'सिन्धु घाटी सभ्यता की कला'
(3,500 ई.पू. से 2,500 ई.पू.)
भारतवर्ष में ईसा से 4,000 वर्ष पूर्व से लेकर ईसा से 3,000 वर्ष ई. पूर्व के मध्य चीन से लेकर मध्य एशिया तक एक सभ्यता का जन्म हुआ। इस सभ्यता की खोज सन् 1924 ई. में हुई और इसका श्रेय 'सर जॉन मार्शल' तथा 'डॉ. अरनेस्ट मैक' को दिया जाता है।
'सिन्धु घाटी के विशाल क्षेत्र में काली एवं लाल पकाई मिट्टी के बर्तन बनाने की कला का विशेष विकास हुआ है। इन बर्तनों पर मानवाकृतियाँ (मातृदेवी की मूर्तियाँ), वनस्पति, पशु-पक्षी (कुकुदयुत्त बैल, बारहसिंघा तथा मछली के परिष्कृत रूप) तथा ज्यामितीय अभिप्रायों से जिन पर गोल अर्धचन्द्राकार व तिरछी रेखाओं के आलेखनों का प्रयोग है (जो आदिम शैली जैसा है), इसके अतिरिक्त मोती-मनके एवं प्रसाधन सामग्री भी मिलती है। पुरातत्त्वेत्ता इस सभ्यता को 'मृतक पात्रों की सभ्यता' भी कहकर पुकारते हैं।
इस प्रकार की सामग्री 'भारत' तथा 'पाकिस्तान' में 'मोहनजोदड़ो', 'हड़प्पा', 'कुल्ली मेंही', 'लोथल', 'झुंकर तथा झांगर', 'चन्दुदड़ों', 'अमरी नुन्दरानाल', 'झोब' नामक स्थानों पर उत्खनन के पश्चात् प्राप्त हुई है।
यूँ तो प्रसिद्ध पुरातत्त्वविद 'श्री कनिंघम' ने सन् 1878 ई. में हड़प्पा टीले की खोज की थी, लेकिन वैज्ञानिक आधार पर टीले की खुदाई सन् 1921 ई. में 'श्री दयाराम साहनी' के निरीक्षण में कराई गयी थी और सन् 1922 ई. में स्वर्गीय 'आर.डी. बैनर्जी' की अध्यक्षता में उत्खनन कार्य आरम्भ हुआ और लरकाना जिले में मोहनजोदड़ो (मुर्दों का टीला) तथा लाहौर और मुलतान के बीच हड़प्पा (हरियूपिया) की खुदाई में एक विकसित सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए।
इसी प्रकार सन् 1954 ई. में 'एस.आर. राओ' की अध्यक्षता में कराये गये पुरातत्त्व विभागीय उत्खनन कार्य में इस प्रकार की सभ्यता के अवशेष कठियावाड़ क्षेत्र के 'लोथल' नामक स्थान एवं 'चन्हुदंड़ो' में भी प्राप्त हुए हैं। राजस्थान में 'पीलीबंगा' तथा 'कालीबंगा' की खुदाई में भी इसी प्रकार की प्राचीन सभ्यता के प्रमाणस्वरूप अनेक पात्र मिले हैं।
क्योंकि इस सभ्यता का विकसित रूप सिन्धु नदी के किनारे अनेक स्थलों की खुदाई में प्राप्त हुआ है, इसी कारण इस सभ्यता को 'सिन्धु घाटी सभ्यता' के नाम से पुकारा गया है।
1. कुयेटा सभ्यता (3,500 ई.पू. से 1,800 ई.पू.)
2. अमरी नुन्दरानाल सभ्यता (3,000 ई.पू. से 1,800 ई.पू.)
3. झोब सभ्यता (4,000 ई.पू. से 2,500 ई.पू.)
4. कुल्ली मेंही सभ्यता (2,800 ई.पू. से 2,000 ई.पू.)
5. हड़प्पा, मोहनजोदड़ो तथा लोथल सभ्यता (2,700 ई.पू. से 1,800 ई.पू.)
6. झुंकर तथा झांगर सभ्यता (1,500 ई.पू.)
उपर्युक्त सभ्यताओं का नामकरण उन स्थानों के नाम पर दिया है, जहाँ इन सभ्यताओं के चिन्ह पाये गये हैं। इन स्थानों पर खुदाई के दौरान रोचक सामग्री प्राप्त हुई है, जिसके आधार पर इस काल की चित्रकला के विषय में अनुमान लगया जा सकता है।
(1) कुयेटा सभ्यता की कला (3,500 ई.पू. से 1,800 ई.पू.)
'सर अयुरेलस्टीन' को कुयेटा क्षेत्र में 'बजीरिस्तान' तथा 'उत्तरी बलूचिस्तान' की खुदाई में कुछ पकाई मिट्टी के 'सिर' प्राप्त हुए थे। सन् 1950-51 ई. के मध्य 'अमरीकी पुरातत्त्व विभाग' के तथा 'पाकिस्तानी पुरातत्त्व विभाग' के एक दल को प्राचीन सभ्यता से संबंधित पर्याप्त कला सामग्री प्राप्त हुई है। कुयेटा क्षेत्र के उन्नीस स्थलों पर खुदाई की गई, जिसके फलस्वरूप इस सभ्यता के अनेक चिह्न प्राप्त हुए हैं। कहा जाता है कि मिट्टी के बर्तनों की सभ्यता के ये सबसे पहले चिह्न हैं। 'किला गुल मोहम्मद' में कुयेटा सिबी के चार सौ गज पश्चिम में सिन्धु सभ्यता से मिलती-जुलती ग्रामीण सभ्यता के सबसे पहले चिन्ह प्राप्त हुए हैं।
'किवेग' की खुदाई में कन्नीनुमा आकार के छोटे-छोटे यंत्र, सेतखली के प्याले व खुरचने के औजार मिले हैं।
'दमास्दात' में 'बिना सिर की मिट्टी की मूर्तियाँ', साथ ही निचले तल में कच्ची ईंटों से बने कमरे के अवशेष मिले हैं। यहीं पर ऊपर के तल में जो मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं, उनके सिरों पर कानों तक बंधे चौड़े टायरा (श्रृंगार पट्टी) जैसे आभूषण व माथे के ऊपर शंकु आकार के निकले हुए अलंकरण बनाये गये हैं।
(2) अमरी नुन्दरानाल सभ्यता की कला (3,000 ई.पू. से 1,800 ई.पू.)
'अमरी', 'पिन्डी', 'लोहरी-गाजीशाह', 'वही' तथा 'शाहहसन' जगहों की खुदाई में अनेक आभूषणों के खण्ड आदि प्राप्त हुए हैं।
(3) झोब सभ्यता की कला (4,000 ई.पू. से 2,500 ई.पू.)
बलूचिस्तान के उत्तर में झोब नदी की घाटी में अनेक पकाई मिट्टी की मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं, जिनमें प्रमुख रूप से 'कूबड़दार सांडों' की मूर्तियाँ हैं, जो संख्या में कम हैं और कुल्ली में प्राप्त सांडों की मूर्तियों के समान हैं। कुल्ली से प्राप्त सांडों की मूर्तियों में मांसलता ज्यादा दिखाई देती है।
'पीरियानों घुन्डाई' के एक मूर्तिखण्ड में 'घोड़े का अग्रभाग' प्राप्त हुआ है। यहीं पर एक 'सिररहित सांड' की मूर्ति भी मिली है, जिसके पैर बहुत छोटे हैं और शारीरिक बनावट स्वस्थ है। यह अग्रभाग से पूंछ तक आठ इंच लम्बी है।
झोब घाटी से प्राप्त अन्य 'मृण्मूर्तियाँ' (पकाई गई मिट्टी की मूर्तियाँ) भग्नावस्था में हैं और उनका गठन भद्दा है। हाथरहित इन मूर्तियों को कमर के नीचे तक ही बनाया गया है। इनका निचला भाग सपाट रूप से कटा हुआ है। सिर काले रंगे गये हैं तथा सिर पर सादा ढंग का टायरा (श्रृंगार पट्टी) बनाया गया है। 'पीरियानों घुन्डाई कायुदानी' तथा 'युगल घुन्डाई' उपर्युक्त प्रकार के उदाहरण मिलते हैं, जिनके माथे चिकने हैं, नाक उल्लू की चोंच जैसी है, आँख की पुतलियों के स्थान पर गहरे छेद हैं। छाती की बनावट गोल है और स्तनों का अग्रभाग यथार्थ ढंग से निर्मित है। सिर पर पहना हुआ कपड़ा अत्यधिक भारी दिखाई देता है।
(4) कुल्ली मेंही सभ्यता की कला (2,800 ई.पू. से 2,000 ई.पू. तक)
झोब के समकालीन मकरान के तट क्षेत्र में सभ्यता के चिन्ह प्राप्त हुए हैं। इसी प्रकार कुल्ली क्षेत्र में 'शाही टील', 'मेंही बांध' आदि स्थानों में बड़ी संख्या में मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। अनेक मूर्तियों का एक ही स्थान एवं परिसर में प्राप्त होना इस बात का संकेत देता है कि ये चढ़ावे के लिए किसी पवित्र स्थान या मंदिर में लाई गई होंगी। ये मूर्तियाँ 2 से 4 इंच तक लम्बी हैं, जिनके पैर लम्बे तथा शरीर का कूबड़ मुख्य है। शरीर का गठन तो स्वस्थ-सा लगता है।
कुल्ली में 'कूबड़दार सांडों' की आकृतियाँ आकर्षक नहीं हैं, क्योंकि सांडों के शरीर, नेत्र, सींग का निचला भाग तथा गर्दन को रंगीन धारियों से सजाया गया है। ये सांड प्राचीन काल में पूजा के काम में आते थे। मेंही-बाँध से प्राप्त सांड की प्रतिमा के चारों पैरों में तथा कूबड़ में छेद बने हुए मिलते हैं। इन छेदों में पकाई मिट्टी के बने पहिये किसी तीली के सहारे लगाये जाते थे। कूबड़ में डोरी बाँधकर इस सांड को खींचा जाता था।
(6) झंकर तथा झांगर सभ्यता (1,500 ई.पू.)
झुंकर सभ्यता के अवशेष मोहनजोदड़ो से 80 मील दक्षिण में नवाबशाह जिले के अन्तर्गत सिन्ध में चन्दुदड़ों में प्राप्त हुए हैं। सन् 1932 ई. में श्री एन.जी. मजूमदार ने मिट्टी की अनेक मूर्तियों का परिचय पुरातत्त्ववेत्ताओं को कराया। बाद में इसी जगह दूसरी जाति के लोग आये जो भूरे रंग की मिट्टी के बर्तन बनाते थे। इन्हें झांगर सभ्यता के नाम से पुकारा गया। झांगर में मिट्टी की पकाई हुई अनेक मूर्तियाँ मिली हैं जिससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि सिन्धु नदी के विस्तीर्ण क्षेत्र में रहने वाले लोग एक निजी सभ्यता का विकास कर चुके थे।
मौर्यकालीन भित्ति चित्र
जोगीमारा गुफा (प्रायः 300 ई.पू.)
परिचय : जोगीमारा की गुफा 'मध्यप्रदेश' की 'भूतपूर्व सरगुजा रियासत' (जिसे 10वीं शताब्दी में 'डंडोर' तथा रामायण काल में 'झारखंड' कहा जाता था) के 'अमरनाथ नामक स्थान' पर 'नर्मदा नदी' के उद्गम स्थल 'रामगढ़ की पहाड़ियों' पर स्थित है। यहाँ पर दो गुफाएँ पास-पास हैं। एक गुफा 'सीता बोंगरा' या 'सीता लांगड़ा' नाम की है, जो एक प्रेक्षागार (नाट्यशाला) थी। इसी के निकट दूसरी गुफा 'जोगीमारा' की है। पहले इसे एक देवदासी का निवास स्थान समझा गया था, परन्तु प्राप्त शिलालेख के अनुसार यह 'वरूण देवता का मंदिर' था और जैन धर्म का इसकी कला पर प्रभाव पड़ा था। वरूण देवता की सेवा में 'सुतनुका नामक देवदासी' रहती थी। यह देवदासी रंग शाला के रूपदक्ष देवदीन पर प्रेमासक्त थी। देवदीन की चेष्टाओं में उलझी सरल हृदया 'सुतनुका' की नाट्यशाला के अधिकारियों के विरोध का कोपभाजन होना पड़ा और तपश्चात् वियोग में अपना जीवन बिताना पड़ा। रूपदक्ष देवदीन ने इस प्रेमप्रसंग को सीता बोंगरा की भित्ति पर अभिलेख के रूप में सदैव के लिए अंकित कर दिया।
यूँ तो यह स्थल तीर्थस्थल के रूप में विकसित है, किन्तु यहाँ पहुँचने हेतु बस या रेलगाड़ी का अभाव है, पर अन्य साधनों से यहाँ पहुँचा जा सकता है। एक किंवदन्ती के अनुसार इन पहाड़ियों पर राम ने बनवास के कुछ वर्ष व्यतीत किये थे। इसीलिए यहाँ छोटे-बड़े सैकड़ों मंदिर आज भी देखे जा सकते हैं। इन दोनों गुफाओं में भित्तिचित्रों के प्राचीनतम अवशेष देखे जा सकते हैं।
जोगीमारा की गुफा 10 फीट लम्बी, 6 फीट चौड़ी और 6 फीट ऊँची है, जिसकी छत पर चित्रों के अवशेष देखे जा सकते हैं। चित्रों के संबंध में एक महत्त्वपूर्ण रहस्य यह है कि असली चित्रों के ऊपर सफेद रंग पोत कर पुराने चित्रों को पुनः बनाने का अपरिपक्व एवं अकुशल हाथों से प्रयास किया गया है। ऊपर से लगाये रंग तथा रेखाएँ अलग दिखाई पड़ती हैं। छत भी इतनी नीची है कि इसे आसानी से हाथ से स्पर्श किया जा सकता है और यही कारण है कि बहुत से चित्र नष्ट हो गये हैं।
प्रथम खण्ड : इस चित्र में कुछ पुरुष आकृतियाँ हैं, जिनमें केन्द्र में एक पुरुष वृक्ष के नीचे बैठा है। बायीं ओर नर्तकियाँ और संगीतज्ञ हैं। दूसरी ओर एक हाथी और जुलूस का दृश्य है। लहरदार पानी को व्यंजित करने वाली गहरी तथा आलंकारिक रेखाओं में नदी एवं मछलीनुमा विशाल आकृति है (जो मगरमच्छ भी हो सकता है) जो संभवतः पौराणिक गजग्रह कथा का ही चित्रण हो।
चतुर्थ खण्ड : इस चित्र में छोटे-छोटे बौने व्यक्ति अंकित हैं। एक व्यक्ति के सिर पर चोंच बनाई गई है। बौनों का अंकन भारतीय चित्रों एवं मूर्तियों में अपना पृथक् महत्त्व रखता है। प्राचीन साहित्य के अनुसार इस प्रकार के बौने व्यक्ति राजपरिवारों में हास्य-विलास के लिए नियुक्त किये जाते थे।
पंचम् खण्ड : इस दृश्य में नृत्य में मग्न एक स्त्री है (सम्भवतः नर्तकी है)। उसके चारों ओर गायन-वादन में रत कुछ अन्य मानवाकृतियाँ पालथी मारे बैठी हैं। पालथी मारेएक नंगा व्यक्ति, साथ में कपड़े पहने तीन व्यक्ति खड़े हैं। बगल में तीन व्यक्ति बैठे हैं। इस दल के पास तीन घोड़ों से खींची जाने वाली छत्रधारी गाड़ी, एक हाथी और महावत है, फिर इसी प्रकार पुरुष चित्रित है। एक घर, जिसमें चैत्य, खिड़की और एक हाथी है।
छठा खण्ड : इस चित्र में प्राचीन ढंग के रथों जैसे चैत्यों का अंकन दिखाई पड़ता है।
सातवाँ खण्ड : कुछ लेखकों ने सातवें खण्ड के चित्रों को दो भागों में बाँटा है। इस प्रकार उन्होंने यहाँ आठ चित्रों का वर्णन किया है। इस खण्ड के दृश्य में ग्रीक रथों के समान भवन बनाये गये हैं। 'श्री पर्सी ब्राउन' के अनुसार इन चित्रों के किनारों पर अनेक प्रकार के आलेखन बने हुए हैं, जिनमें 'मछलियाँ', 'मकर' तथा 'अन्य जीव-जन्तुओं' का अंकन है।
'डॉ. ब्लाख' और 'विन्सेंट स्मिथ' ने इन्हीं चित्रों का वर्णन अलग प्रकार से प्रस्तुत किया है।
(अ) केन्द्र में एक वृक्ष के नीचे पुरुषाकृति बैठी है, जिसके साथ नर्तकियाँ तथा गवैये बायीं ओर बैठे बनाये गये हैं। दाहिनी ओर एक जुलूस बनाया गया है, जिसमें एक हाथी है।
(ब) इस पैनल में कई पुरुषाकृतियाँ हैं। एक रथ का पहिया, चक्र और ज्यामितीय अलंकरण अभिप्राय के रूप में बनाये गये हैं।
(स) इस पैनल के आधे भाग में केवल अस्पष्ट पुरुषों, घोड़ों व वस्त्रधारी पुरुषों के चिन्ह हैं। पैनल के दूसरे आधे भाग में एक वृक्ष है, जिस पर एक चिड़िया बैठी है और नग्न लड़का उसकी शाखाओं में है। इस पेड़ के चारों ओर अनेक नग्न आकृतियाँ इकट्ठी हैं, जिनके सिर के बाल बायीं ओर कस के गाँठ में बँधे हुए दर्शाये गये हैं।
इस पैनल के आधे भाग के ऊपर एक नग्न पुरुषाकृति पालथी मारे बैठी बनाई गई है और तीन वस्त्रधारी पुरुष खड़े हैं। इसी प्रकार की दो अन्य बैठी आकृतियाँ तथा एक ओर तीन खड़ी आकृतियाँ बनाई गई हैं। नीचे की ओर एक मकान है, जिसमें नाल आकार की चैत्य जैसी खिड़की का प्रयोग है। इस मकान के सामने हाथी व तीन वस्त्रधारी पुरुष खड़े हैं। दल के पास तीन घोड़ों का रथ है, जिसमें छत्र लगा है और दूसरा हाथी एक महावत सहित खड़ा है। इस पैनल के दूसरे आधे भाग में भी इसी प्रकार की आकृतियाँ हैं।
जोगीमारा चित्रों की विशेषताएँ
1. जोगीमारा गुफाओं की चित्रकारी अजन्ता की गुफा परम्परा की महत्त्वपूर्ण शुरूआत है। यहाँ के चित्र अजन्ता की आरम्भिक गुफाओं के समान सुन्दर हैं। इन चित्रों में बौनों जैसी आकृतियाँ साँची एवं भरहुत से मिलती-जुलती हैं। इसी कारण 'विन्सेंट स्मिथ' ने इसे प्रथम शताब्दी ई.पू. के पहले का माना है।
2. जोगीमारा की गुफाओं में प्रायः सफेद खड़िया, हिरौजी, लाल, काले तथा हरे (Myrobalan) (मायरोबालन नामक फल से तैयार किया) रंगों का ही प्रयोग किया गया है। कहीं-कहीं पीले (खनिज) रंग का प्रयोग भी मिलता है। प्रायः गहरे लाल रंग की रेखाओं द्वारा चित्र एक-दूसरे से पृथक् किए गये हैं। पीले रंग का प्रयोग हाशियों में किया गया है। आँखें सफेद रंग व बाल काले रंग से बनाये गये हैं। चित्रों में रंग भरने के लिए किसी घास की तूलिका का प्रयोग किया गया है।
3. चित्रों का धरातल सपाट नहीं है। कहीं-कहीं खुरदरी दीवार पर बिना कोई पलस्तर चढ़ाये चित्र अंकित कर दिये गये हैं, तो कहीं चूने का बहुत हल्का पलस्तर है।
4. मूल चित्र के दबे होने से इसके असली सौन्दर्य का आनन्द प्राप्त नहीं हो पाया है।
5. संयोजन में सम्मुख नियम (Frontality) का निर्वाह किया है। चित्रित विषय बड़े ही सुन्दर हैं और तत्कालीन समाज के मनोविनोद का दिग्दर्शन कराते हैं।
6. असली चित्रों से झाँकती रेखाएँ, लय तथा गति से आविर्भूत हैं।
7. दूसरे स्तर के वर्तमान चित्र, सफेद रंग की पृष्ठभूमि पर लाल रंग से बनाये गये हैं, जिन पर काले रंग की रेखाओं से रेखांकन है।
0 Comments