बौद्धकाल की अजन्ता चित्रकला
अजन्ता का नामकरण
भारत में बौद्ध कला की महान विरासत भित्ति चित्रों के रूप में सुरक्षित है। इन भित्ति चित्रों का विस्तार भारत में सर्वत्र मिलता है। इस कलात्मक धरोहर की लोकप्रियता भारत के उत्तर-पश्चिम सीमा प्रान्त तथा मध्य एशिया के अनेक देशों तक पहुँची।
बौद्ध कला की इस महान् थाती का समृद्ध केन्द्र 'अजन्ता' है, जो महात्मा बुद्ध के जीवन की घटनाओं तथा जातक कथाओं पर आधारित है।
अजन्ता नामक एक प्राचीन ग्रन्थ 'महामयूरी' में 'अजिताञजेय' नामक एक स्थान का संदर्भ है।' गुफाओं से कुछ किलोमीटर दूर पर 'अजिष्ठा' नामक ग्राम है, जिसका मूल उच्चारण 'अजिस्ठा' है। इसी नाम के आधार पर ही वर्तमान में 'अजन्ता' (Ajanta) व्यवहार में आने लगा और हिन्दी उच्चारण में इसे 'अजन्ता' पुकारा जाने लगा।
अजन्ता का सन्दर्भ एक और रूप में भी है- 'यो मैत्रेय बुद्ध' (भविष्य में अवतरित होने वाले बुद्ध) को 'आजित' कहा जाता है। अतः बुद्ध धर्म से संबंधित गुफाओं का 'अजन्ता' नाम उचित रहता है।
अजन्ता गुफा की स्थिति
अजन्ता के 'तीस गुफा मन्दिर' पहाड़ियों को काट कर बनाये गये हैं। अजन्ता की ये विश्वप्रसिद्ध गुफाएँ फरदारपुर ग्राम से साढ़े छः किलोमीटर दूर है। यह ग्राम महाराष्ट्र राज्य के औरंगाबाद जिले में एक सौ एक किलोमीटर दूर है और मध्य रेल्वे के जलगाँव स्टेशन से 55 किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है, जो बस द्वारा पूरी की जाती है।
अजन्ता की गुफाएँ हरि - श्रृंगार से आच्छादित मनोरम नीरव एकाकी घाटी में स्थित हैं। यह घाटी सतपुड़ा से क्रमशः सात कुण्डों में गिरती हुई बाघोरा नदी पहाड़ियों को काटती व उसके पैरों में साँप सी लोटती हुई कमान की तरह मुड़ गई है। इस नदी के घुमाव से घाटी का रूप अर्धचन्द्राकार के समान बन गया है। इसके बायीं या उत्तर की ओर से एक मोड़ पर लगभग दो सौ पचास फुट ऊँची पहाड़ी खड़ी है और इसी पहाड़ी में एक अर्धचन्द्राकार पंक्ति में ये गुफाएँ काट कर बनाई गई हैं।
इसी शान्त और नीरवता के वातावरण को देखकर बौद्ध भिक्षुओं ने अपनी कला साधना के लिए यह स्थान उपयुक्त समझा होगा। अजन्ता की प्रत्येक गुफा में मूर्तियाँ, स्तम्भ तथा द्वार काटे गये हैं और भित्तियों पर चित्रकारी की गई है। इस प्रकार अजन्ता की ये गुफाएँ 'वास्तुकला', 'मूर्तिकला' तथा 'चित्रकला' का उत्तम संगम हैं।
चीनी बौद्ध यात्री 'युवांड्ङ्ग च्वांड्ङ्ग' ने भी अपनी पुस्तक 'ट्रेवल्स इन इंडिया' (Travels in India) में अजन्ता की कलाओं की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। इसी प्रकार 'फाह्यान' ने सन् 398 ई. में इन कला मंदिरों का उल्लेख किया है। सम्राट हर्ष के समय 'बाणभट्ट' (Banbhatt) ने गुफा चित्रों का जो वर्णन किया है, वह भी अजन्ता के ही समान है।
अजन्ता की खोज एवं जीर्णोद्धार
'लारेन्स बिनयन' के अनुसार अजन्ता की कला एशिया और एशिया की कला के इतिहास में उतना ही महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है, जितना कि यूरोप और यूरोप की कला के इतिहास में 'आसिसी' (Assisi), 'सियना' (Sienna) और 'फ्लोरेंस' (Florence) की कला का है।
अजन्ता की इतनी महत्त्वपूर्ण कलाकृतियाँ लगभग एक हजार वर्षों तक कला जगत् की अनभिज्ञता का शिकार रहकर अचानक सन् 1819 ई. में कैसे प्रकाश में आईं, इसकी भी अजब कहानी है। यदि मद्रास सेना का एक सेवानिवृत्त अफसर इनका पता हमें न देता, तो पता नहीं कब तक और ये कला भंडार हमारे लिए होकर भी न होते।
सन् 1819 ई. में सेना की एक टुकड़ी 'अजिष्ठा गाँव' के पास घेरा डाले पड़ी थी, उन्हीं में से एक ब्रिटिश अफसर शिकार की टोह में अजन्ता गाँव के पास तक पहुँच गया। अचानक उसे एक लड़के की कर्कश-सी आवाज सुनाई पड़ी और वह तेज कदम से उसतक पहुँच गया। लड़के ने यूरोपियन साहब को देख पैसे पाने की लालसा में उसे थोड़ी दूर चलने के लिए कहा और वहाँ जाकर सामने पेड़ों के झुरमुट के बीच एक स्थान की ओर संकेत किया और बोला, साहब यह देखो चीता। परन्तु आश्चर्य की बात कि वह चीता नहीं, बल्कि घनी हरीतिमा के बीच बैंगनी पत्थरों के खम्भों के मध्य सुनहरे लाल रंग में कुछ ऐसी चीज थी, जिसे देख कप्तान साहब उछल पड़े और तुरन्त गाँव वालों से कुल्हाड़ी, भाले, ढोल तथा टॉर्च आदि लेकर आने के लिए बुला भेजा। इस प्रकार सदियों से भूले गुफा मंदिरों तक पहुँचने का रास्ता साफ हो गया और कला जगत् व कलामर्मज्ञों के लिए बौद्ध कला की इस महान् उपलब्धि से परिचय हो सका।
यह सूचना पाकर सर्वप्रथम एक कम्पनी के अंग्रेज अधिकारी 'विलियम एरिकसन' (William Ericson) ने एक लेख तैयार किया और उसे 'बॉम्बे लिटरेरी सोसायटी' (Bombay Literary Society) में पढ़ा।
इसके बाद 1824 ई. में लेफ्टीनेन्ट 'जेम्स ई. अलेक्जेन्डर' (Lieutant James. E. Alexander) ने इन गुफाओं को देखा और 'रॉयल सोसायटी', लन्दन (Royal Society, London) को इनका परिचय भेजा, परन्तु फिर भी सन् 1843 ई. तक इन गुफाओं की ओर किसी का ध्यान नहीं गया।
सन् 1843 ई. में 'जेम्स फर्ग्युसन' (James Fergusson) ने चार वर्षों तक अजन्ता के चित्रों का अध्ययन कर पहला शोधपूर्ण विवरण 'रॉयल ऐशियाटिक सोसायटी ऑफ ग्रेट ब्रिटेन एण्ड आयरलैण्ड' (Royal Asiatic Society of Great Britain and Ireland) की सभा में पढ़ कर सुनाया। रॉयल ऐशियाटिक सोसायटी के आग्रह पर ईस्ट इंडिया कम्पनी के निर्देशक ने तत्कालीन भारत सरकार को अजन्ता भित्ति चित्रों की सुरक्षा हेतु उचित कदम उठाने को कहा।
सन् 1844 ई. में 'ईस्ट इंडिया कम्पनी' के निवेदन पर इंग्लैण्ड की सरकार ने एक कुशल चित्रकार 'मेजर राबर्ट गिल' (Major Robert Gill) को 1847 ई. में अजन्ता के चित्रों की अनुकृतियाँ बनाने के लिए भारत भेजा। सन् 1857 ई. के विद्रोह की चिंगारी के भड़कते ही मेजर गिल ने चित्रों की अनुकृतियाँ बनाने का काम छोड़ दिया। इन दस वर्षों के दौरान तीस या इससे अधिक चित्रों की अनुकृतियाँ बनकर तैयार हो चुकी थीं, जिन्हें मेजर गिल ने स्वदेश (इंग्लैण्ड) भेज दिया।
अजन्ता के चित्रों की इन अनुकृतियों को 'सिडिहोम के क्रिस्टल पैलेस' (Crystal Palace) की प्रदर्शनी में प्रदर्शित किया गया, परन्तु इस भवन (पैलेस) में भीषण आग लग जाने के कारण इनमें से पच्चीस चित्र आग में स्वाहा हो गये। केवल पाँच अनुकृति चित्र, कुछ छोटे-छोटे एनग्रेविंग प्रिन्ट, 'मिसेज इस्पियर' (Mrs. Ispiyar) की 'एन्सेन्ट इंडिया' (Ancient India) नामक पुस्तक में प्रकाशित हैं। इसके पश्चात् सन् 1872 ई. से 1876 ई. के मध्य सर जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट के तत्कालीन प्राचार्य 'मिस्टर जॉन ग्रिफिथ्स' को नत ती से क লা भ नएँ ना' कार नय ही के के की लगत् देता, थी, गया। उस (Mr. John Griffiths) महोदय तथा उनके शिष्यों ने सैकड़ों सुन्दर प्रतिकृतियाँ बनाईं, जो दो जिल्दों में 'दी पेंटिंग्स ऑफ बुद्धिस्ट केव टेम्पल ऑफ अजन्ता' (The Paintings of Buddhist Cave Temples of Ajanta), 'खानदेश इंडिया' शीर्षक से सन् 1896 ई. में प्रकाशित हो चुकी हैं। सन् 1874 ई. के इंडियन एन्टीक्यूरी नाम की शोध पत्रिका में 'जेम्स बर्गेस' (James Burges) का 'रॉक टेम्पिल्स ऑफ अजन्ता' (Rock Temples of Ajanta) लेख प्रकाशित हुआ।
इसी समय इंडिया ऑफिस, लंदन में फोटोग्राफ्स का एक सुन्दर संग्रह भी डॉ. बर्गेस द्वारा तैयार किया गया। ये चित्राकृतियाँ सन् 1885 ई. में विक्टोरिया एण्ड अल्बर्ट म्यूज़ियम, साउथ कैंसिग्टन में प्रदर्शित की गई, परन्तु दुर्भाग्यवश इस भवन में भी आग लगने से ये नष्ट हो गईं। सन् 1909 से 1911 ई. के मध्य 'लेडी हैरिघम' (Lady Harringam) भारत आई और उनके पर्यवेक्षण में सैयद अहमद, मोहम्मद फजलुदीन, नन्दलाल बोस, असित कुमार हाल्दार, समरेन्द्र नाथ गुप्त, वेंकटप्पा, लार्चर तथा ल्यूक जैसे तरुण भारतीय कलाकारों के द्वारा पुनः अजन्ता के चित्रों की अनुकृतियाँ तैयार कराईं, जो सन् 1915 ई. में लंदन से पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुईं।
सन् 1913 ई. में 'विन्सेंट स्मिथ' व 'लेडी हैरिघम' के अजन्ता संबंधी लेख प्रकाशित हुए। हैदराबाद राज्य के पुरातत्त्व विभाग के निर्देशक 'गुलाम यजदानी' ने अजन्ता के चित्रों की पुनः प्रतिकृतियाँ तैयार करवाई और लेख को निज़ाम सरकार के पुरातत्त्व विभाग ने चार भागों में क्रमशः सन् 1930, 1933, 1946 व 1955 ई. में प्रकाशित कराया। स्वतंत्रता के पश्चात् ललित कला अकादमी, दिल्ली ने यहाँ के चित्रों के रंगीन फोटोग्राफ के प्रिन्ट का एक छोटा पोर्टफोलियो तैयार कराया, जो कला प्रेमियों तक अजन्ता की छवि पहुँचाने में सहायक सिद्ध हुआ।
सन् 1954 ई. में 'यूनेस्को' (Unesco) के द्वारा भी न्यूयॉर्क से अजन्ता के रंगीन चित्रों का एक संग्रह 'पेंटिंग्स ऑफ अजन्ता केव्ज' (Paintings of the Ajanta Caves) के नाम से प्रकाशित हुआ।
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