चित्रकला का इतिहास
चित्रकला का इतिहास उतना ही पुराना कहा जा सकता है, जितना कि मानव सभ्यता के विकास का इतिहास। सत्य तो यह है कि चित्र बनाने की प्रवृत्ति सर्वदा से ही हमारे पूर्वजों में विद्यमान रही है। मनुष्य ने जिस समय प्रकृति की गोद में आँख खोली, उस समय से ही उसने अपनी मूक भावनाओं को अपनी तूलिका द्वारा टेढ़ी-मेढ़ी रेखाकृतियों के माध्यम से गुफाओं और चट्टानों की भित्तियों पर अंकित कर अभिव्यक्त किया। उसके जीवन की कोमलतम भावनाएँ तथा संघर्षमय जीवन की सजीव झाँकियाँ उसकी तत्कालीन कलाकृतियों में आज भी सुरक्षित हैं। अपना सांस्कृतिक विकास करने के लिए मानव ने जिन साधनों को अपनाया, उनमें चित्रकला भी एक साधन थी। भारतीय चित्रकला का उद्गम भी प्रागैतिहासिक काल से ही माना जाता है। समय के साथ-साथ ज्यों-ज्यों मानव ने विकास किया, भारत में यह कला भी अपने उत्कर्ष को प्राप्त करती रही। वस्तुतः भारतीय चित्रकला की प्रधानता को अनेक विद्वानों ने स्वीकार किया है तथा विश्व में उसकी एक विशिष्ट पहचान है।
भारतीय कला 'दर्शन'
कला का अर्थ
"मनुष्य की रचना, जो उसके जीवन में आनन्द प्रदान करती है, कला (Art) कहलाती है।" भारतीय कला 'दर्शन' है। शास्त्रों के अध्ययन से पता चलता है कि 'कला' शब्द का प्रयोग 'ऋग्वेद' में हुआ—“यथा कला, यथा शफ, मध, शृण स नियामति।" कला शब्द का यथार्थवादी प्रयोग 'भरतमुनि' ने अपने 'नाट्यशास्त्र' में प्रथम शताब्दी में किया—" न तज्ज्ञानं न तच्छिल्पं न साविधान सा कला।" अर्थात् ऐसा कोई ज्ञान नहीं, जिसमें कोई शिल्प नहीं, कोई विधा नहीं, जो कला न हो। भरतमुनि, ज्ञान, शिल्प और विधा से भी अलग 'कला' का क्या अभिप्राय ग्रहण करते थे, यह कहना कठिन है? अनुमान यही लगता है कि भरत के द्वारा प्रयुक्त 'कला' शब्द यहाँ 'ललितकला' के निकट है और 'शिल्प' शायद उपयोगी कला, कला के लिए। हमारे यहाँ कला उन सारी जानकारियों या क्रियाओं को कहते हैं, जिसमें थोड़ी सी भी चतुराई की आवश्यकता होती है।
कला संस्कृत भाषा से संबंधित शब्द है। इसकी व्युत्पत्ति 'कल्' धातु से मानी जाती है, जिसका अर्थ है--प्रेरित करना। कुछ विद्वान इसकी व्युत्पत्ति 'क' धातु से मानते हैं. "कं (सुखम्) लाति इति कलम्, कं आनन्दं लाति इति कला।" इस प्रकार कला के विभिन्न अर्थ माने जा सकते हैं--
संस्कृत साहित्य में इसका प्रयोग अनेकार्थों में हुआ है, जिसमें का 'सोलहवाँ भाग', 'समय का एक भाग', किसी भी कार्य के करने में अपेक्षित चातुर्य-कर्म आदि विशेषतः उल्लेखनीय हैं। भरतमुनि से पूर्व 'कला' शब्द का प्रयोग काव्य को छोड़कर दूसरे प्रायः सभी प्रकार के चातुर्य-कर्म के लिए होता था और इस चातुर्य-कर्म के लिए विशिष्ट शब्द था—'शिल्प', जीवन से संबंधित कोई उपयोगी व्यापार ऐसा न था, जिसकी गणना शिल्प में न हो।
कला का अर्थ है-सुन्दर, मधुर, कोमल और सुख देने वाला एवं शिल्प, हुनर अथवा कौशल। कला के संबंध में 'पाश्चात्य दृष्टिकोण' भी कुछ इसी प्रकार का है—अंग्रेजी भाषा में कला को 'आर्ट' कहा गया है। फ्रेंच में 'आर्ट' और लेटिन में 'आर्टम' और 'आर्स' से कला को व्यक्त किया गया है। इनके अर्थ वे ही हैं, जो संस्कृत भाषा में मूल धातु 'अर' के हैं। 'अर' का अर्थ है-बनाना, पैदा करना या रचना करना। यह शारीरिक या मानसिक कौशल 'आर्ट' माना गया है।
इन अर्थों के अन्तर्गत कुछ सुखद, सुन्दर एवं मधुर सृजन है। कला शिल्प कौशल की प्रक्रिया है। अतः कला का अर्थ है—“शिल्प कौशल की प्रक्रिया से युक्त सुन्दर व सुखद सृजन रूप।" दूसरे शब्दों में "सत्यं, शिवम्, सुन्दरम् की अभिव्यक्ति ही कला है।" किसी भी देश की संस्कृति उसकी अपनी आत्मा होती है, जो उसकी सम्पूर्ण मानसिक निधि को सूचित करती है। यह किसी एक व्यक्ति के सुकृत्यों का परिणाम मात्र नहीं होती है, अपितु अनगिनत ज्ञात एवं अज्ञात व्यक्तियों के निरन्तर चिन्तन एवं दर्शन का परिणाम होती है। किसी देश की काया, संस्कृति आत्मिक बल पर ही जीवित रह पाती है।
'सम' उपसर्ग पूर्वक 'कृ' धातु से 'क्तिन' प्रत्यय करने पर 'सुट्' का आगम होने से 'संस्कृति' शब्द बनता है, जिसका अर्थ है "सम्यक् रूप से अलंकृत बनावट" या "दोषापनयपूर्वक गुणाधान" संस्कृति का आधार है मन, प्राण व शरीर का संगठन। इनकी विभिन्नताओं में अपूर्व मौलिक समन्वय पैदा करना। "संस्कृति और सुसंस्कृत व्यक्ति" का अनिवार्य लक्षण है—आन्तरिक शुद्ध भाव, अर्थात् आत्मा का मन, प्राण और शरीर की प्राकृतिक चेष्टाओं से स्वतन्त्र तथा तटस्थ भाव। अतः संस्कृति सीखा हुआ व्यवहार है, प्रकृति से मनुष्य को मिला व्यवहार नहीं। देश और काल के चौखटे में संस्कृति का स्वरूप मानवीय प्रयत्नों के द्वारा नित्य ढलता रहता है। भारतीय संस्कृति का इतिहास देश और काल में अत्यधिक विस्तृत है। लगभग पाँच सहस्त्र वर्षों की लम्बी अवधि में इस संस्कृति ने विविध क्षेत्रों में अपना विकास
किया है। संस्कृति—भूत, भविष्य और वर्तमान में प्रवाहित होने वाली एक अजस्त्र धारा है।
मन, कर्म और वचन में मानवीय व्यक्तित्व के तीन गुण हैं, इन्हीं तीनों गुणों के परिणामस्वरूप विभिन्न संरचनाएँ होती हैं। धर्म, दर्शन, साहित्य एवं आध्यात्म आदि, ये मन की सृष्टि हैं। ये सब रचनाएँ मानव-मन की संस्कृति का महत्त्वपूर्ण अंग हैं। सामाजिक और धार्मिक आन्दोलन आदि कर्ममयी-संस्कृति के पुष्प होते हैं। तीसरे गुण के अन्तर्गत भौतिक रचनाएँ आती हैं। 'कला' शब्द इन रचनाओं के लिए एक व्यापक संकेत है।
इस प्रकार व्यापक दृष्टि से विचार करके देखा जाये तो धर्म, दर्शन, साहित्य, साधना, राष्ट्र और समाज की व्यवस्था, वैयक्तिक जीवन के नियम और आस्था, कला, शिल्प, स्थापत्य, संगीत, नृत्य और सौन्दर्य रचना के अनेक विधान तथा उपकरण आदि, ये सब
मानव संस्कृति के अन्तर्गत आ जाते हैं। इनकी समष्टि का नाम ही संस्कृति है, जो मानव की सुरुचिपूर्ण कृति है, वह सब उसकी संस्कृति है।
कला के प्रकार
कला के प्रकार कला के कई प्रकार होते हैं और इन प्रकारों का परिगणन भिन्न-भिन्न रीतियों से होता है।
(क) मोटे तौर पर जिस वस्तु, रूप अथवा तत्त्व का निर्माण किया जाता है, उसी के नाम पर इस कला का प्रकार कहलाता है, जैसे-
वास्तुकला या स्थापत्य कला : अर्थात् भवन-निर्माण कला, जैसे—दुर्ग, प्रासाद, मंदिर, स्तूप, चैत्य, मकबरे आदि-आदि।
मूर्तिकला : पत्थर या धातु की छोटी-बड़ी मूर्तियाँ।
चित्रकला : भवन की भित्तियों, छतों या स्तम्भों पर अथवा वस्त्र, भोजपत्र या कागज पर अंकित चित्र।
मृद्भाण्डकला : मिट्टी के बर्तन।
मुद्राकला : सिक्के या मोहरें।
(ख) कभी-कभी जिस पदार्थ से कलाकृतियों का निर्माण किया जाता है, उस पदार्थ के नाम पर उस कला का प्रकार जाना जाता है, जैसे-
जैसे-
प्रस्तरकला : पत्थर से गढ़ी हुई आकृतियाँ।
धातुकला : काँसे, ताँबे अथवा पीतल से बनाई गई मूर्तियाँ।
दंतकला : हाथी के दाँत से निर्मित कलाकृतियाँ।
मृत्तिका-कला : मिट्टी से निर्मित कलाकृतियाँ या खिलौने।
चित्रकला : ऊपर कहे गये सामान।
(ग) मूर्तिकला भी अपनी निर्माण शैली के आधार पर प्राय: दो प्रकार की होती है,
मूर्तिकला : जिसमें चारों ओर तराशकर मूर्ति का रूप दिया जाता है। ऐसी मूर्ति का अवलोकन आगे से, पीछे से तथा चारों ओर से किया जा सकता है।
उत्कीर्ण कला अथवा भास्कर्य कला : जिसमें पत्थर, चट्टान, धातु अथवा काष्ठ के फलक पर उकेर कर रूपांकन किया जाता है। इस चपटे फलक का पृष्ठ भाग सपाट रहता है या फिर इसे दोनों ओर से उकेर कर दो अलग-अलग मूर्ति-फलक बना दिये जाते हैं। किसी भवन या मंदिर की दीवार, स्तम्भ अथवा भीतरी छत पर उत्कीर्ण मूर्तियों का केवल अग्रभाग ही दिखाई देता है, यद्यपि गहराई से उकेरकर उन्हें जीवन्त बना दिया जाता है। सिक्कों की आकृतियाँ भी इसी कोटि की होती हैं। चूँकि इसमें आधी आकृति बनाई जाती है, संभवतः इसीलिए इस अर्द्धचित्र भी कहा जाता है। ये अर्द्धचित्र (Bas-Relief) भी दो शैलियों में निर्मित होते हैं-
हाई रिलीफ (High Relief) : इसमें गहराई से तराशा जाता है, ताकि आकृतियों में अधिक उभार आये और जीवन्त हो सकें।
लो रिलीफ (Low Relief) : इसमें हल्का तराशा जाता है, इसीलिए आकृतियों में चपटापन सा रहता है।
कला की अवधारणाएँ
विद्वान एवं कला मर्मज्ञों ने कला को जिस प्रकार परिभाषित किया है, उससे प्राय: ललित कला ही ध्वनित होती है।
'प्लेटो' के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति सुन्दर वस्तु को अपना प्रेमास्पद चुनता है, अतः कला का प्राण सौन्दर्य है। उन्होंने कला को सत्य की अनुकृति माना है।
'अरस्तू' उसे अनुकरण कहते हैं।
'हीगल' ने कला को आदि भौतिक सत्ता को व्यक्त करने का माध्यम माना है।
'क्रौचे' की दृष्टि से कला बाह्य प्रभाव की आन्तरिक अभिव्यक्ति है।
'टॉल्सटॉय' की दृष्टि में क्रिया, रेखा, रंग, ध्वनि, शब्द आदि के द्वारा भावों की वह अभिव्यक्ति जो श्रोता, दर्शक और पाठक के मन में भी वही भाव जागृत कर दे, कला है।
'फ्रॉयड' ने कला को मानव की दमित वासनाओं का उभार माना है।
'हरबर्ट रोड' अभिव्यक्ति के आह्लादक या रंजक स्वरूप को कला मानते हैं।
'टैगोर' के अनुसार, मनुष्य कला के माध्यम से अपने गंभीरतम अन्तर की अभिव्यक्ति करता है।
'प्रसाद जी' के अनुसार, ईश्वर की कर्त्तव्य शक्ति का मानव द्वारा शारीरिक तथा मानसिक कौशलपूर्ण निर्माण कला है।
'डॉ. श्याम सुन्दर दास' के अनुसार, जिस गुण या कौशल के कारण किसी वस्तु में उपयोगी गुण और सुन्दरता आ जाती है, उसको कला की संज्ञा दी जाती है।
'पी.एन. चौयल' के अनुसार, कला आदमी को अभिव्यक्ति देती है। प्रत्येक कलाकृति से कलाकार व दर्शक दोनों को ही यदि एक प्रकार की प्रसन्नता प्राप्त हो, तो उसे सच्चे अर्थों में कला की संज्ञा दी जा सकती है।
संसभारतीय कला और संस्कृति का परस्पर संबंध
कला मानव संस्कृति की उपज है। इसका उदय मानव की सौन्दर्य भावना का परिचायक है। इस भावना की वृत्ति व मानसिक विकास के लिए ही विभिन्न कलाओं का विकास हुआ है। कला का शाब्दिक अर्थ है- किसी वस्तु का छोटा अंश कला धातु से 'ध्वनि' व 'शब्द' का बोध होता है। ध्वनि से आशय है—“अव्यक्त से व्यक्त की ओर उन्मुख होना।" कलाकार भी अपने अव्यक्त भावों को विभिन्न माध्यमों से व्यक्त करता है, कला की व्युत्पत्ति इस प्रकार भी कर सकते हैं—क + ला, क = कामदेव- सौन्दर्य, हर्ष व उल्लास, ला-देना, 'कलांति ददातीति कला' अर्थात् सौन्दर्य की अभिव्यक्ति द्वारा सुख प्रदान करने वाली वस्तु ही कला है।
आधुनिक काल में कलाओं का वर्गीकरण दो बिन्दुओं पर किया गया है—
(1) उपयोगी कला : उपयोगी कला मानव समाज के लिए उपयोगी होती है।
(2) ललित कला : ललित कला सौन्दर्यप्रधान होती है। ललित कलाओं का उल्लेख प्राचीन भारतीय साहित्य में कहीं भी उपलब्ध नहीं है। अतः ललित कला का नामकरण पाश्चात्य सम्पर्क की देन है। 'पाश्चात्य विद्वानों' ने ललित कलाओं के अन्तर्गत पाँच कलाएँ मानी हैं। वे क्रमश: हैं—स्थापत्य, मूर्ति, चित्र, संगीत एवं काव्य कला। इनमें काव्य कला अर्थप्रधान, संगीत कला ध्वनिप्रधान और अन्य कलाएँ रूपप्रधान हैं।
सौन्दर्यानुभूति को व्यक्त करने के विभिन्न माध्यमों का प्रयोग मानव पीढ़ी-दर-पीढ़ी करता चला आया है और इन माध्यमों में कला एक विशिष्ट माध्यम है। कला की अभिव्यक्ति के क्षेत्र में भारत अत्यन्त समृद्ध एवं वैभवशाली रहा है। कला के अन्तर्गत चित्रकला, स्थापत्यकला, संगीतकला, मूर्तिकला तथा हस्तकला प्रमुख हैं और सभी कलाओं की कलात्मक अभिव्यक्ति की दृष्टि से भारत के जनजीवन में न केवल प्रागैतिहासिक युग से बल्कि वर्तमान में भी इनका विशेष महत्त्व दृष्टिगोचर होता है।
जीवन पद्धति मार्ग प्रशस्त करती है, संस्कृति के नियम शाश्वत होते हैं, जो उस समय को एक विशिष्ट जीवन व्यतीत करने की चेतना प्रदान करते हैं, परिणामस्वरूप प्रत्येक देश, समाज अथवा राज्य एक विशिष्ट संस्कृति के लिए जाना जाता है। संस्कृति शब्द से क्या अभिप्राय है, इसकी जानकारी अपरिहार्य है। प्रायः सभ्यता एवं संस्कृति को पर्यायवाची मानकर विचार करने की भ्रान्तिपूर्ण प्रवृत्ति दृष्टिगत होती है।
संस्कृति से तात्पर्य उन सिद्धान्तों से है, जो समाज में एक निश्चित प्रकार हमारे का जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा देते हैं, अत: 'के.एम. मुंशी' के अनुसार, रहन-सहन के पीछे जो मानसिक अवस्था, मानसिक प्रवृत्ति है, जिसका उद्देश्य हमारे जीवन को परिष्कृत, शुद्ध और पवित्र बनाना है तथा अपने लक्ष्य की प्राप्ति करना है, वही संस्कृति है।
संस्कृति के 'आन्तरिक' और 'बाह्य' दो पक्ष होते हैं। 'दृश्य' और 'श्रव्य' कलाएँ तथा शिल्प बाह्य संस्कृति के उपकरण मात्र हैं, जबकि आन्तरिक संस्कृति के उपकरण हमारे चारित्रिक गुण हैं। आन्तरिक संस्कृति के कुछ अंग तो सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति के अनुकूल ही हैं और साथ ही राजस्थान की अपनी कुछ विशेषताएँ भी रही हैं--
1. शरणागत की रक्षा करना विशेषतः क्षत्रिय समाज की विशेषता रही है, जैसे रणथम्भौर के राव हम्मीर ने दो शरणागत मुसलमानों की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था।
2. देवस्थानों की पवित्रता और अनेक अधिष्ठाता, देवों की महानता को स्वीकार करना।
3. पतिव्रत धर्म की महत्ता ।
4. अतिथि सत्कार, व्यावसायिक ईमानदारी, पारस्परिक सहयोग की भावना और गौ, ब्राह्मण तथा अबलाओं की रक्षा आदि। बाह्य संस्कृति के उपादान बहुत विस्तृत हैं, जैसे—चित्र, नृत्य, स्थापत्य, मूर्ति निर्माण, संगीत आदि कलाएँ लोकगीत तथा मुहावरे, लोरियाँ, ख्याल, पवाड़े, आदि लोक साहित्य, नाटक, रासलीला, कठपुतली आदि लोकानुरंजन, तीज, गणगौर, दशहरा, दीपावली, होली आदि उत्सव, धार्मिक मेले आदि ।
भारतीय कला, संस्कृति की दृष्टि से न केवल राष्ट्रीय, अपितु अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विशेष छवि बनाये हुए है। देश को विरासत में मिली साहित्यिक, पुरातात्विक, लोक-संस्कृति एवं कलाओं को अधिक प्रभावी एवं सामान्य जन तक पहुँचाने तथा जीवंत बनाए रखने की
स्वतंत्रता ही कला संस्कृति का योगदान है।
भारतीय चित्रकला की विशेषताएँ यह सर्वविदित है कि भारतीय चित्रकला एवं अन्य कलाएँ दूसरे देशों की कलाओं से भिन्न हैं और भारतीय कलाओं की कुछ ऐसी महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ हैं, जो अन्य देशों की
कला से इसे पृथक् कर देती हैं। ये विशेषताएँ निम्नलिखित हैं—
धार्मिकता एवं आध्यात्मिकता : विश्व की सभी कलाओं का जन्म धर्म के साथ ही हुआ है। कला के उद्भव में धर्म का बहुत बड़ा हाथ है। धर्म ने ही कला के माध्यम से अपनी धार्मिक मान्यताओं को जन-जन तक पहुँचाया है। राष्ट्रीय जीवन के ही समान भारतीय कला का स्वरूप भी मुख्यतः धर्मप्रधान है। 'विष्णुधर्मोत्तर पुराण' के चित्रसूत्र में कहा है--
कलानां प्रवरं चित्रं धमार्थकाममोक्षदं ।
मगल्यं प्रथमं चैतद्गृहे यत्र प्रतिष्ठितम् ॥
अजन्ता, बाघ, आदि गुफाओं में बौद्ध धर्मप्रधान चित्रों का अंकन हुआ है। राजस्थानी, पहाड़ी शैलियों में कृष्ण-लीला विषयक अनेक रूपों का चित्रण हुआ है। यही धर्मप्रधान मूर्तियाँ एवं चित्राकृतियाँ पूरे देश में देखी जा सकती हैं। चित्रकला ने धर्म को सौन्दर्य एवं आकर्षण प्रदान किया है।
इसी प्रकार किसी भी देश की धार्मिक मान्यताएँ, उसके पौराणिक देवी-देवता, उसके आचार-विचार और उसकी नीति एवं परम्पराएँ वहाँ की कला में अभिव्यक्त होती मिलती हैं और भारतीय कलाकार ही कला-संरचना के द्वारा धार्मिक, आध्यात्मिक भावना को अभिव्यक्ति देता है।
अन्तः प्रकृति से अंकन : भारतीय चित्रकला में मनुष्य के स्वभाव या अन्तःकरण को गहराई तथा पूर्णता से दिखाने का महत्त्व है। अजन्ता की चित्रावलियों में जंगल, उद्यान, पर्वत, प्रकृति, सरोवर, रंगमहल तथा कथा के पात्र, सभी को एक साथ, एक ही दृश्य में अंकित किया गया है। इसी प्रकार 'पदम्पाणि' के चित्र में कुछ रेखाओं द्वारा गौतमबुद्ध की विचारमुद्रा का जो अंकन हुआ है, वह दर्शनीय है।
इस प्रकार भारतीय कलाकार ने एक स्थान में अनेक कालों, स्थानों अथवा क्षेत्रों की विस्तीर्णता को एक साथ ग्रहण करके व्यक्त किया है।
कल्पना : कल्पनाप्रियता भारतीय चित्रकला की प्रमुख विशेषता है। वह उसके आधार पर ही पली-बढ़ी, अतः उसमें आदर्शवादिता का उचित स्थान है। यूँ भी भारतीय लोगों का मन यथार्थ की अपेक्षा कल्पना में अधिक रमा। विदित है कि अनेक देवी-देवता चाहे यथार्थ में अपनी सत्ता न रखते हों, पर उनका कल्पना-जगत् स्वरूप अनेक हृदयों में निवास करता है। कल्पना का सर्वश्रेष्ठ रूप ब्रह्मा, विष्णु, महेश के साथ में दिखाई देता है। उदाहरण के लिए, बुद्ध की जन्म-जन्मान्तर की कथाएँ कल्पना प्रसूत ही हैं। जिस प्रकार सृष्टि का निरन्तर सृजन और विनाश जीवन और मृत्यु का शाश्वत नृत्य है, उसी क्रम में नटराज के स्वरूप को भारतीय कलाकार ने कल्पित किया है।
प्रतीकात्मकता : भारतीय कला की एक विशेषता उसकी प्रतीकात्मकता में निहित है। प्रतीक प्रस्तुत और स्थूल पदार्थ होता है, जो किसी अप्रस्तुत सूक्ष्म भाव या अनुभूति कामानसिक आविर्भाव करता है।
प्रतीक, कला की भाषा होती है। सांकेतिक एवं कलात्मक दोनों प्रतीकों का अत्यधिक महत्त्व है, जैसे-स्वस्तिक, सिंह, आसन, चक्र, मीन, श्री लक्ष्मी, मिथुन, कलश, वृक्ष, दर्पण, पदम्, पत्र, वैजयन्ती आदि। इसी प्रकार नाग एवं जटाजूट में से निकलती जलधारा 'शिव' का प्रतीक है। मोरपंख एवं मुरली 'कृष्ण' का प्रतीक है। कमल स्थित 'श्री लक्ष्मी' एक ओर सम्पन्नता का प्रतीक है, तो दूसरी ओर पद्मासन पर विराजमान होकर भौतिकता से निर्लिप्त रहने का आशय प्रकट करती है। जल और कीचड़ से जुड़ा रहकर भी पदम् सदैव जल से ऊपर रहता है। उसके दलों पर जल की बूँदें नहीं ठहरती हैं। इस प्रकार पदम् हमें संसार में रहते हुए भी सांसारिकता से ऊपर उठने का उपदेश देता है। 'स्वस्तिक' की चार आड़ी-खड़ी रेखाएँ चार दिशाओं की, चार लोकों की, चार प्रकार की सृष्टि की तथा सृष्टिकर्त्ता 'चतुर्मुख ब्रह्मा' का प्रतीक है। इसकी आड़ी और खड़ी दो रेखाओं और उसके
चारों सिरों पर जुड़ी चार भुजाओं को मिलाकर सूर्य की छ: रश्मियों का प्रतीक माना गया है, जो गति और काल का भी प्रतीक है।
यूँ भी कलाकार नये-नये प्रतीकों को भी उपस्थित करते रहते हैं। उदाहरण के लिए, कलाकार ने बौद्धधर्म में बुद्ध की आकृति के स्थान पर कमल बना दिया था। रंगों के द्वारा भी कलाकार ने प्रतीकात्मकता का आभास कराया है। अजन्ता में चित्रित 'दर्पण देखती हुई स्त्री' के शरीर में हरा रंग भरा गया है, जो ताजगी का प्रतीक है। इसी प्रकार 'विष्णु' और 'लक्ष्मी' 'पुरुष' तथा 'नारी' के प्रतीक हैं।
आदर्शवादिता : भारतीय चित्रकार यथार्थ की अपेक्षा आदर्श में ही विचरण करता है। वह संसार में जैसा देखता है, वैसा चित्रण न करके, जैसा होना चाहिये, वैसा चित्रण करता है और जब जहाँ से चाहिए, की भावना का प्रादुर्भाव होता है, तो वहीं से आदर्शवाद आरम्भ हो जाता है। राजा को कलाकार आदर्श राजा के रूप में ही चित्रित करता है। प्रेमी को आदर्श प्रेमी के रूप में, इसी प्रकार बुद्ध ज्ञान देने वाले के रूप में आदर्श बन गये, अतः भिन्न-भिन्न मतों में भिन्न-भिन्न आदर्श हैं, जो कलाओं के लिए प्रेरणा-स्रोत रहे हैं।
मुद्राएँ : भारतीय चित्रकला, मूर्तिकला एवं नृत्यकला में मुद्राओं को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है। उन्हें आदर्श रूप प्रदान करने के लिए चमत्कारपूर्ण तथा आलंकारिक रूप प्रदान किये गये हैं। आकृति की रचना कलाकार ने यथार्थ की अपेक्षा भाव अथवा गुण के आधार पर की है। मुद्राओं के विधान से आकृति की व्यंजना की गई है। भरतमुनि के 'नाट्य शास्त्र' के अभिनय-प्रकरण में अंगों तथा उपांगों के अलग-अलग प्रयोगों द्वारा अनेक मुद्राओं का अवतरण किया है। ध्यान, विचार, संकेत, उपदेश, निकालना, पकड़ना, क्षमा, तपस्या, भिक्षा, त्याग, वीरता, क्रोध, प्रतीक्षा, प्रेम, विरह, एकाकीपन आदि मानव भावों को बड़ी ही स्वाभाविक मुद्राओं में दर्शाया है।
अजन्ता चित्र शैली में दर्शित आकृतियाँ अपनी भावपूर्ण नृत्य-मुद्राओं के कारण संसार भर में प्रसिद्ध है। इसी प्रकार मुगल, राजपूत शैलियों में भी विविध नृत्य-मुद्राओं के सुन्दर भावरूप का समावेश है। रेखा तथा रंग : भारतीय चित्रकला रेखा-प्रधान है, उसमें गति है। रेखाओं द्वारा बाह्य सौन्दर्य के साथ-साथ गम्भीर भाव भी कलाकार ने चित्रों में बड़ी कुशलता से दर्शाये हैं। रेखा द्वारा गोलाई, स्थितिजन्यलघुता, परिप्रेक्ष्य इत्यादि सभी कुछ प्रदर्शित हैं। यूँ तो आकृतियों में सपाट रंग का प्रयोग किया है, किन्तु वे सांकेतिक आधार पर है, साथ ही आलंकारिक या कलात्मक योजना पर आधारित है।
आलंकारिकता : भारतीय कला में अलंकरण का अत्यधिक महत्त्व है, क्योंकि भारतीय कलाकार ने सत्यं, शिवम् के साथ सुन्दर की कल्पना की है और इसीलिए सुन्दर तथा आदर्श रूप के लिए वह अलंकरणों का अपनी रचना में प्रयोग करता है। उदाहरण के लिए, खंजन अथवा कमल के समान नेत्र, चन्द्र के समान मुख, शुक चंचु के समान नासिका,
कदली स्तम्भों के समान जंघाएँ। इसी प्रकार भारतीय आलेखनों में अलंकरण का उत्कृष्ट रूप दिखाई देता है। जैसे- राजपूत, मुगल चित्रों में हाशियों में फूल, पत्तियों, पशु-पक्षियों का अलंकरण मिलता है। इसके अलावा अजन्ता, बाघ में अलंकृत चित्रावलियाँ मिलती हैं, जिसमें छतों में अलंकरण प्रमुख हैं।
कलाकारों के नाम: प्राचीन काल के कलाकारों ने अपनी कृतियों में नाम अंकित नहीं किये, किन्तु राजस्थानी चित्र शैली में कहीं-कहीं कलाकार द्वारा चित्रित चित्र पर कलाकार का नाम अंकित किया हुआ मिलता है। मुगल शैली में तो चित्रों में कलाकार के
नाम के साथ-साथ चित्र में रंग किसने भरे हैं, रेखांकन किसने किया है इत्यादि तक लिखे मिलते हैं।
साहित्य पर आधारित : भारतीय चित्रकला साहित्य पर भी आश्रित रही। चित्रकारों ने काव्य में वर्णित साहित्य के अनुरूप ही चित्रों का निर्माण किया। यानी कवियों के द्वारा प्रतिपादित विषयों को ही चित्रकार ने अपने माध्यम के अनुरूप ढालकर प्रस्तुत किया, जिससे
उनकी स्वतंत्र अभिव्यक्ति उभर कर सामने आई।
सामान्य पात्र : भारतीय कला में सामान्य पात्र विधान परम्परागत रूप में विकसित हुआ है, जबकि पाश्चात्य कला में व्यक्ति विशिष्ट का महत्त्व है। सामान्य पात्र सही अर्थों में आयु, व्यवसाय अथवा पद के अनुसार पात्रों की आकृति तथा आकृति के अनुपातों का निर्माण करना है। भारतीय कला में अंग-प्रत्यंग के माप एवं रूप निश्चित हैं और उन्हीं के अनुसार राजा, रंक, साधु, सेवक, देवता, स्त्री, किशोर, युवक, गंधर्व आदि की रचना की। जाती है। इसी प्रकार उनके व्यवसाय के अनुसार उनके चित्र खड़े एवं बैठने की दिशा व स्थान भी निश्चित रहते हैं।
कला अध्ययन के स्त्रोत
कला अध्ययन के स्रोत का अभिप्राय उन साधनों से है, जो प्राचीन कला के इतिहास को जानने में सहायक हों। भारतीय चित्रकला के अध्ययन स्रोत निम्न श्रेणियों में विभक्त किये जा सकते हैं-
ऐतिहासिक ग्रन्थ (Historical Books) : वर्तमान में कुछ ऐसे ग्रन्थ प्राप्त हैं, जिनमें प्राचीन समय की कला विषयक जानकारी मिलती है। राजा-महाराजाओं के राज्यकाल में घटित घटनाओं का वर्णन भी इन ग्रंथों से मिलता है।
शिलालेख (Inscriptions) : शिलाओं पर अंकित प्राचीन लेखों से कला, धर्म, एवं वास्तु निर्माण के विषय में जानकारी होती है। बादामी, अजन्ता, बाघ आदि गुफाओं से शिलालेख प्राप्त हुए हैं, जिनसे इनके निर्माण एवं कला शैलियों के विषय में जानकारी मिलती है। महाराजा अशोक द्वारा खुदवाये अनेक धर्मलेख शिलाओं पर प्राप्त हैं। समुद्रगुप्त का लेख इलाहाबाद के दुर्ग में प्राप्त है, जिससे मौर्यकालीन कला के विषय में जानकारी मिलती है।
प्राचीन खण्डहर (Old Ruins): उत्खनन के पश्चात् प्राचीन समय में ऐतिहासिक, धार्मिक स्थल, स्मारक, मंदिर तथा भवनों से प्राप्त चित्रों तथा मूर्तियों के विषय में जानकारी मिलती है। अजन्ता, एलोरा, बादामी, सारनाथ आदि जगहों में खुदाई एवं सफाई के बाद ही कलाकृतियों के विषय में जानकारी मिली।
मोहरें तथा मुद्राएँ (Seals and Coins) : प्राचीन काल में प्रचलित कला के विषय में मोहरों तथा मुद्राओं से जानकारी मिली है। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा से प्राप्त मोहरों पर अंकित पशु आकृतियों से उस समय की उन्नत मूर्तिकला का अनुमान लगाया जा सकता है। इसी प्रकार जहाँगीरकालीन एवं मौर्यकालीन काल से प्राप्त मुद्राओं से उस समय प्रचलितकला-शैलियों का परिचय प्राप्त होता है।
यात्रियों के वृत्तान्त (Accounts of Travellers) : भारत में समय-समय पर अनेक विदेशी यात्रियों ने भारत की यात्रा की तथा उन्होंने यहाँ की कलाकृतियों का अवलोकन कर उनके विषय में विवरण लिखे। उदाहरण के लिए, चन्द्रगुप्त मौर्य के समय की कलाकृतियों का वृत्तान्त विदेशी यात्री 'मैगस्थनीज' ने दिया है। चन्द्रगुप्त - विक्रमादित्य के समय का वृत्तान्त 'फाह्यान' ने लिखा है। 16वीं शताब्दी में तिब्बत के इतिहासकार 'लामा तारानाथ' ने भारत में बौद्ध-स्थलों का भ्रमण किया था। उनके द्वारा कला के विषय में लिखे पर्याप्त विवरण मिलते हैं।
बादशाहों द्वारा लिखी आत्मकथाएँ (Autobiography) : मुगल बादशाहों द्वारा लिखित आत्मकथाओं से उस समय में प्रचलित कला, कलाकार, स्थापत्य एवं कलाकृतियों के विषय में जानकारी मिलती है। बाबर द्वारा लिखित 'वाकयात-ए-बाबरी', जहाँगीर द्वारा लिखी 'तुजुक-ए-जहाँगीरी' और अबुल-फजल द्वारा लिखी 'आईन-ए-अकबरी' के द्वारा चित्रकला संबंधी महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। उपर्युक्त स्रोतों के आधार पर भी भारतीय चित्रकला के विषय में जानकारी एकत्र की गई है। साथ ही प्रत्यक्ष में प्राप्त एवं संरक्षित कलाकृतियों के विषय में जानकारी लेकर उसे आगामी पृष्ठों में प्रस्तुत किया जा रहा है।
इन्हें भी देखे-
0 Comments