भारतीय प्रागैतिहासिक चित्रकला के प्रमुख क्षेत्र
बिहार के प्रमुख क्षेत्र
'घोड़मंगर' मिर्जापुर क्षेत्र में विजयगढ़ दुर्ग के समीप स्थित घोड़मंगर में गेरूए रंग से पूरक शैली में अंकित गैंडे के शिकार का एक महत्त्वपूर्ण दृश्य है। 'भल्डारिया' के शिलाश्रयों तथा गुफाओं में 'काकर्बन' को 1883 ई. में अनेकानेक पशु आखेट के चित्र चित्रित मिले थे।
'विकंम' में भी प्रागैतिहासिक चित्रकारी से युक्त शिलाश्रय मिले हैं।
'मलवा' में चित्रांकित ऐसी गाड़ी मिली है, जिसमें पहिये नहीं हैं और जिसमें एक व्यक्ति बैठा हुआ है तथा उसके दोनों ओर दो अनुचर धनुष-बाण तथा दण्ड लिए खड़े हैं। एक अन्य चित्र में 'तीन दण्डधारी अश्वारोही अपने-अपने घोड़े की रास थामे एक ही दिशा में पैदल चल रहे हैं।'
प्रागैतिहासिक चित्रों का उद्देश्य एवं प्रेरणा
गुहावासी मानव आखेट करने से पूर्व आदिम पशु का चित्र बनाकर कुछ जादू-टोना, टोटका आदि करके अपने आखेट की सफलता पर विश्वास करता था। उसका विश्वास था कि जिस पशु को वह चित्र रूप में अंकित करता है, वह उसके वश में सहजता एवं सरलता से आ जाता है।
दरियों में प्रायः ऐसे चित्र मिले हैं, जिनमें तीरों, बरछों या भालों से बिंधे पशु अंकित किये गये हैं। शायद अनेक आखेटक समूहों को चित्रित कर, आहत पशु के चित्र के सहारे पशु के अनेक अंगों पर आक्रमण तथा प्रहार करने की शिक्षा लेता था। यूँ भी उस समय पशु को मार कर खाना तथा उसके बाद उल्लास में नृत्य-गायन आदि करना आदिम मनुष्य की दिनचर्या थी। गुहावासी मानव अपने जीवन में सफलता पाने, भय को दूर रखने, अदृश्य शक्तियों की पूजा के लिए ज्यामितीय आकारों को सांकेतिक रूप में भी प्रयोग करता था और त्रिभुज, वृत्त, आयताकार, स्वस्तिक, षट्कोण, अंकों तथा रेखाओं आदि अनेक प्रतीक चिन्हों को चित्रित कर, टोना टोटका व जादू कर निजात पाता था।
आदिम चित्रकारों की विषय-वस्तु
आदिम मनुष्य के चित्रों की प्रमुख विषय-वस्तु आखेट ही रही है। उसने बारहसिंगा, महिष, हाथी, घोड़ा, सूअर, गैंडा, भालू, हिरण, बैल, गाय, चीता, भैंसे, जिराफ जैसे पशुओं को शिकार करते हुए चित्रित किया है।
इन पशुओं का उसने पीछा कर उनमें दैत्य जैसी शक्ति का अनुभव किया था। इन पशुओं की गति और शक्ति पर उसने विजय प्राप्त की थी। पशुओं के मांस से उसकी उदर क्षुधा भी मिटती थी और उनकी खाल से वह शरीर ढकता था। यही कारण है कि उसने दौड़ते, उछलते, गिरते, प्रहार करते आखेटकों, सींग मारते हिंसक पशुओं या आक्रमण करते गतिशील पशुओं के चित्रण में अत्यधिक सजीवता दर्शायी है।
दूसरे स्तर में (नव प्रस्तर युग में) ये भयानक जीव-जन्तु मित्र के रूप में चित्रित हैं। उदाहरण के लिए घुड़सवार, पशुओं को चराते, उनका दूध दुहते व कृषि का कार्य करते हुए इत्यादि। स्त्री, पुरुष, बच्चे सभी मानवाकृतियों को तीर-कमान, भाला, लाठी, त्रिशूल, कुल्हाड़ी, गंडास आदि शस्त्रों के साथ दिखाया गया है।
कृषि जीवन के अन्तर्गत पशुपालन, बैलगाड़ियाँ, नौका विहार, मधु संचय आदि रूप चित्रित हैं। आमोद-प्रमोद संबंधी चित्र उनके रसिक जीवन की झाँकी प्रस्तुत करते हैं।
इस प्रकार आदिम मानव ने इन चित्रों में अपने भावों को सरलतम रूपों तथा ज्यामितीय आकारों में संजोया है। जो बाल-सुलभ प्रकृति के सुन्दर उदाहरण कहे जा सकते हैं। चित्र की सीमा रेखाएँ गतिशील हैं, यद्यपि चित्र असंयत और सरल हैं। यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि प्रागैतिहासिक चित्रों में भय, साहस, संवेग तथा धर्म आदि मानवीय भावों की अभिव्यक्ति अवश्य हुई है। चित्र संरचना में भावना, संवेग, अभिव्यक्ति की लालसा, विजय की कहानी, भय, जादू-टोना, धर्म आदि अनेक प्रेरणाएँ रही हैं, किन्तु प्रकृति अथवा प्राकृतिक आपदाओं का अंकन नहीं के बराबर हुआ है। यह आश्चर्य की बात है कि प्रकृति की खोज में लगे आदि मानव ने इन चित्रों में कहीं भी बादल, आकाश, पेड़-पौधों, नदी, पर्वत आदि को नहीं दर्शाया।
कुल मिलाकर इन चित्रों में प्रागैतिहासिक युग के मनुष्य का सम्पूर्ण इतिहास संचित है।
रेखाएँ
प्रागैतिहासिक काल के कलाकार की रेखाओं में जादुई भावनाओं का आनन्द और मन्त्र-मुग्ध कर देने के समस्त गुण थे। रेखाओं में गति व शक्ति का संपुजन ऐसा था मानो शिलाश्रयों में बैठा कोई आधुनिक कलाकार किसी जनजाति के चित्र बना रहा हो।
प्रागैतिहासिक काल के शिला चित्रों की विशेषताएँ तथा मूल प्रवृत्तियाँ
1. चित्र प्रायः खुरदरी चट्टानों की दीवारों, गुफाओं के फर्शों, छतों या भित्तियों पर बनाये गये हैं। अनेक चित्र प्रस्तर शिलाओं पर भी प्राप्त हुए हैं।
2. चित्र प्रायः लाल (गेरू एवं हिरौंजी), काले (कोयला या काजल), सफेद खड़िया रंगों से बने हैं। इन रंगों को तैयार करने एवं इस्तेमाल करने से पूर्व इन्हें पशुओं की चर्बी में मिलाया जाता था।
3. चित्रों में कहीं-कहीं आकृति की सीमा रेखा को नुकीले पत्थर से खोद कर बनाया गया है, जिससे वह स्थाई रहे और वर्षा के पानी में घुल न जाये।
4. आकृतियों के निर्माण में सीधी, वक्र और आयताकार आदि ज्यामितीय रूपाकारों का प्रयोग है, जो प्रायः सांकेतिक जान पड़ते हैं। इसमें स्वास्तिक, त्रिभुज, वृत्त, षट्कोण तथा आयताकार शामिल हैं।
5. ज्यामितीय आकारों का प्रयोग प्रकृति की विभिन्न शक्तियों या जादू के विश्वासों को व्यक्त करने हेतु किया गया है।
6. चित्रों में कहीं-कहीं रेखाओं द्वारा या फिर पूर्ण रूप से या पूरक रूप से क्षेपांकन पद्धति का प्रयोग है।
7. तूलिका, किसी रेशेदार लकड़ी, बाँस या नरकुल आदि को एक सिरे से कूटकर बनायी जाती थी और पशुओं के पुट्ठे की हड्डी की प्याली रंग घोलने के लिए काम में ली जाती थी।
8. इस प्रकार प्रागैतिहासिक शिला चित्रों में पर्याप्त सृजनशीलता, मौलिक उद्भावना, अन्तरंग सौन्दर्य बोध, रूप विन्यासगत वैविध्य, अभिव्यक्ति, रचना कौशल और निजी वैशिष्ट्य उपलब्ध होते हैं। इस प्रकार इन चित्रों की सरलता, सुगमता तथा • सूक्ष्म-रेखांकन पद्धति आज के कलाकार के लिए महान प्रेरणा है।
वैदिक सभ्यता का उदय
प्रागैतिहासिक काल की समाप्ति के बाद धातु युग के साथ वैदिक कला का उदय माना जाता है। दक्षिणी भारत में भी पाषाण काल के पश्चात् लौह युग का ही आरम्भ माना जाता है, परन्तु उत्तरी भारत में ताम्न और सिन्ध में काँस्य युग के पश्चात् ही सम्पूर्ण भारत में लौह युग आया। हालांकि दक्षिण भारत में बहुत सी सामग्री काँसे से बनी प्राप्त है, परन्तु यह या तो बाद की मालूम पड़ती है या फिर दूसरे क्षेत्र से आयातित हुई जान पड़ती है।
'मध्यप्रदेश' के 'गुनजेरिया' नामक ग्राम से ताँबे के बने यंत्रों के 424 उदाहरण प्राप्त हुए हैं। जो लगभग 2,000 वर्ष ई. पूर्व के हैं। इसी प्रकार 'उत्तरी भारत' में 'कानपुर', 'फतेहपुर', 'मथुरा' तथा 'मैनपुरी जिले' में ताँबे से बने प्रागैतिहासिक यंत्र तथा हथियार प्राप्त हुए हैं। 'उत्तरी पूर्व' में 'हुगली' से लेकर 'पश्चिम' में 'सिन्ध' तक विस्तीर्ण क्षेत्र में 'ताँबे के हँसियों', 'तलवारों' तथा 'भालों' की फलकों आदि के उदाहरण मिले हैं।
यह सर्वविदित ही है कि ताम्र और कांस्य युग का उत्तरी भारत में बहुत पहले से उदय हो चुका था और दक्षिणी भारत में भी लौह युग की शुरुआत हो चुकी थी। दक्षिण भारत में पाषाण युग कालान्तर तक चलता रहा और बाद में एक साथ लौह युग आया। 'अथर्ववेद' (25,000 ई.पू.) में भी ऐसे प्रमाण मिलते हैं, जिनसे उत्तरी भारत में लोहे का प्रयोग सिद्ध होता है। दूसरी तरफ ग्रीक इतिहासकार 'हेरोडोट्स' के लेखों से भी पता चलता है कि 'फारस' के सम्राट् 'एकसराएक्स' (Xerxes) की अध्यक्षता में 480 ई.पू. में जो भारतीय सेना ने यूनान के विरुद्ध लड़ाई लड़ी, उसमें लोहे के फलकों से युक्त तीरों का प्रयोग हुआ था। अन्य प्रमाणों में सिकन्दर के भारत पर आक्रमण करने के समय भारतीयों ने युद्ध में इस्पात (स्टील) तथा लोहे के फलक वाले तीर प्रयोग में लिए थे। यह दुर्भाग्य रहा है कि उस समय की कला के उदाहरण बहुत कम प्राप्त हुए हैं। केवल मोहनजोदड़ो और हड़प्पा क्षेत्र की खुदाई से कांस्य युग की कला के उदाहरण प्राप्त हुए हैं, क्योंकि मोहनजोदड़ो और हड़प्पा, सिन्धु नदी की घाटी में स्थित थी, अतः विद्वानों ने 'सिन्धु घाटी सभ्यता' के नाम से पुकारा और यही वैदिक सभ्यता विस्तीर्ण उत्तरी भारत के मैदानों में फैली हुई थी।
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