आदिकाल की चित्रकला (30,000 ई.पू. से 50 ई. तक)
चित्रकला का उद्गम
मानव जीवन की भाँति कला के उदय का इतिहास भी बड़ा रहस्यमय, विराट और अज्ञात है। मनुष्य ने जिस समय प्रकृति की गोद में अपनी आँखें खोलीं, उस समय से ही उसने अपने जीवन को सुखी व समृद्ध बनाने की कोशिश की और इसको फलीभूत करने हेतु उसने ऐसी कृतियों का सृजन किया, जो उसके जीवन को सुखद और सुचारु बना सके। यहीं से मनुष्य की ललित भावना जाग उठी और उसने अपनी मूक भावनाओं को अनगढ़ पत्थरों के यंत्रों तथा तूलिका से टेढ़ी-मेढ़ी रेखाकृतियों को गुफाओं और चट्टानों की भित्तियों पर अंकित कर दिया। आज आदिमानव की ये कलाकृतियाँ उसके जीवन की कोमलतम भावनाओं और संघर्षमय जीवन की सजीव झाकियाँ प्रस्तुत करती हैं। मानव ने इन चित्रों में रेखाओं और आकारों द्वारा अपनी आत्मा एवं प्रगति को अंकित किया है। साथ ही उसकी इस कलाभिरुचि पर अनूठा प्रकाश पड़ता है।
इन्हीं असंख्य चित्राकृतियों के अवशेषों के आधार पर आज चित्रकला की एक निश्चित परिभाषा निर्धारित हुई है।
चित्रकला की परिभाषा
किसी समतल धरातल, जैसे—भित्ति, काष्ठफलक आदि पर रंग तथा रेखाओं की सहायता से लम्बाई, चौड़ाई, गोलाई तथा ऊँचाई को अंकित कर किसी रूप का आभास करना 'चित्रकला' है।
मानव की उत्पत्ति और विकास क्रम
पृथ्वी पर मनुष्य कब और कहाँ से आया? सभ्यता के क्षेत्र में भारत में चित्रकला का जन्म कब और कैसे हुआ? उसने कब और कैसे उन्नति की ? इस प्रकार के प्रश्नों के उत्तर विवादास्पद रहे हैं।'
किन्तु वैज्ञानिक खोजों के आधार पर यह निश्चित हो पाया है कि पृथ्वी का जन्म करोड़ों वर्ष पूर्व, सूर्य से हुआ। इसके शनैः-शनैः ठण्डा होने पर कीट, पतंग, मछलियों, जानवरों आदि का आविर्भाव हुआ और कालक्रम के चक्र से उसकी आकृति की बनावट में भी बदलाव व अन्तर आते रहे। मानव का आज जो रूप है, वह वन मानुष का ही सुधरा रूप है। चित्रकला का भी विकास मनुष्य के विकास के साथ-साथ ही संभव हो पाया है? प्रागैतिहासिक मानव ने किस प्रकार अपनी संस्कृति, सभ्यता, भाव और विचारों का विकास किया। इसके बहुत से तथ्य आज प्रकाश में आ चुके हैं। इन्हीं के आधार पर जीव का यह विकासक्रम चार भागों में विभाजित किया जा सकता है-
(1) ऐजोईक युग
(2) पेलोजोइक युग
(3) मेसोजोईक युग
(4) सिनोजोइक युग
(1) ऐजोईक युग :- इस युग में पृथ्वी पर एक कोष्ठक जैव ही था। यह जैव आज से लगभग एक अरब पचास करोड़ वर्ष पूर्व पृथ्वी पर विकसित हुआ।
(2) पेलोजोईक युग :- इस युग में जीव सर्वप्रथम अकशेरुकीअकशेरुकी (Invertebrates) प्राणियों, जैसे—– सिवार, स्पन्ज, रेंगने वाले जीवधारियों, पक्षियों तथा विशालकाय वृक्षों और जंगलों के रूप में विकसित हुआ।
(3) मेसोजोईक युग :- इस युग में कशेरुकी जीवों का विकास हुआ, जिन्हें सरीसृप (Reptiles) कहते हैं।
(4) सिनोजोइक युग :- इस युग में आज पाये जाने वाले जीवों का विकास हुआ। इनमें स्तनधारी जीव (Mammals) उत्पन्न हुए, जिनमें वनमानुष भी था, जिसका बदला रूप आज के मानव जैसा है। मनुष्य की उत्पत्ति आज से लगभग 20,00,000 वर्ष पूर्व मानी जाती है। यही सृष्टि के विकास का चरमोत्कर्ष और अन्तिम चरण माना जाता है।
प्रागैतिहासिक काल
हजारों वर्षों की लम्बी काल अवधि में जल तरंगों के समान फैली इस प्रागैतिहासिक चित्रकला को अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से हम इसे तीन निम्नांकित खण्डों में विभाजित कर सकते हैं-
1. पूर्व पाषाण काल या पुरातन प्रस्तर युग, 'मेगालिथिक एज', (Megalithic Age) (30,000 ई. पूर्व से 25,000 ई. पूर्व)
2. मध्य पाषाण काल या मध्य प्रस्तर युग, 'मेसोलिथिक एज' (Mesolithic Age) (25,000 ई. पूर्व से 10,000 ई. पूर्व तक)
3. उत्तर पाषाण काल या नव प्रस्तर युग, 'नियोलिथिक एज', (Neolithic Age) (10,000 ई. पूर्व से 3,000 ई. पूर्व तक)
(1) पूर्व पाषाण काल :- इस युग में आदि मानव प्रकृति निर्मित गुफाओं में रहता था तथा पत्थर, हड्डी और लकड़ी के मोटे व भद्दे औजार एवं हथियार बनाता था। ये अवशेष प्रायः पशुओं की अस्थियों से प्राप्त हुए हैं। भारत में सर्वप्रथम 'बुसफुट' नामक विद्वान ने प्रस्तर युग के औजार की खोज मद्रास के समीप 'पल्लावरम्' नामक स्थान में की थी। इसके पश्चात् प्रस्तर युग के अन्य स्थान, जैसे 'सोऑ', 'नर्मदा', 'साबरमती नदी' की घाटियों से मिले हैं। इसके अलावा 'उड़ीसा', 'मैसूर' एवं 'मद्रास' आदि भी ऐसे प्रान्त हैं, जहाँ प्राचीन प्रस्तरयुगीन औजार व हथियार मिले हैं। इस प्रकार भूगर्भशास्त्रियों के अनुसार दक्षिण भारत का क्षेत्र सबसे प्राचीन क्षेत्र माना जाता है, जहाँ अनेक पुरातन प्रस्तरयुगीन स्थलों की खोज हुई है। अगर इस प्रकार कहा जाये, तो अतिश्योक्ति नहीं होगी कि पूर्व पाषाण युग का मानव दक्षिणी भारत में चेन्नई के पास 'अंगोला चिगंलेपुत' तथा 'कुडापा क्षेत्र' तक सीमित रहा। इस समय का मनुष्य क्वार्टीजाइट मनुष्य (Quartizite Man) के नाम से पुकारा जाता था।
मध्यप्रदेश के 'मोरेना' जनपद के 'पहाड़गढ़ शियोरपुर कला क्षेत्र में करीब 25,000 वर्ष पुराने चित्र 'प्रोफेसर डी.पी.एस. दारिकेश' ने खोजे हैं, जिनके विषय 'शिकारी' व 'शिकार' हैं, जो गेरू व सफेद रंग में बने हैं।
(2) मध्य पाषाण काल :- यह युग किसी काल विशेष का संकेत नहीं करता, अपितु यह समय पुरातन प्रस्तर युग के बर्बर जीवन व नव प्रस्तर युग के समय जीवन के संधिकाल वाला समय जाना जाता है। इस समय मानव ने अपने औजारों को और अधिक सुडौल व ज्यामितीय रूप प्रदान किया। यही नहीं उसने मिट्टी के बर्तन बनाने की भी चेष्टा की, जिसमें वह कुछ हद तक सफल भी हुआ। 'मध्य प्रदेश', 'गुजरात', 'सिन्ध', 'आन्ध्र प्रदेश' व 'कश्मीर' आदि प्रदेशों में प्राप्त परिष्कृत औजारों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मध्य प्रस्तरयुगीन मानव सौन्दर्य की सहज अभिव्यक्ति के लिए निरन्तर प्रयासरत रहा था।
(3) उत्तर पाषाण काल:- इस युग के अवशेष भी बहुत कम प्राप्त हैं और जो भी उदाहरण प्राप्त हैं, उनमें से अधिक 'बेलारी' के आसपास प्राप्त हुए हैं। अब मानव, पशुपालन व कृषि जैसे धंधों को अपनाने लगा था और कलात्मक बर्तन भांडों का प्रयोग भी प्रारम्भ हो गया था, जो उसने चाक पर बनाये थे। उसके पुराने घुमक्कड़ स्वभाव में भी अन्तर आया। उसने अब गाँव में बसना शुरू कर दिया था। उसके सम्पूर्ण जीवन-दर्शन से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वह अपने उत्तराधिकारियों के लिए एक उन्नत समाज की नींव रख रहा था।
इस युग का गढ़ा हुआ 'गोल यन्त्र' नर्मदा नदी की घाटी से भी प्राप्त हुआ है। यहीं से 'दरियाई घोड़े' तथा अन्य 'पशुओं की अश्मीभूत हड्डियाँ' भी प्राप्त हुई हैं। कुछ स्थानों पर हिरौंजी के टुकड़े तथा सिलनुमा पत्थर प्राप्त हुए हैं, जिन पर हिरौंजी की पिसाई की जाती थी। इस समय के पॉलिश किये यंत्र भी मिले हैं। इस प्रकार पूर्व पाषाण युग का मानव 'कुडापा' तथा 'मद्रास सिटी' के क्षेत्र तक सीमित रहा, परन्तु उत्तर पाषाण युग का मानव सारे भारतवर्ष में फैल गया और 'बेलारी' उसका प्रधान केन्द्र बना रहा। सर्वप्रथम उत्तर पाषाण के मानव ने चित्रकला का प्रयोग किया था और इस समय के प्राप्त चित्रकला के उदाहरण विभिन्न स्थानों पर सुरक्षित हैं।
प्रागैतिहासिक काल के नव प्रस्तरयुगीन मानव ने भारत के सैकड़ों स्थानों पर चित्रावशेष छोड़े हैं। अतः यहाँ पर इस युग की चित्रकला के प्रमुख उदाहरण हमें 'बेलारी', 'बाडनाड', 'एडकल', 'सिंघनपुर', 'बुन्देलखण्ड' तथा 'विन्ध्याचल', 'मिर्जापुर', 'रामगढ़', 'हरनीहरन', 'विलासंरगम', 'बुढारपरगना' आदि स्थानों पर प्राप्त होते हैं।
भारत में प्रागैतिहासिक आलेखनों एवं चित्रों का अनुशीलन करने वाले इन विद्वानों में—'एलन हाटन ब्राड्रिक', 'स्टुअर्ट पिगॉट', 'डी.एच. गॉर्डन', 'प्रो. जुनेर', 'लियोनार्ड अदम', 'श्री एफ. आर. अल्विन' तथा 'श्रीमती अल्चिन', 'डब्ल्यू. एण्डर्सन', 'काकर्बन', 'सी.ए. सिल्वेलाड', 'पंचानना मित्र' और 'मनोरंजन घोष' का नाम प्रमुख है।
'नाड़िक' की पुस्तक 'प्री-हिस्टोरिक पेंटिंग, 1958 (Pre-historic Painting)' 'और 'पिगॉट' की पुस्तक 'प्री-हिस्टोरिक इंडिया, 1950 (Pre-historic India)' इस विषय की प्रामाणिक सामग्री से भरपूर है।
ब्राड्रिक महोदय ने संसार के प्रागैतिहासिक चित्रों की प्राचीनता का विश्लेषण करते हुए भारत में उपलब्ध चित्रों को अमेरिका व यूरोप के बाद रखा है। ये चित्र 'मध्य प्रदेश' के 'आदमगढ़', 'रायगढ़', 'चक्रधरपुर', 'सिंघनपुर', 'होशंगाबाद' और 'मिर्जापुर' के 'लिखुनियाँ', 'कोहवर' तथा 'भल्डारिया' आदि स्थानों पर प्राप्त हुए हैं। श्रीमती और श्री अल्चिन ने 'ऋष्यमूक पर्वत' के निकट से प्राप्त चित्रों का समय 3,000 ई. पूर्व निर्धारित किया है। इसी प्रकार 'चक्रधरपुर' से प्राप्त गुफा चित्रों को 'असित कुमार हाल्दार' ने 3,000 ई. पूर्व का बताया है।
1863 ई. पूर्व मद्रास के समीप 'पूर्व प्रस्तर युग' के एक कलापूर्ण शिलाखण्ड का पता लगा था। इसी प्रकार 1880 ई. मिर्जापुर में पंख पोशाक युक्त अनेक चित्र खुदी चट्टानों पर मिले हैं, जो प्रागैतिहासिक महत्त्व के हैं। गवेषणारत विद्वानों ने 'मध्यप्रदेश', 'सिंघनपुर' तथा 'सरगुजा रियासत' के 'जोगीमारा' स्थानों से चित्रयुक्त प्राचीन महत्त्व की चट्टानों की खोज की है, जिन पर लाल-पीले रंग से अंकित रेंगते हुए कीड़ों, पशुओं, पक्षियों, मनुष्यों तथा असुरों की आकृतियाँ चित्रित हैं।
प्रागैतिहासिक युग के पाषाण चित्रों का पता 'तमिलनाडु', 'आंध्र प्रदेश', 'छोटा नागपुर', 'उड़ीसा', 'उत्तर प्रदेश' और 'नर्मदा उपत्यका' आदि स्थानों से भी चला है।
मध्य प्रदेश के प्रमुख क्षेत्र
पंचमढ़ी :- यह स्थान महादेव पर्वत श्रृंखला में अवस्थित है। पंचमढ़ी के आसपास कोई 5 मील के घेरे में 50 के करीब दरियाँ (गुहाएँ) हैं। इन सभी में महत्त्वपूर्ण प्रागैतिहासिक चित्र उपलब्ध हुए हैं।
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