गुफा संख्या एक
पहली गुफा के चित्र : यह गुहा मन्दिर 500 ई. से 625 ई. के मध्य बना। इनमें कुछ चित्र तो वाकाटक साम्राज्य के अन्तिम वर्षों में और कुछ चित्र चालुक्य राजाओं के समय बने हैं। चालुक्य काल में इस कला का पतन आरम्भ हो गया। बुद्ध आकृति का अंकन राजसी रूप में होने लगा और परम्परागत रूप में अधिकाधिक अलंकृत होती गई। जातक कथाओं के स्थान पर सम्राटों के जीवन संबंधी चित्र बनने लगे। निश्चित ऊँचाई तक चढ़ने के पश्चात् प्रथम गुफा तक पहुँचा जा सकता है। यह गुफा विशाल है, जो चौंसठ फुट एवं चौंसठ खम्भों की सहायता से गहराई तक खुदी है, जिसमें 14 कोठरियाँ हैं। इसी से पता चलता है कि यह एक विहार है। 'डॉ. आर.ए. अग्रवाल' ने अपनी पुस्तक 'कला विलास', (भारतीय चित्रकला का विवेचन) में ये गुहा मन्दिर 475-500 ई. के मध्य बने बताये हैं।
इसके खम्भों पर सुन्दर खुदाई की गई है और गर्भगृह में बीस फीट चौड़े चबूतरे पर 'भगवान बुद्ध की धर्मचक्रप्रवर्तन मुद्रा में विशाल प्रतिमा' बनी हुई है, जिनके आसपास शिष्य, पशु, जिसमें एक मृग मुख से चार मृग धड़ों को विशेषता के साथ संयोजित किया है। इस प्रकार इस गुफा में मूर्तिकला के अतिरिक्त भित्तिचित्रों का भी सुन्दर समावेश है।
यहाँ के विशेष उल्लेखनीय चित्रों में 'शिवि जातक की कथा', 'बज्रपाणि' तथा 'पद्मपाणि बोधिसत्व', 'मारविजय', 'नागराज शंखपाल', 'नागराज की सभा का दृश्य', 'चालुक्य राजा पुलकेशियन द्वितीय के दरबार में ईरानी राजदूत', 'श्रावस्ती का चमत्कार', 'महाजनक का वैराग्य', 'नृत्यवादन', 'बैलों की लड़ाई', 'चींटियों के पहाड़ पर साँप की तपस्या' तथा 'छतों में कमल व हंसों के अलंकरण' व 'प्रेमी युगलों' के अप्रतिम चित्र हैं।
शिवि जातक : मुख्य द्वार में से प्रवेश करके बायीं ओर की दीवार पर 'शिवी जातक' की कथा चित्रित है, जिसमें राजा शिवि के रूप में जन्मे बोधिसत्व एक बाज से कबूतर बचाने के लिए उसके बराबर भार का माँस अपने शरीर में से काटकर बाज को देने के लिए उद्धत हो गये थे। चित्र के बाएँ भाग में कबूतर राजा की जंघा पर बैठा है और दायीं ओर एक तराजू के निकट राजा शिवि खड़े हैं। चित्र का काफी भाग नष्ट हो गया है। गुफा संख्या सत्रह में भी शिवि जातक की एक अन्य घटना चित्रित है, जिसमें राजा ने अपने नेत्र दान कर दिये थे।
नन्द तथा सुन्दरी की कथा : अगला दृश्य सम्भवतः 'नन्द तथा सुन्दरी की कथा' से सम्बन्धित है। एक मण्डप में उदास रानी एक अन्य महिला से बात कर रही है, निकट ही एक दासी श्रृंगार-दान लिए खड़ी है। एक सेवक द्वारपाल से प्राप्त किसी दुःखद समाचारको बता रहा है। द्वारपाल अत्यन्त शोकपूर्ण मुख-मुद्रा रहित रनिवास के द्वार पर खड़ा है। बायीं ओर एक विरह पीड़ा से विह्वल एक सुन्दरी का चित्र है, जो शैय्या पर लेटी है। इस सुन्दरी की विरह-वेदना को उसकी सखियाँ जान गई हैं और उसकी व्यथा दूर करने का प्रयत्न कर रही हैं। चित्र में सजीवता है। आकृतियों की हस्त मुद्राओं तथा बालों के श्रृंगार के आलेखन में कोमलता है, किन्तु आकृतियों की शारीरिक रचना में भारीपन है। कटि भाग अति क्षीण और कहीं-कहीं दोनों भृकुटियों को एक ही रेखा से बनाया गया है।
महाजनक जातक : गुफा की बायीं भित्ति पर 'महाजनक जातक' की कथा अंकित है, जो अनेक टुकड़ों में बनी है। चित्र के प्रथम दृश्य में राजकुमार महाजनक किसी देश पर आक्रमण करने की योजना पर अपनी माँ से विचार-विमर्श कर रहे हैं। राजकुमार एवं उनकी माँ के चारों ओर अनेक परिचारिकाएँ विभिन्न मुद्राओं में अंकित हैं। यहीं पर कुछ हट कर 'नृत्य वादन' का दृश्य अंकित है। बीच में मुकुट युक्त नर्तकी गतिमय मुद्रा में है तथा उसके परिपार्श्व में सुन्दर स्त्री गायिकाएँ वाद्य यंत्र बजाती हुई दर्शाई गई हैं (मृदंग, मंजीरे एवं वेणु)। पास खड़ी अन्य युवतियाँ नृत्य वादन का आनन्द ले रही हैं।
आगे की ओर सेना का प्रयाण दिखाया गया है, जो जुलूस के रूप में द्वार से बाहर निकल रहा है। निकट ही जैतवन का दृश्य है, जहाँ संन्यासी प्रवचन कर रहे हैं। युद्ध के पश्चात् राजकुमार को विरक्ति हो गई थी और उन्होंने वैराग्य ले लिया था। उसी के प्रतीक स्वरूप यह वन दिखाया गया है। इससे आगे पुनः सेना का प्रयाण, सागर पार करने तथा नौकाएँ टूटने आदि के दृश्य अंकित हैं।
अवलोकितेश्वर बोधिसत्त्व : इसी गुफा की बायीं भित्ति के बीचों-बीच अवलोकितेश्वर बोधिसत्व का उत्कृष्ट चित्र अंकित है। इन चित्रों के अंकन में चित्रकार ने असीम दया एवं विश्व करुणा को व्यक्त किया है। कलात्मकता लिए इस चित्र संयोजन में केन्द्रीयता के नियम (Law of centrality) का पालन किया है।
नागराज सभा : इस गुफा में ही बायीं भित्ति पर 'नागराज सभा' का चित्र अंकित है, जिसमें नृत्य, दरबारी चहल-पहल और राजसी ठाठ-बाट को सुन्दरता से दर्शाया है। राजदम्पति के पीछे चैवरधारिणी बड़ी ही मनोरम मुद्रा में अंकित है।
नागराज शंखपाल जातक : नागराज शंखपाल जातक की कथा में बोधिसत्व को नागराज शंखपाल की योनि में जन्म लेकर नागलोक का वैभव भोगकर पुनः विरक्त हो जाने की कथा है। इस चित्र में प्रवचन सुनती हुई रमणी पीठ की ओर से चित्रित है, जो अत्यन्त भावपूर्ण एवं तल्लीन मुद्रा में दर्शायी गई है।
अजन्ता गुफा संख्या 1- 'अवलोकितेश्वर बोधिसत्व'
चम्पेय जातक : इसी की दाहिनी दीवार पर 'चम्पेय जातक' की कथा अंकित है। एक जन्म में बोधिसत्व ने चम्पेय नाग की योनि में जन्म लिया। वे मनुष्यों के संसार में तप करने आये थे, जहाँ वे एक सपेरे द्वारा पकड़ लिए गये। जब वाराणसी के दरबार में सपेरा खेल दिखा रहा था, तो चम्पेय की पत्नी की प्रार्थना पर राजा ने नाग को सपेरे से मुक्त करा दिया। चम्पेय इस बात से इतने कृतज्ञ हो गये कि उन्होंने राजा को अपने लोक में ले जाकर खूब आदर-सत्कार किया और विपुल खजाना देकर विदा किया। चित्र में ऊपर नागराज का दरबार व उसके दायीं ओर वाराणसी का दरबार अंकित है। सपेरा अपना तमाशा दिखा रहा है और नाग पत्नी राजा से प्रार्थना कर रही है। नीचे नाग लोक का दृश्य है, जहाँ नाग राजा चम्पेय तथा वाराणसी के राजा को अनेक सुन्दरियों एवं दरबारियों से भरी सभा में दर्शाया है। एक दासी फल का थाल लिए है, पीछे से एक छोटा लड़का हाथ डाल कर चुपचाप कुछ उठा रहा है।
बोधिसत्व पद्मपाणि : इस गुफा में एक अन्य चित्र 'ईरानी दैत्य' का है। कुछ विद्वानों का मत है कि यह तृतीय चालुक्य सम्राट पुलकेशियन द्वितीय की राजसभा में आये फारस के बादशाह (फारसी सम्राट) खुसरू परवेज के राजदूत का चित्र है। कुछ विद्वान इससे असहमत भी हैं। मालाओं से सुसज्जित है तथा एक हाथ में कमल पुष्प लिए है। पद्मपाणि के इस चित्र पर गुप्तकालीन विष्णु के व्यक्तित्व की छाप है। घुटनों के नीचे का भागचित्रित नहीं है। चित्र में कुछ ही रेखाओं द्वारा कन्धों और बाहुओं का बड़ा ही मनोरम चित्रण हुआ है। केवल एक ही रेखा से दोनों भौहें बना दी गई हैं, इससे रेखाओं में प्रवाह एवं शक्ति झलकती है। पद्मपाणि बुद्ध के चित्र में भगवान बुद्ध की आकृति त्रिभंग मुद्रा में 5'9% x 2'5% के विस्तार में पर्याप्त बड़ी बनाई गई है।
उपर्युक्त चित्र के आधार पर 'श्री विन्सेंट स्मिथ' ने कहा था, 'The Ajanta School is local development of the cosmopolitian art of the contemporary Roman Empire.'
चित्र की पृष्ठभूमि में अनेक मानवीय पशु-पक्षी (सिंह, वानर, कपोत, मयूर) देवी तथा अन्य आकृतियाँ बोधिसत्व के चारों ओर आनन्द भाव से अंकित हैं। बुद्ध की ओर राजकुमारी यशोधरा का चित्र है, तलवार लिए रक्षक हैं, लम्बे कोटवाली दासी 'पारसीन' प्रतीत होती है, जिसे पाश्चात्य लेखकों ने 'काली राजकुमारी' से संबोधित किया है।
'श्री राय कृष्णदास' का मत है कि सिन्दूर रंग से चित्रांकन होने के कारण रंग काले पड़ गये हैं। इस चित्र की प्रशंसा करते हुए उन्होंने लिखा है, उनकी भावमग्न आँखें जैसे किसी ऊँचाई से देखने के कारण नीचे की ओर झुकी हैं, मानो सारे संसार की व्यथा को देख, उसे दूर करने के लिए वे उत्सुक हैं। उनका आकार अन्य आकृतियों से बड़ा है, जिससे उनकी विशिष्टता का ज्ञान होता है। सर्वोपरि है उनका किंचित् भंग, जिसकी अटूट रेखाएँ द्रष्टव्य हैं। एक कलाविद् का कथन है कि * 'सिस्टाइन पूजागृह' में लियोनार्दो द्वारा निर्मित 'अन्तिम भोज' (The Last Supper) में ईसा की आकृति जिस भव्यता और आत्म-त्याग के साथ विश्व कल्याण की भावना प्रकट करती है, ठीक वही प्रभाव अजन्ता के 'बोधिसत्व पद्मपाणि' के चित्र का है।
मार विजय : इस गुफा का अन्य संसार प्रसिद्ध चित्र 'मार विजय' का है। कहा जाता है कि जब भगवान बुद्ध को ज्ञान प्राप्त होने वाला था, तब अनेक प्रकार के संकट अथवा प्रलोभन उनकी परीक्षा के रूप में आये। इन सब को कामदेव (मार) की सेना कहा गया। इन्होंने भगवान बुद्ध को अनेक प्रकार से विचलित करना चाहा, उन्हें डराया, धमकाया व आकर्षित किया, किन्तु गौतम बुद्ध पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। यहीं पर एक ओर तपस्वी के रूप में ध्यान मग्न बैठे हुए बुद्ध को लाल बौना आँखें फाड़कर देखते हुए डराने का प्रयत्न कर रहा है। एक भयानक आकृति तलवार चला रही है। जिस प्रकार कमल का पत्ता जलमें रहने पर भी गीला नहीं होता। ठीक उसी प्रकार भगवान बुद्ध सबके मध्य निर्विकार भाव से सांसारिक दुःखों को दूर करने के लिए भूमि को साक्षी बनाकर वज्रासन मुद्रा (भूमि स्पर्श मुद्रा) में लीन बैठे हैं। पृष्ठभूमि में चित्रकार ने बोधिवृक्ष को चित्रित किया है, जिसके नीचे बैठकर उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ था। यथार्थ में इस चित्र में भगवान बुद्ध की मनोवैज्ञानिक छवि का दृश्य प्रस्तुत किया गया है। तथागत बुद्ध के चेहरे पर अभय व शान्ति के भाव को, डरावनी आकृतियों तथा सुन्दरियों के चंचल आकर्षण को चित्रकारों ने बड़े ही सहज ढंग से अजन्ता की इस भित्ति पर उतारा है। चित्र संयोजन में यहाँ पर केन्द्रीयता के नियम का पालन किया गया है।
गौतम बुद्ध के जीवन चरित्र से ज्ञात होता है कि वे तप करने के कारण पर्याप्त दुर्बल हो गये थे, किन्तु अजन्ता के चित्रकार ने उनका शरीर हृष्ट-पुष्ट ही चित्रित किया है, क्योंकि उन्होंने बुद्ध के आध्यात्मिक शरीर को ही चित्रित किया है, उनके भौतिक शरीर को महत्त्व नहीं दिया, जबकि गान्धार के कलाकारों ने तपस्वी बुद्ध के दुर्बल शरीर और पसलियों को अंकित किया था।
श्रावस्ती का चमत्कार : अन्तः कक्ष की दाहिनी भित्ति पर 'श्रावस्ती का चमत्कार' अंकित है। स्वयं को आचार्यों की पंक्ति में सिद्ध करने के लिए बुद्ध ने श्रावस्ती के राजा प्रसेनजित्त की उपस्थिति में कुछ चमत्कार किये थे, जिसमें से एक चमत्कार में उन्होंने अपने को अनगणित बुद्ध रूपों में प्रकट किया था, जो सब कमल पर आसीन थे।
गुफा के एक दीवालगीर (ब्रेकिट) के ऊपरी भाग पर 'सांडों की लड़ाई' का सुन्दरता से अंकन किया है। चित्र में अत्यधिक गति, सुडौलता एवं बल है।
'विन्सेंट स्मिथ' के अनुसार इस गुफा की छत के आलेखन सातवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में बनाये गये थे।
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