चित्रकला की प्रविधि
चित्र रचना एक लम्बी साधना है। उसकी सिद्धि के मार्ग बड़े दुर्गम हैं, किन्तु उसके परिणाम भी उतने ही श्रेष्ठ हैं। भारतीय दृष्टिकोण से श्रेष्ठ चित्रकर्म को ऐहिक लोकयात्रा का साधन और पारलौकिक निःश्रेयस का कारण बताया गया है। एक सिद्ध एवं व्युत्पन्न चित्रकार की ठीक वही स्थिति है, जो कि एक योगी तथा तत्त्वविद् की बताई गई है। एक दृष्टि से इन दोनों में 'चित्रकार' को ही कुछ ऊँचा पद दिया गया है। एक तत्त्वविद् अपने लिए ऐसे लोक का निर्माण करता है, जहाँ सर्वमान्य की पहुँच नहीं होती और जहाँ ऐहिक जीवन के सुखोपभोगों की कल्पना भी नहीं की जा सकती, किन्तु एक चित्रकार इस भौतिक जीवन में आनन्द लाभ तथा यश का अर्जन कर परम आनन्द तथा यश को भी प्राप्त करता है। उसके लिए उसे वर्षों के अभ्यास और अनवरत अध्ययन की आवश्यकता है। यहाँ अभ्यास और अध्ययन की उस सामग्री को प्रस्तुत किया जायेगा, जिसको जानना एक चित्रकार के लिए आवश्यक बताया गया है।
अभ्यास और अध्ययन की इसी सामग्री को 'चित्रकला की प्रविधि' के नाम से यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। इस प्राविधिक ज्ञान को हृदयंगम कर लेने के बाद हम भारतीय चित्रकला की परम्पराओं, उसकी तकनीकों और उसके वास्तविक ध्येयों को उचित रूप से ग्रहण कर सकते हैं अथवा उसमें प्रविष्ट होकर उसके जीवन तत्त्वों को ग्रहण कर उन्हें आधुनिक रूपों में ढाल सकने की चेष्टा कर सकते हैं।
कामसूत्र में वर्णित चौसठ कलाएँ
प्राचीन भारत की सभ्यता, संस्कृति और इतिहास का क्रमबद्ध परिचय प्रस्तुत करने वाली सामग्री में कलाओं का महत्त्वपूर्ण स्थान है। संस्कृत के प्राचीन ग्रन्थों में कलाओं की है धान के भी संख्या 64 मानी गयी है। भारत की इस चौसठविध कलाओं का परिचय यहाँ 'वात्स्यायन मुनि' के 'कामसूत्र' के आधार पर प्रस्तुत किया जा रहा है।
(1) गीतम् (संगीत),
(2) वाद्यम् (वाद्य-वादन),
(3) नृत्यम् (नाच),
(4) आलेख्यम् (चित्रकला),
(5) विशेषकच्छेद्यम् (पत्तियों को काट-छाँटकर विभिन्न आकृतियाँ बनाना या तिलक लगाने के लिए विशेष प्रकार के साँचे बनाना),
(6) तण्डुलकुसुमावलिविकारा (देवपूजन के समय विभिन्न प्रकार के जौ-चावल तथा पुष्पों को सजाना),
(7) पुष्पास्तरणम् (कक्षों तथा भवनों के उपस्थानों को पुष्पों से सजाना),
(8) दशनवसनांगराग (दाँत, वस्त्र और शरीर के दूसरे अंगों को रंगना),
(9) मणिभूमिकाकर्म (घर के फर्श को मणि-मोतियों से जड़ित करना),
(10) शयनरचनम् (शैय्या को सजाना),
(11) उदकवाद्यम् (पानी में ढोलक की सी आवाज निकालना),
(12) उदकाघात (पानी की चोट मारना या पिचकारी छोड़ना),
(13) चित्राश्वयोगा (शत्रु को विनष्ट करने के लिए तरह-तरह के योगों का प्रयोग करना),
(14) माल्यग्रंथनविकल्पा (पहनने तथा चढ़ाने के लिए फूलों की मालाएँ बनाना),
(15) शेखरकापीडयोजनम् (शेखरक तथा आपीड जेवरों को उचित स्थान पर धारण करना),
(16) नेपथ्यप्रयोगा (अपने शरीर को अलंकारों और पुष्पों से भूषित करना),
(17) कर्णपत्रभंगा (शंख, हाथीदाँत आदि के कर्ण आभूषण बनाना),
(18) गंधयुक्ति (सुगंधित धूप बनाना),
(19) भूषणयोजनम् (भूषण तथा अलंकार पहनने की कला),
(20) ऐंद्रजाल (जादू का खेल दिखाकर दृष्टि को बाँधना),
(21) कौचुमारयोग (बल-वीर्य बढ़ाने की औषधियाँ बनाना),
(22) हस्तलाघवम् (हाथ की सफाई दिखाना),
(23) विचित्रशाकयूषभक्ष्यविकारक्रिया (अनेक प्रकार के भोजन, जैसे शाक, रस मिष्ठान आदि बनाने की निपुणता), (
24) पानकरसरागासबयोजनम् (नाना प्रकार के पेय शर्बत बनाना),
(25) सूचीवानकर्माणि (सूई के कार्य में निपुणता),
(26) सूचनक्रीड़ा (सूत में करतब दिखाना),
(27) वीणाडमरूकवाद्यानि (वीणा और डमरू आदि वाद्यों को बजाना),
(28) प्रहेलिका (पहेलियों में निपुणता),
(29) प्रतिमाला (दोहा-श्लोक पढ़ने की रोचक रीति),
(30) दुर्वाचकयोग (कठिन अर्थ और जटिल उच्चारण वाले वाक्यों को पढ़ना),
(31) पुस्तकवाचनम् (मधुर स्वर में ग्रंथ पाठ करना),
(32) नाटकाख्यायिकादर्शनम् (नाटकों तथा उपन्यासों में निपुणता),
(33) काव्यसमस्यापूरणम् (समस्यापूर्ति करना),
(34) पट्टिकावेत्रवानविकल्पानि (छोटे उद्योगों में निपुण),
(35) तक्षकर्मणि (लकड़ी, धातु आदि की चीजों को बनाना),
(36) तक्षणम् (बढ़ई के कार्य में निपुण),
(37) वास्तुविद्या (गृहनिर्माणकला),
(38) रूप्यरत्नपरीक्षा (सिक्कों तथा रत्नों की परीक्षा),
(39) धातुवाद (धातुओं को मिलाने तथा शुद्ध करने की कला),
(40) मणिरागाकारज्ञानम् (मणि तथा स्फटिक काँच आदि के रंगने की क्रिया का ज्ञान),
(41) वृक्षायुर्वेदयोग (वृक्ष तथा कृषि विद्या),
(42) मेष-कुक्कुट लावक युद्धविधि (मेढ़े, मुर्गे और तीतरों की लड़ाई परखने की कला),
(43) शुक-सारिका प्रलापनम् (शुक-सारिका को सिखाना तथा उनके द्वारा संदेश भेजना),
(44) उत्सादने संवादने केशमर्दने च कौशलम् (हाथ-पैर से शरीर दबाना, केशों को मलना, उनका मैल दूर करना और उनमें तैलादि सुगंधित चीजें मलना),
(45) अक्षर-मुष्टिका-कथनम् (अक्षरों को संबद्ध करना और उनसे किसी संकेत अर्थ को निकालना),
(46) म्लेच्छितविकल्पा (सांकेतिक वाक्यों को बनाना),
(47) देशभाषाविज्ञानम् (विभिन्न देशों की भाषाओं का ज्ञान),
(48) निमित्तज्ञानम् (शुभाशुभ शकुनों का ज्ञान),
(49) पुष्पशकटिका (पुष्पों की गाड़ी बनाना),
(50) यंत्रमातृका (चलाने की कलें तथा जल निकालने के यंत्र आदि बनाना),
(51) धरणमातृका (स्मृति को तीव्र बनाने की कला),
(52) संपाठ्यम् (स्मृति तथा ध्यान संबंधी कला),
(53) मानसी (मन से श्लोकों तथा पदों की पूर्ति करना),
(54) काव्यक्रिया (काव्य करना),
(55) अमिधान-कोश-छंदोपज्ञानम् (कोश और छंद का ज्ञान),
(56) क्रियाकल्प काव्यालंकारज्ञानम् (काव्य और अलंकार का ज्ञान),
(57) छलितकयोग (रूप और बोली छिपाने की कला),
(58) वस्त्रगोपनानि (शरीर के गुप्तांग को कपड़े से छिपाना),
(59) द्यूतविशेष (विशेष प्रकार का जुआ),
(60) आकर्षक्रीड़ा (पासों का खेल खेलना),
(61) बालक्रीड़नकानि (बच्चों का खेल),
(62) वैनियिकीनाम् (अपने-पराये के साथ विनयपूर्वक शिष्टाचार दर्शित करना),
(63) वैजयिकीनाम (शस्त्रविद्या),
(64) व्यायामिकीनां च विद्यानां ज्ञानम (व्यायाम, शिकार आदि की विद्याएँ) ।
चित्रकला के छः अंग
जयपुर के 'राजा जयसिंह प्रथम' की सभा के विख्यात विद्वान राजपुरोहित 'पण्डित यशोधरा' ने 11वीं शताब्दी में कामसूत्र की टीका 'जयमंगला' नाम से प्रस्तुत की। कामसूत्र के प्रथम अधिकरण के तीसरे अध्याय की टीका करते हुए यशोधरा ने आलेख्य (चित्रकला) के छः अंग बताये हैं।
इसी प्रकार 'श्री अवनीन्द्रनाथ ठाकुर' ने कला पुनर्जागरण हेतु चित्र सृजन के अतिरिक्त प्राचीन कला साहित्य की ओर भी कला मनीषियों का ध्यान आकृष्ट किया। इसी धुन में उन्होंने 'इण्डियन सोसाइटी ऑफ ओरियन्टल आर्ट' के प्रकाशन के योजनान्तर्गत 'षडांग' (सिक्स लिम्बस् ऑफ पेंटिंग्स) Six Limbs of Paintings नामक पुस्तिका का प्रकाशन सन् 1921 में कराया। उनकी इस पुस्तिका का आधार कामसूत्र में वर्णित 64 कलाओं में चौथे स्थान पर 'आलेख्यम चित्रकला' के संदर्भ में यशोधारा पंडित की कामसूत्र वाली टीका 'जयमंगला' (11वीं-12वीं) वाला यह श्लोक है-
रूपभेदाः प्रमाणानि भावलावण्य योजनम्।
सादृश्यं वर्णिका भंग इति चित्र षडंग: कम्
इसमें चित्रकला के छः अंग बताये हैं, जो निम्न हैं-
(1) रूपभेदा : दृष्टि का ज्ञान A Knowledge of Appearances
(2) प्रमाण : ठीक अनुपात, नाप तथा बनावट A Correct Perception, Measure and Structure of Forms
(3) भाव : आकृतियों में दर्शक को चित्रकार के हृदय की भावना दिखाई दे The Action of Feelings on Forms
(4) लावण्य योजना : कलात्मक तथा सौन्दर्य का समावेश Infusion of Grace, Artistic Representation
(5) सादृश्य : देखे हुए रूपों की समान आकृति Similitudes
(6) वर्णिका भंग : रंगों तथा तूलिका के प्रयोग में कलात्मकता Artistic Manner in Using the Brush and Colours
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