चित्र 1 मस्तिष्क की सैजिटल काट का रेखाचित्र


भ्रूण में पहले मस्तिष्क की पूर्ण दीवार में भीतर, गुहा की ओर धूसर द्रव्य का तथा बाहर की ओर श्वेत द्रव्य का स्तर होता है। वयस्क में मेरुरज्जु (spinal cord) में तो यही व्यवस्था बनी रहती है, परन्तु मस्तिष्क की दीवार के विकास के दौरान धूसर द्रव्य का बाहर की ओर स्थानान्तरण हो जाता है। दीवार के पृष्ठ भाग में बाहर की ओर धूसर द्रव्य का तथा भीतर की ओर श्वेत द्रव्य का स्तर होता है। अधर एवं अधर-पार्श्व दीवारों में श्वेत द्रव्य की पट्टियों और डंठलों के बीच-बीच में धूसर द्रव्य होता है। प्रमस्तिष्क गोलार्द्ध की पृष्ठ दीवार मोटी होती है। 
यही इनका प्रमुख भाग बनाती है। इसे नियोपैलियम (neopallium) कहते हैं। इसकी रचना बहुत जटिल होती है। स्तनियों में, अन्य कशेरुकियों की अपेक्षा, इसी के विकास से उद्विकास (evolution) का प्रमाण मिलता है। दोनों गोलाद्धों की पृष्ठ दीवार की भीतरी सतह पर, मध्यवर्ती विदर (median fissure) के इधर-उधर, तन्तुओं की बनी एक-एक चौड़ी, सफेद-सी अनुप्रस्थ पट्टी होती है जिसे कॉर्पस कैलोसम् (corpus callosum) कहते हैं। यह केवल स्तनियों में पायी जाती है और दोनों प्रमस्तिष्क गोलार्थों को जोड़ने का काम करती है। प्रत्येक पट्टी का पावय भाग अपने गोलार्द्ध की पार्श्व गुहा की छत बनाता है (चित्र 2 A)। अगले भाग में यह पट्टी थोड़ी आगे की ओर झुकी होती हैं। झुका हुआ भाग जेनू (genu) कहलाता है। इसी प्रकार, पट्टी का पिछला भाग भी आगे की ओर झुककर स्प्लीनियम (splenium) बनाता है जो तन्तुओं की एक लम्बी पट्टी-फोरनिक्स (fornix) से जुड़ा रहता है।

प्रत्येक पार्श्व गुहा के अग्र भाग ( फ्रांटल पिंड वाले भाग) के तल पर धूसर द्रव्य का बना एक मोटा, 
अण्डाकार-सा उभार होता है जिसे कॉर्पस स्ट्राएटम (corpus striatum) कहते हैं। इसी प्रकार, पार्श्व गुहा के पिछले, हिप्पोकैम्पल पिण्ड वाले भाग के तल पर एक बड़ा उभार होता है जिसे हिप्पोकैम्पस (hippocampus) कहते हैं। दोनों ओर के कॉर्पस स्ट्राएटा श्वेत तन्तुओं की एक चपटी अनुप्रस्थ पट्टी द्वारा जुड़े रहते हैं जिसे अग्र सन्धायनी (anterior commissure) कहते हैं।
दोनों ओर के हिप्पोकैम्पाई भी मध्यरेखा पर हिप्पोकैम्पल सन्धायनी या लाइरा (hippocampal commissure or lyra) द्वारा जुड़े रहते हैं। प्रमस्तिष्क गोलाद्ध का अगला भाग घ्राण भाग होता है। घ्राण केन्द्र धूसर द्रव्य के बने होते हैं। 

डाइएनकेफैलॉन की पृष्ठ दीवार महीन एवं झिल्लीनुमा होती है। इसमें भीतर इपेन्डाइमल एपिथीलियम और बाहर पाइआमेटर का स्तर होता है। जगह-जगह इस दीवार के छोटे, असममित उभार भीतर डायोसील में लटके रहते हैं। ये अग्र रक्तक जालक (anterior choroid plexus) बनाते हैं। पीछे की ओर, मध्यमस्तिष्क की दीवार से मिलने के स्थान पर, डायोसील की पृष्ठ दीवार से पाइनिअल वृन्त (pineal stalk) निकलता है जिसके सिरे पर खोखला पाइनिअल काय (pineal body) स्थित होता है।




चित्र 2     A. प्रमस्तिष्क गोलाद्ध एवं              B. सेरीबेलम की अनुप्रस्थ काटें


डाइएनकेफैलॉन की पार्श्व दीवारें मोटी होकर, दृष्टि थैलेमाई (optic thalami) नामक दो उभार बनाती हैं। जो मिश्रित धूसर एवं श्वेत द्रव्य के बने होते हैं। ये उभार भीतर गुहा में धँसकर परस्पर जुड़ जाते हैं। गुहा में इनके जुड़ने से एक बड़ा-सा कोमल पिण्ड बन जाता है जिसे मध्य पिण्ड या मध्य कोमल सन्धायनी (massa intermedia, or middle or soft commissure) कहते हैं। दृष्टि थैलेमाई को परस्पर जोड़ने हेतु, डाइएनकेफैलॉन की छत पर भी, अनुप्रस्थ पट्टी के रूप में, एक अन्य हैबीनूलर सन्धायनी (habenular commissure) होती है। डाइएनकेफैलॉन की अधर दीवार को हाइपोथैलैमस (hypothalamus) कहते हैं।

इसका अधिकांश भाग एक छोटी-सी कीप के रूप में अधर सतह पर उभरा रहता है। इस उभार को इन्फन्डीबुलम (infundibulum) कहते हैं। इन्फन्डीबुलम से फिर एक अन्य प्रवर्ध-रूपी उभार निकला होता है और ये दोनों ही मिलकर पिट्यूटरी काय बनाते हैं।

मध्य मस्तिष्क में, पाइनिअल वृत्त के ठीक पीछे, कॉरपोरा क्वाड्रीजैमाइना के दो अग्र उभारों की पृष्ठ दीवारें तन्तुओं (श्वेत द्रव्य) की एक पतली पट्टी अर्थात् पश्च सन्धायनी (posterior commissure) द्वारा परस्पर जुड़ी होती हैं। मध्य मस्तिष्क की अधर एवं पार्श्व दीवारें मोटी होकर क्रूरा सेरेब्राई (crura cerebri) बनाती हैं जिससे इसकी गुहा (iter) बहुत सँकरी हो जाती है। क्रूरा सेरेब्राई में अग्र मस्तिष्क को पश्च मस्तिष्क से जोड़ने वाले तंत्रिका तन्तु होते हैं।

पश्च मस्तिष्क में सेरीबेलम ठोस होता है (चित्र 2 B)। इसके उभार मुख्यतः धूसर द्रव्य के बने होते हैं, परन्तु सैजिटल काट में पता चलता है कि श्वेत द्रव्य की शाखान्वित एवं परस्पर जुड़ी रेखाएँ पिण्डकों के धूसर द्रव्य में भीतर-ही-भीतर फैली होती हैं। इस प्रकार, प्रत्येक निमस्तिष्क गोलार्द्ध में भीतर श्वेत द्रव्य की एक वृक्ष-संरचना बन जाती है जिसे प्राण-वृक्ष या आरबर वाइटी (arbor vitae) कहते हैं। मेड्यूला ऑब्लॉन्गाटा के अग्र भाग में, पृष्ठ दीवार महीन होती है और इसकी इपेन्डाइमल एपिथीलियम तथा पाइयामेटर मिलकर गुहा लटके हुए, छोटे-छोटे उभारों का पश्च रक्तक जालक (posterior choroid plexus) बनाती हैं।


मस्तिष्क के विभिन्न भागों के कार्य में शशक के मस्तिष्क के विभिन्न भाग निम्नलिखित कार्य करते हैं-

(1) घ्राण भाग (Olfactory region)— यह गन्ध-ज्ञान (sense of smell) का केन्द्र होता है। स्तनियों में यह, अधिकांश निम्न कशेरुकियों की अपेक्षा, काफी छोटा होता है, क्योंकि इसका अधिकांश भाग प्रमस्तिष्क का ही अंश बन जाता है। इसका कार्य भी स्तनियों में प्रमस्तिष्क के नियंत्रण में हो जाता है।

(2) प्रमस्तिष्क गोलार्द्ध (Cerebral hemispheres)— ये स्तनियों में सबसे अधिक विकसित होते हैं। ये सचेतन संवेदनाओं (conscious sensations), इच्छा शक्ति एवं ऐच्छिक गतियों, ज्ञान, स्मृति, वाणी तथा चिन्तन के केन्द्र होते हैं। ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त प्रेरणाओं का इनमें विश्लेषण (analysis) एवं समन्वयन (co-ordination) होकर ऐच्छिक पेशियों को अनुकूल प्रतिक्रियाओं की प्रेरणाएँ प्रसारित हो जाती हैं। इनसे निकले कुछ चालक तन्तु केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र के कुछ अन्य भागों की क्रिया के नियंत्रण की प्रेरणाएँ ले जाते हैं।

(3) डाइएनकेफैलॉन (Diencephalon)– इसके दायें-बायें थैलैमाई उन सोमैटिक संवेदी प्रेरणाओं के मार्गवाहक होते हैं जो मध्य एवं पश्च मस्तिष्क तथा सुषुम्ना (nerve cord) से प्रमस्तिष्क गोलाद्धों में ऐच्छिक गतियों के सम्बन्ध में जाती हैं। इसके अतिरिक्त, ये अत्यधिक ताप, शीत या पीड़ा आदि के अभिज्ञान (recognition) के केन्द्र होते हैं। इनका अधरतलीय भाग (hypothalamus) स्वायत्त तंत्रिका-तंत्र का संगठन-केन्द्र होता है। यह भूख, प्यास, थकावट, नींद, ताप-नियंत्रण, सम्भोग आदि का ही नहीं, वरन् प्यार, घृणा, तृप्ति, क्रोध आदि मनोभावनाओं (emotions) का भी बोध-केन्द्र होता है। इसके अतिरिक्त, यह तथा इसी से बनी पिट्यूटरी ग्रन्थि अनेक महत्त्वपूर्ण हॉरमोन्स का स्रावण करती है। इसी भाग में स्थित दृष्टि किएज्मा नेत्रों से प्राप्त दृष्टि संवेदनाओं को प्रमस्तिष्क में पहुँचाता है।

(4) मध्यमस्तिष्क (Midbrain)– दृष्टिपिण्ड दृष्टिज्ञान के तथा दृष्टि एवं श्रवण प्रतिवर्ती क्रियाओं (reflex reactions) के नियंत्रण केन्द्र होते हैं। अधर भाग में उपस्थित क्रूरा सेरेब्राई प्रमस्तिष्क से पदों की एवं अन्य ऐच्छिक पेशियों में जाने वाली प्रेरणाओं के संवहन मार्ग होते हैं।

(5) अनुमस्तिष्क (Cerebellum)— यह ऐच्छिक पेशियों, सन्धियों आदि में स्थित स्वाम्य ज्ञानेन्द्रियों से संवेदनाओं को प्राप्त करके इन्हें प्रमस्तिष्क में पहुँचाता और फिर प्रमस्तिष्क से प्रसारित चालक प्रेरणाओं के अनुसार ऐच्छिक पेशियों के तनाव (tone) का नियमन करके शरीर की भंगिमा, संतुलन, गतियों आदि का नियंत्रण करता है।

(6) मस्तिष्क पुच्छ (Medulla oblongata)
 इसमें हृद-स्पंदन, श्वास-दर, मेटाबोलिज्म, श्रवणो-सन्तुलन, रुधिरवाहिनियों के सिकुड़ने-फैलने, रक्तदाब, आहारनाल की तरंगगति, शिकार करने, भोजन के निगरण, प्रन्थियों के स्रावण आदि के नियंत्रण केन्द्र होते हैं। इसके अतिरिक्त, यह मस्तिष्क के शेष भाग एवं मेरुरज्जु के बीच प्रेणाओं के लिए संवहन मार्ग का काम करता है।


स्तनियों के मस्तिष्क के विशिष्ट लक्षण

1. घ्राण भाग अपेक्षाकृत छोटा होकर अधिकांश प्रमस्तिष्क में ही सम्मिलित हो जाता है।

2. प्रमस्तिष्क एवं निमस्तिष्क अत्यधिक विकसित होते हैं। इनके तल-क्षेत्र को बढ़ाने हेतु इनकी सतह अत्यधिक वलित (folded) होती है जिससे सतह पर अनेक कुण्डल या कर्णकाएँ (gyri) अथवा छोटे-छोटे पिण्ड-से बन जाते हैं।

3. मस्तिष्क, मुख्यतः प्रमस्तिष्क, की पृष्ठ दीवार पर धूसर द्रव्य का मोटा वल्कलीय स्तर (cortex) होता है।

4. दोनों प्रमस्तिष्क गोलार्द्ध भीतर से एक चौड़ी, प्लेटनुमा संधायनी-कॉर्पस कैलोसम - द्वारा परस्पर जुड़े रहते हैं।

5. दृष्टि पिण्ड चार होते हैं।

6. निमस्तिष्क ठोस होता है। इसमें प्राण-वृक्ष होता है।


शशक की मेरुरज्जु या सुषुम्ना (Spinal cord)

मस्तिष्क की मेड्यूला ऑब्लॉन्गाटा करोटि के महारन्ध्र (foramen magnum) पर सुषुना या मेरुरज्जु (spinal cord) बन जाती है जो कशेरुकदण्ड की न्यूरल कुल्या (neural canal) में दण्ड के लम्बर भाग तक फैली रहती है। लम्बर भाग के पीछे केवल इसका आवरण-मृदुतानिका (piamater) ही रह जाता है जो एक महीन नालवत् अन्तिम-सूत्र (filum terminale) बनाता है।

मेनिन्जीज (Meninges) मस्तिष्क की भाँति, मेरुरज्जु के चारों ओर भी तीन पृथक् तन्तुमय झिल्लियों अर्थात् सुषुम्नीय मेनिन्जीज (spinal meninges) का आवरण होता है। बाहरी झिल्ली या दृढ़तानिका (duramater) कशेरुकाओं से चिपकी नहीं होती, वरन् दोनों के बीच द्रव्य से भरी एक एपिड्यूरल गुहा (epidural space) होती है। मध्यझिल्ली या जालतानिका और भीतरी मृदुतानिका का विन्यास वैसा ही होता है जैसा कपालीय भाग में।


मेरुरज्जु की बाहरी रचना - मेरुरज्जु की अनुप्रस्थ काट (चित्र 3 ) से पता चलता है कि यह बेलनाकार-सी, पृष्ठतल पर कुछ उत्तल, परन्तु अधरतल पर चपटी-सी होती है। इसकी मध्यपृष्ठ रेखा में एक हल्की


चित्र 3  शशक की मेरुरज्जु की अनुप्रस्थ काट

पृष्ठ प्रसीता (dorsal sulcus) तथा मध्य-अधर रेखा में कुछ गहरा अधर विदर (ventral fissure) होता है। पृष्ठ प्रसीता एवं अधर विदर मृदुतानिका के अन्तर्वलन (invagination) से बनते हैं। पृष्ठ प्रसीता से एक महीन पट्टीनुमा पृष्ठ पट (dorsal septum) भीतर अक्षीय भाग तक फैला होता है। इन रचनाओं के कारण पूर्ण मेरुरज्जु दायें-बायें अर्धभागों में अधूरी बँटी-सी दिखायी देती है।

मेरुरज्जु की भीतरी रचना - मेरुरज्जु के अक्षीय भाग में सेरेब्रो स्पाइनल द्रव्य (cerebro-spinal fluid) से भरी, सँकरी केन्द्रीय कुल्या या न्यूरोसील (central canal or neurocoel) होती है। यह आगे मेड्यूला की गुहा अर्थात् चतुर्थ वेन्ट्रिकल से जुड़ी रहती है। इसके चारों ओर महीन, इकहरी रोमाभि (ciliated) इपेन्डाइमल एपिथीलियम (ependymal epithelium) का आवरण होता है। आवरण के बाहर, मेरुरज्जु की मोटी दीवार दो स्तरों में विभेदित रहती है— भीतर की ओर धूसर द्रव्य (gray matter) तथा बाहर की ओर श्वेत द्रव्य (white matter) का स्तर। यह विन्यास मस्तिष्क की दीवार में इनके विन्यास से उल्टा होता है। सभी स्तनियों में धूसर द्रव्य का स्तर मध्य भाग में सँकरा होकर तितली के से आकार का होता है। इसके दोनों ओर के पंखनुमा भाग पृष्ठ एवं अधरतल की ओर सींगों या श्रृंगों (dorsal and ventral horns) के रूप में निकले रहते हैं। पृष्ठ श्रृंग पतले होते हैं। वक्ष तथा लम्बर भागों में, मेरुरज्जु के धूसर द्रव्य में, पार्श्व शृंग (lateral horns) भी होते हैं। पृष्ठ एवं अधर श्रृंगों के तन्तु, समूहों में एकत्रित होकर, स्पाइनल तंत्रिकाओं (spinal nerves) के मूल (roots) बनाते हैं। श्वेत द्रव्य में मुख्यतः तंत्रिका तन्तु ही होते हैं


मेरुरज्जु के कार्य - मेरुरज्जु के दो प्रमुख कार्य होते हैं। एक तो यह मस्तिष्क से आने-जाने वाली प्रेरणाओं (impulses) के लिए मार्ग प्रदान करती है। दूसरे यह अनेक ऐसी प्रतिक्षेप प्रतिक्रियाओं (reflex reactions) की प्रेरणाओं का संवाहन करती है जो मस्तिष्क में नहीं जातीं।


PERIPHERAL NERVOUS SYSTEM

केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र (मस्तिष्क एवं सुषुम्ना) को शरीर के विभिन्न संवेदी (sensory) एवं सम्पादी (effector –पेशियाँ एवं ग्रन्थियाँ) भागों से जोड़ने वाली ठोस धागेनुमा तंत्रिकाएँ (nerves) परिधीय तंत्रिका तंत्र बनाती हैं। प्रत्येक तंत्रिका अनेक तंत्रिका तन्तुओं का समूह होती है। अधिकांश तन्तु ऐच्छिक अर्थात् कायिक या दैहिक (voluntary or somatic) प्रतिक्रियाओं से सम्बन्धित होते हैं, परन्तु कुछ तंत्रिकाओं में अनैच्छिक अर्थात् आंतरांगीय या स्वायत्त (visceral or autonomic) प्रतिक्रियाओं से सम्बन्धित तन्तु भी होते हैं। तंत्रिकाएँ दो प्रकार की होती हैं—मस्तिष्क से सम्बन्धित कपालीय या क्रैनियल तंत्रिकाएँ (cranial nerves) तथा मेरुरज्जु से सम्बन्धित स्पाइनल तंत्रिकाएँ (spinal nerves)।


शशक की कपालीय तंत्रिकाएँ (Cranial nerves)


शशक में, मेंढक के विपरीत, दस नहीं, वरन् बारह जोड़ी क्रैनियल तंत्रिकाएँ होती हैं (चित्र 4 ) –

(1) घ्राण या ऑल्फैक्ट्री तंत्रिकाएँ (Olfactory nerves) —ये संवेदी (sensory) होती हैं। इनके तंत्रिका-तन्तु नासावेश्मों की घ्राण-संवेदी एपिथीलियम से संवेदनाओं को मस्तिष्क के घ्राण भागों में पहुँचाते हैं।

(2) दृक् या ऑप्टिक तंत्रिकाएँ (Optic nerves) — ये भी संवेदी होती हैं। ये नेत्रों की रेटिना (retina) से संवेदनाओं को दृष्टि किएज्मा एवं डाइएनकेफैलॉन में होती हुई मध्य मस्तिष्क के कॉरपोरा क्वाड्रीजेमाइना में पहुँचाती हैं।

(3) अक्षिचालक या ऑक्यूलोमोटर तंत्रिकाएँ (Occulomotor nerves) — ये घ्राण एवं दृक् तंत्रिकाओं के विपरीत चालक (motor) होती हैं। ये मध्यमस्तिष्क के अधरतल पर स्थित प्रमस्तिष्क वृत्तों के 
क्रूरा सेरेब्राई (crura cerebri) से कायिक (somatic) प्रेरणाओं को नेत्र कोटरों (eye orbits) की कुछ (अग्र, उत्तर एवं अधोरेक्टस तथा अधोतिरछी) पेशियों तथा ऊपरी पलक की पेशियों में ले जाती हैं। इनमें स्वायत्त तंत्रिका तंत्र के भी कुछ तन्तु होते हैं जो नेत्रों के लेन्स के समायोजन (accommodation) से सम्बन्धित सिलियरी काय (ciliary body) की तथा पुतली के नियंत्रण से सम्बन्धित आइरिस की पेशियों में जाते हैं।

चित्र 4  शशक की क्रैनियल तंत्रिकाएँ


(4) चक्रक या टॉक्लियर तंत्रिकाएँ (Trochlear nerves)—ये भी चालक होती हैं और मध्य तथा पश्चमस्तिष्क के बीच से नेत्र कोटरों की उत्तर तिरछी पेशियों में जाती हैं।

(5) त्रिक या ट्राइजेमिनल तंत्रिकाएँ (Trigeminal nerves) – ये मिश्रित (mixed ) तथा अपेक्षाकृत लम्बी होती हैं और पोन्स (pons) के पश्च छोर के पाश्र्वों में अधरतल से दो-दो मूलों (roots) में निकलती हैं। मस्तिष्क से निकलते ही प्रत्येक त्रिक् तंत्रिका एक अर्धचन्द्राकार से गैसेरियन गुच्छक (gasserian ganglion) में घुसती है और फिर गुच्छक से तीन शाखाओं में निकलती है- -

(i) ऑप्थैल्मिक तंत्रिका (Ophthalmic nerve) जो संवेदी होती है और अपनी ओर के नेत्र की कंजंक्टिवा, कॉर्निया, आइरिस, सिलियरी काय तथा अश्रु ग्रन्थियों, नाक की श्लेष्मिका और तुण्ड (snout), नासिका एवं पलक की त्वचा से संवेदनाएँ लाती है।

(ii) मैक्सिलरी तंत्रिका (Maxillary nerve) जो संवेदी होती है और ऊपरी होंठ, निचली पलक, ऊपरी है दाँतों, नासाबालों आदि से संवेदनाएँ लाती है।

(iii) मैन्डीबुलर तंत्रिका (Mandibular nerve) जो मिश्रित (mixed) होती है। यह निचले होंठ, मुखगुहिका, बाह्य कर्ण, निचले दाँतों तथा जीभ से संवेदनाएँ लाती है और निचले जबड़े की पेशियों में प्रेरणाएँ ले जाती है।

(6) अपचालक या एब्ड्यूसेन्स तंत्रिकाएँ (Abducens nerves)—ये चालक होती हैं और मेड्यूला के अधरभाग से निकलकर नेत्र कोटरों की पश्च रेक्टस पेशियों (posterior rectus muscles) में जाती हैं।

(7) आननी या फैशियल तंत्रिकाएँ (Facial nerves)—ये, ट्राइजेमिनल्स की भाँति, मिश्रित होती हैं और मेड्यूला के पावों से निकलकर जेनीकुलेट गुच्छकों (geniculate ganglia) में घुसती हैं तथा इनसे तीन-तीन शाखाओं में बँट कर निकलती हैं-

(i) पैलैटाइनस (Palatinus) जो संवेदी होती हैं और मुख-ग्रासन गुहिका की श्लेष्मिका, स्वादेन्द्रियों तथा नासामार्गों से संवेदनाएँ लाती हैं।

(ii) हायोमैन्डीबुलर (Hyomandibular) जो चालक होती हैं और निचले जबड़े, होंठों, पलकों, ग्रीवा तथा कान के पिन्नी (pinnae) की पेशियों को जाती हैं।

(iii) कॉरडा टिम्पैनाई (Chorda tympani) जो चालक होती हैं और टिम्पैनिक कला के पास से होती हुई जीभ एवं तुण्ड की पेशियों में जाती हैं। इनमें कुछ स्वायत्त तंत्रिका तन्तु भी होते हैं जो लार एवं अश्रु ग्रन्थियों तथा नासावेश्मों की श्लेष्मिका में जाते हैं।

(8) श्रवण या ऑडिटरी तंत्रिकाएँ (Auditory nerves)—ये भी मेड्यूला के पाश्र्वों से निकलती हैं। ये संवेदी होती हैं और अन्तःकर्णों से संवेदनाओं को मेड्यूला में पहुँचाती हैं।

(9) जिह्वा-ग्रसनी या ग्लोसोफैरिंजियल तंत्रिकाएँ (Glossopharyngeal nerves)—ये मिश्रित होती हैं और, श्रवण तंत्रिकाओं के ठीक पीछे, मेड्यूला के पावों से कई-कई मूलों के रूप में निकलती हैं। प्रत्येक के सारे मूल अपनी ओर के वेगस गुच्छक (vagus ganglion) में घुस कर परस्पर मिल जाते हैं। गुच्छक से निकल कर, प्रत्येक जिह्वा-ग्रसनी मुख-ग्रासन गुहिका के अधरतल पर होती हुई फैरिंक्स, कोमल तालु, जीभ, स्वाद कलिकाओं आदि से संवेदी प्रेरणाएँ लाने वाली एक संवेदी शाखा तथा फैरिंक्स की पेशियों में चालक प्रेरणाएँ पहुँचाने वाली एक चालक शाखा में बँट जाती है।

(10) वेगस तंत्रिकाएँ (Vagus nerves)—ये भी मिश्रित होती हैं और मेड्यूला के पार्श्वों से निकलती हैं। प्रत्येक वेगस अपनी ओर के वेगस गुच्छक में होकर निकलती हुई पाँच शाखाओं में बँट जाती है-
-
(i) सुपीरियर लैरिन्जियल (Superior laryngeal)—यह चालक होती है और स्वरयंत्र (larynx) की पेशियों को जाती है।

(ii) रिकरेंट लैरिन्जियल (Recurrent laryngeal)—यह भी चालक होती है और श्वासनली से चिपकी हुई स्वरयंत्र की पेशियों को जाती है।

(iii) कार्डियक (Cardiac)—यह भी चालक होती है और स्वरयंत्र के पास से होती हुई हृद-पेशियों को जाती है।

(iv) न्यूमोगैस्ट्रिक (Pneumogastric)—यह मिश्रित होती है। इसकी कई चालक एवं संवेदी शाखाएँ फेफड़ों, ईसोफेगस, आमाशय आदि में जाती हैं।

(v) डिप्रेसर (Depressor)—यह चालक होती है और डायफ्रैम (diaphragm) की पेशियों में जाती है।

(11) स्पाइनल ऐक्सेसरी तंत्रिकाएँ (Spinal accessory nerves) — ये चालक होती हैं। प्रत्येक के दो मूल होते हैं—कपालीय मूल (cranial root) जो मेड्यूला के पार्श्व से निकलता है तथा सुषुम्नीय मूल (spinal root) जो मेरुरज्जु के प्रारम्भिक भाग से निकली कई मूलिकाओं (rootlets) से बनता है और करोटि के महाछिद्र से होकर कपालीय मूल से जा मिलता है। इन तंत्रिकाओं की शाखाएँ फैरिंक्स, ग्रीवा, कन्धों, स्वरयंत्र आदि की पेशियों को जाती हैं।

(12) हाइपोग्लॉसल तंत्रिकाएँ (Hypoglossal nerves)—ये भी चालक होती हैं और मेड्यूला से निकलकर जीभ तथा हाइऔइड की पेशियों को जाती हैं। 

इस प्रकार, स्तनियों में 1, 2 एवं 8 नम्बर की क्रैनियल तंत्रिकाएँ संवेदी; 3, 4, 6, 11 एवं 12 नम्बर की चालक तथा 5, 7, 9 एवं 10 नम्बर की मिश्रित होती हैं। 3, 7, 9 तथा 10 नम्बर की तंत्रिकाओं में स्वायत्त तंत्र के तन्तु भी होते हैं।


स्पाइनल तंत्रिकाएँ (Spinal nerves)

शशक में मेरुरज्जु पीछे की ओर कशेरुकदण्ड के छोर तक फैली नहीं होती। अतः इसमें स्पाइनल तंत्रिकाओं की जोड़ियों की संख्या कशेरुकाओं की संख्या (44 से 47) से कुछ कम (केवल 37 जोड़ी) होती है। मेंढक की ही भाँति, प्रत्येक स्पाइनल तंत्रिका मिश्रित (mixed) होती है और मेरुरज्जु के धूसर (horns) से दो मूलों में निकलती है (चित्र 5 ) – केवल संवेदी तन्तुओं का बना पृष्ठ मूल (dorsal root) तथा केवल चालक तन्तुओं का बना अधर मूल (ventral root)। शशक में स्वैमर्डम की ग्रन्थियाँ नहीं होतीं।



चित्र 5  शशक की दो वक्षीय स्पाइनल तंत्रिकाएँ



मेंढक की ही भाँति, शशक में भी कशेरुकदण्ड से निकलते ही प्रत्येक स्पाइनल तंत्रिका तीन शाखाओं में बँट जाती है—पृष्ठ, अधर तथा सम्बन्धक या योजि शाखाएँ (Ramus dorsalis, Ramus ventralis and Ramus communicans)। शशक में सम्बन्धक शाखा पृष्ठ एवं अधर शाखाओं के विभाजन स्थान से नहीं, वरन् इससे कुछ हटकर अधर शाखा से निकलती है। इसे धूसर सम्बन्धक शाखा (gray ramus communicans) कहते हैं, क्योंकि वक्षीय, पहली तीन जोड़ी लम्बर तथा दूसरी, तीसरी और चौथी जोड़ी सैक्रल स्पाइनल तंत्रिकाओं की अधर शाखाओं से, धूसर सम्बन्धक शाखा के अतिरिक्त, एक-एक श्वेत सम्बन्धक शाखाएँ (white ramus communicans) भी निकलकर उसी प्रकार आंतरांगीय तंत्र के निकटवर्ती अनुकम्पी गुच्छकों से जुड़ी होती हैं। पृष्ठ एवं अधर शाखाओं में बँटने से पहले ही प्रत्येक स्पाइनल तंत्रिका से एक छोटी-सी महीन मेनिन्जियल शाखा (meningeal ramus) निकलती है जो अन्तराकशेरुक छिद्र से वापस केशरुकदण्ड की तंत्रिकीय नाल में घुसकर मेनिन्जीज में जाती है।

(1) पृष्ठ शाखा छोटी एवं पतली होती है। इसमें तीन प्रकार के तंत्रिका तन्तु होते हैं (चित्र 6 ): 

(i) पृष्ठ त्वचा के त्वक् संवेदांगों (exteroceptors) तथा पृष्ठ भाग के अधस्त्वक् ऊतक, पेशियों, कंकाल संधियों, कंडराओं, स्नायुओं आदि में स्थित स्वाम्य ज्ञानेन्द्रियों (proprioceptors) से मेरुरज्जु में आने वाले सोमैटिक संवेदी (somatic sensory or afferent) तन्तु
(ii) पृष्ठ त्वचा एवं पृष्ठ भाग की पेशियों में जाने वाले सोमैटिक चालक (somatic motor or efferent) तन्तु तथा 
(iii) पृष्ठ त्वचा की त्वक् ग्रन्थियों, इसमें स्थित रुधिरवाहिनियों की पेशियों, ऐरेक्टर पिलाई पेशियों आदि अपवाहकों में जाने वाले उत्तरगुच्छकीय (postganglionic) आंतरांगीय चालक तन्तु (visceral motor fibres)।

(2) अधर शाखा स्पाइनल तंत्रिका की सबसे लम्बी एवं मोटी शाखा होती है। इसमें भी सोमैटिक संवेदी, सोमैटिक चालक तथा उत्तरगुच्छकीय आंतरांगीय चालक तन्तु होते हैं। इन सब का सम्बन्ध अधर एवं पार्श्व त्वचा तथा अधर एवं पार्श्व भागों के उन्हीं संवेदांगों एवं अपवाहकों से होता है जिनसे कि पृष्ठ शाखा के तन्तुओं का पृष्ठ त्वचा एवं पृष्ठ भाग के संवेदांगों एवं अपवाहकों से।


चित्र 6   शशक में एक स्पाइनल तंत्रिका की शाखाओं के विभिन्न तन्तु

(3) सम्बन्धक या योजि शाखाएँ स्पाइनल तंत्रिकाओं की सबसे छोटी एवं महीन शाखाएँ होती हैं। ये मेरुरज्जु को स्वायत्त तंत्रिका तंत्र के सिम्पैथेटिक गुच्छकों से जोड़ती हैं। स्वायत्त तंत्रिका तंत्र परिधीय तंत्रिका तंत्र का वह भाग होता है जो आंतरांगों की क्रियाओं का नियंत्रण करता है। अतः स्पष्ट है कि योजि शाखाओं में केवल आंतरांगीय तंत्रिका तंत्र के तन्तु होते हैं। इनमें चालक तन्तु मेरुरज्जु के धूसर द्रव्य में उपस्थित कोशाकायों के लांगूल होते हैं। इन्हें पूर्वगुच्छकीय (preganglionic) विसरल चालक तन्तु कहते हैं, क्योंकि ये चालक प्रेरणाओं को स्वायत्त तंत्र के गुच्छकों में स्थित तंत्रिका कोशाओं तक ही पहुँचाते हैं। इन कोशाओं के लांगूल फिर विसरल अपवाहकों में जाते हैं। अतः इन लांगूलों को उत्तरगुच्छकीय (postganglionic) विसरल चालक तन्तु कहते हैं। 

धूसर सम्बन्धक शाखाओं में केवल त्वचा की ग्रन्थियों, रुधिरवाहिनियों एवं रोमों में प्रेरणाएँ ले जाने वाले विसरल चालक तन्तु होते हैं जो इन शाखाओं से निकलकर पृष्ठ एवं अधर शाखाओं में ही होते हुए त्ववा में जाते हैं। अन्य विसरल चालक तथा समस्त विसरल संवेदी तन्तु श्वेत सम्बन्धक शाखाओं में होकर स्पाइनल तंत्रिका में आते या जाते हैं। विसरल संवेदी तन्तु, सोमैटिक संवेदी तन्तुओं की भाँति, पृष्ठ मूल के गुच्छकों के ही मिथ्या एकध्रुवीय तंत्रिका कोशाओं के डेन्ड्राइट्स होते हैं। मेंढक में केवल एक ही प्रकार की सम्बन्धक शाखाएँ होती हैं। 

शशक की 37 जोड़ी स्पाइनल तंत्रिकाओं को, शरीर के विभिन्न भागों के अनुसार, पाँच समूहों में बाँटा जा सता हैं-

(1)   8 जोड़ी ग्रीवा या सरवाइकल तंत्रिकाएँ  (Cervical nerves) ग्रीवा में,
(2)   12 जोड़ी वक्षीय या थोरैसिक तंत्रिकाएँ  (Thoracic nerves) वक्ष भाग में,
(3)   7 जोड़ी कटि या लम्बर तंत्रिकाएँ  (Lumbar nerves) लम्बर भाग में,
(4)   4 जोड़ी त्रिक् या सैक्रल तंत्रिकाएँ  (Sacral nerves) सैक्रल भाग में, तथा
(5)   6 जोड़ी पुच्छ या कॉडल तंत्रिकाएँ  (Caudal nerves) पूँछ में।


पहली सरवाइकल तंत्रिकाओं को छोड़कर शेष प्रत्येक सरवाइकल तंत्रिका की पृष्ठ शाखा एक मध्य (medial) एवं दो पार्श्व (lateral) शाखाओं में बँट जाती हैं। सिर एवं ग्रीवा की पृष्ठ पेशियों में इन सभी शाखाओं के तन्तु जाते हैं, लेकिन त्वचा में केवल दूसरी से पाँचवी सरवाइकल तंत्रिकाओं की मध्यस्थ शाखाओं के ही तन्तु जाते हैं। प्रथम चार जोड़ी सरवाइकल तंत्रिकाओं की अधर शाखाएँ (ventral rami) परस्पर मिलकर प्रत्येक ओर एक-एक ग्रीवा जालक (cervical plexus) बनाती हैं जिससे फिर कई शाखाएँ निकलकर ग्रीवा की अधर पेशियों तथा सिर, ग्रीवा एवं वक्ष भागों की त्वचा में जाती हैं। तीसरी, चौथी और पाँचवी सरवाइकल तंत्रिकाओं की अधर शाखाओं से एक-एक महीन शाखाएँ निकलकर डायफ्रैम को जाने वाली फ्रीनिक तंत्रिका (phrenic nerve) बनाती हैं। चौथी से आठवीं सरवाइकल्स तथा प्रथम थोरैसिक तंत्रिकाओं की अधर शाखाएँ मिलकर प्रत्येक ओर एक बाहु जालक (brachial plexus) बनाती हैं। इन जालकों से निकली तंत्रिकाएँ देहभित्ति की त्वचा एवं पेशियों, कंधों एवं अग्रपादों में जाती हैं।

वक्षीय, कटि तथा पहली तीन जोड़ी त्रिक् तंत्रिकाओं की पृष्ठ शाखाएँ भी एक-एक मध्यस्थ एवं दो-दो पार्श्व शाखाओं में बँटकर, निकटवर्ती त्वचा एवं पेशियों आदि में जाती हैं। पहली के अतिरिक्त, शेष वक्षीय तंत्रिकाओं की शाखाएँ जालक नहीं बनातीं, लेकिन पहली तीन जोड़ी कटि तंत्रिकाओं की अधर शाखाएँ कटि जालक (lumbar plexus) बनाती हैं। शेष कटि तथा प्रथम तीन त्रिक् तंत्रिकाओं की अधर शाखाएँ त्रिक् जालक (sacral plexus) बनाती हैं। कटि एवं त्रिक् जालक परस्पर जुड़े होते हैं। इन्हीं से फेमोरल (femoral), ऑब्ट्यूरेटर (obturator), स्याटिक (sciatic) आदि तंत्रिकाएँ निकलकर पिछली टाँगों में जाती हैं। पुच्छ तंत्रिकाएँ पूँछ की त्वचा और पेशियों में जाती हैं।

शशक की मेरुरज्जु केशरुकदण्ड में केवल लम्बर भाग के लगभग मध्य तक फैली होती है। इसके पीछे इसकी केवल मृदुतानिका अन्तिम सूत्र (filum terminale) के रूप में फैली होती है। स्पष्ट है कि मेरुरज्जु के लम्बर, सैक्रल एवं पुच्छ भाग दण्ड के इन्हीं भागों में नहीं, वरन् इनसे आगे स्थित होते हैं। अतः लम्बर, सैक्रल एवं पुच्छ स्पाइनल तंत्रिकाओं को दण्ड से बाहर निकलने के लिए पहले अन्तिम सूत्र के साथ-साथ काफी पीछे तक जाना पड़ता है। इस प्रकार, मेरुरज्जु के पीछे तंत्रिकाओं का एक गुच्छा-सा बना रहता है जिसे अश्व-पुच्छ (cauda equina) कहते हैं।


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