अजन्ता की गुफा संख्या सोलह
Ajanta cave number sixteen
गुफा संख्या सोलह
सोलहवीं गुफा के चित्र यह गुफा सभी गुफाओं के मध्य में स्थित है। यहाँ से सप्त कुण्ड नामक वह जल भी दिखाई देता है, जो बाघोरा नदी का उद्गम है। प्रवेश द्वार पर दो हाथी उत्कीर्ण हैं, फिर बायीं ओर सीढ़ियाँ चढ़कर सामने दीवार पर नागराज की सिंहासनारूढ़ प्रतिमा है।
इस विहार गुफा में सर्वाधिक चित्र हैं। यहाँ की बायीं दीवार पर प्राप्त लेख के अनुसार इस गुफा का निर्माण 475 ई. से 500 ई. के मध्य वाकाटक 'राजा हरिसेन' के मंत्री 'वराहदेव' ने तपोधन तापसों के निवास हेतु दान स्वरूप करवाया था। वाकाटकों ने नागों तथा गुप्तों से पारिवारिक संबंध स्थापित किये।
प्राचीन ग्वालियर राज्य के नाग राजा भावनाग की पुत्री 'पद्मावती' का विवाह 'वाकाटक प्रवरसेन' से हुआ था। चन्द्रगुप्त द्वितीय की पुत्री 'प्रभावती' ने वाकाटक राजा रूद्रसेन द्वितीय से लगभग 385-395 ई. में विवाह किया था। वाकाटक शासक तथा उनके कुछ मंत्री बौद्ध धर्म के संरक्षक थे। इस काल में भगवान बुद्ध की प्रतिमा का पूर्ण विकास हो चुका था। यहाँ पर एक विशाल प्रलम्बपाद मुद्रा में बुद्ध मूर्ति बनी हुई मिलती है, जिसे 'चैत्यमन्दिरम्' कहा जाता है। इस विहार में अभी भी बुद्ध के जीवन और जातक कथाओं से संबंधित चौदह चित्र अच्छी स्थिति में मिलते हैं, जिनमें बुद्ध के जीवन से संबंधित घटनाओं में 'माया देवी का स्वप्न', 'धर्मोपदेश', 'नन्द की दीक्षा' आदि हैं। जातकों में 'हस्ति जातक', 'महा उम्मग्ग जातक' (दो स्त्रियों तथा बारक की कथा) है। 'नन्दकुमार का वैराग्य' एवं विभिन्न आलेखन चित्रित हैं।
इस गुफा में बीस स्तम्भ हैं एवं छत का तक्षण कार्य साँची की परम्परा का निर्वाह करता प्रतीत होता है। इस गुफा में उच्चकोटि के कलात्मक दृश्य देखे जा सकते हैं।
बुद्ध उपदेश : इस गुफा में सबसे भव्य चित्र 'बुद्ध उपदेश' का है। चित्र में बुद्ध को तुषित स्वर्ग में अपने अन्तिम जन्म हेतु अवतरित होते चित्रांकित किया गया है। 'ग्रिफिथ्स महोदय' ने इस चित्र को प्रदर्शित किया है। इसमें बहुत सी आकृतियाँ तथा बुद्ध की मुख-मुद्रा नष्ट हो चुकी हैं, परन्तु उनके भक्तों की आकृतियों को कम क्षति पहुँची है। समस्त आकृतियों में एकाग्रचित्तता, भक्ति तथा नम्रता आदि के भाव भव्य रूप में अंकित हुए हैं।
इस गुफा की दाहिनी भित्ति पर 'सुजाता की कहानी' चित्रित है, जिसमें गायों का सुन्दर चित्रण है और भवन में गुप्तकालीन प्रस्तर शिल्प जैसी ज्यामितीय तरह की जाली काटी गई है।
मरणासन्न राजकुमारी : इस गुफा में सबसे उत्कृष्ट चित्र 'मरणासन्न राजकुमारी' (मरती राजकुमारी) नाम से विख्यात है, जिसमें करुणा की पराकाष्ठा है। चित्र में एक कुलीन महिला ऊँचे आसन पर सिर लटकाये, अधखुले नेत्रों और शिथिल अंगों सहित अधलेटी है। उसके पीछे एक दासी उसे सहारा देकर ऊपर उठाये है। दूसरी दासी अपना एक हाथ छातीपर रखकर और दूसरे हाथ से उत्सुकता से उसकी नाड़ी का परीक्षण करती हुई उसे देख रही, है। उसकी मुख-मुद्रा गम्भीर एवं चेहरे पर मृत्यु के आतंक का एक विषाद भय छाया हुआ प्रदर्शित है। एक अन्य दासी पंखा झल रही है। नीचे भूमि पर अन्य स्वजन बैठे हैं, जिन्होंने राजकुमारी के जीवन की आशा त्याग दी है और रुदन आरम्भ कर दिया है। इसी दल में एक स्त्री अपना मुख छिपाये रो रही है। सफेद टोपी लगाये एक वृद्धजन दरवाजे पर खड़ा है, दूसरा एक खम्भे के पीछे बैठा है।
यह राजकुमारी और कोई नहीं, बल्कि बुद्ध के भाई नन्द की पत्नी 'सुन्दरी' है, जिसकी ऐसी दशा नन्द के द्वारा भिक्षु बन जाने पर अपना मुकुट एक सेवक के द्वारा सुन्दरी के पास सूचना के अभिप्राय से भेजने पर हुई। सफेद टोपी लगाये एक वृद्धजन हाथ में मुकुट लिए द्वार के निकट खड़ा है। सामने की ओर दो स्त्रियाँ हैं, जिनमें से एक पारसी टोपी पहने है और हाथ में एक ढका हुआ कलश लिए है, जो सम्भवतः कोई औषधि है। दूसरी स्त्री के बाल नीग्रो जैसे हैं, वह कुछ माँगने या बताने की मुद्रा में है। दूसरी ओर दो परिचारिकाएँ एक अलग प्रकोष्ठ में बैठी हैं।
इस चित्र के विषय में 'ग्रिफिथ्स महोदय' का मत है कि फ्लोरेन्स का चित्रकार इससे अच्छा रेखांकन कर सकता था और वेनिस का कलाकार अच्छे रंग भर सकता था, किन्तु दोनों में से कोई इससे अधिक सुन्दर भाव का प्रदर्शन नहीं कर सकता था। (The Florentine artists could have put better drawing and Venetian better colour but neither could have thrown greater expression into it. Sir. J. Griffiths.) ग्रिफिथ्स महोदय ने इस दृश्य को देखकर यह लिखा है कि "भावना, करुणा तथा कथा चातुर्य की दृष्टि से इससे बढ़कर कला इतिहास में कोई प्रमाण नहीं है।"
नन्द कुमार का वैराग्य या भिक्षु होना : यहाँ एक दीवार पर अश्वघोष रचित सौन्दरानन्द काव्य के आधार पर बुद्ध के भाई 'नन्द जी कथा' चित्रित है, जो करुण भाव का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। एक बार बुद्ध कपिलवस्तु आये और राहुल एवं यशोधरा से भेंट करने के पश्चात् वे भिक्षा हेतु अपने मौसेरे भाई नन्द के घर गये। बुद्ध नन्द को विहार ले जाते हैं तथा उसकी इच्छा के विपरीत मुण्डन करवा कर उसे भिक्षु बनाकर संघ में प्रविष्ट कर लेते हैं। चित्र के एक भाग में नाई को नन्द के सिर के बाल काटते हुए दिखाया गया है। पुलकित नन्द, पत्नी के मोह में ही लीन रहता है और जब भिक्षु उसकी खिल्ली उड़ाते हैं, तो उसे वैराग्य हो जाता है। एक मण्डप में नन्द को बैठा हुआ चित्रित किया गया है।बुद्ध उसे आकाश मार्ग में अनेक सुन्दर लोक दिखाने ले जाते हैं। इसी प्रसंग से संबंधित दृश्य को एक विस्तृत भित्ति-खण्ड पर कई टुकड़ों में तैयार किया गया है।
अजातशत्रु व बुद्ध की भेंट : इसी गुफा में 'अजातशत्रु व बुद्ध की भेंट' का भव्य दृश्य अंकित है। अजातशत्रु अपने पिता का वध करने पर बड़ा पीड़ित व अशान्त था। लज्जावश उसके हृदय में किसी महापुरुष का उपदेश सुनने की इच्छा हुई। राजवैद्य ने उन्हें आम्र वन में ठहरे भगवान बुद्ध के दर्शनों के लिए प्रेरित किया। चित्र में राजा अजातशत्रु को जुलूस के साथ दिखाया है। जुलूस में सुसज्जित हाथी, सिपाही, बाँसुरी व तुरही-वादक दिखाये गये हैं।
सोलहवीं गुफा की दायीं दीवार पर प्रसिद्ध चार दृश्यों का अंकन हुआ है (शव, वृद्ध पुरुष, संन्यासी तथा वृर्षमताडन)। इन्हीं दृश्यों को देखकर भगवान बुद्ध को वैराग्य हुआ था। यहाँ 'बुद्ध की पाठशाला' का दृश्य है, जिसमें बालकों की क्रीड़ा का सुन्दर अंकन हुआ है। पास 'धनुर्विद्याअभ्यास' के दृश्य हैं। ऊपर 'बुद्ध के सम्मोहन' का दृश्य है। बीच में 'बुद्ध के गृह त्याग का दृश्य' है, जो खराब अवस्था में है।
'माया देवी के स्वप्न' के दृश्य के ऊपर 'बुद्ध जन्म' के कई अन्य दृश्य चित्रित हैं। इनमें 'बुद्ध जन्म लेते ही सात पग चलने वाली कथा' को सात कमल के फूलों के प्रतीक में अंकित किया गया है। यह प्रतीकात्मकता पुरानी परम्परा का अनुसरण प्रतीत होता है। भगवान बुद्ध को बालक के रूप में इस कथा में चित्रित किया गया है।
'सुजाता की खीर', 'राजगृह की गलियों में भिक्षापात्र लिए बुद्ध', 'आषाढ़ में गौतम की प्रथम तपस्या' आदि अन्य चित्र भी यहाँ बने हैं।
माया देवी का स्वप्न : इस चित्र में माया देवी की आकृति में पैर ही शेष बचे हैं। 'ग्रिफिथ्स महोदय' द्वारा लिखा, चित्रों का वर्णन इस प्रकार है- एक ओर महाराज शुद्धोधन तथा माया देवी स्वप्न की चर्चा करते हुए सोच-विचार में लीन दर्शाये हैं। माया देवी के चारों ओर दासियाँ अत्यन्त सुन्दर मुद्राओं में बैठी हुई हैं, परन्तु उनकी आँखों में चित्रण की निर्बलता दृष्टिगोचर होती है।
हस्ति जातक : यह चित्र यहाँ मनोहारी रूप में दर्शाया गया है। कथानुसार अपने किसी पूर्व जन्म में बोधिसत्व ने शक्तिशाली हाथी के रूप में जन्म लिया और वे उस बियावान जंगल में अकेले रहा करते थे। एक दिन जंगल में दर्द भरी आवाज सुनकर हस्ति रूपी बोधिसत्व आवाज की दिशा में चले गये, जहाँ उन्होंने भूखे-प्यासे आदमियों को देखा और उन्हें उन पर दया आ गई। यात्रियों की भूख मिटाने के लिए वे स्वयं झील के पास वाली पहाड़ी से कूद गये और मृत्यु का वरण किया। इस प्रकार यात्रियों ने इनके मांस और झील के पानी से अपनी भूख एवं प्यास शांत की। लेकिन जब उन्होंने मृत हाथी के विषय में जाना, तो वे उसके त्याग से अभिभूत हो गये। चित्र में भूखे यात्री पहाड़ी पर खड़े सफेद हाथी की तरफ इशारा कर रहे हैं। दृश्य के दूसरे भाग में मृत हाथी को जमीन पर पड़े हुए दर्शाया है। जिस पर दो यात्री तेज चाकू से मांस निकाल रहे हैं। कुछ मनुष्यों को मांस भूनते, कुछ को खाते व कुछ को झील से पानी लाते दर्शाया है।
महा उम्मग्ग जातक : इस चित्र में देवी शक्ति से युक्त 'महोसंघ' नाम के बालक द्वारा गम्भीर विवादों को गम्भीरता एवं बुद्धिमत्तापूर्वक समाधान करते हुए प्रदर्शित किया गया है। बच्चे की असली माता कौन-सी है? इसके समाधान के लिए जब बच्चे के दो टुकड़े करने का प्रस्ताव रखा गया, तो असली माँ बच्चे पर अपने अधिकार छोड़ने के लिए तैयार हो गई।
इसी प्रकार 'रथ के स्वामित्व' का प्रश्न हल किया गया है। अपनी बुद्धि का परिचय उन्होंने पुनः दिया है, जब उन्होंने कातती हुई स्त्री का सूत का गोला एक दूसरी स्त्री द्वारा चुरा लेने पर चोर स्त्री का पता लगाने के लिए यह पूछा कि गोला किस वस्तु पर लपेटा गया था।
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